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Thursday, January 4, 2024

किवाड़ की जोड़ी

 क्या आपको पता है?

कि किवाड़ की जो जोड़ी होती है,
उसका एक पल्ला पुरुष और,
दूसरा पल्ला स्त्री होती है।
ये घर की चौखट से जुड़े-जड़े रहते हैं।
हर आगत के स्वागत में खड़े रहते हैं।।
खुद को ये घर का सदस्य मानते हैं।
भीतर बाहर के हर रहस्य जानते हैं।।
एक रात उनके बीच था संवाद।
चोरों को लाख-लाख धन्यवाद।।
वर्ना घर के लोग हमारी,
एक भी चलने नहीं देते।
हम रात को आपस में मिल तो जाते हैं,
हमें ये मिलने भी नहीं देते।।
घर की चौखट से साथ हम जुड़े हैं,
अगर जुड़े जड़े नहीं होते।
तो किसी दिन तेज आंधी-तूफान आता,
तो तुम कहीं पड़ी होतीं,
हम कहीं और पड़े होते।।
चौखट से जो भी एकबार उखड़ा है।
वो वापस कभी भी नहीं जुड़ा है।।
इस घर में यह जो झरोखे,
और खिड़कियाँ हैं।
यह सब हमारे लड़के,
और लड़कियाँ हैं।।


तब ही तो,
इन्हें बिल्कुल खुला छोड़ देते हैं।
पूरे घर में जीवन रचा बसा रहे,
इसलिये ये आती जाती हवा को,
खेल ही खेल में,
घर की तरफ मोड़ देते हैं।।
हम घर की सच्चाई छिपाते हैं।
घर की शोभा को बढ़ाते हैं।।
रहे भले कुछ भी खास नहीं,
पर उससे ज्यादा बतलाते हैं।
इसीलिये घर में जब भी,
कोई शुभ काम होता है।
सब से पहले हमीं को,
रँगवाते पुतवाते हैं।।
पहले नहीं थी,
डोर बेल बजाने की प्रवृति।
हमने जीवित रखा था जीवन मूल्य,
संस्कार और अपनी संस्कृति।।
बड़े बाबू जी जब भी आते थे,
कुछ अलग सी साँकल बजाते थे।
आ गये हैं बाबूजी,
सब के सब घर के जान जाते थे ।।
बहुयें अपने हाथ का,
हर काम छोड़ देती थी।
उनके आने की आहट पा,
आदर में घूँघट ओढ़ लेती थी।।
अब तो कॉलोनी के किसी भी घर में,
किवाड़ रहे ही नहीं दो पल्ले के।
घर नहीं अब फ्लैट हैं,
गेट हैं इक पल्ले के।।
खुलते हैं सिर्फ एक झटके से।
पूरा घर दिखता बेखटके से।।
दो पल्ले के किवाड़ में,
एक पल्ले की आड़ में,
घर की बेटी या नव वधु,
किसी भी आगन्तुक को,
जो वो पूछता बता देती थीं।
अपना चेहरा व शरीर छिपा लेती थीं।।
अब तो धड़ल्ले से खुलता है,
एक पल्ले का किवाड़।
न कोई पर्दा न कोई आड़।।
गंदी नजर ,बुरी नीयत, बुरे संस्कार,
सब एक साथ भीतर आते हैं ।
फिर कभी बाहर नहीं जाते हैं।।
कितना बड़ा आ गया है बदलाव?
अच्छे भाव का अभाव।
स्पष्ट दिखता है कुप्रभाव।।
सब हुआ चुपचाप,
बिन किसी हल्ले गुल्ले के।
बदल किये किवाड़,
हर घर के मुहल्ले के।।
अब घरों में दो पल्ले के,
किवाड़ कोई नहीं लगवाता।
एक पल्ली ही अब,
हर घर की शोभा है बढ़ाता।।
अपनों में नहीं रहा वो अपनापन।
एकाकी सोच हर एक की है,
एकाकी मन है व स्वार्थी जन।।
अपने आप में हर कोई,
रहना चाहता है मस्त,
बिल्कुल ही इकलल्ला।
इसलिये ही हर घर के किवाड़ में,
दिखता है सिर्फ़ एक ही पल्ला!

Monday, December 18, 2023

ड्योढी पर पड़े पायदान पर, अपना अहं झाड़ आना

 आ गए तुम?

द्वार खुला है, अंदर आओ..!
पर तनिक ठहरो..
ड्योढी पर पड़े पायदान पर,
अपना अहं झाड़ आना..!
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीँ उड़ेल आना..!
तुलसी की क्यारी में,
मन की चटकन चढ़ा आना..!
अपनी व्यस्ततायें,*बाहर खूंटी पर ही *टांग आना..!
जूतों संग, हर नकारात्मकता उतार आना..!
बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत माँग लाना..!
वो गुलाब के गमले में,
मुस्कान लगी है..
*तोड़ कर पहन आना..!*
लाओ, अपनी उलझनें मुझे थमा दो..
तुम्हारी थकान पर, *मनुहारों का पँखा झुला दूँ..!
देखो, शाम बिछाई है मैंने,
सूरज क्षितिज पर बाँधा है,
लाली छिड़की है नभ पर..!
प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर,* चाय चढ़ाई है,
घूँट घूँट पीना..!
सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना..!!

Tuesday, August 29, 2023

ख़ुश है चाँद

“ख़ुश है चाँद!”
कल रात तारों ने जब नभ में बारात सजाई।
तो चाँद के चेहरे पर एक अलग ही ख़ुशी नज़र आई!
झिलमिलाते तारों ने पूछा, “इस ख़ुशी के पीछे क्या राज है छुपाया?”
तो चाँद मुस्कुराकर बोला, “अरे कुछ नहीं, बस धरती से मेरा भांजा विक्रम है आया!
वर्षों बाद मेरी बहन भारती ने मेरी राखी भिजवाई है।
जो मैंने भांजे के हाथ से बड़े प्यार से बँधवाई है!
अब १४ दिन भांजा विक्रम मेरे घर पर ही रहेगा।
कुछ दिन तो कोई मेरा अकेलापन दूर करेगा!


मैं उसे पूरा घर घुमाकर अपने बारे में सब बातें बताऊँगा।
और फिर जानकारी भरे तोहफ़े बहन भारती को भिजवाऊँगा!”
तारों ने हैरानी से पूछा “अरे! इससे पहले भी कई मेहमान आए।
पर तुमने तो बाहर से ही सबके सब लौटाए!
कोई तुम्हारे दक्षिण ध्रुव पर कदम भी न रख पाया।
फिर इस विक्रम को क्यूँ तुमने बड़े प्यार से है गले लगाया?”
चाँद फिर मुस्कुराया और बोला, “यूँ तो मुझे सारी धरती ही प्यारी है।
पर धरती के भारत देश की तो कुछ बात ही न्यारी है!
जानते हो वहाँ के लोग उसे माँ भारती कहके बुलाते हैं।
और उसकी आन-बान-शान के लिए हँसकर जान लुटाते हैं!
वर्षों से भारती के वैज्ञानिक बेटे जिद पर डटे थे।
और मुझसे मिलने की धुन में जी-जान से जुटे थे!
भारती कहती है मुझे भाई और उसके बच्चे मामा समझते हैं।
जाने कितनी कहानियों कविताओं में मेरे ही क़िस्से मिलते हैं!
यही नहीं प्रेमी युगल तो मुझे बड़े प्यार से पुकारते हैं।
और विरह में तो मुझमें ही महबूब की सूरत निहारते हैं!
वहाँ की महिलाएँ हर तीज चौथ पर मेरी एक झलक को तरसती हैं।
पहले मुझे पानी पिलाती हैं, उसके बाद ही भोजन करती हैं!
इसलिए मैंने भी भारती को अपनी बहन बना लिया है।
और भांजे विक्रम का स्वागत कर स्नेह का रिश्ता निभा लिया है!
वैसे भी मेहनत और लगन का फल तो सफलता ही होता है।

और जहाँ आस्था और विश्वास भी हो, वहाँ तो ईश्वर भी साथ देता है! 

