Thursday, May 30, 2019

जहाँ पानी ज्यादा खारा नहीं है वहां आरओ बैन करे सरकार


नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने केंद्र सरकार से कहा है कि जिन इलाकों में पानी ज्यादा खारा नहीं है, वहां रिवर्स ओस्मोसिस (आरओ) उपकरणों के इस्तेमाल पर बैन लगाया जाए। एनजीटी ने सरकार को इस बारे में नीति बनाने का भी निर्देश दिया। आदेश में कहा गया है कि जिन जगहों पर पानी में टोटल डिजॉल्व्ड सॉलिड्स (टीडीएस) की मात्रा 500 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम है, वहां घरों में सप्लाई होने वाले नल का पानी सीधे पिया जा सकता है।
एनजीटी ने यह भी कहा कि 60 फीसदी से ज्यादा पानी देने वाले आरओ के इस्तेमाल की ही मंजूरी दी जाए। सरकार की प्रस्तावित नीति में आरओ से 75 फीसदी पानी मिलने और रिजेक्ट होकर निकलने वाले पानी का इस्तेमाल बर्तनों की धुलाई, फ्लशिंग, बागवानी, गाड़ियों और फर्श की धुलाई आदि में करने का प्रावधान होना चाहिए। एनजीटी ने केंद्र सरकार से यह भी कहा है कि लोगों को मिनरल वाले पानी से सेहत को संभावित नुकसानों के बारे में भी बताया जाए।
एनजीटी अध्यक्ष जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ ने उसके द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के बाद आदेश पारित किया और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को निर्देश दिए। कमिटी ने कहा कि अगर टीडीसी 500 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम है तो आरओ प्रणाली उपयोगी नहीं होगी बल्कि उससे महत्वपूर्ण खनिज निकल जाएंगे और साथ ही पानी की अनुचित बर्बादी होगी।
एनजीटी ने कहा, 'पर्यावरण एवं वन मंत्रालय उन स्थानों पर आरओ के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने वाली उचित अधिसूचना जारी कर सकता है जहां पानी में टीडीएस 500 एमजी प्रति लीटर से कम है और जहां भी आरओ की अनुमति है वहां यह सुनिश्चित किया जाए कि 60 प्रतिशत से अधिक पानी को पुन: इस्तेमाल में लाया जाए।'


Monday, May 27, 2019

पक्षियों के लिए खतरा बन रही हैं पवन-चक्कियां सुशीला श्रीनिवास


बेंगलुरु, 27 मई (इंडिया साइंस वायर): पवन अक्षय ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत मानी जाती है। लेकिन, पवन-
चक्की की टरबाइनें आसपास के क्षेत्रों में पक्षियों के जीवन के लिए खतरा बनकर उभर रही हैं। एक नए अध्ययन
में पता चला है कि पवन-चक्कियों के ब्लेड से टकराने के कारण पक्षियों की मौत हो रही है।
गुजरात के कच्छ में स्थित सामाख्याली और कर्नाटक के हरपनहल्ली और दावणगेरे में पवन-चक्की संयंत्रों के
आसपास पक्षियों की मौतों के कारणों की पड़ताल करने के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
इस अध्ययन के दौरान सामाख्याली में 11 प्रजातियों के पक्षियों के 47 कंकाल मिले हैं। इसी तरह, हरपनहल्ली
के पवन-चक्की संयंत्रों के आसपास तीन प्रजातियों के सात पक्षी कंकाल पाए गए हैं।
मृत पक्षियों के कंकालों का पता लगाने के लिए टरबाइनों के 130 मीटर के दायरे में खोजबीन की गई है।
टरबाइन के आसपास के क्षेत्रों की पूरी तरह से खोजबीन करने के लिए पवन-चक्की के आधार से सर्पिल मार्ग चुना
गया ताकि अधिक संख्या में मृत पक्षी कंकाल खोजे जा सकें।



