क्या आपको पता है?
Thursday, January 4, 2024
किवाड़ की जोड़ी
Monday, December 18, 2023
ड्योढी पर पड़े पायदान पर, अपना अहं झाड़ आना
आ गए तुम?
Tuesday, August 29, 2023
ख़ुश है चाँद
और जहाँ आस्था और विश्वास भी हो, वहाँ तो ईश्वर भी साथ देता है!
Thursday, June 22, 2023
गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है
Wednesday, January 4, 2023
गांधी बनना आसान नहीं
जो लोग रोज बखेड़ा करते,
Sunday, June 12, 2022
चलो साथ दे दो जीत हम जाएंगे
वक्त की आंधियां आओ सह लें चलो
लड़खड़ाते कदम फिर संभल जाएंगे
आओ हम ही चलो आज झुक जाएंगे
टूटते रिश्ते फिर से संभल जाएंगे..।।
रिश्तों के खेत में हो उपज प्रेम की
खुशियों के उर्वरक से ही हरियाली हो
काट लें आओ मिलकर फसल प्रेम की
मन के खलिहान फिर से संवर जाएंगे..।।
जो कभी थे हमारे वो अब क्यों नहीं
प्रीति सच्ची थी पहले तो अब क्यों नहीं
आओ छोड़ो शिकायत ख़तम करते हैं
आज फिर पहले जैसे निखर जाएंगे..।।
अपनों से खेद ज्यादा उचित भी नहीं
रख लो मत भेद मन भेद फिर भी नहीं
अपनों से जीत जाना भी इक हार है
हार मानो चलो एक हो जाएंगे..।।
सच्ची निष्ठा प्रतिष्ठा सदा प्रेम से
जीवन में बस प्रगति अपनों के साथ से
एक जुटता से ही मिलता संबल सदा
साथ दे दो चलो जीत हम जाएंगे..।।
साथ दे दो चलो जीत हम जाएंगे..।।
् विजय कनौजिया
Monday, June 6, 2022
डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए
बिक रहा पानी, पवन बिक न जाए,
बिक गयी धरती, गगन बिक न जाए !
अब तो चाँद पर भी बिकने लगी है ज़मीं
डर है कि सूरज की तपन बिक न जाए !
देकर दहेज खरीदा गया है दुल्हे को
कहीं उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए !
धर्म लाचार है ठेकेदारों के पैरों तले,
डर है कि कहीं ये अमन बिक न जाए !
हर काम की रिश्वत ले रहे हैं नेता.
उनके हाथों कहीं ये वतन बिक न जाए !
सरेआम बिकने लगे हैं अब तो सांसद,
डर है कि संसद भवन बिक न जाए !
आदमी मरा तो भी आखें खुली हुई है,
डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए !!
Thursday, May 12, 2022
पार्थ सारथी तलास एक नई राह
Wednesday, May 11, 2022
सुकून मिले
तपती देह जब उमस और भीषण गर्मी से
ओंठ कंठ तक प्राण बसते सूखे आकर।माथे से टपके स्वेदो टपके है पग में छाले
नदिया पोखर शीतलता से सुकून पाकर।
मन में जब और अवसाद भरा क्षण भर
मां की ममता शीतल आंचल मिल जाए।
मन की पीड़ा और व्यथा में मिले शांति
मां की ममता से भरा सुकून मिल जाए।।
भूख बढ़ी ज्वाला में असह भूख मिटाने
रूखी सूखी रोटी भी प्रिय भोजन मीठा
उदर ज्वाला को एक सुकून मिल जाए
पेट भरा हो तब तो फिर सब सो इतराए।
प्रिया प्रेम की आंखों में प्रीतम प्यारे को
रसभरी मद मुग्ध नयन फिर सदा बिछे।
करकी किबाड़ ओट से झलक मिले तो
विरहिन प्रिय को एक सुकून शांति मिले।
प्रणय प्रेम में भरी प्रिय चाहत उम्मीदों से
प्रियवर से कर मान मनौती पूरी चली है
उठी प्रेम की ज्वाला में प्रियतम बोली से
उम्मीद भरी ताप धरा सी सुकून मिले हैं।
बच्चों की प्रिय तोतली बोली दिल बसती
वीणा गुंजन सरगम कीमत सबसे फीके है।
नन्हे पग रखते बच्चा मां का आंचल पकड़े
मां बाप को सुकून मिले जंग सभी जीते है।
दिन मेहनत मजदूरी करके श्रममूल्य मिले
दर्पण सा चेहरा चमका है सौसौ बार खिले।
अपनी झोपड़पट्टी में कुछ मटकी में चावल
लाकर रखता घर को पोषण सुकून मिले।
चले शहर से गांव घर देख धुआ चूल्हा में
अपने घरके सुखयादों में पग से जल्दी चले
दिनभर की श्रमपीड़ा से विमुक्त हुए घर में
प्रियहाथों से जल पी आंखों में सुकून मिले।
खेती-बाड़ी निज गौशाला में गायों को देख
कृषकआंखें चमकी नेहभरी धरती को चूमे
घरअनाज भंडार भरा सुकून मिले दिल को
घर आंगन में रंग भरे बिखरी मस्ती से झूमे।
लेखन
के एल महोबिया
Saturday, May 7, 2022
वतन
वतन
Thursday, May 5, 2022
मां
मां के प्यार सा संबल
संजीव-नी
नहीं दिखता इन्हें,
मिट्टी के गोले का अंतहीन,
आकार रहित बस्तर,
बस्तर का महुआ,सागौन,
साल, बुलाते हैं,
लोग बस कविता कर जाते हैं,
घूम जाते हैं तीरथगढ़
कुटुमसर, चित्रकूट,
दो शब्द लिख जाते हैं कटाक्ष की तरह,
गंगालूर की घाटियों में,
लोदे सा मरता आदमी नहीं दिखता,
महुआ से टपकती मौत की आवाज,
नाले का कीचड़ पिता मारिया,
चरोटा भाजी से ओंटता पेट,
पेचिश की खुनीं रफ्तार,
बाल की खाल खाता लगोंटी धारी,
मिर्च और इमली के पानी से भरता पेट,
नहीं दिखती विलासी कविता को
नहीं दिखती एठती आदिवासी सुप्रिया की नसे,
नहीं दिखती मिट जाती कीचड़ सनी
आंखों में मौत की नींद,
नहीं गंदा थी तपते धूप से जलते,
आदिवासी मांस की,
वही पलाश, टेसू और गुलर
जो कैनवास देते हैं,
इन विलासी कविताओं को,
मौत देते हैं वही पतझड़ में,
लंगोटी को,
नहीं दिखता भूख से जंगल में मौत का तांडव,
इन्हें दिखती है राजधानी से आदी बालाओं के,
नग्न शरीर के लुभावने कटाव,
दिखती है उन्हें खुली जिंदगी,
मस्त व्यसन कारी,
महुआ बीनती,
मदहोश आदी बालाएं,
यूएसए हुई अंत जिंदगियां नहीं दिखती,
कीचड़ से पानी के कतरे तलाश थी
गरीब मोरिया नहीं दिखती,
अंतहीन पसीने की बूंदे ,
मौत का अनवरत आदिवासी सिलसिला
नहीं दिखता इन्हें,
इन्हें दिखती हैं कविताएं,
अपने बस्तर प्रेम की
बुद्धिजीवी छाप, और
घड़ियाली आंसुओं का सैलाब|
संजीव ठाकुर, रायपुर छ.ग.