Thursday, June 22, 2023

गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है

*गाँव बेचकर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है।*
*जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है।*
*बेचा है ईमान धरम तब, घर में शानो शौकत आई है।*
*संतोष बेच, तृष्णा खरीदी, देखो कितनी मंहगाई है।।*
बीघा बेच स्कवायर फीट खरीदा, ये कैसी सौदाई है।
संयुक्त परिवार के वट वृक्ष से टूटी, ये पीढ़ी मुरझाई है।।
*रिश्तों में है भरी चालाकी, हर बात में दिखती चतुराई है।*
कहीं गुम हो गई मिठास, जीवन से, हर जगह कड़वाहट भर आई है।।

रस्सी की बुनी खाट बेच दी, मैट्रेस ने जगह बनाई है।
अचार, मुरब्बे को धकेल कर, शो केस में सजी दवाई है।।
*माटी की सोंधी महक बेच के, रुम स्प्रे की खुशबू पाई है।*
मिट्टी का चुल्हा बेच दिया, आज गैस पे बेस्वाद सी खीर बनाई है।।
*पांच पैसे का लेमनचूस बेचा, तब कैडबरी हमने पाई है।*
*बेच दिया भोलापन अपना, फिर मक्कारी पाई है।।*
सैलून में अब बाल कट रहे, कहाँ घूमता घर- घर नाई है।
दोपहर में अम्मा के संग, गप्प मारने क्या कोई आती चाची ताई है।।
मलाई बरफ के गोले बिक गये, तब कोक की बोतल आई है।
*मिट्टी के कितने घड़े बिक गये, तब फ्रिज में ठंढक आई है ।।*
खपरैल बेच फॉल्स सीलिंग खरीदा, हमने अपनी नींद उड़ाई है।
*बरकत के कई दीये बुझा कर, रौशनी बल्बों में आई है।।*
गोबर से लिपे फर्श बेच दिये, तब टाईल्स में चमक आई है।
*देहरी से गौ माता बेची, फिर संग लेटे कुत्ते ने पूँछ हिलाई है ।।*
*बेच दिये संस्कार सभी, और खरीदी हमने बेहयाई है।*
ब्लड प्रेशर, शुगर ने तो अब, हर घर में ली अंगड़ाई है।।
*दादी नानी की कहानियां हुईं झूठी, वेब सीरीज ने जगह बनाई है।*
बहुत तनाव है जीवन में, ये कह के मम्मी ने दो पैग लगाई है।।
*खोखले हुए हैं रिश्ते सारे, नहीं बची उनमें सच्चाई है।।*
*चमक रहे हैं बदन सभी के, दिल पे जमी गहरी काई है।*
*गाँव बेच कर शहर खरीदा, कीमत बड़ी चुकाई है।।*
*जीवन के उल्लास बेच के, खरीदी हमने तन्हाई है।।*

Wednesday, January 4, 2023

गांधी बनना आसान नहीं

जो लोग रोज बखेड़ा करते,

    उल्टा सीधा कहते फिरते।
मैं उनको आज बताना चाहूं
   गांधी बनना आसान नहीं ।

जो लोगों को हैं समझाते ,
     गांधी को समकक्ष बताते। 
उनको मैं आज बताना चाहूं,
      गांधी शक्ति का उनको भान नहीं।

जो नींवों की अनदेखी करते,
    दीवारों की बम बम करते।
उनको मैं आज बताना चाहूं
   ‌नींव बनना आसान नहीं ।

पर तंत्र में विरुद्ध खड़ा होना,
   ग़लत नीतियों पर उसको धोना ।
 उनको मैं आज बताना चाहूं, 
   इतना छोटा भी काम नहीं।

आधी धोती पहनकर चलना,
    पद पैसे की चाह न रखना।
उनको मैं आज बताना चाहूं,
    यह और किसी के नाम नहीं।

निज हित से हो सराबोर,
     जो गांधी निंदा करते मुंहजोर ।
उनको मैं आज बताना चाहूं,
    गांधी जैसा किसी का काम नहीं।

     - हरी राम यादव
       स्वतंत्र लेखक एवं कवि

Sunday, June 12, 2022

चलो साथ दे दो जीत हम जाएंगे

वक्त की आंधियां आओ सह लें चलो

लड़खड़ाते कदम फिर संभल जाएंगे

आओ हम ही चलो आज झुक जाएंगे

टूटते रिश्ते फिर से संभल जाएंगे..।।


रिश्तों के खेत में हो उपज प्रेम की

खुशियों के उर्वरक से ही हरियाली हो

काट लें आओ मिलकर फसल प्रेम की

मन के खलिहान फिर से संवर जाएंगे..।।


जो कभी थे हमारे वो अब क्यों नहीं

प्रीति सच्ची थी पहले तो अब क्यों नहीं

आओ छोड़ो शिकायत ख़तम करते हैं

आज फिर पहले जैसे निखर जाएंगे..।।


अपनों से खेद ज्यादा उचित भी नहीं

रख लो मत भेद मन भेद फिर भी नहीं

अपनों से जीत जाना भी इक हार है

हार मानो चलो एक हो जाएंगे..।।


सच्ची निष्ठा प्रतिष्ठा सदा प्रेम से

जीवन में बस प्रगति अपनों के साथ से

एक जुटता से ही मिलता संबल सदा

साथ दे दो चलो जीत हम जाएंगे..।।

साथ दे दो चलो जीत हम जाएंगे..।।


् विजय कनौजिया


Monday, June 6, 2022

डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए

बिक रहा पानी, पवन बिक न जाए,

बिक गयी धरती, गगन बिक न जाए ! 

अब तो चाँद पर भी बिकने लगी है ज़मीं 

डर है कि सूरज की तपन बिक न जाए ! 

देकर दहेज खरीदा गया है दुल्हे को 

कहीं उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए !

 धर्म लाचार है ठेकेदारों के पैरों तले, 

डर है कि कहीं ये अमन बिक न जाए ! 

हर काम की रिश्वत ले रहे हैं नेता. 

उनके हाथों कहीं ये वतन बिक न जाए !

 सरेआम बिकने लगे हैं अब तो सांसद, 

डर है कि संसद भवन बिक न जाए ! 

आदमी मरा तो भी आखें खुली हुई है, 

डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए !!

Thursday, May 12, 2022

पार्थ सारथी तलास एक नई राह


 हे जग सारथी अब टूट रहा है इंसान ।
 एक बार को पुनः सुसज्जित
 कुरुक्षेत्र का यह मैदान ।।

उस रथ पर तो एक धनुर्धर 
न्याय पताका ले बैठा था ।
 अब तो ना रथ और रथी 
केवल तेरा आसरा है ।।

 असत्य पर सत्य कैसे जीतता 
इसका राह दिखाया था ।
 आज दोनो साथ बैठा है 
जनता भ्रमित सा दिखता है ।।

 धर्म विजय के खातिर तुमने
 वहाँ दिया गीता का ज्ञान ।
अहंकारी और दंभी को
 दिखाया अपना होने का प्रमाण ।।

 अब तो सब दंभी ही 
अपने को समझते हैं भगवान ।
एक बार तुम रथ सजाकर
 करवा दो अपना भान ।।

 हे पीत वसन धारी हे लीलाधर, 
दिखलाओ अपनी लीला ।
 भारतवर्ष की पुण्य धरा 
भूल रही आपकी लीला ।।

 वाका काका पूतना आदि
 शर ताने हो रहा खड़ा ।
 कान्हा के उस बाल रूप का 
जनता कर रहा आशा ।।

 कंस का आतंक अब 
फिर फैला है चारों ओर ।
मुरली छोड़ो कान्हा अब 
शांति कर दो चारों ओर ।।

 जरासंध का अत्याचार अब 
फैल रहा संपूर्ण भूभाग ।
अधर्मी और अताताई का
 संघार कौन करेगा आज ।।

 कुटिलों की कुटिल चालें अब
 एक जगह एकत्रित है ।
इस चक्रव्यूह में फंसे आम जन, 
वेधने की जरूरत है ।।

 तुम तो हो न्याय रथी फिर
 अन्याय कैसे देख सकते हो ।
जरूरत हो तो पुनः एक
 पार्थ तो तैयार कर सकते हो ।।