शोधकर्ताओं ने पवन-चक्की टावरों के आसपास पाए गए पक्षियों के शवों, उनके शरीर पर चोट के निशान और
पंखों एवं हड्डियों के अवशेषों की पड़ताल की है। इस तरह मिले आंकड़ों को मृत पक्षियों के अवशेष, प्रजाति और
टरबाइन से जैविक अवशेषों की दूरी के अनुसार वर्गीकृत किया गया है। अध्ययनकर्ताओं ने अन्य जीवों द्वारा
पक्षियों के जैविक अवशेषों के निस्तारण की दर पर भी पर विचार किया है।


कच्छ के कुल 59 पवन-चक्की संयंत्रों में से प्रत्येक संयंत्र के आसपास औसतन 40 दिन के अंतराल पर क्रमशः 23
चक्रों में खोजबीन की गई है। चार प्रमुख जैव विविधता क्षेत्रों से घिरा यह क्षेत्र पक्षियों की विविध प्रजातियों का
आवास है, जहां सर्दियों में आर्कटिक, यूरोप और मध्य एशिया से प्रवासी पक्षी भी आते हैं।सामाख्याली पाए गए पक्षी कंकालों में से 43 कंकाल प्रवासी पक्षियों के आगमन के मौसम में मिले हैं। इनमें से
अधिकतर कंकाल टरबाइन के 20 मीटर के दायरे में पाए गए हैं। टरबाइन से टकराने के कारण कबूतर की
प्रजाति ढोर फाख्ता (यूरेशियन कॉलर डव) की मौतें सबसे अधिक हुई हैं। हौसिल (डालमेशियन पेलिकन) और
कठसारंग (पेंटेड स्ट्रोक) जैसे दुर्लभ प्रजाति के पक्षियों के शव भी शोधकर्ताओं को मिले हैं।
अध्ययन में शामिल पक्षी विज्ञानी डॉ रमेश कुमार सेल्वाराज ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “आसपास
के घास के मैदान चील और बाज जैसे शिकारी पक्षियों की शरणगाह हैं। इस कारण इन पक्षियों के पवन चक्की के
ब्लेड से टकराने का खतरा बना रहता है। शिकारी पक्षियों की उम्र लंबी होती है और ये बहुत कम अंडे देते हैं।
इनकी मौतें अधिक होने से इन पक्षी प्रजातियों पर लुप्त होने का संकट बढ़ सकता है।”
दावणगेरे में जिन पवन-चक्कियों के आसपास यह अध्ययन किया गया है वे पर्णपाती वनों के करीब हैं, जहां
स्थानीय पक्षियों की 115 प्रजातियां पायी जाती हैं। वर्ष 2014-15 के दौरान यहां पवन-चक्की क्षेत्रों में नौ
चरणों में अध्ययन किया गया है। यहां सात पक्षी कंकाल मिले हैं, जिसमें से चार कंकाल प्रवासी पक्षियों के
आगमन के मौसम में पाए गए हैं। ये सभी पक्षी कंकाल पवन-चक्की के 60 मीटर के दायरे में मिले हैं।


शोधकर्ताओं का कहना है कि “इस अध्ययन से प्रति टरबाइन से औसतन 0.5 पक्षियों के मारे जाने का पता
चलता है। यह एक सीमित आंकड़ा हो सकता है क्योंकि पक्षियों के पवन-चक्कियों के ब्लेड से टकराने से होने
वाली मौतें 40 दिन के अंतराल पर दर्ज की गई हैं। नियमित निगरानी से पक्षियों की मौतों से संबंधित आंकड़े
अधिक हो सकते हैं।”
वैज्ञानिकों के अनुसार, पक्षियों की नियमित निगरानी और पवन-चक्की लगाते समय पक्षियों के आवास को ध्यान
में रखते हुए स्थान का चयन करना इस दिशा में महत्वपूर्ण हो सकता है। ऐसा करने से पक्षियों को पवन-चक्कियों
के खतरे से बचाया जा सकता है।
शोधकर्ताओं में रमेश कुमार सेल्वाराज (बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, मुंबई), अनूप वी., अरुण पी.आर., राजा
जयपाल, और मोहम्मद समसूर अली (सलीम अली पक्षीविज्ञान एवं प्रकृतिक इतिहास केंद्र, कोयंबत्तूर) शामिल
थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है।


