Tuesday, May 12, 2020

रास न आई मजदूरों की वफाई

एक तरफ जहां कोरोना अर्थात कोविड -19  रूपी वैश्विक महामारी का दंश इन मजबूर मजलूम मजदूरों को एक-एक करके डस रहा है वहीं दूसरी ओर उद्योग मालिकों का अपने मजदूरों संग रवैया इस कोरोना से भी घातक होता जा रहा है। इन कारणों से भूखा-प्यासा मजबूर मजदूर अपने-अपने गाँव की तरफ कहीं पैदल तो कहीं गाड़ियों से पलायन कर रहा है जिससे कुछ मजदूर रास्ते में ही लूट-पाट के शिकार हो रहे हैं तो कुछ भूख-प्यास से रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं। इन मजदूरों के साथ यह अन्याय कहाँ तक सही है? वह रोजगार जिसके सहारे मजदूर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था पूरी तरह से खो चुका है उनकी इस दयनीय हालत पर सरकार की तरफ से भी अभी तक कोई पहल नहीं दिख रही है जबकि हमारे भारत देश की करीब 27.11 फीसदी जनता अपने रोजगार गंवा चुकी है ऐसे में 1.70 लाख करोड़ की राहत धनराशि भी नाकाफी नजर आ रही है।
उद्योग और मजदूर का चोली दामन साथ होता है इससे नकारा नहीं जा सकता है बिना मजदूर कोई उद्योग पनप पाना असंभव है। उद्योग का दूसरा नाम मजदूर कहा जाना बिल्कुल गलत नहीं होगा क्योंकि मजदूर अपने खून-पसीने को जला कर तिलमिलाती धूप, हाड़ कपा देने वाली ठंड और बिजली की गर्जना संग बरसात को भी दरकिनार कर अपने काम को अंजाम देता है जिससे उस उद्योग को नई ऊँचाइयाँ प्राप्त होती है। ऐसे में इस बुरे दौर में उद्योग मालिकों द्वारा साथ छोड़ देना बेहद चिंता का विषय है।
उद्योग मालिकों के लालच ने किया इन मजदूरों को दर-दर भटकने पर मजबूर, गौरतलब है कि किसी भी उद्योग की रीढ़ माने जाने वाला यह मजदूर क्या इतना बेसहारा है? जो खुद किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का प्रथम व इकलौता कर्णधार है। अच्छे दिनों जिन मजदूरों ने उद्योग मालिकों के हर छोटे-बड़े उद्योग को सर्वस्व न्यौछावर कर सजाया सँवारा और बढ़ाया आज बुरे दौर में उन्हीं उद्योग मालिकों ने उन्हें ठुकरा दिया यह कहाँ का न्याय है। क्या इस बुरे वक्त में बिना काम किए इन मजबूर मजदूरों का भरण-पोषण उद्योग मालिकों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
एक मजदूर के जीवन-यापन का मूल आधार उसकी मजदूरी ही होती है अब उसको भी छीन लिया इस क्रूर कोरोना महामारी ने तो बताइए भूख से तिलमिला रहा मजदूर किससे अपने पेट की तपन का गुहार करे! उद्योग मालिकों की यह अनदेखी कहीं उन्हीं पर ही भारी न पड़ जाए क्योंकि बिना मजदूर के किसी भी उद्योग को चला पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है।
इस पर उद्योग मालिकों के इस अन्यायपूर्ण व्यवहार व कृत्य पर लेखक का यह पंक्ति सटीक बैठती है "वफा न रास आई अरे वो हरजाई" हालांकि यह पंक्ति दो प्रेमियों की प्रस्तुति है मगर उद्योग और मजदूर का प्रेम प्रसंग इससे अछूता नहीं यह सर्वविदित है कि अगर मजदूर मरेगा तो उद्योग का मरना तय है। अतः हर उद्योग मालिकों से आग्रह है कि इस बुरे दौर में मजदूर की मजबूरियों को भी सोचें उसे दो वक्त की रोटी चाहिए साहेब कल उसने दिया आज आपकी बारी है दान की चीजों को दान करने में आखिर कैसी तकलीफ! इस पहलू पर चिंतन जरूर करें! मजदूर बिना उद्योग का क्या होगा?


रचनाकार :- मिथलेश सिंह"मिलिंद"


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