 पुत्र मोह में धृतराष्ट्र बैठा,
 पुत्र मोह में द्रोण है ।
अब ना कोई गंगा पुत्र 
और ना विदुर का कोई ज्ञान है ।।

 अब तो बस एक ही चिंता 
सत्ता कैसे लूटें ।
आम जन में भ्रम फैला कर 
जनता को कैसे लूटें ।।

 शकुनि का बस एक काम 
छल और प्रपंच बढ़ाना ।
लाक्षागृह में जो भी हो 
उसमें आग लगाना ।।

 आर्यावर्त कि यह पुण्य धरा
 गवाही इस बात का देता ।
जब जब धरा पर अन्याय बढ़ा
 तेरा ही अवतारण होता ।।

 मन में बस एक प्रश्न -
क्या अन्याय की घड़ा है भरने वाली ?
और अपने क्या एक समर्थ 
पार्थ की खोज कर दी जारी ??

 हाथ जोड़ बस एक निवेदन
 धर्म पताका अब पुनः लहराओ ।
अधर्म का मर्दन कर
 आम जन को सत्य पथ दिखलाओ ।।
श्री कमलेश झा
नगरपारा भागलपुर 

Wednesday, May 11, 2022

सुकून मिले

तपती देह जब उमस और भीषण गर्मी से

ओंठ कंठ तक प्राण बसते सूखे  आकर।
माथे से टपके स्वेदो टपके है पग में छाले
नदिया पोखर शीतलता से सुकून पाकर।

मन में जब और अवसाद भरा क्षण भर
मां की ममता शीतल आंचल मिल जाए।
मन की पीड़ा और व्यथा में मिले शांति
मां की ममता से भरा सुकून मिल जाए।।

भूख बढ़ी ज्वाला में असह भूख मिटाने
रूखी सूखी रोटी भी प्रिय भोजन मीठा
उदर ज्वाला को एक सुकून मिल जाए
पेट भरा हो तब तो फिर सब सो इतराए।

प्रिया प्रेम की आंखों में प्रीतम प्यारे को
रसभरी मद मुग्ध नयन फिर सदा बिछे।
करकी किबाड़ ओट से झलक मिले तो
विरहिन प्रिय को एक सुकून शांति मिले।

प्रणय प्रेम में भरी प्रिय चाहत उम्मीदों से
प्रियवर से कर मान मनौती पूरी चली है
उठी प्रेम की ज्वाला में प्रियतम बोली से
उम्मीद भरी ताप धरा सी सुकून मिले हैं।

बच्चों की प्रिय तोतली बोली दिल  बसती
वीणा गुंजन सरगम कीमत सबसे फीके है।
नन्हे पग रखते बच्चा मां का आंचल पकड़े
मां बाप को सुकून मिले जंग सभी जीते है।

दिन मेहनत मजदूरी करके श्रममूल्य मिले
दर्पण सा चेहरा चमका है सौसौ बार खिले।
अपनी झोपड़पट्टी में कुछ मटकी में चावल
लाकर रखता घर को पोषण सुकून मिले।

चले शहर से गांव  घर देख धुआ चूल्हा में
अपने घरके सुखयादों में पग से जल्दी चले
दिनभर की श्रमपीड़ा से विमुक्त हुए घर में
प्रियहाथों से जल पी आंखों में सुकून मिले।

खेती-बाड़ी निज गौशाला में गायों को देख
कृषकआंखें चमकी नेहभरी धरती को चूमे
घरअनाज भंडार भरा सुकून मिले दिल को
घर आंगन में रंग भरे बिखरी मस्ती से झूमे।

     लेखन ✍️🙏🌷
    के एल महोबिया

Saturday, May 7, 2022

वतन

       वतन 


इन हवाओ में बसे है प्राण मेरे दोस्तों
 इस वतन की मिटटी में है जान मेरी दोस्तों 
और भी दुनिआ के नक़्शे में हज़ारो मुल्क है 
पर तिरंगे की सबसे जुदा है शान मेरे दोस्तों 

आज बैठी है ये दुनिआ ढेर पर बारूद के 
कौन देगा अमन का पैगाम मेरे दोस्तों 
राह से भटके है जो वो भी राह पर आ जाएंगे 
कोई उनको भी दे प्यार का पैग़ाम मेरे दोस्तों 

क्या मिला है जंग से किसको कभी जो अब मिले 
कितने कलिंगो में निकाले अरमां मेरे दोस्तों 
कितने सिकंदर लूट कर दुनिआ को ख़ाली चल दिए 
ख़ाली हाथ में देखा नहीं कोई सामान मेरे दोस्तों 

चन्द सिक्को में न बेचो तुम वतन की आबरू 
पहले भी खादी हो चुकी बदनाम मेरे दोस्तों 
और इंसानो को ज़रूरत है तो बस इंसान की 
दूर कर दो हैवान का गुमान मेरे दोस्तों 

बख्श दो आबो हवा इस ज़हर को रोको यही 
आने वाली नस्लों  पे करो अहसान मेरे दोस्तों 
दुनिआ की नज़रे जब तलाशेंगी धरम का रास्ता 
विश्व गुरु का तब मिलेगा सम्मान मेरे दोस्तों

हरविंदर सिंह गुलाम

Thursday, May 5, 2022

मां

मां के प्यार सा संबल

नहीं जहां में,
दिवस हो या निशा
मां बच्चों के हर्ष हेतु
करती चिंतन मनन,
अहसास व्यथा का
तभी तक होता
यदा मां के प्रेम का
मरहम व्यथा पे लगता,
वरना दुनियां तो 
बना देती दर्द का पर्याय
मां के छांव से दूर होते ही,
जीवन से विलुप्त हो जाता
निश्छल प्रेम का अध्याय।
किंचित तबीयत नासाज होने पे,
अपार परवाह करती मां,
संपूर्ण धरा हेतु 
ईश्वर का वरदान मां,
अपार अनुराग तिरोहित
मां के क्रुद्ध में ,
क्या कोई करे मां पे 
रचना सृजन,
हम सब मां के सृजन।

                (स्वरचित)
                 सविता राज

संजीव-नी

नहीं दिखता इन्हें,

 मिट्टी के गोले का अंतहीन,

 आकार रहित बस्तर,

 बस्तर का महुआ,सागौन,

 सालबुलाते हैं,

 लोग बस कविता कर जाते हैं,

 घूम जाते हैं तीरथगढ़

 कुटुमसरचित्रकूट,

 दो शब्द लिख जाते हैं कटाक्ष की तरह,

 गंगालूर की घाटियों में,

 लोदे  सा मरता आदमी नहीं दिखता,

महुआ से  टपकती मौत की आवाज,

 नाले का कीचड़ पिता मारिया,

चरोटा भाजी से ओंटता पेट,

पेचिश की खुनीं  रफ्तार,

बाल की खाल खाता लगोंटी धारी,

मिर्च और  इमली के पानी से भरता पेट

नहीं दिखती विलासी कविता को

नहीं दिखती एठती आदिवासी सुप्रिया की नसे,

 नहीं दिखती मिट जाती  कीचड़ सनी

 आंखों में मौत की नींद,

 नहीं गंदा थी तपते  धूप से जलते,

आदिवासी मांस की,

 वही  पलाशटेसू और गुलर 

जो कैनवास देते हैं,

 इन विलासी कविताओं को,

 मौत देते हैं वही पतझड़ में,

 लंगोटी को,

 नहीं दिखता भूख से जंगल में मौत का तांडव,

 इन्हें दिखती है राजधानी से आदी  बालाओं के,

नग्न शरीर के लुभावने कटाव,

 दिखती है उन्हें  खुली जिंदगी,

मस्त व्यसन कारी,

महुआ बीनती,

 मदहोश आदी  बालाएं

यूएसए हुई अंत जिंदगियां नहीं दिखती,

 कीचड़ से पानी के कतरे तलाश थी

 गरीब मोरिया नहीं दिखती,

 अंतहीन पसीने की बूंदे ,

 मौत का अनवरत आदिवासी सिलसिला

 नहीं दिखता इन्हें,

 इन्हें  दिखती हैं कविताएं,

 अपने बस्तर प्रेम की

 बुद्धिजीवी छापऔर

 घड़ियाली आंसुओं का सैलाब|

संजीव ठाकुर, रायपुर छ.ग.