एक बार श्री हरि (विष्णु) के मन में एक घोर तपस्या
करने की इच्छा जाग्रत हुई। वे उचित जगह की तलाश
में इधर उधर भटकने लगे।
खोजते खोजते उन्हें एक जगह तप के लिए सबसे अच्छी
लगी जो केदार भूमि के समीप नीलकंठ पर्वत के
करीब थी। यह जगह उन्हें शांत, अनुकूल और अति
प्रिय लगी।
वे जानते थे की यह जगह शिव स्थली है अत: उनकी
आज्ञा ली जाये और यह आज्ञा एक रोता हुआ
बालक ले तो भोले बाबा तनिक भी माना नहीं कर
सकते है।
उन्होंने बालक के रूप में इस धरा पर अवतरण लिए और
रोने लगे। उनकी यह दशा माँ पार्वती से देखी नही
गयी और वे शिवजी के साथ उस बालक के समक्ष
उपस्थित होकर उनके रोने का कारण पूछने लगे।
बालक विष्णु ने बताया की उन्हें तप करना है और
इसलिए उन्हें यह जगह चाहिए।
भगवान शिव और
पार्वती ने उन्हें वो जगह दे दी और बालक घोर
तपस्या में लीन हो गया।
तपस्या करते करते कई साल बीतने लगे और भारी
हिमपात होने से बालक विष्णु बर्फ से पूरी तरह ढक
चुके थे, पर उन्हें इस बात का कुछ भी पता नहीं था।
बैकुंठ धाम से माँ लक्ष्मी से अपने पति की यह हालत
देखी नही जा रही थी। उनका मन पीड़ा से दर्वित
हो गया था।
अपने पति की मुश्किलो को कम करने के लिए वे स्वयं
उनके करीब आकर एक बेर (बद्री) का पेड़ बनकर उनकी
हिमपात से सहायता करने लगी। फिर कई वर्ष गुजर
गये अब तो बद्री का वो पेड़ भी हिमपात से पूरा
सफ़ेद हो चुका था।
कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण
किया तब खुद के साथ उस पेड़ को भी बर्फ से ढका
पाया। क्षण भर में वो समझ गये की माँ लक्ष्मी ने
उनकी सहायता हेतू यह तप उनके साथ किया है।
भगवान विष्णु ने लक्ष्मी से कहा की हे देवी, मेरे
साथ तुमने भी यह घोर तप इस जगह किया है अत इस
जगह मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा की जाएगी। तुमने
बद्री का पेड़ बनकर मेरी रक्षा की है अत: यह धाम
बद्रीनाथ कहलायेगा।
भगवान विष्णु की इस मंदिर में मूर्ति
शालग्रामशिला से बनी हुई है जिसके चार भुजाये है।
कहते है की देवताओ ने इसे नारदकुंड से निकाल कर
स्थापित किया था।
यहाँ अखंड ज्योति दीपक जलता रहता है और नर
नारायण की भी पूजा होती है | साथ ही गंगा की
12 धाराओ में से एक धार अलकनन्दा के दर्शन का
भी फल मिलता है।