Tuesday, October 29, 2019

जाड़े जी

 जाड़े जी! ओ जाड़े जी! तेरे बजें नगाड़े जी,
 डर के मारे कूलर पंखें भागे छोड़ अखाड़े जी।
  ऊनी कपड़ों ने फिर आकर अपने झडें गाड़े जी,
  बैठ तुम्हारे मेल टेªन पर बिना किरायें भाड़े जी।
 जाड़े जी! ओ जाड़े जी!.................
 आए पहलवान कुहरें जी
 उनको कौन लताड़े जी, जाड़े जी ओ जाड़े जी
 तेरे बजे नगाड़े जी।।
  सूरज जी तो चले आ रहे,
  छिपकर आड़े-जी, जाड़े जी! ओ जाड़े जी!
  तेरे बजे नगाड़े जी।।
 कुछ प्रेरक प्रसग-
 हमें अच्छी सीख चाहे जहाँ से गिले ग्रहण करनी चाहिए। महापुरूषों के जीवन से हमें विशेष रूप से शिक्षा मिलती हे। उनके जीवन के प्रेरक प्रसंगों से न केवल शिक्षा मिलती है, उनके जीवन के प्रेरक प्रसगोंसे जीवन के लिए पे्ररण मिलती है। उन आदर्शो का बोध होता है जो हमारे जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए आवश्यक है।


चूहा और बिल्ली

बिल्ली मौसी बोली, बेटा! आओ-आओ,
मैं आई हूँ हरिद्धार से,
लो थोड़ा सा पेड़ा खाओ।
चूहा बोला, बस, बस, मौसी,
तुम मुझको न ऐसे बहकाओ।
तुम तो मुझको खा जाओगी,
दूर रहो बस पास न आऊँ।
बिल्ली बोली बेटा, मैने,
छोड़ दिया है पाप कमाना।
हरि नाम मैं हूँ जयती,
जल्दी से स्वर्ग मुझे है जाना।
इसी बीच चूहा लगा सोचने,
यह डायन है कैसी बदली।
इस बीच मौका पाकर,
बिल्ली उसके ऊपर ऊछली।
चूहा था चालाक झट,
घुस गया बिल के अन्दर।
रहगई बिल्ली हाथ मसल कर।।


राष्ट्रीय एकता व हिन्दी

  मानव शरीर में जिस प्रकार से एक ही प्रकार के रक्त समूह के संचार से शरीर स्वस्थ व पुष्ट रहता है, ठीक उसी प्रकार से किसी भी राष्ट्र के स्वतन्त्र स्वरूप के लिए एक राष्ट्रभाषा आवश्यक है।
 आज देश की सबसे बड़ी समस्या है राष्ट्रीय एकता। राष्ट्रीय एकता के लिजए राजनीतिक, धार्मिक साम्प्रदायिक तत्वा भाषायी एकता का होना जरूरी है। तो आइये, हम देखतें है कि क्या भारतवर्ष की भाषा, भारतवर्ष को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँध सकती है?
 सन् 1950 मंे पंण्डित जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा था, ''प्रान्तीय भाषाओं के अधिकार क्षेत्रों की सीमाओं का उल्लघंन किए बिना हमारे लिए यह आवश्यक है अखिन भारतीय व्यवहार की एक भाषा हो। करोड़ो लोगों को एक नितांत विदेशी भाषा से शिक्षित नहीं किया जा सकता ।'' जाहिर है उनका इशारा हिन्दी की ओर था। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी को संविधान से बाहर ही रखा।
 एक आयरिश कवि टौमस ने कहा है- ''कोई भी राष्ट्र मातृ-भाषा का परित्याग करके राष्ट्र नहीं कहला सकता। मातृ भाषा की रक्षा सीमाओं की रक्षा से भी ज्यादा जरूरी है।'' साहित्य समाज का दर्पण है तथा भाषा साहित्य सृजन का मूलभूत साधना। इसके माध्यम से व्यक्ति से व्यक्ति अपनी अन्तर्मुखी अनुमतियों तथा योग्ताओं को व्यक्त करता है। समय के साथ-साथ भाषा का महत्व तथा उपादेयता बढ़ती जा रही है। साहित्य, विज्ञान तथा अध्यात्म को विदेशी भाषा में अभिव्यक्त करने की बजाए देशी भाषा में अभिव्यक्त करना स्वाभाविक,सरल तथा उचित है।
 पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा था। ''हिन्दी ही एकमात्र भाषा है, जो सारे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोती है। यदि हिन्दी कमजोर हुई तो देश कमजोर होगा और यदि हिन्दी मजबूत हुई तो देश की एकता मजबूत होगी।''
 आशा की जानी चाहिए कि केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, विश्वविद्यालय अनुदान, आयोग, विश्वविद्यालय प्रशासन, स्वयंसेवी संस्थाओं तथा इन सबसे बढ़कर जनता जनदिन के सहयोग से हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी।


