Sunday, June 12, 2022

चलो साथ दे दो जीत हम जाएंगे

वक्त की आंधियां आओ सह लें चलो

लड़खड़ाते कदम फिर संभल जाएंगे

आओ हम ही चलो आज झुक जाएंगे

टूटते रिश्ते फिर से संभल जाएंगे..।।


रिश्तों के खेत में हो उपज प्रेम की

खुशियों के उर्वरक से ही हरियाली हो

काट लें आओ मिलकर फसल प्रेम की

मन के खलिहान फिर से संवर जाएंगे..।।


जो कभी थे हमारे वो अब क्यों नहीं

प्रीति सच्ची थी पहले तो अब क्यों नहीं

आओ छोड़ो शिकायत ख़तम करते हैं

आज फिर पहले जैसे निखर जाएंगे..।।


अपनों से खेद ज्यादा उचित भी नहीं

रख लो मत भेद मन भेद फिर भी नहीं

अपनों से जीत जाना भी इक हार है

हार मानो चलो एक हो जाएंगे..।।


सच्ची निष्ठा प्रतिष्ठा सदा प्रेम से

जीवन में बस प्रगति अपनों के साथ से

एक जुटता से ही मिलता संबल सदा

साथ दे दो चलो जीत हम जाएंगे..।।

साथ दे दो चलो जीत हम जाएंगे..।।


् विजय कनौजिया


Tuesday, June 7, 2022

बंटवारा दो भाइयों के बीच का

 दो भाइयों के बीच "बंटवारे" के बाद की बनी हुई तस्वीर है।

बाप-दादा के घर की देहलीज को जिस तरह बांटा गया है यह हर गांव घर की असलियत को भी दर्शाता है।
दरअसल हम "गांव" के लोग जितने खुशहाल दिखते हैं उतने हैं नहीं।
जमीनों के केस, पानी के केस, खेत-मेढ के केस, रास्ते के केस, मुआवजे के केस,बंजर तालाब के झगड़े, ब्याह शादी के झगड़े , दीवार के केस,आपसी मनमुटाव, चुनावी रंजिशों ने समाज को खोखला कर दिया है।


अब "गांव" वो नहीं रहे कि "बस" या अन्य 'वाहनो' में गांव की लडकी को देखते ही सीट खाली कर देते थे बच्चे।
दो चार "थप्पड" गलती पर किसी बड़े बुजुर्ग या ताऊ ने ठोंक दिए तो इश्यू नहीं बनता था तब। लेकिन अब..आप सब जानते ही है
अब हम पूरी तरह बंटे हुए लोग हैं। "गांव" में अब एक दूसरे के उपलब्धियों का सम्मान करने वाले, प्यार से सिर पर हाथ रखने वाले लोग संभवतः अब मिलने मुश्किल हैं।वह लगभग गायब से हो गये हैं ...
हालात इस कदर "खराब" है कि अगर पडोसी फलां व्यक्ति को वोट देगा तो हम नहीं देंगे। इतनी नफरत कहां से आई है लोगों में ये सोचने और चिंतन का विषय है।
गांवों में कितने "मर्डर" होते हैं, कितने "झगड़े" होते हैं और कितने केस अदालतों व संवैधानिक संस्थाओं में लंबित है इसकी कल्पना भी भयावह है।
संयुक्त परिवार अब "गांवों" में शायद एक आध ही हैं, "लस्सी-दूध" की जगह यहां भी अब ड्यू, कोकाकोला, पेप्सी पिलाई जाने लगी है। बंटवारा केवल भारत का नहीं हुआ था, आजादी के बाद हमारा समाज भी बंटा है और शायद अब हम भरपाई की सीमाओं से भी अब बहुत दूर आ गए हैं। अब तो वक्त ही तय करेगा कि हम और कितना बंटेंगे।..
यूँ लगने लगा है जैसे हर आदमी के मन मे ईर्ष्या भरा हुआ है
कन फुसफुसाहट ..जहां लोग झप्पर छान उठाने को हंसी हंसी में सैकड़ो जुट जाया करते थे वहां अब इकठ्ठे होने का नाम तक नही लेते..
एक दिन यूं ही बातचीत में एक मित्र ने कहा कि जितना हम "पढे" हैं दरअसल हम उतने ही बेईमान व संकीर्ण बने हैं। "गहराई" से सोचें तो ये बात सही लगती है कि "पढे लिखे" लोग हर चीज को मुनाफे से तोलते हैं और यही बात "समाज" को तोड रही है।

Monday, June 6, 2022

पतीला का दाल भात

पहले तसला, भगौना, पतीला (खुला बर्तन) में दाल-भात बनता था, अदहन जब अनाज के साथ उबलता था तो बार-बार एक मोटे झाग की परत जमा करती थी, जिसे अम्मा रह-रह के निकाल के फेक दिया करती थी। पूछने पर कहती कि "ई से तबियत खराब होत है



बाद में बड़े होने पर पता चला वो झाग शरीर मे यूरिक_एसिड बढ़ाता है और अम्मा इसीलिए वो झाग फेंक दिया करती थी। अम्मा ज्यादा पढ़ी लिखी तो नही थी पर ये चीज़े उन्होंने नानी से और नानी ने अपनी माँ से सीखा था।
अब कूकर में दाल-भात बनता है, पता नही झाग कहा जाता होगा, ज्यादा दाल खाने से पेट भी खराब हो जाते हैं।
डॉक्टर कहते हैं एसिडिटी है। पुराने ज्ञान को याद करिये विज्ञान छुपा है ।

डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए

बिक रहा पानी, पवन बिक न जाए,

बिक गयी धरती, गगन बिक न जाए ! 

अब तो चाँद पर भी बिकने लगी है ज़मीं 

डर है कि सूरज की तपन बिक न जाए ! 

देकर दहेज खरीदा गया है दुल्हे को 

कहीं उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए !

 धर्म लाचार है ठेकेदारों के पैरों तले, 

डर है कि कहीं ये अमन बिक न जाए ! 

हर काम की रिश्वत ले रहे हैं नेता. 

उनके हाथों कहीं ये वतन बिक न जाए !

 सरेआम बिकने लगे हैं अब तो सांसद, 

डर है कि संसद भवन बिक न जाए ! 

आदमी मरा तो भी आखें खुली हुई है, 

डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए !!