Sunday, May 10, 2020

न्याय-अन्याय की अब कोई सीमा नहीं


आज के समय में हमारे जीवन में ही नहीं। सम्पूर्ण विश्व में उथल-पुथल मची हुई है। पुरे विश्व को एक डोर में बांध कर बर्बादी और नई शुरूआत में बांधने वाला एक छोटा सा वायरस अपनी ताकत दिखा रहा है। पूरा विश्व वायरस से परेशान हैं। ऐसे समय में भी हमारे देश में स्वार्थ और राजनीति का मोह इतना अधिक है, हमारे जीवन में की हम आम जनता को कीड़े-मकोड़े समझ बैठे है। कानून और व्यवस्था के नाम पर उनके साथ हो रहें ग़लत व्यवहार को अपनी मजबूरी का नाम दें रहें हैं।


अक्सर सुना है, विनाश काले विपरीत बुद्धि। क्या हम भी अपने विनाश की ओर बढ़ रहे हैं।  अपने कर्मों को न्याय और अन्याय में ना तोल कर, भविष्य के लाभ के तराजू से तोल रहें है। क्यों आज हमारी बुद्धि इस तरह अंधकार में सो गई है, कि हम सही और ग़लत को समझ नहीं पा रहे हैं।  हमारे जीवन में बदलाव सदैव होता है। किन्तु ऐसे में हम अपनी इंसानियत को खो कर चंद सिक्को की खनक में अंधे  और मोन होने का कार्य कर इंसान होने का हक़ ही खो रहें है।


मजबूर और दुखी की मदद करना हम सभी का कर्तव्य है। फिर कैसे आज हम उन मजदूरों को दुखी और मजबूर बना मरने के लिए छोड़ सकते हैं। सरकार बाहर बसे हमारे नागरिकों को लाने के इंतजार कर सकतीं है। चिकित्सा सेवा प्रदान करने वालों के सम्मान के लिए भी करोड़ों का खर्चा कर सकतीं है। किंतु जब इस देश में रहने वाले गरीब मजदूरों के हक़ की बात आती है। तब उनके हाथ मौत और परिजनों के हाथ मुआवजा। ऐसा लगता है जैसे पहले पाप करो, फिर पैसे दे कर उस पाप से मुक्ति।


शुक्रवार को चोदा मजदूर जिन्होंने अपने घर जाने की ख्वाहिश में क़दम बढ़ाए। नींद की गोद से मौत की गोद में पहुंच गए। सुन कर जानती हूं, आप को दुख हुआ होगा। लेकिन आप कुछ नहीं कर सकते हैं। आप के हाथ बंधे हैं, हिन्दू-मुस्लिम की डोर से। वह केवल मजदूर थें धर्म से कब उन्होंने हाथ बांधा था। जो आप के किसी काम आ सकें। वह प्रवासी मजदूर थें काम की तलाश में अपने घर परिवार को छोड़ यहां चले आएं थे।


काश यह सारे मजदूर अल्पसंख्यक होते। तो आज हमारे यहां इन्हें इनका हक़ दिलाने के लिए सरकार भी कार्य करतीं और हमारे देश के वह समझदार सभ्य नागरिक भी। जो सरकार के कानून का विरोध इस लिए करतीं हैं, क्योंकि एक विशेष धर्म के लोगों को भारत में आने देने से मना कर दिया। क्यों नहीं आज हम इंसाफ़ और बराबरी की बात करते हैं।


मजदूरों की मौत पर उनके परिवार वालों को राज्य सरकार द्वारा पांच-पांच लाख का मुआवजा देने की बात कही गई है। यदि सरकार के पास मुआवजे के लिए अस्सी लाख रुपए थे। तो क्यों नहीं उन रूपयों का प्रयोग कर जीवित मजदूरों को उनके घर पहुंचाया गया।


हमारे देश में अमीर, ताकतवर और कामयाब लोगों के पीछे चलना, हम सभी को पसंद है। कमजोर, गरीब व्यक्ति की परवाह जरुरत मात्र की है। ऐसा ही हम अपने यहां मजदूरों के साथ कर रहे हैं। कई राज्य सरकारें हमारे यहां मजदूरों को प्राप्त अधिकारों में कटौती करने जा रही है। जिससे व्यापार बढ़ेगा, राज्यों की अर्थव्यवस्था में सुधार होगा। लेकिन वर्कर्स और मजदूरों के हिस्से में ओर अधिक दुख और मजबूरी हाथ लगेगी।


हमारे द्वारा किए जाने वाले कार्यों को देख ऐसा लगता है। जैसे हम अपने विनाश को न्योता दे रहे हैं। बस अब इंतजार है, बेकसूर लोगों के आंसूओं का हिसाब हम अपने जीवन से देंगे या विनाश‌ की चीखों से।
            राखी सरोज


 



 

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