Friday, June 14, 2019

रोजाना लगाया जाता सिंदूर का लेप और कुछ घंटे में काले हो जाते हैं हनुमानजी, वजह कहीं ये तो नहीं


कानपुर,  शहर के प्रसिद्ध सिद्धनाथ मंदिर में शिवलिंग अरघा, हनुमान जी की मूर्ति के साथ ही तांबे का त्रिशूल का रंगा काला होता जा रहा है। रोजाना सफाई और सिंदूर का लेप लगाने के कुछ देर तक सब सही रहता है मगर, कुछ घंटे में ही हनुमानजी का रंग बदलकर काला हो जाता है। इस घटना को लेकर भक्तों में तरह तरह की भ्रांतियां जन्म लेने लगी हैं।


मंदिर में अचानक मूर्तियां काली पडऩे से भक्तों में रोष


शहर के जाजमऊ में सिद्धनाथ मंदिर विशेष आस्था का केंद्र है। यहां शहर ही नहीं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से भक्त दर्शन पूजन के लिए आते हैं। गंगा नदी के किनारे बने इस मंदिर की विशेष मान्यता है। यहां पर शिवलिंग, हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है और दर्शन के लिए रोजाना सैकड़ों भक्तों की भीड़ जुटती है। बीते कुछ महीनों से शिवलिंग का चांदी का अरघा काला पड़ गया है।


द्वार पर लगी हनुमानजी की मूर्ति भी काले रंग की हो गई है और तांबे का त्रिशूल का भी रंग बदलकर काला हो रहा है। यहां तक की मंदिर की दीवारों का भी रंग बदल रहा है। रोजाना मंदिर की साफ सफाई की जाती है और हनुमान जी को लाल बंदन का सिंदूर लेप चढ़ाया जाता है। कुछ देर तक रंग लाल रहता है लेकिन बाद में हनुमानजी की मूति काले रंग की हो जाती है। इस घटना के बाद से तरह तरह की भ्रांतियों के जन्म लेने के साथ लोगों में रोष भी पनप रहा है।


ये मानी जा रही वजह


मंदिर मूर्ति और अरघा काला पडऩे से भक्तों में बेहद रोष है। इसके पीछे गंगा घाट के किनारे नाले में जमा जहरीला सीवरेज के प्रदूषण को कारण माना जा रहा है। बुढिय़ाघाट और वाजिदपुर में नाला जल निगम ने टैप किया था। वाजिदपुर नाला की टैङ्क्षपग की बोरियां हटने से केमिकलयुक्त सीवरेज बहकर सिद्धनाथ घाट के आगे तक पहुंच गया है। इससे घाट किनारे एक बड़े नाले की शक्ल ले ली है। यहां एक माह से अधिक समय से नाले का सीवरेज जमा है, जिससे अत्यधिक दुर्गंध व गैस उठती है। सीवरेज का रंग भी लाल, हरा व काला हो गया है। माना जा रहा है इस जहरीली गैस के प्रभाव से सिद्धनाथ मंदिर में शिवङ्क्षलग का अरघा, हनुमानजी की मूर्ति और त्रिशूल काला पड़ रहा है। हैंडपंप से आने वाला पानी भी दूषित हो चुका है। यहां आने वाली महिलाओं की पायल व अंगूठियां भी काली पड़ रही हैं।


Thursday, June 13, 2019

वैज्ञानिकों ने उजागर की शीथ ब्लाइट के रोगजनक फफूंद की अनुवांशिक विविधता

उमाशंकर मिश्र



नई दिल्ली, 13 जून (इंडिया साइंस वायर) : भारतीय वैज्ञानिकों ने चावल की फसल के एक प्रमुख रोगजनक फफूंद राइजोक्टोनिया सोलानी की आक्रामकता से जुड़ी अनुवांशिक विविधता को उजागर किया है। नई दिल्ली स्थितराष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन में कई जीन्स की पहचान की गई है जो राइजोक्टोनिया सोलानी के उपभेदों में रोगजनक विविधता के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अनुवांशिक जानकारी शीथ ब्लाइट रोग प्रतिरोधी चावल की किस्में विकसित करने में मददगार हो सकती है।


इस शोध में राइजोक्टोनिया सोलानी के दो भारतीय रूपों बीआरएस11 और बीआरएस13 की अनुवांशिक संरचना का अध्ययन किया गया है और इनके जीन्स की तुलना एजी1-आईए समूह के राइजोक्टोनिया सोलानीफफूंद के जीनोम से की गई है। एजी1-आईए को पौधों के रोगजनक के रूप में जाना जाता है।


 


वैज्ञानिकों ने इन दोनों फफूंदों की अनुवांशिक संरचना में कई एकल-न्यूक्लियोटाइड बहुरूपताओं की पहचान की है तथा इनके जीनोम में सूक्ष्म खंडों के जुड़ने और टूटने का पता लगाया है। शोधकर्ताओं ने इन दोनों फफूंदों में विभिन्न जीन्स अथवा जीन परिवारों के उभरने और उनके विस्तार को दर्ज किया है, जिससे राइजोक्टोनिया सोलानीके भारतीय उपभेदों में तेजी से हो रहे क्रमिक विकास का पता चलता है।


 


इस अध्ययन का नेतृत्व कर रहे नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ गोपालजी झा ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “शीथ ब्लाइट के नियंत्रण के लिए प्राकृतिक स्रोतों के अभाव में इस रोग के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता रखने वाली चावल की किस्मों का विकास कठिन है। हम चावल की फसल और राइजोक्टोनिया सोलानी फफूंद से जुड़ी आणविक जटिलताओं को समझना चाहते हैं ताकि शीथ ब्लाइट बीमारी के नियंत्रण की रणनीति विकसित की जा सके।”


राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान में शोधकर्ताओं की टीम


राइजोक्टोनिया सोलानीके कारण होने वाली शीथ ब्लाइट बीमारी चावल उत्पादन से जुड़े प्रमुख खतरों में से एक है। इस फफूंद के अलग-अलग रूप विभिन्न कवक समूहों से संबंधित हैं जो चावल समेत अन्य फसलों को नुकसान पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं। चावल की फसल में इस फफूंद को फैलने की अनुकूल परिस्थितियां मिल जाएं तो फसल उत्पादन 60 प्रतिशत तक गिर सकता है। शीथ ब्लाइट पर नियंत्रण का टिकाऊ तरीका न होना दीर्घकालिक चावल उत्पादन और खाद्यान्न सुरक्षा से जुड़ी प्रमुख चुनौती है।



डॉ झा ने बताया कि “राइजोक्टोनिया सोलानीके जीन्स के अधिक अध्ययन से इस फफूंद की रोगजनक भूमिका को विस्तार से समझने में मदद मिल सकती है। इससे चावल में रोग पैदा करने से संबंधित जीन्स में अनुवांशिक जोड़-तोड़ करके शीथ ब्लाइट प्रतिरोधी चावल की किस्में विकसित करने में मदद मिल सकती है।”


 


शोधकर्ताओं में डॉ झा के अलावा श्रयान घोष, नीलोफर मिर्जा, पूनम कंवर और कृति त्यागी शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका फंक्शनल ऐंड इंटिग्रेटिव जीनोमिक्स में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)


 


 


 


Tuesday, June 11, 2019

वैज्ञानिकों ने घाव भरने के लिए विकसित किया दही आधारित जैल डॉ अदिति जैन

नई दिल्ली, 11 जून (इंडिया साइंस वायर): दवाओं के खिलाफ बैक्टीरिया की बढ़ती प्रतिरोधक
क्षमता के कारण कई बार घावों को भरने के लिए उपयोग होने वाले मरहम बेअसर हो जाते हैं,
जिससे मामूली चोट में भी संक्रमण बढ़ने का खतरा रहता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान
(आईआईटी), खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने अब दही आधारित ऐसा एंटीबायोटिक जैल विकसित
किया है जो संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि रोकने के साथ-साथ तेजी से घाव भरने में
मददगार हो सकता है।
दही के पानी में जैविक रूप से सक्रिय पेप्टाइड्स होते हैं, जिनका उपयोग इस शोध में उपचार
के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं ने 10 माइक्रोग्राम पेप्टाइड को ट्राइफ्लूरोएसिटिक एसिड
और जिंक नाइट्रेट में मिलाकर हाइड्रोजैल बनाया है। इस जैल की उपयोगिता का मूल्यांकन
दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता रखने वाले बैक्टीरिया स्टैफिलोकॉकस ऑरियस और
स्यूडोमोनास एरुजिनोसा पर किया गया है। यह हाइड्रोजैल इन दोनों बैक्टीरिया को नष्ट करने
में प्रभावी पाया गया है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि स्यूडोमोनास को नष्ट करने के लिए
अधिक डोज देने की जरूरत पड़ती है।
आईआईटी, खड़गपुर की शोधकर्ता डॉ शांति एम. मंडल ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि
“बैक्टीरिया समूह आमतौर पर किसी जैव-फिल्म को संश्लेषित करके उसके भीतर रहते हैं जो
उन्हें जैव प्रतिरोधी दवाओं से सुरक्षा प्रदान करती है। इस जैव-फिल्म का निर्माण बैक्टीरिया की
गति पर निर्भर करता है। हमने पाया कि नया हाइड्रोजैल बैक्टीरिया की गति को धीमा करके
जैव-फिल्म निर्माण को रोक देता है।”
घावों को भरने में इस हाइड्रोजैल की क्षमता का आकलन करने के लिए वैज्ञानिकों ने
प्रयोगशाला में विकसित कोशिकाओं का उपयोग किया है। इसके लिए त्वचा कोशिकाओं को
खुरचकर उस पर हाइड्रोजैल लगाया गया और 24 घंटे बाद उनका मूल्यांकन किया गया। इससे
पता चला कि हाइड्रोजैल के उपयोग से क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की प्रसार क्षमता बढ़ सकती है।
इसी आधार पर शोधकर्ताओं का मानना है कि यह जैल घाव भरने में उपयोगी हो सकता है।


शोधकर्ताओं में डॉ मंडल के अलावा, सौनिक मन्ना और डॉ अनंता के. घोष शामिल थे। यह
अध्ययन शोध पत्रिका फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया
साइंस वायर)
Keywords: Wounds, antibiotic resistance, bioactive peptides, curd, IIT-
Kharagpur
भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र


Friday, June 7, 2019

नई इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल स्टेम सेल अपटेक में सुधार कर सकती है

सुशीला श्रीनिवास द्वारा



बेंगलुरू, 7 जून (इंडिया साइंस वायर): पुनर्योजी चिकित्सा में स्टेम कोशिकाओं का उपयोग एक चुनौती भरा कार्य है क्योंकि प्रतिरोपित कोशिकाओं के जीवित रहने से जुड़ी समस्याएं हैं। स्टेम सेल, जब एक घाव स्थल पर प्रत्यारोपित किया जाता है, तो पैरासरीन कारकों नामक रसायन छोड़ता है जो ऊतक पुनर्वृद्धि को शुरू करने के लिए आसपास के अन्य कोशिकाओं को उत्तेजित करता है। भारतीय वैज्ञानिकों के एक समूह ने एक इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल विकसित किया है जो प्रत्यारोपण कोशिकाओं को लंबे समय तक जीवित रहने में मदद कर सकता है।



Dr. Deepa Ghosh (Centre) withresearch team


मोहाली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ नैनोसाइंस एंड टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल में मेसेनचाइमल स्टेम सेल (MSC) नामक स्टेम सेल को एनकैप्सुलेटेड्टल सेल बनाने की विधि तैयार की है। प्रारंभिक अध्ययनों में, यह पाया गया है कि हाइड्रोजेल सेल व्यवहार्यता प्रदर्शित करता है और स्टेम कोशिकाओं के दीर्घकालिक अस्तित्व का समर्थन कर सकता है।
इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल को सेल्यूलोज और चिटोसन (सीशेल्स में पाया जाने वाला) जैसे प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त किया गया है और यह लगभग एक महीने में बायोडिग्रेड हो जाता है। हाइड्रोजेल को शिफ आधार प्रतिक्रिया नामक एक विधि को नियुक्त करके एक अमीनो समूह के साथ एक एल्डिहाइड समूह को जोड़कर बनाया गया था।
“हाइड्रोजेल नकली संस्कृतियों में वयस्क स्टेम कोशिकाओं के दीर्घकालिक अस्तित्व के मुद्दे को संबोधित करता है जो वास्तविक शरीर के ऊतकों की नकल करते हैं। हमने देखा कि कोशिकाएं जीवित रहती हैं और एक महीने की अवधि के लिए गुणा करती हैं, जो ऊतक पुनर्वसन के लिए पर्याप्त समय है, ”भारत विज्ञान तार से बात करते हुए, अध्ययन की प्रमुख अन्वेषक डॉ दीपा घोष ने बताया।
कोशिकाओं के सामान्य कामकाज। आरोपण के बाद, हाइड्रोजेल में वयस्क स्टेम कोशिकाएं विकसित होती हैं और क्षतिग्रस्त ऊतकों में आसन्न ऊतकों से कोशिकाओं के प्रवास को प्रेरित करके ऊतक की मरम्मत को प्रोत्साहित करने के लिए पेरासिन कारक जारी करती हैं।
“हाइड्रोजेल में ऊतक कोशिकाओं के समान 95% पानी की सामग्री होती है, जो कोशिकाओं को ऊतक संरचना में व्यवस्थित करने की क्षमता का संकेत देती है। इसके अलावा, जेल आत्म-चिकित्सा है, जिसका अर्थ है कि यह घाव के बाद ऊतक को समरूपता और आसंजन प्रदान करने वाली घाव की जगह का आकार ले सकता है, ”अध्ययन के पहले लेखक, जीजो थॉमस ने कहा।
प्रयोगशाला अध्ययनों से पता चलता है कि हाइड्रोजेल में सेल व्यवहार्यता है और स्टेम कोशिकाओं की बायोएक्टिविटी का समर्थन करता है। सेल संगतता और हीमोलिसिस परख का उपयोग क्रमशः कोशिकाओं और रक्त में हाइड्रोजेल की संगतता का मूल्यांकन करने के लिए किया गया था। हाइड्रोजेल को इन संस्कृतियों में स्टेम कोशिकाओं के विकास का समर्थन करने के लिए देखा गया था।
खरोंच घाव परख नामक एक परीक्षण विधि ने स्थापित किया कि हाइड्रोजेल अछूता स्टेम कोशिकाओं से पेरासिन कारकों की रिहाई की जैविक गतिविधि की सुविधा देता है। उपयुक्त लैब मॉडल की मदद से, हाइड्रोगेल के प्रदर्शन को क्रमशः फाइब्रोब्लास्ट्स और चोंड्रोसाइट्स - त्वचा और उपास्थि की कोशिकाओं के साथ परीक्षण किया गया था, जो मरम्मत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जारी किए गए पेराक्राइन कारकों के जवाब में, मरम्मत कोशिकाओं ने घाव क्षेत्र में पलायन करना शुरू कर दिया, और इस प्रवासन की निगरानी एक मुखर माइक्रोस्कोप से की गई।
डॉ। घोष ने कहा, "नकली परिस्थितियों में सफल परिणामों के साथ, हम अब पशु मॉडल में हाइड्रोजेल का परीक्षण करने के लिए आगे की खोज कर रहे हैं।"
दीपा घोष और जीजो थॉमस के अलावा, टीम में अंजना शर्मा, विनीतापंवर और वियानी चोपड़ा शामिल थीं। अध्ययन के परिणाम जर्नलएसी एप्लाइड बायोमैटेरियल्स में प्रकाशित हुए थे। (इंडिया साइंस वायर)
कीवर्ड: वयस्क स्टेम सेल, पैरासरीन कारक, हाइड्रोजेल, नैनोसाइंस