महापुरुषों का चरित्र-चिन्तन की कल्याणकारी

 इस संसार में उन्नति करने-उत्थान के जितने की साधन हंै। सत्संग उन सब में अधिक फलदायक है और सुविधा जनक है। सत्संग का जितना गुणवान किया जाय थोड़ा है पारस लोहे को सोना बना देता है। रामचन्द्र जी के सत्संग से रीछ, वानर भी पवित्र हो गये थे। कृष्ण जी के संग मंे रहने से गँवार समझे जाने वाले गोप-गोपियाँ भक्त शिरोमणि बन गये। सत्संग मनुष्यों का हो सकता है और पुस्तकों का भी श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ उठना बातचीत करना आदि उत्तम पुस्तकों का मध्ययन भी सत्संग कहलाता है। मनुष्यों के सत्संग से जो लाभ होता है वह पुस्तकों के सत्संग से भी सम्भव है। अन्तर इतना है कि संतजनों का प्रभाव शीघ्रपड़ता है। आत्म संस्कार के लिए सत्संग से सरल व श्रेष्ठ साधन दूसरा नहीं है। बड़े-बड़े दुष्ट, बड़े-बड़े पापी घोर दूराचारी सज्जन और सच्चरित्र व्यक्ति के सम्पर्क में आकर सुधरे बिना नहीं रह सकते सत्संग अपना ऐसा जादू डालता है। कि मनुष्य की आत्मा अपने आप शुद्ध होने लगती है। महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आ कर न जाने कितनों का उद्धार हो गया था कभी-कभी विलाजी और फैशन परस्त सच्चे जनसेवक और परोपकारी बन गये थे। पुस्तकों का सत्संग भी आत्म संस्कार के लिए अच्छा साधन हो इस उदद्ेश्य के लिए महापुरूषों के जीवन चरित्र विशेष लाभ प्रद होते हैं। उनके स्वाध्याय से मनुष्य सत्कार्यों मंे प्रकृत होता है। और बुरे कार्यों से मुँह मोड़ता है। गोस्वामी जी की रामयण में राम का आर्दश पढ़ कर न जाने कितनों ने कुमग्र्ग से अपना पैर हटा लिया। महाराणा प्रताप और महाराज शिवाजी की जीवनियों को देश सेवा का पाठ पढ़ाया। सत्संग मनुष्य के चरित्र निमार्ण मंे बड़ा सहायक होता है। हम प्रायः देखते है कि जिनके घरों में बच्चे छोटे दर्जे के नौकरो चाकरों या अशिक्षित पड़ोसियों के संसर्ग में रहते है। वे भी असभ्य हो जाते हैं। और अशिष्ट बन जाते हैं। उनमें तरह-तरह के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। और उनमें से कितनों का जीवन बिगड़ जाता है। इसलिए हमें अपने बच्चों की देखरेख स्वयं भली प्रकार करना चाहियें। उन्हें भले आदमियों के पास उठने-बैठने दिया जाना चाहिये जिसमें उनमें अच्छे आचरण व विचार पनपते हैं। जो स्वयं भी भद्रोचित ढंग से बातचीत करते है। उनके बच्चे भी सभ्यव सुशील होते हैं। और उनकी बात चीत से सुनने वालों को प्रसन्नता होती है। इसलिए संत्सग की आवश्यकता बड़ी आयु में ही नहीं है। वरन् आरम्भ से ही हे। हमको इसविषय में सचेत हरना चाहिये और खराब व्यक्तियों का संग नहीं करना चाहिए। सत्संग का महत्व इस पौराणिक कथा द्वारा भी हम जान सकते है।
 एक कथा प्रसिद्ध है कि एक बार विश्वामित्र ने वशिष्ठ को अपनी एक हजार वर्षों की तपस्या दान कर दी, बदले में वशिष्ठ ने एक क्षण के सत्संग का फल विश्वामित्र को दिया। विश्वामित्र ने अपना समझा। उन्होंने पूछा कि मेरे इतने बड़े दान का बदला आपने इतना कम क्यों दिया? वशिष्ठ जी विश्वामित्र को शेष जी के पास फैसला कराने ले गये शेष जी ने कहा, मैं पृथ्वी का बोझ धारण किये हूँ तुम दोनों अपनी वस्तु के बल से मेरे इस बोझ को अपने ऊपर ले लो हजार वर्ष भी तपस्या की शक्ति से वशिष्ठ पृथ्वी का बोझ न उठा सकें किन्तु क्षणभर के सत्संग के बल से विश्वामित्र ने पृथ्वी को उठा लिया। तब शेष जी ने फैसला किया कि हजार वर्ष की तपस्या से क्षण भर के सत्संग का फल अधिक है। तुलसी दास जी ने सत्संगी को सब मगंलो का मूल कहा है।
सत्संगति मुद मगंल मूला, सोई फल सिधि सब साधन फूला।