गोबर के कंडे का इतिहास


धरोहर, गोबर कंडे का होली से क्या रिश्ता है, गोबर की राख में सोना, चांदी, बिजली, धुआं से देवता पुरखे के प्रसन्न क्यों होते हैं। गोबर शब्द का प्रयोग गाय, बैल, भैंस के मल को कहते हैं। घास भूसा खली जो कुछ चैपाया जानवर खाते हैं उनके पाचन से निकले रासायनिक प्रक्रिया को गोबर कहते हैं, ठोस या पतला होता है, रंग पीला काला होता है इसमें घास के टुकड़े अन्न के कुछ कर्ण होते हैं सूख जाने के बाद भी है कंडे के रूप में जाना जाता है। गाय का गोबर कंडे के लिए ज्यादा अच्छा होता है, गोबर में खनिजों की मात्रा अधिक होती है इसमें फास्फोरस, नाइट्रोजन, चूना, पोटाश, मैग्नीज, लोहा, सिल्कन, एलमुनियम, गंधक कुछ आंशिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं। आयोडीन की मात्रा भी होती है इसीलिए गोबर को खेत में डाला जाता है जिन कारणों से मिट्टी को उपजाऊ बनाने में खेत के लिए मदद मिलती है गोवर में ऐसे तत्व पाए जाते हैं जो मिट्टी को जोड़ते हैं अंदर हवा देते हैं जैसे कंपोस्ट खाद केंचुआ खाद, जैविक खाद, गोबर की खाद से धूप अगरबती तैयार होती है। गोबर के कंडों को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं जिससे खाना बनता है गोबर का महत्व इस बात से लगाया जा सकता है कि सृष्टि के देवता भगवान गणेश, माता गौरी की पूजा की मूर्ति गोबर की होती है। हर शुभ कार में जमीन को गोबर से लीपा जाता है जीवन का समय हो, मृत्यु का समय हो, शमशान जाने का समय हो, सुख का समय हो, दुख का समय हो हरित क्रांति के दौरान अधिक फसल लेने के उद्देश्य खेतों में आता अधिक फर्टिलाइजर डाला गया है।मिट्टी में जैविक तत्व की कमी हो गई है खेत बीमार हो गए हैं उसकी बीमारी दूर करने के लिए केवल गोबर ही इलाज है गोबर की खेती से उपजे गेहूं, धान, दाल, दलहन का स्वाद व प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है। यह अनाज के साथ दवा है गोबर के कंडे का धुआं शरीर के लिए फायदेमंद है कंडे के धुए से देवता प्रसन्न होते हैं ग्रह कलेश शांत होता है, कंडे का धुआं लकड़ी के अपेक्षा अधिक फायदेमंद है गाय के गोबर के कंडे ई-कॉमर्स मार्केटिंग के माध्यम से बेचे जा रहे हैं 12 कंडे 120 से अधिक में बिकते हैं। एक अध्ययन से सिद्ध हो गया है कि जिस घर में प्रतिदिन गाय के गोबर से नियमित धुआं किया जाता है उस घर में देवताओं का वास हो जाता है बीमारियां उस घर के पास तक नहीं आती उस घर का वातावरण शुद्ध होता है। परिवार के सभी सदस्य प्रसन्न रहते हैं, कंडे की आग दूध, घी, रोटी, दाल, सब्जी सबके के लिए फायदेमंद है कंडे की आग में में बनाया गया भजन सबसे अधिक पाचक होता है। एक अंतरराष्ट्रीय प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्तरीय प्रयोगशाला ने 19 सितंबर 2016 को रिपोर्ट के दौरान यह पाया है, कि गोबर में तथा उसकी राख में सोना चांदी लोहा के साथ अन्य मिनरल पाए जाते हैं और यह शरीर के लिए फायदेमंद है इसलिए गोबर के कंडे की राख की रोटी आयुर्वेदिक विधि के अनुसार फायदेमंद है। गोबर से लीपा गया भवन वैदिक महत्त्व से मूल्यवान है। बालू, प्लास्टिक, सीमेंट की अपेक्षा 100 गुना अच्छा है यह वैदिक प्लास्टर है, गोबर में बिजली होती है जिसे सौर ऊर्जा प्लांट कहते हैं। लगभग कई गांव में चल रहे हैं कंडे की आंच से उठने वाले धुए से पुरखे प्रसन्न होते हैं, अतृप्त आत्मा तृप्त हो जाती हैं, मनुष्य का गोबर से तब तक रिश्ता रहता है जब तक वह जीवित रहता है अंतिम समय जिस तरह गोबर का कंडा राख जाता है उसी तरह मनुष्य भी राख हो जाता है। बचपन में हमारी अम्मा भोजन करने के बाद राख खाने के लिए दिया करती थी और कहती थी कि इससे खाया गया भोजन पच जाएगा। पीतल के बर्तन राख सेस साफ किए जाते थे, गोबर की होली शरीर के लिए इसलिए फायदेमंद है क्योंकि गोबर में वह सारे विटामिन पाए जाते हैं जिनके शरीर में पढ़ते ही रोग ठीक हो जाते हैं। होली का पूरा त्यौहार गोबर के विज्ञान पर आधारित है चाहे होलिका दहन हो, हर घर में गोबर के चंद्रमा, सूर्य बल्ले बनाए जाते हैं गोबर की होली खेली जाती है यह हमारी परंपरा रही है हमारे गांव जहां पर प्रकृति ने भोजन बनाने के लिए पूरे गांव में कंडे के बड़े-बड़े भट्टे बनाए रखें यह प्रकृति की देन है। आज पशुधन खत्म हो जा रहा है।भविष्य में शायद एक कंडे की भट्टी देखने को ना मिले सर्वोदय कार्यकर्ता होने के नाते मैंने जो अपने गांव में देखा आपके साथ साझा कर रहा हूं। शायद युवा पीढ़ी कुछ समझे होली सबकी शुभ हो। गोबर की होली की शुरुआत वृंदावन में भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन उठाकर ग्वाल बालों के साथ शुरू किए क्योंकि सबसे अधिक गाय माता वहीं पर थी। हमारे बुंदेलखंड में दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा होती है, गाय के गोबर से लोक देवता बनाए जाते हैं जिन्हें बासी भोजन कराया जाता है कई दिनों तक उस गोबर को पूजा के बाद खेतों में डाला जाता इससे धन, धान की वृद्धि होती है। गोबर के महत्व पर चित्रकूट कामदगिरि के प्रमुख महंत मदन गोपाल दास जी महाराज कहते हैं की हर व्यक्ति को एक गाय पाली चाहिए, गाय के गोबर से बने कंडे से रोटी बनानी चाहिए प्राकृतिक पर्यावरण दृष्टि से, गाय के गोबर की बनी रोटी से लकड़ी बचेगी पेड़ हम नहीं बना सकते पेड़ जल के लिए आवश्यक है, पर्यावरण के लिए आवश्यक है। होली पर संकल्प लें कि अगले वर्ष हम अपने गाय के गोबर से बने कंडो से दहन कर होली खेलेंगे। महोबा के प्रसिद्ध समाजसेवी श्री मनोज तिवारी जी कहते हैं कि गांव की खेती किसानी मे गोबर का बहुत महत्व है गोबर में प्राकृतिक घास फूस के गुण हैं औषधियां है किसान का मित्र है।



आयुर्वेद के जानकार प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ सचिन उपाध्याय कहते हैं कि गाय के गोबर में वे तत्व पाए जाते हैं जो शरीर के लिए उपयोगी है। गोबर में, कंडे में, धुए मे, आग में, राख में, अलग अलग औषधि गुण है। गोबर से स्नान करने पर निरोगी जीवन के लिए बड़ा महत्व है, गोबर एक रहस्य है जिसकी अनुसंधान की बड़ी आवश्यकता है खेती के लिए , शारीरिक बीमारी के लिए, भोजन बनाने के लिए, हमारे पूर्वज हजारों वर्षों से गोबर के कंडे की आग पर रोटी बना रहे हैं, वे हम से अधिक जानकार थे।


उमा शंकर पांडे सर्वोदय कार्यकर्ता बांदा बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश।