Wednesday, April 30, 2025

भाग्य की दौलत

एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे। तो उन्हें एक व्यक्ति ने रोक लिया।

वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था। उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा..

महात्मा जी, आप परमात्मा को जानते है, उनसे बातें करते है। अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है, कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो में चैन से जी सकूँ। 

महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे ? 

किन्तु वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा। महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ गए।

     इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चूका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन - दौलत मिल गई। जब धन -दौलत मिल गई तो उसने सोचा,-मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया।  

अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है। क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्योंकी इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं। ऐसा सोचकर उसने लगभग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।

     समय गुजरता गया। लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी। महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्योंकी उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी। और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं।  यह सोचते -सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे। 

लेकिन यह क्या ! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था ! जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए। भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई ? 

वह व्यक्ति नम्रता से बोला, महात्माजी, मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी। उसके बाद दौलत कहाँ से आई - मैं नहीं जनता। इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।

   महात्मा जी वहाँ से चले गये। और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए। उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ ? महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी।

किसी की चोर ले जाये , किसी की आग जलाये 

धन उसी का सफल हो जो ईश्वर अर्थ लगाये। 

सीख - जो व्यक्ति जितना कमाता है उस में का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा कार्य में लगता है तो उस का फल अवश्य मिलता है। इसलिए कहा गया है सेवा का फल तो मेवा है।

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

शत्रु और शत्रु का संरक्षक दोनों एक जैसे

अटारी बॉर्डर बंद होने और पाकिस्तानियों को प्रतिबंधित करने के बाद जिस प्रकार से पूरे देश से ऐसे वैवाहिक संबंधों की चर्चाएं आ रही हैं जिनमें पति या पत्नी में से कोई एक भारत का और दूसरा पाकिस्तान का है,यह बहुत बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहा है कि अभी तक न जाने कितने पाकिस्तानी भारत में नागरिकता भी प्राप्त कर चुके होंगे । और कानूनन यहां रहते हुए भारत विरोध के सभी कामों में लगे होंगे। कहीं आपके घर के आस पास भी कोई पाकिस्तानी किसी देशद्रोही की संरक्षण में पल तो नहीं रहा है? क्योंकि अगला आतंकवादी यही होगा । कुछ लोगों के लिए इनकी सुरक्षा इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके लिए वे देश के साथ गद्दारी पर भी उतर आए हैं, छत्तीसगढ़ के पूर्व विधायक यूडी मिंज ने तो "युद्ध हुआ तो भारत की हार निश्चित है" कि घोषणा की है, मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह किस पार्टी के नेता हैं। लोक गायिका के नाम पर आतंकवादी हमलों का दोष भारत पर ही मढ़ने वाली निम्न स्तर की कविता गाने वाली तथाकथित कलाकार जो इस युद्ध की स्थिति में शत्रु देश में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं, क्या यह पाकिस्तान का संरक्षण और भारत के साथ द्रोह नहीं है? जब पूरा देश भारतमाता की सुरक्षा को ले कर चिंतित है और शत्रु को सबक सिखाने के लिए कठोरतम दंड देने की तैयारी में है तब इस प्रकार के लोगों की सहायता से भारत के भीतर रहने वाले दुश्मन जो हमारे आपके आस पास ही रह रहे हैं, चुप नहीं बैठेंगे और इसलिए वह स्थिति नहीं आने देना है।अतः अपने आस पास के शत्रु को पहचानना बहुत आवश्यक हो गया हैं,अन्यथा युद्ध के समय हमे केवल सीमा पार से नहीं बल्कि भीतर की तरफ से भी लड़ना होगा। प्रत्येक नागरिक की दृष्टि यदि शत्रु को पहचानने की हो जाएगी तब भारत भूमि में शत्रुओं के लिए रहना संभव नहीं होगा और साथ ही ऐसे लोग बनने बंद हो जायेंगे जो अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए राष्ट्र की सुरक्षा को भी दांव पर लगा देते हैं। किसी भी देश के लिए बाहरी किसी आक्रमण के समय सभी का एक ही धर्म है कि वह अपने देश की सेना और सरकार के साथ मजबूती से विश्वास पूर्वक खड़ा रहे।

आदतें करती हैं आपका निर्माण

विचार दिशा देते हैं, पर सामर्थ्य  आदतों से रहती है। वे ही मनुष्य को किसी निर्धारित दिशा में चलने के लिए न केवल प्रेरणा देती हैं वरन कई बार तो उसे वे अनुरूप करा लेने के. लिए विवश तक कर देती हैं भले ही परिस्थितियाँ अनुकूल न हों। नशेबाजी जैसी आदतें इनका उदाहरण हैं। स्वास्थ्य, पैसा, यश आदि की हानियों को समझते हुए भी नशे के आदी मनुष्य नशा करते और उसके दुष्परिणाम भुगतते हैं। छोड़ने की बात सोचते हुए भी वे वैसा कर नहीं पाते। कारण कि "विचारों" की तुलना में, "आदतों" की सामर्थ्य अत्यधिक होती है। अनुपयोगी होते हुए भी वे कई बार इतनी प्रबल होती है कि पूरा करने के अतिरिक्त और कोई चारा दिखाई नहीं पड़ता। भले या बुरे जीवन क्रम में जितना योगदान आदतों का होता है उतना और किसी का नहीं।आदतें,आसमान से नहीं उतरतीं। विचारों को कार्यान्वित करते रहने का लंबा क्रम चलते रहने पर वह अभ्यास आदत बन जाता है और उसे अपनाए रहने में जितना समय बीतता है, उतना ही वह ढर्रा सुदृढ़ होता  चला जाता है। यह  परिपक्वता कालांतर में इतनी गहरी जड़ें जमा लेती है कि उखाड़ने के असामान्य उपाय ही भले सफल हों।* सामान्यतया तो वह अभ्यस्त ढर्रा ही जीवनक्रम पर सवार रहता है और उसी पटरी पर गाड़ी लुढ़कती रहती है।आदतें बनाई जाती हैं, भले ही उनका अभ्यास योजना बनाकर किया गया हो अथवा रुझान, संपर्क, वातावरण परिस्थिति आदि कारणों से अनायास ही बनता चला गया हो। ये आदतें ही मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व या चरित्र होता है। मनुष्य क्या सोचता है, क्या चाहता है, इसका अधिक मूल्य नहीं। परिणाम तो उन गतिविधियों के ही निकलते हैं जो आदतों के अनुरूप क्रियान्वित होती रहती है। प्रतिफल तो कर्म ही उत्पन्न करते हैं और वे कर्म अन्य कारणों के अतिरिक्त प्रधानतया आदतों से प्रेरित होते हैं।  जीवन जीते और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम सहते हैं।जिस क्रम से आदतें अपनाई जाती हैं, उसी रास्ते उन्हें छोडा या बदला जा सकता है। रुझान, संपर्क, वातावरण, अभ्यास आदि बदला जा सके तो कुछ दिन हैरान करने के बाद आदतें बदल भी जाती हैं। कई बार प्रबल मनोबल के सहारे उन्हें संकल्पपूर्वक एवं झटके से भी उखाड़ा जा सकता है। पर ऐसा होता बहुत ही कम है। बाहर की अवांछनीयताओं से जूझने के तो अनेक उपाय है, पर आंतरिक दुर्बलताओं से एक बार भी गुथ जाना और उन्हें पछाडकर ही पीछे हटना किन्हीं मनस्वी लोगों के लिए ही संभव होता है। दुर्बल मन वाले तो छोड़ने पकड़ने, आगे बढ़ने पीछे हटने के कुचक्र में ही फँसे रहते हैं। अभीष्ट परिवर्तन न होने पर उनका दोष जिस तिस पर मढ़ते रहते हैं। किंतु वास्तविकता इतनी ही है कि आत्म परिष्कार के लिए-सत्प्रवृत्तियों के अभ्यस्त बनने के लिए-सुदृढ़ निश्चय के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। जिन्हें पिछड़ेपन से उबरने और प्रगतिशील जीवन अपनाने की वास्तविक इच्छा हो उन्हें अपनी आदतों का पर्यवेक्षण करना चाहिए और उनमें से जो अनुपयुक्त हो उन्हें छोड़ने बदलने का सुनिश्चित निर्धारण करना चाहिए।स्वभाग्य निर्माता, प्रगतिशील महामानवों में से प्रत्येक को यही उपाय अपनाना पड़ता है।


हिन्दू शब्द की खोज


'हिन्दू' शब्द, करोड़ों वर्ष प्राचीन,

संस्कृत शब्द है!

अगर संस्कृत के इस शब्द का सन्धि विछेदन करें तो पायेंगे ....

हीन+दू = हीन भावना + से दूर

अर्थात जो हीन भावना या दुर्भावना से दूर रहे, मुक्त रहे, वो हिन्दू है !

हमें बार-बार, हमेशा झूठ ही बतलाया जाता है कि हिन्दू शब्द मुगलों ने हमें दिया, जो "सिंधु" से "हिन्दू" हुआ l

हिन्दू शब्द की वेद से ही उत्पत्ति है !

जानिए, कहाँ से आया हिन्दू शब्द, और कैसे हुई इसकी उत्पत्ति ?

भारत में बहुत से लोग हिन्दू हैं, एवं वे हिन्दू धर्म का पालन करते हैं l

अधिकतर लोग "सनातन धर्म" को हिन्दू धर्म मानते हैं।

कुछ लोग यह कहते हैं कि हिन्दू शब्द सिंधु से बना है औऱ यह फारसी शब्द है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है!

हमारे "वेदों" और "पुराणों" में हिन्दू शब्द का उल्लेख मिलता है। आज हम आपको बता रहे हैं कि हमें हिन्दू शब्द कहाँ से मिला है!

"ऋग्वेद" के "ब्रहस्पति अग्यम" में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया हैं :-

“हिमलयं समारभ्य 

यावत इन्दुसरोवरं ।

तं देवनिर्मितं देशं

हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।

अर्थात : हिमालय से इंदु सरोवर तक, देव निर्मित देश को हिंदुस्तान कहते हैं!

केवल "वेद" ही नहीं, बल्कि "शैव" ग्रन्थ में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैं:-

"हीनं च दूष्यतेव् *हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।”

अर्थात :- जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं!

इससे मिलता जुलता लगभग यही श्लोक "कल्पद्रुम" में भी दोहराया गया है :

"हीनं दुष्यति इति हिन्दूः।”

अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं।

"पारिजात हरण" में हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है :-

”हिनस्ति तपसा पापां 

दैहिकां दुष्टं ।

हेतिभिः श्त्रुवर्गं च 

स हिन्दुर्भिधियते।”

अर्थात :- जो अपने तप से शत्रुओं का, दुष्टों का, और पाप का नाश कर देता है, वही हिन्दू है !

"माधव दिग्विजय" में भी हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है :-

“ओंकारमन्त्रमूलाढ्य 

पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।

गौभक्तो भारत:

गरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः ।

अर्थात : वो जो "ओमकार" को ईश्वरीय धुन माने, कर्मों पर विश्वास करे, गौपालक रहे, तथा बुराइयों को दूर रखे, वो हिन्दू है!

केवल इतना ही नहीं, हमार

"ऋगवेद" (८:२:४१) में

 विवहिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है, जिन्होंने ४६,००० गौमाता दान में दी थी! और "ऋग्वेद मंडल" में भी उनका वर्णन मिलता है l

         बुराइयों को दूर करने के लिए सतत प्रयास रत रहनेवाले, सनातन धर्म के पोषक व पालन करने वाले हिन्दू हैं।

      ,,*"हिनस्तु दुरिताम


क्षमा

एक साधक ने अपने दामाद को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार बहुत अच्छा जम गया लेकिन उसने रूपये ससुर जी को नहीं लौटाये।

आखिर दोनों में झगड़ा हो गया। झगड़ा इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। साधक हर समय हर संबंधी के सामने अपने दामाद की निंदा, निरादर व आलोचना करने लगे। उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें दामाद का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा कह सुनायी।

संतश्री ने कहाः- 'बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वरकृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर दामाद के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा कर दो।'

साधक ने कहाः "महाराज ! मैंने ही उनकी मदद की है और क्षमा भी मैं ही माँगू !"

संतश्री ने उत्तर दियाः- "परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।"

साधक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः- "महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?"

"बेटा ! तुमने मन ही मन अपने दामाद को बुरा समझा – यह है तुम्हारी भूल। तुमने उसकी निंदा, आलोचना व तिरस्कार किया – यह है तुम्हारी दूसरी भूल। क्रोध पूर्ण आँखों से उसके दोषों को देखा – यह है तुम्हारी तीसरी भूल। अपने कानों से उसकी निंदा सुनी – यह है तुम्हारी चौथी भूल। तुम्हारे हृदय में दामाद के प्रति क्रोध व घृणा है – यह है तुम्हारी आखिरी भूल। अपनी इन भूलों से तुमने अपने दामाद को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगों। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है।"

साधक की आँखें खुल गयीं। संतश्री को प्रणाम करके वे दामाद के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके दोहते ने खोला। सामने नानाजी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर-जोर से चिल्लाने लगाः "मम्मी ! पापा !! देखो कौन आये ! नानाजी आये हैं, नानाजी आये हैं....।"

माता-पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, 'कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !' बेटी हर्ष से पुलकित हो उठी, 'अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज पिताजी घर पर आये हैं ।' प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सकी। साधक ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर दामाद को कहाः- "बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो ।"

"क्षमा" शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा । दामाद उनके चरणों में गिर गये और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगे। ससुरजी के प्रेमाश्रु दामाद की पीठ पर और दामाद के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु ससुरजी के चरणों में गिरने लगे। पिता-पुत्री से और पुत्री अपने वृद्ध पिता से क्षमा माँगने लगी। क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप !सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। दामाद उठे और रूपये लाकर ससुरजी के सामने रख दिये। ससुरजी कहने लगेः "बेटा ! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ ।

मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है ।"

दामाद ने कहाः- "पिताजी ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।

साधक ने दामाद से रूपये लिये और अपनी इच्छानुसार बेटी व नातियों में बाँट दिये । सब कार में बैठे, घर पहुँचे। पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी व बालकों का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो।

सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। क्षमा माँगने के बाद उस साधक के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशारूपी मानसिक रोग जड़ से ही मिट गये और साधना सजीव हो उठी।

हमें भी अपने दिल में क्षमा रखनी चाहिए अपने सामने छोटा हो या बडा अपनी गलती हो या ना हो क्षमा मांग लेने से सब झगडे समाप्त हो जाते है।

अक्षय तृतीया

युग रा आदि जिन केवली हुया तीर्थंकर जगभाया, दियो जीणे रौ सुज्ञान अरु विज्ञान नाभि अंगज री जयकार ।छोड़ घरबार चाल्यां साधना स्युं करने जीवन रो कल्याण, हाल्या चरणां पाछे अगणित राजकुमार जुड़ग्यो प्रभु स्यु अंतर तार| भगवान ऋषभ प्रभु जब कर्मक्षेत्र से घर्मक्षेत्र में आये, अशन ( भिक्षा खाने की मिलने की) की आशा में जगह- जगह घूम रहे थे पर कौन उन्हें खाने का आहर बहराये । भगवान को कोई कहता है कि सोना ले लो  , चांदी ले लो , कन्या साथ मे झेलों आदि - आदि आपके कष्ट अपार थे। वो बोल रहे थे कि करल्यों भावना भगतां री थे स्वीकार पर कोई भी सही से रोटी री मनुहार व्रत निपजाने की भगवान ऋषभ प्रभु से नहीं कर रहा था । भगवान ऋषभ प्रभु बिना आहार के इस तरह घूम रहे थे तभी कुछ समय बाद उनके पोत्र राजा श्रेयांस को एक सपना आया कि अमृत से मेरु सिंचन होगा । वह उन्होंने अपने सपने के लिए चिन्तन किया कि प्रभुवर यह मेरा स्वप्न कैसे साकार होगा । वह इस तरह चिन्तन करते- करते राजा श्रेयांस गहराई में गये तब उनको जाति स्मृति ज्ञान हो गया । वह उनका मन भावों में तरुणाई ले , प्रभु भक्ति से भावित हो गया और उन्होंने अपने हाथों से गन्ने का रस भगवान ऋषभ प्रभु को अर्पित किया । वह उनको पारणा करवाया उस समय के लिए यह कहा जाता है कि अक्षय तृतीया शुभ आई तप की लेकर तरुणाई प्रभु ऋषभ देव की गुंजी घर - घर जय शहनाई तभी से यह अक्षय तृतीया पर्व की शुरुआत हुई | वह यह पर्व निरंतर चल रहा है । अक्षय तृतीया पर्व हमको भावित करता है । हम आज के दिन अपने आपको अक्षय के समान पावित कर अपने जीवन को उज्जवल बनाये यही हमारे लिए काम्य है ।


Tuesday, April 29, 2025

विरुद्ध पदार्थ

किसके साथ क्या खाने से रोग हो सकते हैं…….

 चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी

चाहिए।

दूध और नमक का संयोग सफ़ेद दाग या

किसी चर्म रोग को जन्म दे सकता है या

बाल असमय सफ़ेद होना या बाल झड़ना।

- दूध या दूध की बनी किसी भी चीज के साथ दही

,नमक, इमली, खरबूजा,बेल, नारियल, मूली, तोरई,तिल

,तेल, कुल्थी, सत्तू, खटाई, नहीं खानी चाहिए।

 दही के साथ खरबूजा, पनीर, दूध और खीर नहीं

खानी चाहिए।

 घी, तेल, खरबूज, अमरूद, ककड़ी,

खीरा, जामुन ,मूंगफली के साथ ठण्डा जल कभी नहीं।

 शहद के साथ मूली , अंगूर, गरम खाद्य या गर्म जल

कभी नहीं।

 खीर के साथ सत्तू, शराब, खटाई, खिचड़ी ,कटहल

कभी नहीं।

घी के साथ बराबर मात्र में शहद तुरंत विषैला प्रभाव करेगा।

 तरबूज के साथ पुदीना या ठंडा पानी कभी नहीं।

 चावल के साथ सिरका कभी नहीं।

 चाय के साथ ककड़ी खीरा भी कभी न खाएं।

 खरबूजे के साथ दूध, दही, लहसून और मूली कभी नहीं।

संयोगज पदार्थ

कुछ चीजों को एक साथ खाना हितकर होता है।

जैसे……….

- खरबूजे के साथ बूरा, खाण्ड, शक्कर।

- इमली के साथ गुड ।

- गाजर और मेथी का साग।

- बथुआ और दही का रायता

- मकई के साथ मट्ठा ,

- अमरुद के साथ सौंफ ,

- तरबूज के साथ गुड ,

- मूली और मूली के पत्ते ,

- अनाज या दाल के साथ दूध या दही ,

- आम के साथ गाय का दूध,

- चावल के साथ दही,

- खजूर के साथ दूध ,

- चावल के साथ नारियल की गिरी ,

- केले के साथ इलायची।

अधिक खाना हितकर नहीं होता। पर भूल या स्वाद के कारण कभी -कभी कुछ चीजें अधिक खाई जाएं तो 

- केले की अधिकता में दो छोटी इलायची ।

- आम पचाने के लिए आधा चम्म्च सोंठ का चूर्ण और

गुड ।

- जामुन ज्यादा खा लिया तो ३-४ चुटकी नमक ।

- सेब ज्यादा हो जाएं तो दालचीनी का चूर्ण एक

ग्राम ।

- खरबूज के लिए मिश्री / चीनी का शर्बत ।

- तरबूज के लिए सिर्फ एक लौंग ।

- अमरूद के लिए सौंफ ।

- नींबू के लिए नमक।

- बेर के लिए सिरका।

- गन्ना ज्यादा चूस लिया हो तो ३-४ बेर खा

लीजिये।

- चावल ज्यादा खा लिये हैं तो आधा चम्म्च

अजवाइन पानी से निगल लीजिये ।

- बैगन के लिए सरसो का तेल एक चम्म्च ।

- मूली ज्यादा खा ली हो तो एक चम्म्च काला

तिल चबा लीजिये या मूली के पत्ते खाएं।

- बेसन ज्यादा खाया हो तो मूली के पत्ते चबाएं ।

- खाना ज्यादा खा लिया है तो थोड़ी दही खाइये।

- मटर ज्यादा खाई हो तो अदरक चबाएं ।

- इमली, उड़द की दाल,  मूंगफली,  शकरकंद,

जिमीकंद अधिक खाया गया हो तो गुड खाईये ।

- मूँग या चने की दाल ज्यादा खाई हों तो एक चम्म्च

सिरका पी लीजिये ।

- मकई ज्यादा खा गये हो तो मट्ठा पीजिये ।

- घी या खीर ज्यादा खा गये हों तो काली मिर्च

चबाएं ।

- खुरमानी ज्यादा हो जाए तो ठंडा पानी पीयें ।

- पूरी कचौड़ी ज्यादा हो जाए तो गर्म पानी

पीजिये ।

नींबू का प्रयोग करने से अनेकों रोगों से बचाव होता है। पानी में मिला कर पीयें या भोजन में लें। अनुकूल न हो तो न लें। अचार बनाकर लेना भी अच्छा हैः पर बर्तन या जार काँच का हो। निम्बू बीज वाला देसी ही लें।। 

जो प्राप्त है-पर्याप्त है

जिसका मन मस्त है


प्रायश्चित

 वह बारह-तेरह वर्ष का बालक ही तो था। कच्ची बुद्धि थी और साथ अच्छा न था ।उसके एक संबंधी सिगरेट पीते थे । उसे भी शौक लगा ।सिगरेट से फायदा तो क्या धुआँ उड़ाना उसे अच्छा लगता था। समस्या आई की सिगरेट खरीदने के लिए पैसे कहां से आवें? बड़ों के सामने ना पी सकता था ना ही पैसे मांग सकता था। तब, क्या हो? नौकरों की जेबें टटोली जाने लगी और पैसा धेला जो भी पल्ले पड़ता उसे उड़ा लिया जाता। बड़े सिगरेट पी कर फेंक देते तो वे टुकड़े इकट्ठे कर लिए जाते। मजा तो सिगरेट पीने में नहीं आता था पर उससे क्या! यह सिलसिला कुछ दिनों तक चला, अचानक एक दिन विचार उठा कि ऐसा काम क्यों करना, जो बड़ों से छिपाना पड़े और जिसके लिए चोरी करनी पड़े? बात उठी ।उठी कि वहीं -की- वहीं दब गई।

फिर उठी और पराधीनता दिन पर दिन खलने लगी। यह भी क्या कि बड़ों की आज्ञा बिना कुछ न कर सकें? ऐसे जीने से लाभ क्या? इससे तो जीवन का अंत कर देना ही अच्छा !

पर मरें कैसे ?किसी ने कहा था कि धतूरे के बीज खा लेने से मृत्यु हो जाती है ।बीज इकट्ठे किए गए, पर खाने की हिम्मत न हुई ।प्राण न निकले तो ?फिर भी साहस करके दो-चार बीज खा ही डाले। परंतु उनसे क्या होता था? मौत से वह डर गया और उसने मरने का विचार छोड़ दिया ।

जान बची ,साथ ही एक लाभ यह हुआ कि सिगरेट जूठन पीने और नौकरों के पैसे चुराने की आदत छूट गई।

उसने आगे कभी चोरी न करने का निश्चय किया ।साथ ही यह भी कि अपनी चोरी को अपने पिता के सामने स्वीकार कर लेगा। यह डर तो ना था कि पिताजी उसे पीटेंगे, परंतु इतना तो था कि वे सुनकर बहुत दुखी होंगे। पिता के आगे मुंह तो खुल नहीं सकता था। सब बालक ने चिट्ठी लिखकर अपना दोष स्वीकार कर लिया। चिट्ठी अपने हाथों ही पिता को दी। उसमें सारा दोष कबूल किया गया था ,साथ ही उसके लिए दंड मांगा गया था ।आगे चोरी न करने का निश्चय भी था।

  पिताजी बीमार थे ।वे बिस्तर पर लेटे थे। चिट्ठी पढ़ने के लिए उठ बैठे। चिट्ठी पढ़ी, आंखों से मोती की बूंदें टपकने लगीं। थोड़ी देर के लिए उन्होंने आंखें बंद कर लीं। चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और बिस्तर पर पुनः लेट गए। मुंह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। बालक अवाक् रह गया। पिता की वेदना को उसने अनुभव किया और उनकी पीड़ा तथा शांतिमय क्षमा से वह रो पड़ा।

    बड़े होने पर उसने लिखा--'जो मनुष्य अधिकारी व्यक्ति के सामने स्वेच्छा पूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदय से कह देता है और फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है।'

कृपया चिंतन करें व अपने जीवन में उतारे तथा बच्चों को भी ऐसी शिक्षा दें।


यज्ञीय भाव- इदं न मम्

भारतीय परंपरा में चौरासी लाख प्रकार के जीवों के होने का कथन करते हुए यह कहा जाता है कि इन सबके बीच मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनों के लिए मेरे और दूसरों के लिए तेरे का व्यवहार करता है। यद्यपि कभी-कभी इसके इस व्यवहार से या तो श्री राम जैसे आदर्श पुत्र को सपत्नीक अपने जीवन भर विडंबना का जीवन जीना पड़ता है अथवा पांडवों और कौरवों के पूरे वंश का विनाश इस धरती को देखना पड़ता है।

 तत्कालीन परंपरा के अनुसार किसी भी राजा के जेष्ठ पुत्र को उसके बाद उसके राज्य का उत्तराधिकार मिलता था। इसीलिए अपनी वृद्धावस्था देखकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को अयोध्या का उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, किंतु उसी समय कैकेई ने सोचा कि राम तो मेरे पुत्र नहीं है ।वह तो कौशल्या के पुत्र हैं ।यदि उनको राज्य मिलता है तो मेरे पुत्र को सेवक की तरह काम करना पड़ेगा। जबकि श्री राम और भरत एक ही पिता की संतान थे। उनके बीच तेरे-मेरे जैसी कोई बात थी ही नहीं। फल यह हुआ कि श्री राम को महारानी सीता के साथ जीवन भर विडंबना का सामना करना पड़ा। इसी तरह से द्वापर में कौरव और पांडव की सेना युद्ध करने के लिए जब आमने-सामने खड़ी हुई तब धृतराष्ट्र ने दिव्य दृष्टि  प्राप्त संजय से पूछा कि संजय !! युद्धक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर मेरे पुत्र तथा पांडव के पुत्र क्या कर रहे हैं ? तब भी धृतराष्ट्र की तेरे-मेरे भाव वाली भावना ही प्रकट हुई। जबकि कौरव और पांडव भिन्न-भिन्न न होकर धृतराष्ट्र के लिए सभी अपने ही पुत्र थे।फल यह हुआ कि इतिहास को इतना बड़ा नरसंहार देखना पड़ा  जिसकी तुलना का युद्ध अभी तक दूसरा हुआ ही नहीं है।

तेरे और मेरे की भावना के मूल में न केवल लोभ रहता है,अपित इससे व्यक्ति का अहंकार भी प्रकट होता है। इसीलिए यज्ञादि की पूर्णता पर आचार्य- "इदं न मम्" अर्थात यह मेरा नहीं कह कर अपना कृतित्व ईश्वर को सौंप देते हैं।

यज्ञ के तीन चरण-१-देवपूजन २-दान ३-संगतिकरण। यज्ञ-  जीवमात्र प्राणी के कल्याण की भावना एवं पुण्य-परमार्थ परायण सत्कर्म।


स्वर्ग की मिट्टी

एक पापी इन्सान मरते वक्त बहुत दुख और पीड़ा भोग रहा था। लोग वहाँ काफी संख्या में इकट्ठे हो गये। 


वहीं पर एक महापुरूष आ गये, पास खड़े लोगों ने महापुरूष से पूछा कि "आप इसका कोई उपाय बतायें जिससे यह पीड़ा से मुक्त होकर प्राण त्याग दे और ज्यादा पीड़ा ना भोगे।"


महापुरूष ने बताया कि "अगर स्वर्ग की मिट्टी लाकर इसको तिलक किया जाये तो ये पीड़ा से मुक्त हो जायेगा।"


ये सुनकर सभी चुप हो गये। अब स्वर्ग कि मिट्टी कहाँ से और कैसे लायें?


महापुरुष की बात सुन कर एक छोटा सा बच्चा दौड़ा दौड़ा गया और थोड़ी देर बाद एक मुठ्ठी मिट्टी लेकर आया और बोला- "ये लो स्वर्ग की मिट्टी इससे तिलक कर दो।"


बच्चे की बात सुनकर एक आदमी ने मिट्टी लेकर उस आदमी को जैसे ही तिलक किया कुछ ही क्षण में वो आदमी पीड़ा से एकदम मुक्त हो गया।


यह चमत्कार देखकर सब हैरान थे, क्योंकि स्वर्ग की मिट्टी कोई कैसे ला सकता है और वो भी एक छोटा सा बच्चा !!. हो ही नहीं सकता।


महापुरूष ने बच्चे से पूछा- "बेटा ये मिट्टी तुम कहाँ से लेकर आये हो? पृथ्वी लोक पर कौन सा स्वर्ग है जहाँ से तुम कुछ ही पल में ये मिट्टी ले आये?”


बच्चा बोला- "बाबा जी एक दिन स्कूल में हमारे गुरुजी ने बताया था कि माता पिता के चरणों में सबसे बड़ा स्वर्ग है, उसके चरणों की धूल से बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग नहीं !! इसलिये मैं ये मिट्टी अपने मातापिता के चरणों के नीचे से लेकर आया हूँ।”


बच्चे मुँह से ये बात सुनकर महापुरूष बोले- “बिल्कुल बेटे माँ बाप के चरणों से बढ़कर इस जहाँ में दूसरा कोई स्वर्ग नहीं और जिस सन्तान के कारण से माँ बाप की आँखो में आँसू आये ऐसी औलाद को नरक इस जहाँ में ही भोगना पड़ता है।"


यदि कोई दुखी है, परेशान है तो आत्मविश्लेषण करें कि उसके कारण माता पिता दुखी तो नहीं।


Sunday, April 27, 2025

हिन्दू एक मरती हुई नस्ल

 शेर दहाड़ते रह गये, भेड़िए जंगल पर कब्जा बनाकर बैठ चुके हैं!


हिन्दू एक मरती हुई नस्ल

Hindu, a dying race


साल 1914 में यूएन मुखर्जी साहब ने एक छोटी सी पुस्तक लिखी, नाम था... 

"हिन्दू - एक मरती हुई नस्ल'"


सोचिए 108 साल पहले उन्हें पता था !


1911 की जनगणना को देखकर ही, 1914 में मुखर्जी ने पाकिस्तान बनने की भविष्यवाणी कर दी थी।


उस समय संघ नहीं था,

सावरकर नहीं थे, 

हिन्दू महासभा नहीं थी।


तब भी मुखर्जी ने वो देख लिया, जो पिछले 100 सालों में एक दर्जन नरसंहार और एक तिहाई भूमि से हिन्दू विलुप्त करा देने के बाद भी, राजनैतिक विचारधारा वाले सेक्युलर हिन्दू नहीं देख पा रहे हैं ।


इस किताब के छपते ही सुप्तावस्था से कुछ हिन्दू जगे। अगले साल 1915 में पं मदन मोहन मालवीय जी के नेतृत्व में हिन्दू महासभा का गठन हुआ। आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन शुरू किया जो एक मुस्लिम द्वारा स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के साथ समाप्त हो गया।


फिर 1925 में हिन्दुओं को संगठित करने के उद्देश्य से संघ बना।


लेकिन ये सारे मिलकर भी वो नहीं रोक पाए जो यूएन मुखर्जी ने 1915 में ही देख लिया था। 


गांधीवादी अहिंसा ने इस्लामिक कट्टरवाद के साथ मिलकर मानव इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को जन्म दिया और काबुल से लेकर ढाका तक हिन्दू शरीयत के राज में समाप्त हो गए ।      


जो बची भूमि हिन्दुओं को मिली वो हिन्दुओं के लिए मॉडर्न संविधान के आधार पर थी

और

मुसलमानों के लिए

शरीयत की छूट

धर्मांतरण की छूट

चार शादी की छूट

अलग पर्सनल लॉ की छूट

हिन्दू तीर्थों पर कब्जे की छूट


सब कुछ स्टैंड बाय में है। 


जहां हिन्दू एक बच्चे पर आ गए हैं। वहां आज भी आबादी बढ़ाना शरीयत है।


जो लोग इसे केवल राजनीति समझते हैं, उन्हें एक बार इस स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाना चाहिए 2015 में 1915 से क्या बदला है? 


आज भी साल के अंत में वो अपना नफा गिनते हैं, हम अपना नुकसान।


हमें आज भी अपने भविष्य के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं है। 


आज भी संयुक्त इस्लामिक जगत हम पर दबाव बनाए हुए हैं कि हम, अपने तीर्थों पर कब्जा सहन करें, लेकिन उपहास और अपमान की स्थिति में उसी भाषा में पलटकर जवाब भी न दें।


मराठों ने बीच में आकर 100-200 साल के लिए स्थिति को रोक दिया, जिससे हमें थोड़ा और समय मिल गया है। लेकिन ये संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है।


अपने बच्चों को देखिए, आप उन्हें कैसा भविष्य देना चाहते हैं ?  मरती हुई हिन्दू नस्ल जैसा कि 1915 में यूएन मुखर्जी लिख गए थे?


इसीलिए अपने समय का, अपनी कमाई का एक हिस्सा, बिना किसी स्वार्थ के, हिन्दू जनजागरण में लगाइये, अगर ये कोई भी दूसरा नहीं कर रहा, तो खुद करिए।


नहीं तो.... आपके बच्चे अरबी मानसिकता के गुलाम, चौथी बीवी या फिदायन हमलावर बनेंगे और इसके लिए सिर्फ आप जिम्मेदार होंगे। 


Hindu dying race नहीं है, हम सनातन हैं।


और ये आखिरी सदी है। जब हम लड़ सकते हैं। इसके बाद हमारे पास भागने के लिए कोई जगह नहीं है।


बेशर्मी और निर्लज्जता की हद देखिए........


एक हिन्दू महिला (नुपुर शर्मा ) के विरुद्ध लगातार आग उगल रहे हैं, जान से मारने के फतवे दे रहे हैं, बलात्कार की धमकी दे रहे हैं। और ये हाल तब है। जब ये मात्र 25% है।


गम्भीरता से सोचिए......


आपके सामने आपकी महिला को, कट्टरपंथी खुलेआम गर्दन काटने, बलात्कार की धमकी दे रहे हैं। पोस्टर चिपका रहे हैं। जहां आप बाहुल्य समाज हैं।


उनका दुस्साहस देखिए, आपके इलाके में जाकर आपकी महिला के विरुद्ध प्रदर्शन में, आपकी दुकानें बंद करवाने पहुंच गए.  नही माने तो पत्थरबाज़ी कर दंगा कर दिया  l 


ये हाल तब है, जब वे 20 दिनों से लगातार फव्वारा चिल्ला रहे हैं।


यहां मसला केवल एक महिला का नही, बल्कि गर्दन काटने को उतारू उस कट्टरपंथ मानसिकता का है, जिसका प्रतिकार बहुत आवश्यक है।


समय रहते इसे बढ़ने से रोकना बहुत आवश्यक है, वरना देश जंगलराज हो जाएगा।


इसे यही रोकिये, हल्के में मत लीजिए।


मानवता वाली भूमि को, रेगिस्तान बनने से रोक लीजिए....

आप घिर चुके हैं.......


ठीक उसी प्रकार जैसे...

शतरंज में राजा को प्यादे,

जंगल मे शेर को भेड़िए,

और चक्रव्यूह में अभिमन्यु.......


शरजील इमाम ने "चिकेन नेक" की बात की थी, क्या आप जानते हैं हर शहर का एक चिकन नेक होता है! हर बाजार का एक चिकेन नेक होता है और सभी चिकन नेक पर उनका कब्जा हो चुका है।


आप अपने शहर के मार्केट में निकल जाइए, अपना लैपटाप बनवाने, मोबाईल बनवाने या कपड़े सिलवाने l आप को अंदाजा नही है कि चुपचाप "बिजनेस जिहाद" कितना हावी हो चुका है ।


गुजरात का जामनगर हो,

लखनऊ का हजरतगंज,

मुम्बई का हाजी अली,

गोरखपुर का हिंदी बाजार या

दिल्ली का करोलबाग,,,

आप "चेक मेट" हो चुके हैं।

अब हर जगह इनका कब्जा हो चुका है ! क्योंकि हमारा युवा, अपना पारम्परिक काम छोड़कर, नौकरी की तलाश में भटक रहा है ।


जितनी जमीन पर आप के मंदिर नही हैं, उतनी जमीनें उनके "कब्रिस्तान" के नाम पर रसूल की हो चुकी हैं।


एक दर्जी की दुकान पर सिलाई करने वाले सभी, उनके हम-मजहब है, चेन से लगाकर बटन तक के सप्लायर नमाजी हैं ! ढाबे उनके, होटल उनके, ट्रांसपोर्ट का बड़ा कारोबार हो या ओला उबर का ड्राइवर, सब जुमा वाले हैं।


आप शहर में चंदन जनेऊ ढूढते रहिए, नहीं पाएंगे, वहीं हर चौराहे पर एक कसाई बैठा जरूर मिल जाएगा


घिर चुके हैं आप !


इसका उपाय इतना आसान नही है, गहराई से काम करना होगा, अपनी दुकानें बनानी होंगी, अपना भाई हर जगह बैठाना होगा।


वरना गजवा_ए_हिंद चुपचाप पसार चुका है। अपना पांव,...

बस घोषणा होनी बाकी है।


शेर दहाड़ते ही रह गया, भेड़िए जंगल पर कब्ज़ा बना कर बैठ चुके हैं।


आँखे बंद करिए और ध्यान दीजिए.... हर जगह आप को "नारा ए तकबीर",, "अल्लाह हू अकबर"!! सुनाई देगा..


और अगर नहीं सुनाई दे रहा है तो मुगालते मे हैं आप।


बस एक जवाब लिख दीजिए और बता दीजिए कि "कब जागेंगे आप" ??? 

कब तक सेकुलर का चोला ओढ़े रहेंगे...????


*हिंदू एक मरती नस्ल *


सुबह एक भगवान का फोटो पोस्ट करके गुड मॉर्निंग की जगह ये पोस्ट सभी हिन्दू मित्रो को अधिक से अधिक सदस्यों को  पहुँचाईए। हो सकता है सोया हुआ, दोगले एवम लालची हिंदुओं का विचार में कुछ बदलाव लाया जा सके।


Friday, April 25, 2025

आसक्ति का परिणाम

        एक संन्यासी था विरक्त भाव से शान्ति से जंगल में रहते हुए ईश्वर प्राप्ति हेतु तप करता रहता था। एक दिन वहाँ से इक राहगीर व्यापारी गुजरा और उसने विश्राम हेतु एक रात वहीं उन संन्यासी की कुटिया में बितायी।

      वह संन्यासी के स्वभाव व सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और जाने से पहले उस व्यापारी ने संन्यासी को एक सुंदर कम्बल दान में दिया। संन्यासी को वह कम्बल बहुत आकर्षक लगा।

       वह उसे बार-बार छू कर निहारता रहता। ऐसा सुन्दर व कोमल कम्बल उसने कभी नहीं देखा था, वह अब हर क्षण उस कम्बल को नज़रों के सामने रखता। अतः संन्यासी का दिनों दिन उस कम्बल से लगाव गहरा होता गया।

अब उसको हर समय कम्बल की चिंता सताती कि वह ख़राब या गन्दा न हो जाये, या फिर कहीं कोई और उसे चुरा न ले आदि।

     समय के साथ साथ ऐसा परिवर्तन हुआ कि जो श्रद्धा – प्रेम व लगाव उसके मन में परमात्मा के लिये था उसका स्थान अब उस कम्बल ने लिया था।

      अंततः कम्बल के प्रति आसक्ति के परिणामस्वरूप जब उसकी मृत्यु का क्षण आया तब भी उस समय उसके मन में अंतिम ख़्याल केवल कम्बल का ही आया।

     जिसके कारणवंश वह संन्यासी जो परमात्मा से अत्यंत प्रेम करता था परन्तु कम्बल के प्रति गहन आसक्ति की वजह से उसके जीवन व हृदय में परमात्मा का स्थान दूसरे नम्बर पर हो गया था और वह कम्बल अब उसकी पहली प्राथमिकता हो गया था, अत: प्राण त्यागते समय भी केवल कम्बल का विचार ही उसके मन में उत्पन्न हुआ।

      जैसाकि श्रीकृष्ण ने गीता के 8:5 श्लोक में कहा है कि जो कोई भी, मृत्यु के समय, अपने शरीर को छोड़ते समय केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मुझे व मेरा स्वभाव प्राप्त कर लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

      परन्तु उस संन्यासी को परमात्मा से अधिक लगाव सांसारिक वस्तु — एक कम्बल से हो गया था अंततः उसी का ही ख़्याल उसे मरते समय आया।

      परिणामस्वरूप अब वह संन्यासी अगले जन्म मे पतंगा (कपड़े का कीड़ा – moth) बन कर पैदा हुआ। और लगभग अगले एक सौ जन्मों तक जब तक वह कम्बल कीड़ों द्वार खा कर पूर्णतः नष्ट नहीं हो गया तब तक वह संन्यासी बार-बार वही पंतगे का कीट बन कर पैदा होता रहा।


      अब इस कहानी के आधार पर अगर हम इस तथ्य का अवलोकन करें कि जीवन में हमें जो भी मिलता है क्या वह ईश्वर की कृपा है या हमारे कर्मों का फल! तो हम पाते हैं कि ईश्वर की कृपा तो सब के लिए बराबर मात्रा में बहती है परन्तु इस अस्थायी तथा नश्वर संसार के असंख्य सांसारिक आकर्षण व लगाव वह छतरियाँ हैं 

      जिन्हें हम अपने सर पर छतरी की तरह खुला रखते हैं और परमात्मा की उस कृपा को स्वयं तक पहुँचने से स्वयं ही रोक देते हैं।

       ईश्वर ने अपनी लीला द्वारा हर वस्तु का निर्माण किया है, व उनसे आनन्द पाने के लिये हमें इन्द्रियां भी प्रदान की है। व उसके साथ-साथ परमात्मा ने हमारे क्रमिक विकास व उसे (पूर्ण परमात्मा) जो जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है को प्राप्त करने के लिये – हमारे हृदय में सदा अतृप्त रहने वाली एक तड़प व बेचैनी का भाव भी भर दिया है।

        जिसके कारण हम इस संसार में जब भी परमात्मा के अलावा कुछ भी और प्राप्त करते हैं तो निश्चितता कुछ समय के पश्चात हमारे मन में उस वस्तु के प्रति असंतुष्टी का भाव या फिर उसे खोने का भय शीघ्र ही उत्पन्न हो कर हमें बेचैन करने लगता है..!!


जग में धन्य कौन है भाई

इस मायिक संसार में धन्य कौन है? श्रीराम जी को स्मरण कर अल्प बुद्धि से अवलोकन करने की कोशिश...

1. जिन्हें भगवान भोले नाथ प्रिय हैं वे मनुष्य धन्य हैं-याग्यवल्क्य जी- अहो धन्य तव धन्य मुनीसा। तुम्हहिं प्रान सम प्रिय गौरीसा।।याग्यवल्क्य जी कहते हैं कि हे भारद्वाज जी आप धन्य हैं,क्योंकि आपको पार्वती पति शंकर जी प्राणों के समान प्रिय हैं।

2. जो सप्रेम श्रीराम चरित  श्रवण करना चाहते हैं वे धन्य हैं-धन्य धन्य गिरिराज कुमारी।तुम समान नहिं कोउ उपकारी।।शंकर जी के दृष्टि में माता पार्वती जी अज्ञानी नहीं परोपकारी लगती हैं। क्योंकि राजा भगीरथ के प्रयास से गंगा जी पृथ्वी पर आईं और माता पार्वती जी के अनुरोध पर राम चरित मानस- पूँछेहू रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनी गंगा।।

3. जिनके गृह,आश्रम पर संत का आगमन हो,वह संत अतिथि को आदर करने वाले का गृहादि धन्य है- विश्वामित्र जी के आगमन पर दशरथ जी- चरन पखारि कीन्हि अति पूजा।मो सम आजु धन्य नहीं दूजा।।

4. जिनके कार्य से माता पिता आनंदित होते हैं वे संतान धन्य हैं-धन्य जनम जगतीतल तासू।पितहिं प्रमोदु चरित सुनि जासु।। भक्त दशरथ कौशल्या को आनंदित करने हेतु बाल रूप राम जी कई लीला किए...।

5 जो प्रभु दर्शन करा दे वह धन्य हैं-अयोध्या वासी भरत प्रति कहते हैं-धन्य भरतु जीवनु जग माहीं।...देवता- भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरसहिं फूल।...भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ...।

6.जिन्हें प्रभु श्रीराम जी अपना लें वह धन्य..भरत जी द्वारा निषाद गुह को गले लगाने पर- धन्य धन्य धुनि मंगल मूला।सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।

7.श्रीराम प्रेमी भरत जी के दर्शन करने वाले धन्य हैं- हम सब सानुज भरतहिं देखे।भइन्ह धन्य जुबति जग लेखे।।ग्राम्य नारी अपने को धन्य समझ रही हैं।

8.जो मायिक संसार से आशा त्याग कर श्रीराम रंग में रंग गए वह धन्य हैं- ते धन्य तुलसीदास आस बिहाई जे हरि रंग रँए...।

9. सीताराम जी के नाम का कानों से सतत् पान करने वाला धन्य हैं- धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ..।

10.प्रभु कार्य,परोपकार में प्राण न्योछावर करने वाले धन्य हैं- धन्य जटायु सम कोउ नाहीं।

11. जिस वंश में श्रीराम भक्त संतान हों,वह कूल धन्य है- धन्य धन्य तैं धन्य विभीषण।भयहु तात!निसिचर कूल भूषण।।बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर।भजेहु राम सोभा सुख सागर।।....


दो शब्द

बहुत समय पहले की बात है, एक प्रसिद्द गुरु अपने मठ में शिक्षा दिया करते थे। पर यहाँ शिक्षा देना का तरीका कुछ अलग था, गुरु का मानना था कि सच्चा ज्ञान मौन रह कर ही आ सकता है; और इसलिए मठ में मौन रहने का नियम था। लेकिन इस नियम का भी एक अपवाद था, दस साल पूरा होने पर कोई शिष्य गुरु से दो शब्द बोल सकता था।

पहला दस साल बिताने के बाद एक शिष्य गुरु के पास पहुंचा, गुरु जानते थे की आज उसके दस साल पूरे हो गए हैं ; उन्होंने शिष्य को दो उँगलियाँ दिखाकर अपने दो शब्द बोलने का इशारा किया। शिष्य बोला, ”खाना गन्दा“ गुरु ने ‘हाँ’ में सर हिला दिया। इसी तरह दस साल और बीत गए और एक बार फिर वो शिष्य गुरु के समक्ष अपने दो शब्द कहने पहुंचा। ”बिस्तर कठोर”, शिष्य बोला।

गुरु ने एक बार फिर ‘हाँ’ में सर हिला दिया। करते-करते दस और साल बीत गए और इस बार वो शिष्य गुरु से मठ छोड़ कर जाने की आज्ञा लेने के लिए उपस्थित हुआ और बोला, “नहीं होगा” . “जानता था”, गुरु बोले, और उसे जाने की आज्ञा दे दी और मन ही मन सोचा जो थोड़ा सा मौका मिलने पर भी शिकायत करता है वो ज्ञान कहाँ से प्राप्त कर सकता है।


हमेशा अच्छा करें

 एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोज़ाना भोजन पकाती। एक रोटी वह वहाँ से गुजरने वाले किसी भी भूखे के लिए पकाती थी। वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी,जिसे कोई भी ले जा सकता था।

 एक कुबड़ा व्यक्ति रोज़ उस रोटी को ले जाता और बजाय धन्यवाद देने के अपने रस्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बड़बड़ाता- जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।

 दिन गुजरते गए और ये सिलसिला चलता रहा। वो कुबड़ा रोज रोटी ले के जाता रहा और इन्ही शब्दों को बड़बड़ाता - "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएग।

 वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी की- कितना अजीब व्यक्ति है,एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहता है,मतलब क्या है इसका !!

 एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली- मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में ज़हर मिला दिया जो वो रोज़ उसके लिए बनाती थी और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने कि कोशिश की,कि अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह बोली- हे भगवन !! मैं ये क्या करने जा रही थी ? और उसने तुरंत उस रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दिया। एक ताज़ा रोटी बनायीं और खिड़की के सहारे रख दी।

 हर रोज़ कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी ले के: जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा। बड़बड़ाता हुआ चला गया। इस बात से बिलकुल बेख़बर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है।

 हर रोज़ जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर वापिसी के लिए प्रार्थना करती थी, जो कि अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ था। महीनों से उसकी कोई ख़बर नहीं थी।

 ठीक उसी शाम को उसके दरवाज़े पर एक दस्तक होती है। वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है। अपने बेटे को अपने सामने खड़ा देखती है। वह पतला और दुबला हो गया था उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था,भूख से वह कमज़ोर हो गया था। जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा उसने कहा- माँ !! यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ आज !! जब मैं घर से एक मील दूर था,मैं इतना भूखा था कि मैं गिर गया। मैं मर गया होता.. लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लिया। भूख के मरे मेरे प्राण निकल रहे थे।मैंने उससे खाने को कुछ माँगा। उसने नि:संकोच अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि- मैं हर रोज़ यही खाता हूँ,लेकिन आज मुझसे ज़्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है। सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो।

 जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी,माँ का चेहरा पीला पड़ गया और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाज़े का सहारा लिया। उसके मस्तिष्क में वह बात घुमने लगी कि कैसे उसने सुबह रोटी में जहर मिलाया था, अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौत..? और इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चूका था- जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा,और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।

निष्कर्ष - हमेशा अच्छा करो !! और अच्छा करने से अपने आप को कभी मत रोको,फिर चाहे उसके लिए उस समय आपकी सराहना या प्रशंसा हो या ना हो।कर्म बीज कभी विनष्ट नहीं होते यह अकाट्य सत्य है।जैसा बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे बस फलित होने में समय लगता है।

कर भला होगा भला।

नेकी का बदला नेक है।।

Thursday, April 24, 2025

दान दिए धन न घटे

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

सद्गुरु कबीर जी ने बड़े ही सरल व स्पष्ट शब्दों में कहा है:

चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नीर।

दान दिए धन न घटे, कह गए दास कबीर।

अभिप्राय: यह है कि जब भगवान ने आपको दिया है तो आप भी दान करें। दानी कभी घाटे में नहीं रहता। दान तो कई गुणा बढ़ता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने स्वरचित पुस्तक पुष्पांजलि में एक सत्य कथा का बड़ा सुंदर वर्णन किया है कि एक बार एक सज्जन नगर के बाजार से ज्वार खरीद कर ला रहे थे। मार्ग के मध्य में उनकी भेंट एक भिखारी से हुई। भिखारी ने हाथ फैला कर कहा, ‘‘बाबू जी! कुछ देते जाओ।’’ उस भद्र पुरुष ने उस ज्वार में से एक दाना उठाया और भिखारी के हाथ पर रख दिया।

भिखारी ने शुभकामना व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘अच्छा बाबू जी, भगवान आपको खूब दें। अनगिनत होकर मिले।’’

घर पहुंचते ही उन सज्जन ने ज्वार धर्मपत्नी के हाथों सौंप दी। जब वह उसे पकाने के लिए साफ करने लगी तो ज्वार के दानों में एक सोने का दाना देखकर आश्चर्यचकित रह गई। पत्नी ने तुरंत अपने पति से कहा, ‘‘आप जिस दुकानदार से ज्वार खरीद कर लाए हैं वह तो घाटे में रहा। उसके साथ धोखा हुआ है। उसका एक सोने का दाना गलती से इस ज्वार में आ गया है। कृपया उसे लौटा आइए।’’

पति को मध्य मार्ग में मिले भिखारी की तुरंत याद आ गई। पति ने माथे पर हाथ मार कर कहा, ‘‘धोखा एवं घाटा उस दुकानदार को नहीं हुआ, धोखा तो मेरे साथ हुआ है।’’

पत्नी ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’

पति ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मैंने आते समय एक भिखारी के मांगने पर एक ज्वार का दाना दान में दिया था। उसे ही भगवान ने सोने में परिवर्तित कर दिया है। यदि मुठ्ठी भर दे देता तो आज हमारी दरिद्रता दूर हो जाती।’’

अत: जब दान देने का सुअवसर मिले तो दिल खोलकर उदारतापूर्वक दें। दान देकर सुख की जो अनुभूति होती है उसका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता। उस दिव्य आनंद की अनुभूति उसे ही होती है जो प्रेम एवं उदारतापूर्वक दान करता है।

कर भला तो हो भला

जब रावण ने जटायु के दोनों पंख काट डाले तब काल उसको लेने आया !!

और जैसे ही काल आया गिद्धराज जटायु ने मौत को ललकार कहा "खबरदार ! ऐ मृत्यु ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना...

मैं मृत्यु को स्वीकार तो करूँगा...

लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकती जब तक मैं सीता जी की सुधि प्रभु "श्रीराम" को नहीं सुना देता...!

मौत उन्हें छू नहीं पा रही है काँप रही है खड़ी हो कर...मौत तब तक खड़ी रही, काँपती रही जब तक जटायु ने प्राण नही त्यागे

यही इच्छा मृत्यु का वरदान जटायु को मिला।

किन्तु महाभारत के भीष्म पितामह छह महीने तक बाणों की शय्या पर लेट करके मौत का इंतजार करते रहे...

आँखों में आँसू हैं रो रहे हैं भगवान मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!

कितना अलौकिक है यह दृश्य...

रामायण मे जटायु भगवान की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं...! प्रभु "श्रीराम" रो रहे हैं और जटायु हँस रहे हैं..!!

वहाँ महाभारत में भीष्म पितामह रो रहे हैं और भगवान "श्रीकृष्ण" हँस रहे हैं.

भिन्नता प्रतीत हो रही है कि नहीं.?

अंत समय में जटायु को प्रभु "श्रीराम" की गोद की शय्या मिला.!

लेकिन भीष्म पितामह को मरते समय बाण की शय्या मिली.!

जटायु अपने कर्म के बल पर अंत समय में भगवान श्री राम की गोद रूपी शय्या में प्राण त्याग रहे है

और बाणों पर लेटे लेटे भीष्म पितामह रो रहे हैं.!

ऐसा अंतर क्यों.?

ऐसा अंतर इसलिए है कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने द्रौपदी की इज्जत को लुटते हुए देखा था पर विरोध नहीं कर पाये थे.!

दुःशासन को ललकार देते.

दुर्योधन को ललकार देते.

लेकिन द्रौपदी रोती रही.

बिलखती रही चीखती रही चिल्लाती रही.

लेकिन भीष्म पितामह सिर झुकाये बैठे रहे.

नारी की रक्षा नहीं कर पाये!

उसका परिणाम यह निकला कि इच्छा मृत्यु का वरदान पाने पर भी बाणों की शय्या मिली !

और जटायु ने नारी का सम्मान किया अपने प्राणों की आहुति दे दी तो मरते समय भगवान "श्रीराम" की गोद की शय्या मिली.!

जो दूसरों के साथ गलत होते देखकर भी आंखें मूंद लेते हैं उनकी गति भीष्म जैसी होती है

और जो अपना परिणाम जानते हुए भी औरों के लिए संघर्ष करते है, उसका माहात्म्य जटायु जैसा कीर्तिवान होता है!!

"इसलिए कहते कि कर भला तो हो भला"


गो-महिमा

       एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा- नाथ! आपने बताया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति भगवान् के मुख से हुई है; फिर गौओं की उससे तुलना कैसे हो सकती है ? विधाता! इस विषय को लेकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।          

   ब्रह्माजी ने कहा- है नारद! पहले भगवान् के मुख से महान् तेजोमय पुंज प्रकट हुआ। उस तेज से सर्व प्रथम वेद की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् क्रमशः अग्नि, गौ और ब्राह्मण-ये पृथक्-पृथक् उत्पन्न हुए। मैंने सम्पूर्ण लोकों और भुवनों की रक्षा के लिये पूर्वकाल में एक वेद से चारों वेदों का विस्तार किया। 

अग्नि और ब्राह्मण देवताओं के लिये हविष्य ग्रहण करते हैं और हविष्य (घी) गौओं से उत्पन्न होता है; इसलिये ये चारों ही इस जगत् के जन्मदाता हैं। यदि ये चारों महत्तर पदार्थ विश्व में नहीं होते तो यह सारा चराचर जगत् नष्ट हो जाता। ये ही सदा जगत् को धारण किये रहते हैं, जिससे स्वभावत: इसकी स्थिति बनी रहती है। 

  ब्राह्मण, देवता तथा असुरों को भी गौ की पूजा करनी चाहिये; क्योंकि गौ सब कार्यों में उदार तथा वास्तव में समस्त गुणों की खान है। वह साक्षात् सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है। सब प्राणियों पर उसकी दया बनी रहती है। प्राचीन काल में सबके पोषण के लिये मैंने गौ की सृष्टि की थी। गौओं की प्रत्येक वस्तु पावन है। और समस्त संसार को पवित्र कर देती है। गौ का मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी-इन पंचगव्यों का पान कर लेने पर शरीर के भीतर पाप नहीं ठहरता। इसलिये धार्मिक पुरुष प्रतिदिन गौ के दूध, दही और घी खाया करते हैं। 

     गव्य पदार्थ सम्पूर्ण द्रव्यों में श्रेष्ठ, शुभ और प्रिय हैं। जिसको गायका दूध, दही और घी खाने का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मल के समान है। अन्न आदि पाँच रात्रि तक, दूध सात रात्रि तक, दही दस रात्रि तक और घी एक मास तक शरीर में अपना प्रभाव रखती है। जो लगातार एक मास तक बिना गव्य का भोजन करता है, उस मनुष्य के भोजन में प्रेतों को भाग मिलता है, इसलिये प्रत्येक युग में सब कार्यों के लिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है। गौ सदा और सब समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है।

      जो गौ की एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर अक्षय स्वर्ग का सुख भोगता है। जैसे देवताओं के आचार्य बृहस्पतिजी वन्दनीय हैं, जिस प्रकार भगवान् लक्ष्मीपति सबके पूज्य हैं, उसी प्रकार गौ भी वन्दनीय और पूजनीय है।

      जो मनुष्य प्रात:काल उठकर गौ और उसके घी का स्पर्श करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। गौएँ दूध और घी प्रदान करने वाली हैं। वे घृत की उत्पत्ति-स्थान और घी की उत्पत्ति में कारण हैं। वे घी की नदियाँ हैं, उनमें घी की भँवरें उठती हैं ऐसी गौएँ सदा मेरे घर पर मौजूद रहें और गौ का घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मन में स्थित हो। 'गौएँ सदा मेरे आगे रहें। वे ही मेरे पीछे रहें। मेरे सब अंगों को गौओं का स्पर्श प्राप्त हो। मैं गौओं के बीच में निवास करूँ।' इस मन्त्र को प्रतिदिन संध्या और सबेरे के समय शुद्ध भाव से आचमन करके जपना चाहिये। ऐसा करने से उसके सब पापों का क्षय हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक में पूजित होता है। जैसे गौ आदरणीय है, वैसे ब्राह्मण; जैसे ब्राह्मण हैं वैसे भगवान् विष्णु। जैसे भगवान् श्रीविष्णु हैं, वैसी ही श्रीगंगाजी भी हैं। ये सभी धर्म के साक्षात् स्वरूप माने गये हैं। 

     गौएँ मनुष्यों की बन्धु हैं और मनुष्य गौओं के बन्धु हैं। जिस घर में गौ नहीं है, वह बन्धु रहित गृह है। छहों अंगों, पदों और क्रमों सहित सम्पूर्ण वेद गौओं के मुख में निवास करते हैं। उनके सींगों में भगवान् श्रीशंकर और श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं । गौओं के उदर में कार्तिकेय, मस्तक में ब्रह्मा, ललाट में महादेवजी, सींगों के अग्रभाग में इन्द्र, दोनों कानों में अश्विवनीकुमार, नेत्रों में चन्द्रमा और सूर्य, दाँतों में गरुड़, जिह्वा में सरस्वती देवी, अपान (गुदा)-में सम्पूर्ण तीर्थ, मूत्रस्थान में गंगाजी, रोमकूपों में ऋषि, मुख और पृष्ठभाग में यमराज, दक्षिण पार्श्व में वरुण और कुबेर, वाम पाश्र्व में तेजस्वी और महाबली यक्ष, मुख के भीतर गन्धर्व, नासिका के अग्रभाग में सर्प, खुरों के पिछले भाग में अप्सराएँ, गोबर में लक्ष्म, गोमूत्र में पार्वती, चरणों के अग्रभाग में आकाशचारी देवता, रँभाने की आवाज में प्रजापति और थनों में भरे हुए चारों समुद्र निवास करते हैं। 

     जो प्रतिदिन स्नान करके गौसेवा.. गौमाताओं को भोजन कराता है एवं उनका स्पर्श करता है, वह मनुष्य सब प्रकार के स्थूल पापों से भी मुक्त हो जाता है। जो गौओं के खुर से उड़ी हुई धूल को सिर पर धारण करता है, वह मानों तीर्थ के जल में स्नान कर लेता है और सब पापों से छुटकारा पा जाता। 

इसलिये प्रत्येक मनुष्य को गौपालन गौसेवा अवश्य करनी चाहिए और जो मनुष्य अपने घर पर गौपालन नही कर सकता उसे गौमाताओं के निमित्त गौशाला में अवश्य अपना सहयोग देना चाहिए।

स्त्री-सर्वदुखहर्ता

एक पति-पत्नी में तकरार हो गयी, पति कह रहा था : "मैं नवाब हूँ इस शहर का लोग इसलिए मेरी इज्जत करते है और तुम्हारी इज्जत मेरी वजह से है।"


पत्नी कह रही थी : "आपकी इज्जत मेरी वजह से है। मैं चाहूँ तो आपकी इज्जत एक मिनट में बिगाड़ भी सकती हूँ और बना भी सकती हूँ।" 


नवाब को तैश आ गया और बोला-"ठीक है दिखाओ

मेरी इज्जत खराब करके..!!!"


बात आई गई हो गयी। नवाब के घर शाम को महफ़िल जमी थी दोस्तों की... हंसी मजाक हो रहा था कि अचानक नवाब को

अपने बेटे के रोने की आवाज आई, वो जोर जोर से रो

रहा था और नवाब की पत्नी

बुरी तरह उसे डांट रही थी। नवाब ने जोर से आवाज देकर पूछा कि क्या हुआ बेगम क्यों डाँट रही हो..??


बेगम ने अंदर से कहा., "देखिये न---आपका बेटा खिचड़ी मांग रहा है और जबकि उसका पेट

भी भर चुका है..!!"


नवाब ने कहा.., "दे दो थोड़ी सी

और..!!"


बेगम बोली., "घर में और भी तो लोग है सारी इसी को कैसे दे दूँ..??"


पूरी महफ़िल शांत हो गयी । लोग कानाफूसी करने लगे कि कैसा नवाब है ? जरा सी खिचड़ी के लिए इसके घर में झगड़ा होता है। नवाब की पगड़ी उछल गई। सभी लोग चुपचाप उठ कर चले गए।


नवाब उठ कर अपनी बेगम के पास आया और बोला.,"मैं मान गया, तुमने आज मेरी इज्जत तो उतार दी, लोग भी कैसी-

कैसी बातें कर रहे थे। अब तुम यही इज्जत वापस लाकर दिखाओ..!!"


बेगम बोली.., "इसमे कौन सी

बड़ी बात है आज जो लोग महफ़िल में थे उन्हें आप फिर किसी बहाने से उन्हें निमंत्रण

दीजिये..!!"


नवाब ने फिर से सबको बुलाया बैठक और मौज मस्ती के बहाने., सभी मित्रगण बैठे थे, हंसी मजाक चल रहा था कि फिर वही नवाब के बेटे

की रोने की आवाज आई


नवाब ने आवाज देकर पूछा.,

"बेगम क्या हुआ क्यों रो रहा है हमारा बेटा ?"

बेगम ने कहा., "फिर वही खिचड़ी खाने की जिद्द कर रहा है..!!"


लोग फिर एक दूसरे का मुंह देखने लगे कि यार एक मामूली खिचड़ी के लिए इस नवाब के घर पर रोज झगड़ा होता है।


नवाब मुस्कुराते हुए बोला., "अच्छा बेगम तुम एक काम करो तुम खिचड़ी यहाँ लेकर आओ .. हम खुद अपने हाथों से अपने बेटे को देंगे., वो मान जाएगा और सभी मेहमानो को भी खिचड़ी खिलाओ..!!"


बेगम ने जवाब दिया.., "जी नवाब साहब...!!" बेगम बैठक खाने में आ गई पीछे नौकर खाने का सामान सर पर रख आ रहा था, हंडिया नीचे रखी और मेहमानो को भी देना शुरू किया

अपने बेटे के साथ। 


सारे नवाब के दोस्त हैरान -जो परोसा जा रहा था वो चावल की खिचड़ी तो कत्तई नहीं थी। उसमे खजूर-पिस्ता-काजू बादाम-किशमिश गिरी इत्यादि से मिला कर बनाया हुआ

सुस्वादिष्ट व्यंजन था।


अब लोग मन ही मन सोच

रहे थे कि ये खिचड़ी है? नवाब के घर इसे खिचड़ी बोलते हैं तो -मावा-मिठाई किसे बोलतेहोंगे ?


नवाब की इज्जत को चार-चाँद लग गए । लोग नवाब की रईसी की बातें करने लगे।


नवाब ने बेगम के सामने हव---और जिस व्यक्ति को घर में इज्जत हासिल नहीं उसे दुनियाँ मे कहीं इज्जत नहीं मिलती..!!!"*


सृष्टि मे यह सिद्धांत हर जगह लागू हो जाएगा । अहंकार युक्त जीवन में स्त्री जब चाहे हमारे अहंकार की इज्जत उतार सकती है और नम्रता युक्त जीवन मे इज्ज़त बना सकती है....!!!!!

पुण्यों का मोल

एक व्यापारी जितना अमीर था उतना ही दान-पुण्य करने वाला, वह सदैव यज्ञ-पूजा आदि कराता रहता था।एक बार उसे व्यापार में घाटा चला गया ।अब उसके पास परिवार चलाने लायक भी पैसे नहीं बचे थे।

व्यापारी की पत्नी ने सुझाव दिया कि पड़ोस के नगर में एक बड़े सेठ रहते हैं। वह दूसरों के पुण्य खरीदते हैं।आप उनके पास जाइए और अपने कुछ पुण्य बेचकर थोड़े पैसे ले आइए, जिससे फिर से काम-धंधा शुरू हो सके।

पुण्य बेचने की व्यापारी की बिलकुल इच्छा नहीं थी, लेकिन पत्नी के दबाव और बच्चों की चिंता में वह पुण्य बेचने को तैयार हुआ। पत्नी ने रास्ते में खाने के लिए चार रोटियां बनाकर दे दीं।

व्यापारी चलता-चलता उस नगर के पास पहुंचा जहां पुण्य के खरीदार सेठ रहते थे। उसे भूख लगी थी।नगर में प्रवेश करने से पहले उसने सोचा भोजन कर लिया जाए। उसने जैसे ही रोटियां निकालीं एक कुतिया तुरंत के जन्मे अपने तीन बच्चों के साथ आ खड़ी हुई।

कुतिया ने बच्चे जंगल में जन्म दिए थे। बारिश के दिन थे और बच्चे छोटे थे, इसलिए वह उन्हें छोड़कर नगर में नहीं जा सकती थी। व्यापारी को दया आ गई। उसने एक रोटी कुतिया को खाने के लिए दे दिया।कुतिया पलक झपकते रोटी चट कर गई लेकिन वह अब भी भूख से हांफ रही थी।

व्यापारी ने दूसरी रोटी, फिर तीसरी और फिर चारो रोटियां कुतिया को खिला दीं। खुद केवल पानी पीकर सेठ के पास पहुंचा।व्यापारी ने सेठ से कहा कि वह अपना पुण्य बेचने आया है। सेठ व्यस्त था। उसने कहा कि शाम को आओ।

दोपहर में सेठ भोजन के लिए घर गया और उसने अपनी पत्नी को बताया कि एक व्यापारी अपने पुण्य बेचने आया है। उसका कौन सा पुण्य खरीदूं।

सेठ की पत्नी बहुत पतिव्रता और सिद्ध थी। उसने ध्यान लगाकर देख लिया कि आज व्यापारी ने कुतिया को रोटी खिलाई है।उसने अपने पति से कहा कि उसका आज का पुण्य खरीदना जो उसने एक जानवर को रोटी खिलाकर कमाया है। वह उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ पुण्य है।

व्यापारी शाम को फिर अपना पुण्य बेचने आया। सेठ ने कहा- आज आपने जो यज्ञ किया है मैं उसका पुण्य लेना चाहता हूं।

व्यापारी हंसने लगा। उसने कहा कि अगर मेरे पास यज्ञ के लिए पैसे होते तो क्या मैं आपके पास पुण्य बेचने आता!

सेठ ने कहा कि आज आपने किसी भूखे जानवर को भोजन कराकर उसके और उसके बच्चों के प्राणों की रक्षा की है। मुझे वही पुण्य चाहिए।

व्यापारी वह पुण्य बेचने को तैयार हुआ। सेठ ने कहा कि उस पुण्य के बदले वह व्यापारी को चार रोटियों के वजन के बराबर हीरे-मोती देगा।

चार रोटियां बनाई गईं और उसे तराजू के एक पलड़े में रखा गया। दूसरे पलड़े में सेठ ने एक पोटली में भरकर हीरे-जवाहरात रखे।पलड़ा हिला तक नहीं। दूसरी पोटली मंगाई गई। फिर भी पलड़ा नहीं हिला।

कई पोटलियों के रखने पर भी जब पलड़ा नहीं हिला तो व्यापारी ने कहा- सेठजी, मैंने विचार बदल दिया है. मैं अब पुण्य नहीं बेचना चाहता।व्यापारी खाली हाथ अपने घर की ओर चल पड़ा। उसे डर हुआ कि कहीं घर में घुसते ही पत्नी के साथ कलह न शुरू हो जाए।

जहां उसने कुतिया को रोटियां डाली थी, वहां से कुछ कंकड़-पत्थर उठाए और साथ में रखकर गांठ बांध दी।

घर पहुंचने पर पत्नी ने पूछा कि पुण्य बेचकर कितने पैसे मिले तो उसने थैली दिखाई और कहा इसे भोजन के बाद रात को ही खोलेंगे। इसके बाद गांव में कुछ उधार मांगने चला गया।

इधर उसकी पत्नी ने जबसे थैली देखी थी उसे सब्र नहीं हो रहा था। पति के जाते ही उसने थैली खोली।उसकी आंखे फटी रह गईं। थैली हीरे-जवाहरातों से भरी थी।

व्यापारी घर लौटा तो उसकी पत्नी ने पूछा कि पुण्यों का इतना अच्छा मोल किसने दिया ? इतने हीरे-जवाहरात कहां से आए ?? व्यापारी को अंदेशा हुआ कि पत्नी सारा भेद जानकर ताने तो नहीं मार रही लेकिन, उसके चेहरे की चमक से ऐसा लग नहीं रहा था।

व्यापारी ने कहा- दिखाओ कहां हैं हीरे-जवाहरात। पत्नी ने लाकर पोटली उसके सामने उलट दी। उसमें से बेशकीमती रत्न गिरे। व्यापारी हैरान रह गया।फिर उसने पत्नी को सारी बात बता दी। पत्नी को पछतावा हुआ कि उसने अपने पति को विपत्ति में पुण्य बेचने को विवश किया।

दोनों ने तय किया कि वह इसमें से कुछ अंश निकालकर व्यापार शुरू करेंगे। व्यापार से प्राप्त धन को इसमें मिलाकर जनकल्याण में लगा देंगे।

ईश्वर आपकी परीक्षा लेता है। परीक्षा में वह सबसे ज्यादा आपके उसी गुण को परखता है जिस पर आपको गर्व हो।

अगर आप परीक्षा में खरे उतर जाते हैं तो ईश्वर वह गुण आपमें हमेशा के लिए वरदान स्वरूप दे देते हैं।

अगर परीक्षा में उतीर्ण न हुए तो ईश्वर उस गुण के लिए योग्य किसी अन्य व्यक्ति की तलाश में लग जाते हैं।

इसलिए विपत्तिकाल में भी भगवान पर भरोसा रखकर सही राह चलनी चाहिए। आपके कंकड़-पत्थर भी अनमोल रत्न हो सकते हैं।

   न डर रे मन दुनिया से

   यहाँ किसी के चाहने से नहीं

   किसी का बुरा होता है,

   मिलता है वही, जो हमने बोया होता है,

   कर पुकार उस प्रभु के आगे.. क्योकि सब कुछ उसी के बस में होता है।।

Wednesday, April 23, 2025

विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति पण्डिता रमाबाई

रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 को ग्राम गंगामूल (जिला मंगलोर, कर्नाटक) में हुआ था। उस समय वहाँ लड़कियांे की उच्च शिक्षा को ठीक नहीं माना जाता था। बाल एवं अनमेल विवाह प्रचलित थे। रमा के विधुर पिता का नौ वर्षीय बालिका से पुनर्विवाह हुआ। उससे ही एक पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं। 


रमा के पिता ने अपनी पत्नी को भी संस्कृत पढ़ाकर विद्वान बनाया। इस पर स्थानीय पंडित उनसे नाराज हो गये। वे उन्हें जाति बहिष्कृत करने पर तुल गये। तब उन्होंने उडुपि में 400 विद्वानों के साथ दो महीने तक लिखित शास्त्रार्थ में सिद्ध किया कि महिलाओं को वेद पढ़ाना शास्त्रसम्मत है। इससे वे जाति बहिष्कार से तो बच गये; पर लोगों का द्वेष कम नहीं हुआ। 


उन्होंने अपने सब बच्चों को पढ़ाया। रमा जब नौ साल की थी, तो उनके पिता तीर्थयात्रा पर चले गये। रमा की माँ ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी। जब छह साल बाद रमा के पिता लौटकर आये, तब तक रमा हिन्दी, मराठी, कन्नड़, बंगला तथा संस्कृत भाषाएँ जान गयी थी।


जब रमा 15 साल की ही थी, तो उसके पिता की मृत्यु हो गयी। लोगों में द्वेष इतना था कि उनकी अंत्येष्टि के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। इस पर रमा के भाई ने उनके शव को धोती में बाँधकर गाँव से बाहर गाड़ दिया। 


कुछ समय बाद माँ की मृत्यु होने पर रमा एवं उसके भाई ने बड़ी कठिनाई से दो लोगों को तैयार किया, तब जाकर माँ का अन्तिम संस्कार हो सका।

इसके बाद रमा अपने छोटे भाई को लेकर कोलकाता आ गयी। वहाँ विद्वानों ने उसकी विद्वत्ता देखकर उन्हें ‘पंडिता रमाबाई’ की उपाधि दी। ब्रह्मसमाज के केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से रमा ने वेदों का और गहन अध्ययन किया। 


इसी दौरान उनके भाई की भी मृत्यु हो गयी। रमाबाई का पत्र व्यवहार एवं भेंट आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती से भी हुई। महर्षि दयानन्द जी चाहते थे कि रमाबाई पूरी तरह वेद और धर्म प्रचार का कार्य करंे; पर वह इससे सहमत नहीं हुई। वे अभी और पढ़ना चाहती थीं।


22 वर्ष की अवस्था में विपिनबिहारी दास से उनका अन्तरजातीय विवाह हुआ। एक साल बाद पुत्री मनोरमा के जन्म तथा उससे अगले साल पति के निधन से पुत्री की पूरी जिम्मेदारी रमाबाई पर आ गयी। आर्य समाज से निकटता के कारण ब्रह्मसमाज वाले भी अब उनकी आलोचना करने लगे।


इसके बाद भी रमाबाई नहीं घबराईं। वे पुत्री को लेकर पुणे आ गयीं और आर्य समाज की स्थापना कर समाजसेवा में लग गयीं। उन्होंने महाराष्ट्र के कई नगरों में आर्य समाज की स्थापना की। सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें बहुत लोगों से मिलना पड़ता था। कुछ रूढि़वादियों ने इसका विरोधकर उनके चरित्र पर लांछन लगाये। इससे रमाबाई का मन बहुत दुखी हुआ।


1883 में वे चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने इंग्लैंड गयीं। वहाँ उनका सम्पर्क ईसाइयों से हुआ। रमा का मन अपने सम्बन्धियों और विद्वानों द्वारा किये गये दुव्र्यवहार से दुखी था। अतः उन्होंने ईसाई मजहब स्वीकार कर लिया।


अब उन्होंने हिब्रू और ग्रीक भाषा सीखकर बाइबल का इन भाषाओं तथा मराठी में अनुवाद किया। इसके बाद वे अमरीका भी गयीं। वहाँ उन्होंने महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ते देखा। इससे वे बहुत प्रभावित हुईं। 


ईसाई बनने के बाद भी हिन्दुत्व और भारतीयता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ। 1889 में भारत लौटकर उन्होंने पुणे में ‘शारदा सदन’ नामक विधवाश्रम बनाया। पांच अप्रैल, 1922 को पंडिता रमाबाई का देहान्त हो गया।


समय का मोल

एक धन सम्पन्न व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था पर कालचक्र के प्रभाव से धीरे-धीरे वह कंगाल हो गया।उस की पत्नी ने कहा कि सम्पन्नता के दिनों में तो राजा के यहाँ आपका अच्छा आना जाना था। क्या विपन्नता में वे हमारी मदद नहीं करेंगे जैसे श्रीकृष्ण ने सुदामा की मदद की थी ? पत्नी के कहने से वह भी सुदामा की तरह राजा के पास गया।


द्वारपाल ने राजा को संदेश दिया कि एक निर्धन व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है और स्वयं को आपका मित्र बताता है।राजा भी श्रीकृष्ण की तरह मित्र का नाम सुनते ही दौड़े चले आए और मित्र को इस हाल में देखकर द्रवित होकर बोले कि मित्र बताओ !! मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ ? मित्र ने सकुचाते हुए अपना हाल कह सुनाया।

चलो !! मै तुम्हें अपने रत्नों के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर अपनी जेब में रत्न भर कर ले जाना। पर तुम्हें केवल ३ घंटे का समय ही मिलेगा। यदि उससे अधिक समय लोगे तो तुम्हें खाली हाथ बाहर आना पड़ेगा।

ठीक है,चलो !! वह व्यक्ति रत्नों का भंडार और उनसे निकलने वाले प्रकाश की चकाचौंध देखकर हैरान हो गया। पर समय सीमा को देखते हुए उसने भरपूर रत्न अपनी जेब में भर लिए।वह बाहर आने लगा तो उसने देखा कि दरवाजे के पास रत्नों से बने छोटे छोटे खिलौने रखे थे जो बटन दबाने पर तरह तरह के खेल दिखाते थे।उसने सोचा कि अभी तो समय बाकी है,क्यों न थोड़ी देर इनसे खेल लिया जाए?

पर यह क्या? वह तो खिलौनों के साथ खेलने में इतना मग्न हो गया कि समय का भान ही नहीं रहा। उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र !! निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चलो ! मैं तुम्हें अपने स्वर्ण के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर सोना अपने थैले में भर कर ले जाना।

पर समय सीमा का ध्यान रखना।

ठीक है।उसने देखा कि वह कक्ष भी सुनहरे प्रकाश से जगमगा रहा था।उसने शीघ्रता से अपने थैले में सोना भरना प्रारम्भ कर दिया।तभी उसकी नजर एक घोड़े पर पड़ी जिसे सोने की काठी से सजाया गया था। अरे !! यह तो वही घोड़ा है जिस पर बैठ कर मैं राजा साहब के साथ घूमने जाया करता था। वह उस घोड़े के निकट गया, उस पर हाथ फिराया और कुछ समय के लिए उस पर सवारी करने की इच्छा से उस पर बैठ गया। पर यह क्या? समय सीमा समाप्त हो गई और वह अभी तक सवारी का आनन्द ही ले रहा था। उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह घोर निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र !! निराश होने की आवश्यकता नहीं है।चलो ! मैं तुम्हें अपने रजत के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर चाँदी अपने ढोल में भर कर ले जाना।

पर समय सीमा का ध्यान अवश्य रखना।ठीक है।उसने देखा कि वह कक्ष भी चाँदी की धवल आभा से शोभायमान था।उसने अपने ढोल में चाँदी भरनी आरम्भ कर दी।इस बार उसने तय किया कि वह समय सीमा से पहले कक्ष से बाहर आ जाएगा।पर समय तो अभी बहुत बाकी था।दरवाजे के पास चाँदी से बना एक छल्ला टंगा हुआ था। साथ ही एक नोटिस लिखा हुआ था कि इसे छूने पर उलझने का डर है।यदि उलझ भी जाओ तो दोनों हाथों से सुलझाने की चेष्टा बिल्कुल न करना।उसने सोचा कि ऐसी उलझने वाली बात तो कोई दिखाई नहीं देती।बहुत कीमती होगा तभी बचाव के लिए लिख दिया होगा।देखते हैं कि क्या माजरा है? बस! फिर क्या था।हाथ लगाते ही वह तो ऐसा उलझा कि पहले तो एक हाथ से सुलझाने की कोशिश करता रहा। जब सफलता न मिली तो दोनों हाथों से सुलझाने लगा।पर सुलझा न सका और उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र, !!कोई बात नहीं।निराश होने की आवश्यकता नहीं है।अभी तांबे का खजाना बाकी है।चलो ! मैं तुम्हें अपने तांबे के खजाने में ले चलता हूँ।

वहां से जी भरकर तांबा अपने बोरे में भर कर ले जाना।पर समय सीमा का ध्यान रखना।ठीक है।

मैं तो जेब में रत्न भरने आया था और बोरे में तांबा भरने की नौबत आ गई।थोड़े तांबे से तो काम नहीं चलेगा।उसने कई बोरे तांबे के भर लिए।भरते भरते उसकी कमर दुखने लगी लेकिन फिर भी वह काम में लगा रहा।विवश होकर उसने आसपास सहायता के लिए देखा।एक पलंग बिछा हुआ दिखाई दिया।उस पर सुस्ताने के लिए थोड़ी देर लेटा तो नींद आ गई और अंत में वहाँ से भी खाली हाथ बाहर निकाल दिया गया।

दोस्तो !! परमपिता परमेश्वर हम सबका दयालु राजा है। वह बार-बार हमें सुख-समृद्धि हेतु अवसर देता है। हम आलस्य-प्रमाद में अथवा दुनिया के प्रलोभनों एवं आकर्षणों में ऐसे बंध जाते हैं कि जीवन-काल का ख्याल ही भूल जाते हैं आखिरी समय में रोते-कलपते,अशांति इस दुनिया से विदा होते हैं। क्या इसी प्रकार हम आप भी अपने जीवन में अपने साथ कुछ नहीं ले जा पाएंगे?

ग्रंथ और संत कहते हैं- सावधान! सावधान!!


यूँ ही आता रहा,यूँ ही जाता रहा,लख चौरासी के चक्कर लगाता रहा।

क्यों न पहचान पाया तू श्वासों का मोल,अपना हीरा जन्म यूँ ही समय गँवाता रहा।”

संन्यासी और युवती

एक पहुंचे हुए महात्मा थे। एक दिन महात्मा जी ने सोचा कि उनके बाद भी धर्मसभा चलती रहे इसलिए क्यों न अपने एक शिष्य को इस विद्या में पारंगत किया जाए। उन्होंने एक शिष्य को इसके लिए प्रशिक्षित किया। अब शिष्य प्रवचन करने लगा।

सभा में एक सुंदर युवती आने लगी। वह उपदेश सुनने के साथ प्रार्थना, कीर्तन, नृत्य आदि समारोह में भी सहयोग देती।

लोगों को उस युवती का युवक संन्यासी के प्रति लगाव खटकने लगा। एक दिन कुछ लोग महात्माजी के पास आकर बोले - 'प्रभु, आपका शिष्य भ्रष्ट हो गया है।'

महात्मा जी बोले - 'चलो हम स्वयं देखते हैं'। महात्मा जी आए, सभा आरंभ हुई। युवा संन्यासी ने उपदेश शुरू किया। युवती भी आई। उसने भी रोज की तरह सहयोग दिया। 

सभा के बाद महात्मा जी ने लोगों से पूछा - 'क्या युवक संन्यासी प्रतिदिन यही सब करता है। और कुछ तो नहीं करता? 

लोगों ने कहा - 'बस यही सब करता है।' 

महात्मा जी ने फिर पूछा - 'क्या उसने तुम्हें गलत रास्ते पर चलने का उपदेश दिया? कुछ अधार्मिक करने को कहा?'

सभी ने कहा - 'नहीं।'

महात्माजी बोले - 'तो फिर शिकायत क्या है?' कुछ धीमे स्वर उभरे कि 'इस युवती का इस संन्यासी के साथ मिलना- जुलना अनैतिक है'। 

महात्माजी ने कहा - 'मुझे दुख है कि तुम्हारे ऊपर उपदेशों का कोई असर नहीं पड़ा। तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की वो युवती है कौन। वह इस युवक की बहन है। 

चूंकि तुम सबकी नीयत ही गलत है इसलिए तुमने उन्हें गलत माना। 

सभी लज्जित हो गए। 

जब नियत ही खोटी हो तो उपदेश का असर कैसे होगा?

Tuesday, April 22, 2025

परोपकार का फल

एक समय मोची का काम करने वाले व्यक्ति को रात में भगवान ने सपना दिया और कहा कि कल सुबह मैं तुझसे मिलने तेरी दुकान पर आऊंगा।

मोची की दुकान काफी छोटी थी और उसकी आमदनी भी काफी सीमित थी।

खाना खाने के बर्तन भी थोड़े से थे।

इसके बावजूद वह अपनी जिंदगी से खुश रहता था। 

एक सच्चा ईमानदार और परोपकार करने वाला इंसान था।

इसलिए ईश्वर ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया।

मोची ने सुबह उठते ही तैयारी शुरू कर दी।

भगवान को चाय पिलाने के लिए दूध चायपत्ती और नाश्ते के लिए मिठाई ले आया।

दुकान को साफ कर वह भगवान का इंतजार करने लगा।

उस दिन सुबह से भारी बारिश हो रही थी।

थोड़ी देर में उसने देखा कि एक सफाई करने वाली बारिश के पानी में भीगकर ठिठुर रही है।

मोची को उसके ऊपर बड़ी दया आई और भगवान के लिए लाए गये दूध से उसको चाय बनाकर पिलाई।

दिन गुजरने लगा।

दोपहर बारह बजे एक महिला बच्चे को लेकर आई और कहा कि मेरा बच्चा भूखा है इसलिए पीने के लिए दूध चाहिए।

मोची ने सारा दूध उस बच्चे को पीने के लिए दे दिया।

इस तरह से शाम के चार बज गए।

मोची दिन भर बड़ी बेसब्री से भगवान का इंतजार करता रहा।

तभी एक बूढ़ा आदमी जो चलने से लाचार था आया और कहा कि मै भूखा हूं और अगर कुछ खाने को मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी।

मोची ने उसकी बेबसी को समझते हुए मिठाई उसको दे दी।

इस प्रकार दिन बीत गया और रात हो गई।

रात होते ही मोची के सब्र का बांध टूट गया और वह भगवान को उलाहना देते हुए बोला कि वाह रे भगवान सुबह से रात कर दी मैंने तेरे इंतजार में।

लेकिन तू वादा करने के बाद भी नहीं आया।

क्या मैं गरीब ही तुझे बेवकूफ बनाने के लिए मिला था।

तभी आकाशवाणी हुई और भगवान ने कहा कि मैं आज तेरे पास एक बार नहीं तीन बार आया और तीनों बार तेरी सेवाओं से बहुत खुश हुआ और तू मेरी परीक्षा में भी पास हुआ है।

क्योंकि तेरे मन में परोपकार और त्याग का भाव सामान्य मानव की सीमाओं से परे हैं।

भगवान ना जाने किस रूप में हमसे मिल ले हम नही जान पाते हैं।


काशी की महिमा

 विश्वनाथ की नगरी काशी की महिमा  

काशी तो काशी है, काशी अविनाशी है

पंचकोशी काशी का अविमुक्त क्षेत्र ज्योतिर्लिंग स्वरूप स्वयं भगवान विश्वनाथ हैं । ब्रह्माजी ने भगवान की आज्ञा से ब्रह्माण्ड की रचना की । तब दयालु शिव जी ने विचार किया कि कर्म-बंधन में बंधे हुए प्राणी मुझे किस प्रकार प्राप्त करेंगे ? इसलिए शिव जी ने काशी को ब्रह्माण्ड से पृथक् रखा और भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया ।

काशी को स्वयं भगवान शिव ने 'अविनाशी' और 'अविमुक्त क्षेत्र' कहा है । ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ स्वरूप होने के कारण प्रलयकाल में भी काशी नष्ट नहीं होती है; क्योंकि प्रलय के समय जैसे-जैसे एकार्णव का जल बढ़ता है, वैसे-वैसे इस क्षेत्र को भगवान शंकर अपने त्रिशूल पर उठाते जाते हैं ।

स्कंद पुराण के अनुसार काशी नगरी का स्वरूप सतयुग में त्रिशूल के आकार का, त्रेता में चक्र के आकार का, द्वापर में रथ के आकार का तथा कलियुग में शंख के आकार का होता है ।

संसार की सबसे प्राचीन नगरी है काशी!!!!!!

काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगरी कहा जाता है; क्योंकि वेदों में भी इसका कई जगह उल्लेख है । पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले यह भगवान माधव की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरने से वह स्थान 'बिंदु सरोवर' बन गया और भगवान यहा 'बिंदुमाधव' के नाम से प्रतिष्ठित हुए ।

एक बार भगवान शंकर ने ब्रह्माजी का पांचवा सिर अपने नाखूनों से काट दिया । तब वह कटा सिर शंकर जी के हाथ से चिपक गया । वे १२ वर्षों तक बदरिकाश्रम, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में घूमते रहे, परंतु वह सिर उनके हाथ से अलग नहीं हुआ । ब्रह्मदेव का सिर काटने से ब्रह्महत्या स्त्री रूप धारण करके उनका पीछा करने लगी ।

अंत में जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और स्नान करते ही उनके हाथ से चिपका हुआ कपाल भी अलग हो गया । जिस स्थान पर वह कपाल छूटा, वह 'कपालमोचन तीर्थ' कहलाया । तब शंकर जी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करके उस पुरी को अपने नित्य निवास के लिए मांग लिया ।

इस सम्बन्ध में एक पौराणिक प्रसंग है-

राजा मनु के वंश में उत्पन्न सम्राट दिवोदास ने गंगा तट पर वाराणसी नगर बसाया । एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को यह अच्छा नहीं लगता कि वे सदा पति के साथ पिता के घर (हिमालय) में रहें । अत: पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने हिमालय छोड़ कर किसी सिद्ध क्षेत्र में बसने का निर्णय किया । उन्हें वाराणसी नगरी अच्छी लगी ।

शंकर जी ने अपने निकुम्भ नामक गण को वाराणसी नगरी को निर्जन करने का आदेश दिया । निकुम्भ ने वैसा ही किया । नगर निर्जन हो जाने पर भगवान शंकर अपने गणों के साथ वहां आकर निवास करने लगे । भगवान शंकर के साथ रहने की इच्छा से देवता तथा नाग भी वहां आकर रहने लगे ।

सम्राट दिवोदास अपनी वाराणसी नगरी छिन जाने से बहुत दु:खी हुए । उन्होंने तपस्या करके ब्रह्माजी से यह वर मांगा कि 'देवता अपने दिव्य लोक में रहें और नाग पाताल लोक में रहें । पृथ्वी मनुष्यों के लिए रहे ।' ब्रह्माजी ने 'तथाऽस्तु' कह दिया । इसका परिणाम यह हुआ कि शंकर जी सहित सभी देवताओं को वाराणसी छोड़ देना पड़ी । किंतु भगवान शंकर ने यहां 'विश्वेश्वर' रूप से निवास किया और दूसरे देवता भी श्रीविग्रह रूप में स्थित हुए ।

भगवान शंकर काशी छोड़ कर मंदराचल चले तो गए; किंतु उन्हें अपनी यह पुरी बहुत प्रिय थी । वे यहीं रहना चाहते थे । उन्होंने राजा दिवोदास के शासन में दोष ढूंढ़ कर उनको वाराणसी से निकालने के लिए चौंसठ योगिनियाँ भेजी । वे योगिनियां बारह मास तक काशी में रह कर राजा और उनके शासन में दोष निकालने का प्रयत्न करती रहीं, परंतु सफल नहीं हुईं । राजा ने उन्हें एक घाट पर स्थापित कर दिया ।

शंकर जी ने सोचा सूर्य 'लोकचक्षु' कहलाते हैं अर्थात् वे समस्त संसार की आंखें है, उनसे कुछ भी छिपा नहीं है । अत: राजा दिवोदास के राज्य में दोष ढ़ूंढ़ने के कार्य के लिए उन्होंने सूर्यदेव को भेजा; किंतु वाराणसी पुरी का वैभव देख कर सूर्यदेव चंचल (लोल) बन गए और अपने बारह रूपों में यहीं बस गए ।

ये बारह सूर्यों के नाम इस प्रकार हैं-१. लोलार्क, २. उत्तरार्क, ३. साम्बादित्य, ४. द्रौपदादित्य, ५. मयूखादित्य, ६. खखोल्कादित्य, ७. अरुणादित्य, ८. वृद्धादित्य, ९. केशवादित्य, १०. विमलादित्य, ११. गंगादित्य और १२. यमादित्य ।

शंकर जी विचार करने लगे-'अभी तक काशी से लौट कर न तो योगनियां ही आईं हैं और न ही सूर्यदेव । अब काशी का समाचार जानने के लिए मैं वहां किसे भेजूं । वहां की बातों को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्माजी ही समर्थ हैं, अत: ब्रह्माजी को ही वहां भेजता हूँ ।'

शंकर जी के कहने पर ब्रह्माजी वाराणसी आए। उन्होंने राजा दिवोदास की सहायता से यहां दस अश्वमेध यज्ञ किए और यहीं बस गए। यह स्थान 'दशाश्वमेध घाट' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इसके बाद भगवान शंकर की आज्ञा से ढुण्ढिराज गणेश जी ज्योतिषी का रूप धारण कर काशी आए । उन्होंने राजा दिवोदास को उपदेश करते हुए कहा-'आज के अठारहवें दिन कोई ब्राह्मण आकर तुम्हें उपदेश करेगा । तुमको बिना बिचारे उसके वचनों का पालन करना चाहिए । ऐसा करने से तुम्हारा सभी मनोरथ पूर्ण होगा ।'

जब गणेश जी भी काशी जाकर देर तक नहीं लौटे तब भगवान शंकर ने विष्णु जी की ओर देखा।

शंकर जी की इच्छा पूर्ण करने के लिए भगवान विष्णु यहां ब्राह्मण वेश में पधारे और उन्होंने राजा दिवोदास को ज्ञानोपदेश किया । इससे वे विरक्त हो गए ।

राजा दिवोदास ने एक शिवलिंग की स्थापना की और जैसे ही स्तुति करना आरम्भ किया, आकाश से शिव-पार्षदों से घिरा हुआ एक दिव्य विमान उतरा । राजा दिवोदास विमान में बैठ कर शिव लोक चले गए ।

तब भगवान शंकर मंदराचल से आकर काशी में स्थित हो गए ।

काशी के देवता!!!!!!!!

द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक 'भगवान विश्वनाथ' काशी के सम्राट हैं । इन्हें मिला कर काशी में कुल ५९ मुख्य शिवलिंग हैं । १२ आदित्य हैं । ५६ विनायक हैं, ८ भैरव हैं, ९ दुर्गा हैं, १३ नृसिंह हैं, १६ केशव हैं । ५१ शक्तिपीठों में से एक 'विशालाक्षी शक्तिपीठ' भी काशी में है, जहां सती के दाहिने कान का कुण्डल गिरा था।

काशी बारह नामों से जानी जाती है-

१. काशी,

२. वाराणसी (मां गंगा के तट पर वरुणा और असी नामक नदियों के बीच में स्थित होने के कारण इसे वाराणसी कहते हैं)

३. अविमुक्त क्षेत्र (भगवान शिव और पार्वती ने कभी इस क्षेत्र का त्याग नहीं किया),

४. आनंदकानन (भगवान शिव के आनंद का कारण),

५. महाश्मशान (यहां मणिकर्णिका घाट पर हर समय चिता जलती रहती है)

६. रुद्रावास (भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया है ।)

७. काशिका,

८. तप:स्थली,

९. मुक्ति भूमि,

१०. मुक्ति-क्षेत्र,

११. मुक्ति-पुरी,

१२. श्रीशिवपुरी ।

परमेश्वर शिव का धाम काशी जीवों को मोक्ष प्रदान करने वाली, संसार के भंवर में फंसे हुए लोगों के लिए नौका के समान, चौरासी के चक्कर में पड़े लोगों के लिए विश्रामस्थल और जीव के जन्म-जन्मांतर के कर्मबंधनों को काटने के लिए छुरे के समान है । काशी ही वह पुरी है जो मनुष्य को साक्षात् मोक्ष देती है ।

माना जाता है कि यहां देह-त्याग के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी के कान में तारक-मंत्र सुनाते हैं, उससे जीव को तत्त्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने शिवस्वरूप ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है । ब्रह्म में लीन होना ही अमृत पद प्राप्त कर लेना या मोक्ष है ।

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान। सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान।। (विनय पत्रिका)

इसलिए यहां कैसा भी प्राणी मरे, वह मुक्त हो जाता है । इसी आस्था के कारण देश के कोने-कोने से सहस्त्रों वर्षों से लोग देहोत्सर्ग के लिए आते रहे हैं।

बुद्धिमानी

गाँव का नाम था ठगपुरा। गाँव का बच्चा-बच्चा जैसे माँ के पेट से ठगी सीख कर आया था । ठगी के काम से गाँव का कोई भी इन्सान खुद को बचा ना सका था। उसी गाँव में नन्दू के चाचा भी रहते थे। ठगपुरा में रहने कारण नन्दू के चाचा भी इस ठगी की संज्ञा से बच न सके थे। ठगी के बेमिसाल ज्ञाताओं में उनकी गिनती होती थी।

इसी कारण उन्हें गाँव वालों ने चाचा ठग का नाम दे दिया था। मगर सब उन्हें सिर्फ चाचा ही कहते थे। नन्दू आज पहली बार अपने चाचा के गाँव आया था, इसी कारण वह गाँव के लोगों के स्वभाव से परिचित न था।

शाम को चाचा ने उससे पूछा-“बेटा! तुम यहाँ कितने दिन रहने आये हो?”

अपने चाचा के इस प्रश्न पर नन्दू हड़बड़ा गया। वह बोला- “बस चाचा, तीन-चार दिन, फिर मुझे मामी के यहाँ जाना है।”

“ठीक है बेटे!” कहकर चाचा अपने काम में लग गये । मगर नन्दू की समझ में यह ना आया कि उसके चाचा ने उससे ऐसा प्रश्न क्यों किया था, इस बारे में वह काफी देर तक सोचता रहा, मगर उसकी समझ में ना आया। आखिरकार वह सो गया।

अगले दिन उसके चाचा ने कहा-बेटे मैं खेत पर जा रहा हूँ, मगर जाने से पहले एक बात बता देना उचित समझता हूँ। देखो बेटा, समय बहुत खराब है। वैसे भी यह गाँव बदनाम है और गाँव वाले भी कुछ ऐसे ही हैं। बाहर से आने वाले को यहाँ खास सावधानी बरतनी पड़ती है । अतः घर से ज्यादा दूर मत जाना।” कहकर चाचा खेत पर चले गये।

दोपहर के समय नन्दू ने सोचा कि क्यों ना गाँव की रौनक ही देख ली जाए। यह सोचकर वह घर से बाहर निकल गया। अभी वह कुछ दूर चला ही था कि अचानक उसके पास एक आदमी आया। नन्दू ने देखा कि वह एक आंख

से काना था। नन्दू के पास आते ही वह बोला।

“काहे भैया! का हाल है। मेरा नाम अच्छन है, तुम राघव हो ना ?”

“नहीं, मेरा नाम नन्दू है।” नन्दू ने कहा।

“ओहो” वह व्यक्ति अंगड़ाई तोड़ बोला-“अच्छा-अच्छा! नाम में कुछ गलती हो गयी। वैसे मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। तुम्हारे दादा से मेरे बड़े अच्छे सम्बन्ध थे। अच्छी बैठक रहती थी, हुक्का पानी रहता और भी साथ था वे मेरे मेरहबानों में से… ।”

नन्दू ने उसकी बात काटकर कहा-“उन्हें तो गुजरे हुए भी वर्षो हो गये। आपकी उम्र तो अभी बहुत कम है। इसीलिए आप उनके साथियों में से मालूम नहीं पड़ते।”

“ओह यह बात नहीं है बेटे! असल में मैं अपनी देखरेख बहुत ज्यादा रखता हूं। इसलिए मेरी उम्र का एहसास नहीं होता। खैर छोड़ो ! अब काम की बात पर आ जाओ।” वह व्यक्ति बोला।

“काम की बात? कौनसे काम की बात?” नन्दू ने हैरानी से उस व्यक्ति को घूरा। “मैं बताता हूँ बेटे! जरा कान खोल कर सुनो!” वह व्यक्ति बहुत ही प्यार से बोला-“वैसे तो तुम खुद ही देख रहे हो मेरी एक आँख नहीं है, जानते हो इसका क्या कारण है?”

“ना तो मैं जानता हू और ना जानना चाहता ।” नन्दू बिना वजह गले पड़ी इस मुसीबत से पीछा छुड़ाना चाह रहा था। अत: इतना कहकर जैसे ही वह आगे बढ़ा, उस व्यक्ति ने उसका हाथ थाम लिया और बोला-

“सुनो बेटे! पहले मेरी सुनो! जानते हो मेरी एक आंख क्यों है, क्योंकि दूसरी आख तुम्हारे दादा पास गिरवी रखी है। उन्होंने वायदा किया था तुम उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी से भी ले लेना। संयोग से आज उनके पोते यानि तुमसे भेट हो गई। इसलिए लाओ, दे दो मेरी आँख” वह बहुत ही मीठे स्वर में बात कर रहा था।

यह सुनकर नन्दू घबरा गया- “यह तो अजीब मुसीबत है। उसने सोचा।”

नन्दू की खामोशी देखकर वह व्यक्ति गरमी अख्तियार करने लगा। बात बढ़ने लगी तो नन्दू को एक उपाय सूझा। वह उस व्यक्ति से बोला-“ठीक है। भाई! यदि तुम्हारी आँख हमारे यहाँ गिरवी रखी है तो तुम घर चलो। चाचा के पास रखी तो है, मगर वे मुझे हाथ नहीं लगाने देंगे। तुम्हीं चलकर ले लो।”

यह सुनकर अच्छन नामक वह व्यक्ति नन्दू के साथ चाचा के घर की ओर रवाना हो गया।

घर पहुंचकर उसने पाया कि चाचा उसी का इन्तजार कर रहे हैं, उसने जल्दी-जल्दी चाचा को सारी बातें बताईं। हालांकि चाचा उसके साथ अच्छन को देखते ही समझ गये थे कि मामला गड़बड़ है, फिर भी नन्दू से सारी बात सुनने के बाद उन्होंने अन्जान बनकर अच्छन से पूछा- “कहो भाई अच्छन! कैसे आना हुआ?”

“जी कुछ ऐसी वैसी बात नहीं है, वैसे आप तो जानते ही होंगे कि इनके दादा, यानि आपके पिताजी बड़े सज्जन पुरुष थे। सारे गाँव की देखभाल रखते थे और आड़े टैम मै सबकी मदद भी करते थे ।” अच्छन ने कहा।

“जी! वह तो ठीक है, मगर यह तो बताइये कि आज आपको हमारे पिताजी की याद कैसे आ गई?” चाचा ने मुस्कुराकर पूछा।

“अब काहै बताऊँ चाचा । याद तो बहुत दिनों से आ रही थी मगर अब तक दिल में ही छुपा रखी थी।” अच्छन अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगा बैठा। मजबूरी वश चाचा को भी उसकी हंसी में हिस्सा लेना पड़ा।

“असल में चाचा बात ये है कि एक बार गाँव में बड़ी भयंकर बीमारी फैल गई थी, तो मैंने अपने बीवी-बच्चों और जमीन को बचाने के लिए आपके पिताजी के पास अपनी एक आँख गिरवी रख दी थी। अब यह रही उधार ली गई रकम और अब मैं नन्दू से अपनी आँख वापस मांग रहा हूं। यह इस बात के फैसले के लिए मुझे आपके पास ले आया ।”

तब चाचा ने अच्छन को समझा बुझाकर एक दिन की मोहलत ले ली।

अच्छन के जाने के बाद चाचा ने नन्दू से कहा-देखा! हो गया ना लफड़ा, इसीलिए तो मैं तुमसे पूछ रहा था कि कितने दिन रहोगे ।”

नन्दू चुप रहा। फिर चाचा पास के बूचड़खाने की ओर रवाना हुए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कुछ भेड़ बकरियों की आँखें खरीदीं और वापस लौट आए। वापस आकर उन्होंने नन्दू को कुछ समझाया और दोनों सो गये।

अगले दिन अच्छन मियां चाचा के यहाँ पहुँचे। उन्होंने देखा कि चाचा घर पर नहीं हैं, उन्होंने नन्दू पर अपनी हेकड़ी जमानी शुरू कर दी । बोले- “देखो नन्दू भाई, जल्दी से मुझे मेरी आँख ला दो।” वह जानता था कि नन्दू के पास आँख होगी ही नहीं तो वह देगा कहां से?”

मगर नन्दू ने उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया। वह तेजी से अन्दर गया और चाचा की योजना के तहत वह अन्दर से एक बकरी की आँख ले आया।

और अच्छन से बोला-“लो भाईतुम्हारी आँख”

अच्छन ने चौंक कर नन्दू की हथेली पर रखी आँख को देखा फिर उसे अपने हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह मन ही मन परेशान भी हो रहा था, मगर आखिरकार ठगपुरा की इज्जत का प्रश्न था। उलट-पुलट कर देखने के बाद अच्छन ने मुंह बनाकर कहा।

यह तो बड़ी है, यह मेरी आँख नहीं है।” वह समझ रहा था कि नन्दू के पास वही एक आँख होगी।

मगर ऐसा तो था ही नहीं। नन्दू वापस अन्दर गया और दूसरी आँख ले आया और बोला- “तब यह वाली होगी?”

दूसरी आँख देखते ही अच्छन के होश-मन्तर होने को तैयार हो गये।

मगर जल्दी ही उसने खुद को सम्भाल लिया और बोला-“नहीं, यह भी मेरी आँख नहीं है

तब नन्दू ने योजनाबद्ध तरीके से एक-दो बार और आँखें दिखाईं, मगर जब अच्छन ने उन्हें अपनी आंखें ना बताई तो नन्दू झुझलाकर वह टोकरी जिसमें आंखें रखी थीं, उठा लाया और अच्छन के सामने पटक कर बोला-“इसमें से छाँट ले अपनी । तुम्हारे जैसे बहुत से गरीबों ने दादाजी के पास अपनी आँखें गिरवी रख दी थीं।”

यह सुन और देखकर अच्छन ने झेप उतारने के लिए सभी आँखों से अपनी आँख ढूंढ़ने का नाटक किया फिर कुछ देर बाद गुस्से में भरते हुए बोला-“यह क्या मजाक है?”

“क्यों, क्या हुआ?” नन्दू ने जल्दी से पूछा।

“देखो चुपचाप, शराफत से मुझे मेरी आँख वापस लौटा दो… ” वह आग-बबूला होने का भरसक प्रयास करते हुए बोला।

क्यों इसमें तुम्हारी आँख नहीं है क्या?” नन्दू ने उसकी बात काट कर पूछा।

“लड़के मुझे ज्यादा बकवास पसन्द नहीं है, शराफत से मेरी आंख दो वरना.दुगुनी रकम वसूल लुगा।” उसने नन्दू के आगे टोकने से पहले ही जल्दी-जल्दी सब कुछ कह डाला।

यह गरमा-गरमी सुनकर अन्दर खामोश बैठे, नन्दू से यह सब नाटक करवा रहे चाचा फुर्ती से बाहर आए -“बोले

अच्छन भाई! इस तरह तो तुम्हारी आँख मिलने से रही। ऐसा करो तुम अपनी आँख नन्दू को दे जाओ, ताकि कल वह तुम्हारी दूसरी आंख से मिलाकर वैसी ही आँख तलाश दे।”

“क्या?” अच्छन का मुंह खुला का खुला रह गया।

“अगर कहो तो मैं निकाल दें अच्छन भाई?” चाचा ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा।

इतना सुनते ही अच्छन मियाँ वहाँ से इस तरह भागे जैसे उनके पीछे यमदूत पड़े हों।

अच्छन मियाँ को इस तरह भागते देख चाचा-भतीजे खिल-खिलाकर हंस पड़े। इस तरह चाचा ने नन्दू की जान बचा कर बुद्धिमत्ता की नई मिसाल कायम कर दी।

मित्रों“ अवसर पड़ने पर जो युक्ति काम कर जाये, वही बुद्धिमत्ता कहलाती है, बुद्धिमान कभी मात नहीं खाता, अतः हमें बुद्धिमान बनने के लिए सतत् प्रयास करते रहना चाहिए। इसलिये अपनी बुद्धि का प्रयोग भी उसी जगह करना चाहिए जहाँ उसकी आवश्यकता हो।”

Friday, April 18, 2025

दस रुपये का चढ़ावा

गरमी का मौसम था, मैने सोचा पहले गन्ने का रस पीकर काम पर जाता हूँ। एक छोटे से गन्ने की रस की दुकान पर गया। वह काफी भीड-भाड का इलाका था, वहीं पर काफी छोटी-छोटी फूलो की, पूजा की सामग्री ऐसी और कुछ दुकानें थीं और सामने ही एक बडा मंदिर भी था, इसलिए उस इलाके में हमेशा भीड रहती है। मैंने रस का आर्डर दिया और मेरी नजर पास में ही फूलों की दुकान पे गयी , वहीं पर तकरीबन 37 वर्षीय एक सज्जन व्यक्ति ने 500 रूपयों वाले फूलों के हार बनाने का आर्डर दिया , तभी उस व्यक्ति के पिछे से एक 10 वर्षीय गरीब बालक ने आकर हाथ लगाकर उसे रस की पिलाने की गुजारिश की।

पहले उस व्यक्ति का बच्चे के तरफ ध्यान नहीं था , जब देखा तब उस व्यक्ति ने उसे अपने से दूर किया और अपना हाथ रूमाल से साफ करते हुए चल हट कहते हुए भगाने की कोशिश की।

उस बच्चे ने भूख और प्यास का वास्ता दिया !!

वो भीख नहीं मांग रहा था, लेकिन उस व्यक्ति के दिल में दया नहीं आयी। बच्चे की आँखें कुछ भरी और सहमी हुई थी, भूख और प्यास से लाचार दिख रहा था।

इतने में मेरा आर्डर दिया हुआ रस आ गया।

मैंने और एक रस का आर्डर दिया उस बच्चे को पास बुलाकर उसे भी रस पीला दिया। बच्चे ने रस पीया और मेरी तरफ बडे प्यार से देखा और मुस्कुराकर चला गया।

*उस की मुस्कान में मुझे भी खुशी और संतोष हुआ, लेकिन वह व्यक्ति मेरी तरफ देख रहा था। जैसे कि उसके अहम को चोट लगी हो।

फिर मेरे करीब आकर कहा:- आप जैसे लोग ही इन भिखारियों को सिर चढाते है

मैंने मुस्कराते हुए कहा:- आपको मंदिर के अंदर इंसान के द्वारा बनाई पत्थर की मूर्ति में ईश्वर नजर आता है, लेकिन ईश्वर द्वारा बनाए इंसान के अंदर ईश्वर नजर नहीं आता है! मुझे नहीं पता आपके 500 रूपये के हार से मंदिर में बैठा आपका भगवान मुस्करायेगा या नहीं, लेकिन मेरे 10 रूपये के चढावे से मैंने मेरे भगवान को मुस्कराते हुए देखा है।

मानव सेवा ही श्रेष्ठ सेवा है।

जीवन लक्ष्य

          ये  शरीर  कृष्ण कृपा से मिला है और केवल कृष्ण  की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इसलिये हम को चाहे कुछ भी त्यागना पडें, सब छोड़कर कृष्ण भक्ति   में तुरन्त लग जाना चाहिये।

         जैसे छोटा बालक कहता है कि माँ मेरी है। उससे कोई पूँछे कि माँ तेरी क्यों है तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है। उसके मन में यह शंका ही पैदा नहीं होती कि माँ मेरी क्यों है ? माँ मेरी है बस इसमें उसको कोई सन्देह नहीं होता। इसी तरह आप भी सन्देह मत करो और यह बात दृढता से मान लो कि कृष्ण  मेरे हैं। कृष्ण के सिवाय और कोई मेरा नहीं है क्योंकि वह  सब छूटने वाला है। जिनके प्रति आप बहुत आसक्त  रहते हैं, वे माँ-बाप, पति-पत्नी, बच्चे, रूपये, जमीन, मकान, रिश्ते-नाते आदि सब छूट जायेंगें। उनकी याद तक नहीं रहेगी।

           अगर याद रहने की रीत हो तो बतायें कि इस जन्म से पहले आप कहाँ थे। आपके माँ, बाप स्त्री, पुत्र कौन थे ? ‘

          आपका घर कौन सा था। जैसे पहले जन्म की याद नहीं है, ऐसे ही इस जन्म की भी याद नहीं रहेगी। जिसकी याद तक नही रहेगी उसके लिये आप अकारण परेशान हो रहे हो। यह सबके अनुभव की बात है कि हमारा कोई नहीं है सब मिले हैं और विछुड जायेगें, आज नहीं तो कल इसलिये- "मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई", ऐसा मानकर मस्त हो जाओ।

           दुनियाँ सब की सब चली जाये तो परवाह नहीं है पर हम केवल कृष्ण के हैं, और केवल कृष्ण हमारे हैं। केवल एक मात्र यही सच है और बाकी सब झूठ। इसके सिवाय और किसी बात की ओर देखो ही मत, विचार ही मत करो।

          आज से कृष्ण  के होकर रहो, कोई क्या कर रहा है कृष्ण जानें, हमें मतलब नहीं है। सब संसार नाराज हो जाये तो परवाह नहीं पर कृष्ण तो मेरे हैं - इस बात को पकड़ कर रखो।


कॉमन सेंस

एक पंडितजी के घर में उनकी पहली संतान का जन्म होने वाला था। उनका नाम पंडित विष्णुदत्त शास्त्री था। पंडितजी ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने दाई से कह रखा था कि जैसे ही बालक का जन्म हो नींबू प्रसूतिकक्ष से बाहर लुढ़का देना। 

बालक जन्मा लेकिन बालक रोया नहीं तो दाई ने हल्की सी चपत उसके तलवों में दी और पीठ को मला और अंततः बालक रोया। 

दाई ने नींबू बाहर लुढ़काया और बच्चे की नाल आदि काटने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गई।उधर पंडितजी ने गणना की तो उन्होंने पाया कि बालक की कुंडली में पितृहंता योग है अर्थात उनके ही पुत्र के हाथों ही उनकी मृत्यु का योग है। पंडितजी शोक में डूब गए और अपने पुत्र को इस लांछन से बचाने के लिए बिना कुछ कहे बताए घर छोड़कर चले गए। 

सोलह साल बीते।

बालक अपने पिता के विषय में पूछता लेकिन बेचारी पंडिताइन उसके जन्म की घटना के विषय में सबकुछ बताकर चुप हो जाती क्योंकि उसे इससे ज्यादा कुछ नहीं पता था। अस्तु! पंडितजी का बेटा अपने पिता के पग चिन्हों पर चलते हुये प्रकांड ज्योतिषी बना। उसी बरस राज्य में वर्षा नहीं हुई। राजा ने डौंडी पिटवाई जो भी वर्षा के विषय में सही भविष्यवाणी करेगा उसे मुंहमांगा इनाम मिलेगा लेकिन गलत साबित हुई तो उसे मृत्युदंड मिलेगा। 

बालक ने गणना की और निकल पड़ा। लेकिन जब वह राजदरबार में पहुंचा तो देखा एक वृद्ध ज्योतिषी पहले ही आसन जमाये बैठे हैं। राजन !! आज संध्याकाल में ठीक चार बजे वर्षा होगी।" वृद्ध ज्योतिषी ने कहा। 

बालक ने अपनी गणना से मिलान किया और आगे आकर बोला -  महाराज !! मैं भी कुछ कहना चाहूंगा। राजा ने अनुमति दे दी। 

राजन वर्षा आज ही होगी लेकिन चार बजे नहीं बल्कि चार बजे के कुछ पलों के बाद होगी।

वृद्ध ज्योतिषी का मुँह अपमान से लाल हो गया और उन्होंने दूसरी भविष्यवाणी भी कर डाली। 

महाराज !! वर्षा के साथ ओले भी गिरेंगे और ओले पचास ग्राम के होंगे।

बालक ने फिर गणना की। 

महाराज !! ओले गिरेंगे लेकिन कोई भी ओला पैंतालीस से अडतालीस ग्राम से ज्यादा का नहीं होगा।

अब बात ठन चुकी थी। लोग बड़ी उत्सुकता से शाम का इंतजार करने लगे। 

साढ़े तीन तक आसमान पर बादल का एक कतरा नहीं था लेकिन अगले बीस मिनट में क्षितिज से मानो बादलों की सेना उमड़ पड़ी। 

अंधेरा सा छा गया। बिजली कड़कने लगी लेकिन चार बजने पर भी पानी की एक बूंद न गिरी।लेकिन जैसे ही चार बजकर दो मिनट हुये धरासार वर्षा होने लगी। वृद्ध ज्योतिषी ने सिर झुका लिया।आधे घण्टे की बारिश के बाद ओले गिरने शुरू हुए। राजा ने ओले मंगवाकर तुलवाये। कोई भी ओला पचास ग्राम का नहीं निकला।

शर्त के अनुसार सैनिकों ने वृद्ध ज्योतिषी को सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया और राजा ने बालक से इनाम मांगने को कहा - महाराज !! इन्हें छोड़ दिया जाये। बालक ने कहा। राजा के संकेत पर वृद्ध ज्योतिषी को मुक्त कर दिया गया। 

बजाय धन संपत्ति मांगने के तुम इस अपरिचित वृद्ध को क्यों मुक्त करवा रहे हो।बालक ने सिर झुका लिया और कुछ क्षणों बाद सिर उठाया तो उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। क्योंकि ये सोलह साल पहले मुझे छोड़कर गये मेरे पिता श्री विष्णुदत्त शास्त्री हैं। वृद्ध ज्योतिषी चौंक पड़ा। 

दोनों महल के बाहर चुपचाप आये लेकिन अंततः पिता का वात्सल्य छलक पड़ा और फफक कर रोते हुए बालक को गले लगा लिया। आखिर तुझे कैसे पता लगा कि मैं ही तेरा पिता विष्णुदत्त हूँ।

क्योंकि आप आज भी गणना तो सही करते हैं लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग नहीं करते।" बालक ने आंसुओं के मध्य मुस्कुराते हुए कहा।

"मतलब"? पिता हैरान था। 

वर्षा का योग चार बजे का ही था लेकिन वर्षा की बूंदों को पृथ्वी की सतह तक आने में कुछ समय लगेगा कि नहीं?ओले पचास ग्राम के ही बने थे लेकिन धरती तक आते आते कुछ पिघलेंगे कि नहीं?              और... 

दाई माँ बालक को जन्म लेते ही नींबू थोड़े फैंक देगी,उसे कुछ समय बालक को संभालने में लगेगा कि नहीं और उस समय में ग्रहसंयोग बदल भी तो सकते हैं और पितृहंता योग पितृरक्षक योग में भी तो बदल सकता है न?

पंडितजी के समक्ष जीवन भर की त्रुटियों की श्रंखला जीवित हो उठी और वह समझ गए कि केवल दो शब्दों के गुण के अभाव के कारण वह जीवन भर पीड़ित रहे और वह थे-- कॉमन सेंस

तस्मै श्री गुरुवे नमः

हम बदलेंगे,युग बदलेगा।आपका हर पल मंगलमय हो।

कामनाओं को नियंत्रित रखे सदैव

बंधुओ, शिथिल एवं अधूरी कामनाएँ भी अशांति का एक कारण होती हैं। शिथिल कामना वाला व्यक्ति थोड़ा सा प्रयत्न करके बड़ी उपलब्धि चाहने लगता है और जब उसको नहीं पा सकता तो समाज अथवा परिस्थितियों को दोष देकर जीवनभर असफलता के साथ बँधा रहता है।

अपनी स्थिति से परे की कामनाएँ करना, अपने को एक बड़ा दण्ड देने के बराबर है। मोटा सा सिद्धांत है कि अपनी शक्ति के बाहर की गई कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकती और अपूर्ण कामनाएँ हृदय में काँटे की तरह चुभा करती हैं।

मनुष्य को अपने अनुरूप, अपने साधनों और शक्तियों के अनुसार ही कामना करते हुए अपने पूरे पुरुषार्थ को उस पर लगा देना चाहिए।

इस प्रकार एक सिद्धि के बाद दूसरी सिद्धि के लिए पूर्व सिद्धि और उपलब्धियों का समावेश कर आगे प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस प्रकार एक दिन वह कोई बड़ी कामना की पूर्ति भी कर लेगा। 

"निःसन्देह कामनाएँ मनुष्य का स्वभाव ही नहीं, आवश्यकता भी है, किंतु इनका औचित्य, नियंत्रण, दृढ़ और प्रयत्नपूर्ण होना भी वांछनीय है। तभी ये जीवन में अपनी पूर्ति के साथ सुख-शान्ति का अनुभव दे सकती हैं "अन्यथा "अनियंत्रित" एवं "अनुपयुक्त" कामनाओं से बड़ा शत्रु मानव-जीवन की सुख-शान्ति के लिए दूसरा कोई नहीं है।"


आहार के प्रकार एवं उनका प्रभाव

 

आहार सदा सात्विक होना चाहिए

      भोजन शरीर तथा मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव डालता है, आयुर्वेद में आहार को अपने चरित्र एवं प्रभाव के अनुसार सात्विक, राजसिक या तामसिक रूपों में वर्गीकृत किया गया है, कोई कैसा भोजन पसंद करता है यह जानकर उसकी प्रकृति व स्वाभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

सात्विक भोजन

      सात्विक भोजन सदा ही ताज़ा पका हुआ, सादा, रसीला, शीघ्र पचने वाला, पोषक, चिकना, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है यह मस्तिष्क की उर्जा में वृद्धि करता है और मन को प्रफुल्लित एवं शांत रखता है, सोचने-समझने की शक्ति को और भी स्पष्ट बनाता है सात्विक भोजन शरीर और मन को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने में बहुत अधिक सहायक है।

       देसी गाय का दूध, घी, पके हुए ताजे फल, बादाम, खजूर, सभी अंकुरित अन्न व दालें, टमाटर, परवल, तोरई, करेला जैसी सब्जियां, पत्तेदार साग सात्विक मानी गयीं हैं घर में सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले मसाले जैसे हल्दी, अदरक, इलाइची, धनिया, सौंफ और दालचीनी सात्विक होते हैं।

सात्विक व्यक्तित्व

       जो व्यक्ति सात्विक आहार लेते हैं उनमें शांत व सहज व्यवहार, स्पष्ट सोच, संतुलन एवं आध्यात्मिक रुझान जैसे गुण देखे जाते हैं. ईश्वर भक्ति, जीव प्रेम, दया , करुणा जैसे गुण से समृद्ध होते है।

       सात्विक व्यक्ति आमतौर पर शराब जैसे व्यसनों, चाय-कॉफी, तम्बाकू और मांसाहारी भोजन जैसे उत्तेजक पदार्थों नही ग्रहण करते हैं।

राजसिक भोजन

        राजसिक आहार भी ताजा परन्तु भारी होता है. इसमें मांसाहारी पदार्थ जैसे मांस, मछली, अंडे, अंकुरित न किये गए अन्न व दालें, मिर्च-हींग जैसे तेज़ मसाले, लहसुन, प्याज और मसालेदार सब्जियां आती हैं. राजसिक भोजन का गुण है की यह तुंरत पकाया गया और पोषक होता है।

        इसमें सात्विक भोजन की अपेक्षा कुछ अधिक तेल व मसाले हो सकते हैं। राजसिक आहार उन लोगों के लिए हितकर होता है जो जीवन में संतुलित आक्रामकता में विश्वास रखते हैं जैसे सैनिक, व्यापारी, राजनेता एवं खिलाड़ी।

       राजसिक आहार सामान्यतः कड़वा, खट्टा, नमकीन, तेज़, चरपरा और सूखा होता है. पूरी, पापड़, बिजौड़ी जैसे तले हुए पदार्थ , तेज़ स्वाद वाले मसाले, मिठाइयाँ, दही, बैंगन, गाजर-मूली, उड़द, नीबू, मसूर, चाय-कॉफी, पान राजसिक भोजन के अर्न्तगत आते हैं।

राजसिक व्यक्तित्व

       राजसिक आहार भोग की प्रवृत्ति, कामुकता, लालच, ईर्ष्या, क्रोध, कपट, कल्पना, अभिमान और अधर्म की भावना पैदा करता है. राजसिक व्यक्तित्व वाले लोग शक्ति, सम्मान, पद और संपन्नता जैसी चीज़ों में रूचि रखते हैं। इनका अपने जीवन पर बहुत हद तक नियंत्रण होता है; ये अपने स्वार्थों को सनक की हद तक नहीं बढ़ने देते। राजसिक व्यक्ति दृढ़ निश्चयी होते हैं और अपने जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, राजसिक व्यक्ति अक्सर ही अपनी जीभ को संतुष्ट करने के लिए अलग अलग मसाले दार चटपटा व्यंजनों में रुचि रखते है।

तामसिक भोजन

        तामसिक आहार में ऐसे खाद्य पदार्थ आते हैं जो ताजा न हों वासी हो, जिनमे जीवन शेष न रह रह गया हो , ज़रूरत से ज्यादा पकाए गए हों, बुसे हुए पदार्थ या प्रसंस्कृत भोजन अथवा प्रोसेस्ड फ़ूड ।

         मांस, मछली और अन्य सी-फ़ूड, वाइन, लहसुन, प्याज और तम्बाकू परंपरागत रूप से तामसिक माने जाते रहे हैं.

तामसिक व्यक्तित्व

        तमस हमारी जीवनी शक्ति में अवरोध पैदा करता है जिससे की धीरे धीरे स्वस्थ्य और शरीर कमज़ोर पड़ने लग जाता है. तामसिक आहार लेने वाले व्यक्ति बहुत ही मूडी किस्म के हो जाते हैं, उनमें असुरक्षा की भावना, अतृप्त इच्छाएं, वासनाएं एवं भोग की इच्छा हावी हो जाती है; जिसके कारण वे दूसरों से संतुलित तरीके से व्यवहार नहीं कर पाते इनमे दूसरों को उपयोग की वस्तु की तरह देखने, और किसी के नुकसान से कोई सहानुभूति न रखने की भावना आ जाती है. यानि की ऐसे लोग स्वार्थी और खुद में ही सिमट कर रह जाते हैं. इनका केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और ह्रदय पूरी शक्ति से काम नहीं कर पाता और इनमें समय से काफी पहले ही बुढापे के लक्षण दिखने में आने लगते हैं. ये सामान्यतः कैंसर, ह्रदय रोग, डाईबीटीज़, आर्थराईटिस और लगातार थकान जैसी जीवनशैली सम्बन्धी समस्याओं से ग्रस्त पाए जाते हैं।

     सात्विक, राजसिक और तामसिक यह केवल खाद्य पदार्थों के ही गुण नहीं है, बल्कि जीवन जीने व उसे दिशा देने का मार्ग भी हैं।

Thursday, April 17, 2025

एक ऐसा नेता जिसे श्राप लगा हुआ है

शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मध्यप्रदेश सरकार अशासकीय विद्यालयों को कुछ अनुदान देती थी। कुछ प्रबन्ध समितियों की अनियमितताओं के चलते सरकार द्वारा दिए जाने वाले इस अनुदान को "वेतन संदाय अधिनियम 1978" में बदल दिया गया था। इस अधिनियम के तहत अनुदान प्राप्त सभी शिक्षकों को शासन की ओर से अनुदान की जगह 100 % वेतन दिया जाने लगा। इसलिए इस अधिनियम का नाम अनुदान न होकर वेतन संदाय कर दिया गया। अतः शासकीय शिक्षकों के समान इन शिक्षकों को भी सभी लाभ दिए जाने लगे। रिक्त पदों पर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्ती के लिए बाकायदा विज्ञापन दिए जाने लगे। शासकीय शिक्षा विभाग द्वारा आदेशित  अधिकारियों या उनके द्वारा नियुक्त विषय विशेषज्ञों सहित अधिकृत चयन

कमेटियों द्वारा साक्षात्कार लेकर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्तियांँ हुईं। शिक्षा विभाग द्वारा उनके अनुमोदन हुए। तब भर्ती परीक्षाएँ नहीं होती थीं किन्तु यह सब विधि सम्मत था।

उक्त अधिनियम में पेंशन का प्रावधान नहीं था किन्तु इसके बदले में इन शिक्षकों को दो वर्ष की अतिरिक्त आवश्यक सेवा अवधि के लाभ का प्रावधान किया गया। यदि शासकीय शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 60 वर्ष की आयु में होती थी तो इन विद्यालयों के शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 62 वर्ष पूर्ण होने पर होती थी। इसके साथ ही हर विद्यालय की प्रबन्ध समिति  शिक्षक की सहमति और उपयोगिता के आधार पर सरकार से प्रति वर्ष एक वर्ष की वृद्धि की स्वीकृति लेकर 65 वर्ष तक के लिए इनकी सेवाएँ बढ़ा सकती थी इस तरह सेवा की अधिकतम आयु 65 वर्ष तक थी।

शिक्षकों ने इसे राष्ट्रीय और शासकीय सेवा समझकर इस नौकरी को सहर्ष स्वीकार कर लिया था। सन् 2000 तक इन शिक्षकों को आने वाली हर सरकार भी पूरा वेतन व सुविधाएँ देती रही, शिक्षकों ने भी जी भर कर परिश्रम किया और अन्यों की तुलना में अच्छे से अच्छे परिणाम दिए। इस कारण इन विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या सीमा से अधिक ही रहा करती थी। एडमिशन के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। सरकारों ने इन शिक्षकों से भी जनगणना, मकान गणना, मतदाता सूची, चुनाव आदि राष्ट्रीय और राजकीय कार्यों हेतु ड्यूटी लगाकर खूब काम लिया।

दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! नेकी के‌ परिणाम ही बदी में बदल गए। एक ही घटना ने मध्यप्रदेश की पूरी शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त कर दी। दिग्विजय सिंह की सरकार ने सन् 2000 में नया अध्यादेश लाकर फिर उसे विधानसभा में विधेयक के रूप में प्रस्तुत कर पारित करवा लिया। कानून बन गया जिसमें हिन्दुओं के विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में प्रति वर्ष 20% कटौती करते हुए पाँच वर्ष में पूरा वेतन खत्म कर देने की कार्यवाही कर दी वहीं अल्प संख्यकों द्वारा संचालित विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में कभी कोई कटौती नहीं की जाने का भी प्रावधान किया गया। इस अवसर पर माननीय कैलाश विजयवर्गीय जैसे विपक्ष के समर्थ कई विधायकों ने क्रोधित होकर विधेयक का विरोध करते हुए हंगामें के साथ विधानसभा में इस विधेयक की प्रतियाँ फाड़ीं थीं।

कानून पास होते ही न जाने कितने शिक्षकों ने नौकरियाँ छोड़ दीं। कई शिक्षकों की हृदय गति रुकने से‌ मृत्यु हो गई। कइयों को  अन्य अनेक कारणों से अल्पायु में ही मरना पड़ा। कई पागल हो गए।धन के अभाव में अवसादग्रस्त कई शिक्षकों के बच्चों की उच्च शिक्षा रुक गई, वे फिर कभी अपना समुचित विकास न कर पाए। कुछ के बेटे शराबी और अपराधी हो गए। एक ऐसी मानसिक अराजकता में छात्रों की शिक्षा में प्रगति रुक गई, उसी में राष्ट्र निर्माता शिक्षक उलझ गया। कइयों की बेटियों को क्या-क्या नहीं भुगतना पड़ा? शिक्षिकाओं की आँखें हमेशा के लिए गीली हो उठीं। तत्कालीन सत्ताधारी मन्त्रियों विधायकों में किसी को भी दया नहीं आई। तथाकथित सम्मान के धनी इन शिक्षकों के अपमान को जगह-जगह लेखक ने भी खूब अनुभूत किया है।

उस समय सत्ता ऐसे दुष्टों के हाथ में कैद हो गई थी, जिनमें नैतिकता और मानवता के लिए सुखकारी लकीरें ही नहीं थीं। उस शासन में बिजली की इतनी किल्लत थी कि किसान मजदूर शहरी ग्रामीण सभी दुखी हो गए। सड़कों की दुर्दशा, सभी दैनिक वेतनभोगियों की एक ही दिन में अकारण बर्खास्तगी, रोडवेज कर्मचारियों की नौकरी ख़त्म करने के आदेश आदि अनेक जनविरोधी निर्णयों को याद करते हैं तो उस समय की दुर्दशा पर रूह काँप उठती है। हाय रे क्रूरता की पराकाष्ठा राम!राम! अगर कुछ सुखी थे तो मात्र सत्ता से जुड़े हुए लोग। सत्ता के मद में चूर केवल यही लोग समझ रहे थे कि अभी तक के शासन कालों में जनता सबसे अधिक खुशहाल और प्रसन्न है।

ऐसे में बेचारे इन शिक्षकों के परिवारों ने तब हमेशा के लिए दृढ़ होकर संकल्प लिया था कि जिस दल की सरकार ने हमारे परिवारों को भूखों मारा है, उसे सत्ता में अब नहीं आने देंगे। ऐसा हुआ भी। इसीलिए इन शिक्षकों के परिवार आज तक काँग्रेस और विशेषकर दिग्विजय सिंह का बिल्कुल समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि अन्तरात्मा से श्राप दे चुके हैं। सभी शिक्षकों को तभी से उनसे एक घृणा सी हो गई है। शापित होने के कारण ही अब वह दल और दिग्विजय सिंह दोनों बुरी तरह अपना जनाधार खो चुके हैं। हाँ, पार्टी में सक्षम नेतृत्व के अभाव और अपने राजनीतिक छल-बल से वे राज्य सभा के लिए
चुन लिए जाते हैं किन्तु सत्य तो यह है कि उनकी पार्टी में मन से उन्हें कोई भी पसन्द नहीं करता। ऐसे नेता पर मध्य प्रदेश क्या समूचा देश गर्वित न हो कर अत्यधिक लज्जित होता है।

दूसरी सरकारें आईं उन्होंने भी चुनाव के समय झूठे आश्वासन दिए किन्तु किया कुछ नहीं। भला हो उस सुप्रीम कोर्ट का जिसने 2014 में वेतन संदाय अधिनियम 1978 को पुनर्जीवित कर दिया। तब जाकर कुछ न्याय मिल सका। 100% वेतन फिर मिलने लगा लेकिन सन् 2000 से 2014 तक क्या-क्या नहीं बीती इन शिक्षकों पर ईश्वर ही जानता है। इतने पर भी इन शिक्षकों को अभी पूरा लाभ नहीं मिला है।

वर्तमान सरकार ने भी अभी तक सातवाँ वेतनमान नहीं दिया क्रमोन्नति लाभ भी नहीं दिये। यहाँ तक कि सेवानिवृत्त शिक्षकों को आधिकारिक रूप से मिलने वाली ग्रेच्युटी तक नहीं दी पेंशन तो बहुत दूर की बात है। दो साल सेवा का लाभ भी नहीं दिया है। 2016 से सेवानिवृत्त शिक्षकों को कुछ भी नहीं मिला न सातवाँ वेतनमान न क्रमोन्नति,न ग्रेच्युटी, न पेंशन, न दो साल की सेवा का अतिरिक्त लाभ, न समयमान वेतनमान।
देश के दूसरे प्रान्तों में अनुदान प्राप्त शिक्षकों को उक्त सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। कितना अमानवीय व्यवहार हुआ है शिक्षकों के साथ , कल्पना से परे है।

सांसद विधायक आदि पाँच साल तक उच्च वेतन भत्ते व सेवा के बाद पेंशन प्राप्त करते हैं किन्तु 40 साल सेवा करने के बाद भी बेचारे इन शिक्षकों को कोई पेंशन क्यों नहीं मिलती? जब ग्रेच्युटी हर कर्मचारी का अधिकार है तो ग्रेच्युटी क्यों नहीं दे रही सरकार। सत्ता के मद में हमारे नेता क्यों नहीं समझते? समय बढ़ाने के लिए कोर्ट चले जाते हैं। समझ से परे है। गम्भीर विचार करना चाहिए। बुढ़ापा इनको भी सताता है। इनको भी बीमारी घेरती है। दवाइयों की जरूरत इनको भी है। वाह रे संवेदनशील सरकारी तन्त्र! न जाने कितने शिक्षक उचित न्याय अभाव में अपनी जान गँवा रहे हैं।

अब केवल न्यायालय का सहारा है उसमें भी सरकार तारीखों पर तारीखें बढ़वाती रहती है, समय पर न्याय भी नहीं मिलने देती। न्यायालय भी इन प्रकरणों पर ध्यान नहीं देते हैं। शिक्षक है। क्या करेगा? यह सोच कर काँग्रेस अब अपनी बहुत बड़ी भूल को सुधारने की बात कह रही है जबकि सत्ता में रहते मदमाते नेताओं को सोचना चाहिए था कि इस जगह हम होते तो क्या करते, लेकिन इन सभी की संवेदनशीलता मात्र घड़ियाली आंँसू सिद्ध होती रही है।

राष्ट्रनिर्माता कह देना और मानना दोनों बातों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। वर्तमान सरकार से भी पूरी तरह हताश ये शिक्षक घर के रहे न घाट के। इन शिक्षकों के परिवारों में यह भावना घर कर गई है कि सरकारें हमें कुछ नहीं देंगीं जो भी हक मिलेगा वह माननीय कोर्ट के द्वारा ही मिलेगा। अब ये सोच रहे हैं कि मध्यप्रदेश में एक बार फिर सामूहिक प्रण किया जाए। ये शिक्षक संख्या में भले ही कम हों किन्तु किसी एक जाति या किसी एक वर्ग के नहीं होने से इन शिक्षकों को विभिन्न समाजों में पसरे शिष्यों से गहरा सम्मान प्राप्त होता है। जी में आता है कि इस प्रकरण की हर पहलू और उसके परिणाम पर विचार करते हुए ईमानदारी से एक ऐसी पुस्तक लिखी जाए जो काल-पात्र की संज्ञा को प्राप्त हो।

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर