Wednesday, January 4, 2023

गांधी बनना आसान नहीं

जो लोग रोज बखेड़ा करते,

    उल्टा सीधा कहते फिरते।
मैं उनको आज बताना चाहूं
   गांधी बनना आसान नहीं ।

जो लोगों को हैं समझाते ,
     गांधी को समकक्ष बताते। 
उनको मैं आज बताना चाहूं,
      गांधी शक्ति का उनको भान नहीं।

जो नींवों की अनदेखी करते,
    दीवारों की बम बम करते।
उनको मैं आज बताना चाहूं
   ‌नींव बनना आसान नहीं ।

पर तंत्र में विरुद्ध खड़ा होना,
   ग़लत नीतियों पर उसको धोना ।
 उनको मैं आज बताना चाहूं, 
   इतना छोटा भी काम नहीं।

आधी धोती पहनकर चलना,
    पद पैसे की चाह न रखना।
उनको मैं आज बताना चाहूं,
    यह और किसी के नाम नहीं।

निज हित से हो सराबोर,
     जो गांधी निंदा करते मुंहजोर ।
उनको मैं आज बताना चाहूं,
    गांधी जैसा किसी का काम नहीं।

     - हरी राम यादव
       स्वतंत्र लेखक एवं कवि

नए साल के सपने जो भारत को सोने न दें

हमने कई मौकों पर अपने सपने को टूटते हुए देखा है लेकिन फिर भी हम हर मुसीबत की स्थिति से मजबूत और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। स्वराज के महत्व को समझना चाहिए और इन सपनों को आगे बढ़ाने के लिए आक्रामक रूप से शुरुआत करनी चाहिए ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी बेहतर भविष्य प्रदान कर सकें। धर्म के नाम पर कही गई बातों पर आंख मूंदकर विश्वास न करने, विवेक का पालन करने के लिए जागरूकता फैलानी चाहिए। हम इस सपने तक पहुँचने से बहुत दूर हैं लेकिन हमें हार नहीं माननी चाहिए।  मैं डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के बेहतरीन उद्धरणों पर समाप्त करना चाहता हूं "सपने वह नहीं हैं जो आप नींद में देखते हैं, बल्कि वह हैं जो आपको सोने नहीं देते"।


-डॉ सत्यवान सौरभ

"आधी रात को, जब दुनिया सोती है,  भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा"। जवाहरलाल नेहरू का यह "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण उस सपने का प्रतीक था जिसे हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने पूरा किया था। इसने हमें, भारत के लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले अगले सपने का विजन भी दिया।
भारत के बारे में गांधी का दृष्टिकोण हमारे देश के आत्मनिर्भर विकास के लिए घरेलू औद्योगीकरण को बढ़ावा देना था। उनका विचार था कि ग्रामीण भारत भारत के विकास की रीढ़ है। यदि भारत को विकास करना है, तो ग्रामीण क्षेत्र का भी समान विकास होना चाहिए। वह यह भी चाहते थे कि भारत गरीबी, बेरोजगारी, जाति, रंग पंथ, धर्म के आधार पर भेदभाव जैसी सभी सामाजिक बुराइयों से मुक्त हो, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से निचली जातियों (दलितों) के खिलाफ अस्पृश्यता को समाप्त करे जिन्हें वह 'हरिजन' कहते हैं।

ये दर्शन भारत के तत्कालीन समाज के सामाजिक स्तर को दर्शाते हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी हम अभी भी इन सामाजिक मुद्दों को भारत में कायम पाते हैं। हमारे संविधान की प्रस्तावना भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्र देश के रूप में निर्दिष्ट करती है। आइए देखें कि इस परिभाषा को सच करने के लिए हमने भारत के नागरिक के रूप में अपने सपने को कैसे पूरा किया है। 100 वर्षों के स्वतंत्रता संग्राम के बाद हम इस सपने को साकार करने में सक्षम हुए हैं। शीत युद्ध के दौर में भी जब दो महाशक्तियां अमेरिका और सोवियत संघ एक-दूसरे का मुकाबला करने के लिए गठबंधन बना रहे थे, हमने अपनी संप्रभुता को बनाए रखने के लिए किसी भी गठबंधन में शामिल नहीं होने के लिए गुटनिरपेक्षता का विकल्प चुना। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र द्वारा उपनिवेशवाद पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन नव-उपनिवेशीकरण के समान अंतरराष्ट्रीय दुनिया में अपनी जड़ें जमा रहा है।

नव उपनिवेशीकरण को अन्य राज्यों द्वारा राज्यों की नीतियों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण के रूप में परिभाषित किया गया है। हाल ही में हमने भारत और अन्य अविकसित देशों जैसे अमेरिका द्वारा संयुक्त राष्ट्र में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीजों को पेश करने और विकसित देशों से कृषि आयात के लिए बाजार को उदार बनाने के लिए दबाव देखा है। जीएम बीज कृषि का निजीकरण करते हैं और इस प्रकार मिट्टी की गुणवत्ता के साथ-साथ भारत के किसानों की सामाजिक स्थिति के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा करते हैं। भारतीय मिट्टी के अनुकूल बीजों के विकास में अनुसंधान पर अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को लगातार निशाना बनाया गया है।

भारत की संप्रभुता के लिए खतरे का अन्य उदाहरण वैश्विक आतंकवाद के माध्यम से है। भारत 26/11 और पठानकोट में उग्रवादियों द्वारा किए गए हमले का गवाह रहा है। बोडोलैंड की मांग के लिए असम अलगाववादी आंदोलन से भारत नक्सलियों और पूर्वोत्तर में उग्रवादियों से उग्रवादी गतिविधियों का भी सामना करता है। इन गतिविधियों से निर्दोष जीवन की हानि होती है और सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचता है जिससे देश के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। इस सपने को जिंदा रखने के लिए हमें इन गतिविधियों के खिलाफ एकता दिखानी होगी। इंटरनेट पर एकाधिकार करने के लिए फेसबुक के खिलाफ भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के फैसले का उदाहरण भारत के लोगों द्वारा मजबूत सर्वसम्मत अस्वीकृति के कारण था।

हमारे पहले प्रधान मंत्री देश की योजना और विकास में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका के विचार के थे। उद्योगों का उदारीकरण 1991 के बाद ही हुआ, लाइसेंस राज खत्म हुआ। हाल ही में हमने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से धन का प्रवाह देखा। अगर हम करीब से देखें तो हमने भारत के अधिकतम क्षेत्रों में 100% एफडीआई नहीं खोला है। बाजार का निजीकरण निस्संदेह गुणवत्तापूर्ण उत्पादों के साथ समाज में सर्वश्रेष्ठ प्रतिस्पर्धा प्रदान करता है। लेकिन अगर हम इसे अपनाते हैं, तो बाजार में केवल उन्हीं उत्पादों की आपूर्ति होगी जिनकी मांग है और जिससे वे अन्य आवश्यक आपूर्तियों की उपेक्षा करते हुए लाभ कमा सकते हैं।

साथ ही समाजवादी समाज का उद्देश्य प्रत्येक नागरिक के लिए समान परिणाम प्राप्त करना, नौकरियों में समान अवसर प्रदान करना, न्यूनतम मजदूरी प्रदान करना और भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को प्रदान करना है। वर्तमान में भारत गरीबी, अस्वस्थता, बेरोजगारी, भेदभाव के कारण दुर्व्यवहार, खराब शिक्षा आदि के कारण जागरूकता की कमी आदि से पीड़ित वंचितों की सबसे बड़ी संख्या वाला देश है। इन सामाजिक मुद्दों पर अंकुश लगाने के लिए सक्रिय रूप से संगठनों का गठन करते हुए हमें भारत के नागरिक के रूप में सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों को ईमानदारी से लागू करने में सक्रिय होना चाहिए।

भारत अनेकता में अपनी एकता पाता है। आजादी के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद भारत को यह बात समझ में आ गई कि किसी भी धर्म का पक्ष लेने से भारत को लंबे समय तक नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन आज भी हम समाज में धार्मिक घृणा पाते हैं। इतने सालों में हमने 1984 के सिख दंगों, 2002 के गोधरा कांड, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस और कई अन्य के रूप में सांप्रदायिक दंगे देखे हैं। धार्मिक राजनीति ने भारतीय राजनीति में अपनी जड़ें जमा ली हैं। बीफ खाने पर हालिया प्रतिबंध और 'घर वापसी', 'लव जेहाद' आदि जैसे आंदोलन धर्मनिरपेक्षता के मूल मूल्यों के खिलाफ हैं।

धर्म के नाम पर कही गई बातों पर आंख मूंदकर विश्वास न करने, विवेक का पालन करने के लिए जागरूकता फैलानी चाहिए। हम इस सपने तक पहुँचने से बहुत दूर हैं लेकिन हमें हार नहीं माननी चाहिए। समाज को इन धार्मिक संस्थाओं द्वारा लगाए गए अतार्किक कटौती का विरोध करना चाहिए।
इस संबंध में हम देख सकते हैं कि लोकतंत्र ने भारतीय समाज में अपनी जड़ें जमा ली हैं। संघों का सक्रिय गठन, चुनाव प्रक्रियाओं में भागीदारी में वृद्धि, विवादित परिदृश्यों का शांतिपूर्ण समाधान देश के दूर-दराज के हिस्सों में भी सक्रिय रूप से देखा जाता है।

असहिष्णुता को लेकर हाल के परिदृश्य ने एक बार फिर हमारे लोकतांत्रिक विश्वास की अटकलों को हवा दे दी है। हम लगातार ऐसी स्थिति देखते रहे हैं जहां हम पाते हैं कि लेखक के विचारों के लेखन के खिलाफ धर्म द्वारा फतवा जारी किया जाता है। फेसबुक पर पोस्ट के कारण लोगों को जेल में डाला जा रहा है। साथ ही हम अपने देश में जाति आधारित राजनीति, धर्म आधारित राजनीति देखते हैं। राष्ट्रीय दल लोकतंत्र का कुरूप चेहरा दिखाते हुए लगातार गंदी राजनीति कर रहे हैं।

लोकतंत्र वह शक्ति है जो लंबे ऐतिहासिक संघर्ष के बाद मिली है। हमें समाज की अज्ञानता को स्वतंत्रता के रूप में हमें मिले सर्वोत्तम उपहार को छीनने नहीं देना चाहिए। गणतंत्र भारत के नागरिक के रूप में हम अपने संविधान में सर्वोच्चता मानते हैं। 1976 के आपातकाल के समय हमारे संविधान को चुनौती का सामना करना पड़ा। प्राधिकरण द्वारा उनके व्यक्तिगत भविष्य के हित के लिए इसमें बड़े पैमाने पर संशोधन किया गया है। लेकिन जल्द ही सरकार ने देश के नागरिकों के कड़े विरोध को देखा और संविधान में निहित शक्ति को महसूस किया।

इतने सालों के बाद हमने 105  बार संविधान में संशोधन किया है। प्राधिकारियों में निहित कई शक्तियों की फिर से जाँच की गई है और शासन के कई नए प्रावधान जोड़े गए हैं, उदाहरण के लिए पंचायती राज आदि। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और स्वतंत्र निकायों में निहित संतुलित शक्ति ने नागरिकों को प्रभावी ढंग से शासन में योगदान करने में मदद की है। संविधान द्वारा प्रदत्त न्याय की इस भावना को कभी नहीं भूलना चाहिए। इस मशीनरी के प्रभावी ढंग से प्रसंस्करण में विश्वास रखना चाहिए।

हमने कई मौकों पर अपने सपने को टूटते हुए देखा है लेकिन फिर भी हम हर मुसीबत की स्थिति से मजबूत और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। स्वराज के महत्व को समझना चाहिए और इन सपनों को आगे बढ़ाने के लिए आक्रामक रूप से शुरुआत करनी चाहिए ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी बेहतर भविष्य प्रदान कर सकें। मैं डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के बेहतरीन उद्धरणों पर समाप्त करना चाहता हूं "सपने वह नहीं हैं जो आप नींद में देखते हैं, बल्कि वह हैं जो आपको सोने नहीं देते"।

मंगल हो नववर्ष

मिटे सभी की दूरियाँ, रहे न अब तकरार।
नया साल जोड़े रहे, सभी दिलों के तार।।

बाँट रहे शुभकामना, मंगल हो नववर्ष।
आनंद उत्कर्ष बढ़े, हर चेहरे हो हर्ष।।

माफ करो गलती सभी, रहे न मन पर धूल।
महक उठे सारी दिशा, खिले प्रेम के फूल।।

छोटी सी है जिंदगी, बैर भुलाये मीत।
नई भोर का स्वागतम, प्रेम बढ़ाये प्रीत।।

माहौल हो सुख चैन का, खुश रहे परिवार।
सुभग बधाई मान्यवर, मेरी हो स्वीकार।।

खोल दीजिये राज सब, करिये नव उत्कर्ष।
चेतन अवचेतन खिले, सौरभ इस नववर्ष।।

आते जाते साल है, करना नहीं मलाल।
सौरभ एक दुआ करे, रहे सभी खुशहाल।।

-डॉ सत्यवान सौरभ

 

प्रतिभा पलायन

शिक्षा का बड़ा केंद्र बने भारतl

विगत दो दशकों में प्रतिभा पलायन भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है शिक्षा के क्षेत्र में बड़े शिक्षा संस्थानों में भारी-भरकम खर्च के बाद शिक्षित युवक विदेशों में अपनी सेवाएं प्रदान करने को सदैव तत्पर रहते हैं इसका बड़ा कारण विदेशी मुद्रा की कमाई और विदेशी चकाचौंध के तरफ आकर्षण ही होता हैl इससे भारत के आर्थिक तंत्र पर बड़ा भार प्रत्यारोपित होता हैl इतना खर्च कर के पढ़ाई करने के बाद भारतीय युवा मस्तिष्क भारत के विकास में योगदान न दें तो देश के लिए विडंबना की भांति हैl भारत के इतिहास पर नजर डालें, तो नालंदा,तक्षशिला, शांति निकेतन,और पाटलिपुत्र जैसे बड़े शिक्षा के केंद्र रहे हैं। सदैव अलग-अलग देशों से शिष्य शिक्षा प्राप्त करने भारत आते रहे हैं। अब ऐसा क्या हो गया है कि भारत से तकनीकी, चिकित्सकीय और संचार माध्यमों, मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए भारत से लगभग दो से ढाई लाख छात्र विदेश में पढ़ने के लिए जाने लगे हैं। वही भारत सरकार का सदैव प्रयास रहा है की विदेशी छात्र हिंदुस्तान में पढ़ाई के लिए देश में आए और और हिंदुस्तानी डिग्री लेकर अपने देश में लौटे। इस तरह भारत सरकार द्वारा भारत को एक बड़ा शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहता है। और किसके लिए एक अभियान फेलोशिप कार्यक्रम चलाया गया है। इसके अलावा सरकार द्वारा एक प्रोजेक्ट डेस्टिनेशन इंडिया भी शुरू किया गया है। जिसके अंतर्गत विदेशी छात्रों की प्रवेश की प्रक्रिया को अत्यंत सरल सुगम बनाना है जिससे ज्यादा से ज्यादा छात्र भारत में पढ़ कर डिग्री हासिल करें अभी वर्तमान में भारत में आसियान देशों के निवासी छात्रों की संख्या लगभग सवा दो लाख के करीब है मानव संसाधन विभाग द्वारा इसे आगामी वर्षों में चार गुना करना चाहती है। आसियान देशों के छात्र भारत में पढ़ने से थोड़ा हिचकिचाते भी हैं,जिसके अनेक कारणों में से अपराधिक गतिविधियां, प्रदूषण, गर्मी, प्रवेश की लंबी लंबी प्रक्रिया, और भारतीय डिग्री की मान्यता नहीं होना भी शामिल है भारत में बारह से चौदह ऐसे शिक्षा संस्थान हैं, जो विश्व के 200 मान्यता प्राप्त संस्थानों में शामिल हैं। भारत में शिक्षा प्राप्त करना कम ख़र्च में संभव है, पर भारत के छात्र अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया, कनाडा,सिंगापुर में पढ़ना चाहते हैं जहां पढ़ने का खर्च डॉलर में यहां से चार गुना पड़ता है। जबकि भारत में आए छात्रों का पढ़ाई तथा खाने-पीने रहने का खर्च लगभग एक चौथाई होता है, फिर भी भारत के अभिभावक अपने बच्चों को विदेश भेजने में वरीयता देते हैं।भारत द्वारा लगातार प्रयास किया जा रहा है कि भारत के विश्वविद्यालयों की शिक्षा की गुणवत्ता विदेशी स्तर पर हो,पर इसमें काफी समय लगने की गुंजाइश भी है।यह भी संभव होगा कि विदेशी विश्वविद्यालयों की शाखाएं भारत में खोल दी जाए, और भारत के छात्र भारत में ही रह कर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। असल चिंता की बात यह है कि विदेश में जाने वाले छात्र वहां पढ़कर वही के संस्थानों में अपनी नौकरी खोज कर वहीं रहने लगते है। दूसरा यह है कि यहां की तकनीकी टॉप संस्थानों के होनहार युवक विदेशों में मोटी मोटी तनख्वाह में नौकरी देख कर विदेश चले जाते हैं, इस तरह भारत सरकार का उन पर किए जाने वाला खर्च का फायदा भारतीय संस्थानों को ना होकर विदेशी संस्थाएं उठा ले जाती है ।इस तरह प्रतिभा पलायन भारत के लिए और भारतीय शिक्षा पद्धति तथा भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए नुकसानदेह भी है। भारत ने आसियान देशों के एक हजार छात्रों के लिए फैलोशिप कि 2018 में योजना बनाकर राशि आवंटित की थी। हर साल 200 से 300 छात्रों को बड़े तकनीकी संस्थानों में डॉक्टरेट की उपाधि देने की योजना बनाई थी। पर बीते वर्ष केवल आसियान देशों के 45 छात्रों ने पंजीयन करवाया था,इस तरह विकासशील देशों के छात्र भी भारत में पढ़ाई के लिए आकर्षित नहीं हो रहे हैं। मानव संसाधन विभाग को उच्च शिक्षा उपयोगी और व्यवसायिक शिक्षा के रूप में दी जानी चाहिए, जिस की उपयोगिता रोजमर्रा के कामों में हो सके और शिक्षा के माध्यम से युवकों को शत-शत रोजगार प्राप्त हो सके। तभी प्रतिभा पलायन में अंकुश लग हमारी शिक्षा पद्धति की उपयोगिता बढ़ेगी।
संजीव ठाकुर, स्तंभकार ,चिंतक लेखक 

महिलाएं क्यों पहनती हैं चूड़ियां?

क्या है इसका धार्मिक महत्व

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हिंदू धर्म में महिलाएं अपने हाथों में चूड़ियां क्यों पहनती हैं। चूड़ियां पहनना सिर्फ परंपरा है या इसका कोई धार्मिक महत्व भी है। ऐसे कई सवाल आपके दिमाग में कौंधते होंगे। पेश है इसकी विस्तृत जानकारी-

ऐसी मान्यता है कि जिस घर की महिलाएं चूड़ियां पहनती हैं, उस घर में किसी चीज की कमी नहीं होती। घर के लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है।

चूड़ियां पहनने की यह परंपरा काफी लंबे समय से चली आ रही है। हिंदू धर्म में सामान्य तौर पर चूड़ियों को सुहागिन महिला की निशानी माना जाता है। धार्मिक आधार पर ऐसा कहा जाता है कि चूड़ियां पहनने से सुहागिन के पति की उम्र लंबी होती है। सुहागिन के पति की रक्षा होती है। मान्यता है कि इससे पति-पत्नी का आपसी प्यार बढ़ता है और वैवाहिक जीवन में खुशियां बनी रहती हैं।

वैदिक युग से ही चूड़ियों के प्रमाण:-
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महिलाओं के हाथों में चूड़ियां उनके सुहागिन होने का प्रमाण होता है। वैदिक युग से ही महिलाएं अपने हाथों में चूड़ियां पहनती आ रही हैं। इसलिए हिन्दू देवियों की तस्वीरों और मूर्तियों में उन्हें चूड़ी पहनते हुए दिखाया जाता है। चूड़ियां पहनने के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण भी छिपा हुआ है।

चूड़ियां पहनने के धार्मिक कारण:-
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आपको बता दें कि देवी पूजन में दुर्गा माँ को 16 शृंगार चढ़ाया जाता है। इन सोलह शृंगार में चूड़ियां भी होती हैं। इसके साथ ही चूड़ियों को दान करने से भी पुण्य की प्राप्ति भी होती हैं। बुध देव का आशीर्वाद पाने के लिए महिलाओं को हरी चूड़ियां दान में दी जाती हैं। तथा चूड़ियां पहनना महिलाओं की लिए शुभ माना जाता है क्योंकि महिलाएं देवी की प्रतीक होती है इसीलिए चूड़ियों का दान देवी को दिया जाता है।

चूड़ियां पहनने के वैज्ञानिक कारण:-
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आपको जानकार हैरानी होगी कि चूड़ियां पहनने से कुछ लाभ भी होते हैं । वैज्ञानिक दृष्टि से चूड़ियां जिस धातु से बनी होती हैं उसका उसे पहनने वाली महिला के स्वास्थ्य पर अनूकूल प्रभाव पड़ता है। यानी चूड़ियां पहनने के धार्मिक महत्व के साथ उनके वैज्ञानिक फायदे भी हैं। ये फायदे इस प्रकार हैं-

-हाथों में चूड़ी पहनना सांस के रोग और दिल की बीमारी की आशंकाओं को घटाता है।

-चूड़ी पहनने से मानसिक संतुलन बना रहता है, तभी महिलाएं अपने काम को बड़े ही निष्ठा भाव से करती हैं।

-विज्ञान के अनुसार चूड़ियों का घर्षण ऊर्जा बनाए रखता है और थकान को मिटाने सहायक होता है या थकान को दूर रखता है।

-विज्ञान का मानना है कि कांच की चूड़ियों के टकराने से निकलने वाली ध्वनि से वातावरण में उपस्थित नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है।

राजेन्द्र गुप्ता,