Wednesday, April 30, 2025

भाग्य की दौलत

एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे। तो उन्हें एक व्यक्ति ने रोक लिया।

वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था। उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा..

महात्मा जी, आप परमात्मा को जानते है, उनसे बातें करते है। अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है, कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो में चैन से जी सकूँ। 

महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे ? 

किन्तु वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा। महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ गए।

     इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चूका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन - दौलत मिल गई। जब धन -दौलत मिल गई तो उसने सोचा,-मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया।  

अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है। क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्योंकी इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं। ऐसा सोचकर उसने लगभग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।

     समय गुजरता गया। लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी। महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्योंकी उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी। और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं।  यह सोचते -सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे। 

लेकिन यह क्या ! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था ! जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए। भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई ? 

वह व्यक्ति नम्रता से बोला, महात्माजी, मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी। उसके बाद दौलत कहाँ से आई - मैं नहीं जनता। इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।

   महात्मा जी वहाँ से चले गये। और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए। उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ ? महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी।

किसी की चोर ले जाये , किसी की आग जलाये 

धन उसी का सफल हो जो ईश्वर अर्थ लगाये। 

सीख - जो व्यक्ति जितना कमाता है उस में का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा कार्य में लगता है तो उस का फल अवश्य मिलता है। इसलिए कहा गया है सेवा का फल तो मेवा है।

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

शत्रु और शत्रु का संरक्षक दोनों एक जैसे

अटारी बॉर्डर बंद होने और पाकिस्तानियों को प्रतिबंधित करने के बाद जिस प्रकार से पूरे देश से ऐसे वैवाहिक संबंधों की चर्चाएं आ रही हैं जिनमें पति या पत्नी में से कोई एक भारत का और दूसरा पाकिस्तान का है,यह बहुत बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहा है कि अभी तक न जाने कितने पाकिस्तानी भारत में नागरिकता भी प्राप्त कर चुके होंगे । और कानूनन यहां रहते हुए भारत विरोध के सभी कामों में लगे होंगे। कहीं आपके घर के आस पास भी कोई पाकिस्तानी किसी देशद्रोही की संरक्षण में पल तो नहीं रहा है? क्योंकि अगला आतंकवादी यही होगा । कुछ लोगों के लिए इनकी सुरक्षा इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके लिए वे देश के साथ गद्दारी पर भी उतर आए हैं, छत्तीसगढ़ के पूर्व विधायक यूडी मिंज ने तो "युद्ध हुआ तो भारत की हार निश्चित है" कि घोषणा की है, मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह किस पार्टी के नेता हैं। लोक गायिका के नाम पर आतंकवादी हमलों का दोष भारत पर ही मढ़ने वाली निम्न स्तर की कविता गाने वाली तथाकथित कलाकार जो इस युद्ध की स्थिति में शत्रु देश में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं, क्या यह पाकिस्तान का संरक्षण और भारत के साथ द्रोह नहीं है? जब पूरा देश भारतमाता की सुरक्षा को ले कर चिंतित है और शत्रु को सबक सिखाने के लिए कठोरतम दंड देने की तैयारी में है तब इस प्रकार के लोगों की सहायता से भारत के भीतर रहने वाले दुश्मन जो हमारे आपके आस पास ही रह रहे हैं, चुप नहीं बैठेंगे और इसलिए वह स्थिति नहीं आने देना है।अतः अपने आस पास के शत्रु को पहचानना बहुत आवश्यक हो गया हैं,अन्यथा युद्ध के समय हमे केवल सीमा पार से नहीं बल्कि भीतर की तरफ से भी लड़ना होगा। प्रत्येक नागरिक की दृष्टि यदि शत्रु को पहचानने की हो जाएगी तब भारत भूमि में शत्रुओं के लिए रहना संभव नहीं होगा और साथ ही ऐसे लोग बनने बंद हो जायेंगे जो अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए राष्ट्र की सुरक्षा को भी दांव पर लगा देते हैं। किसी भी देश के लिए बाहरी किसी आक्रमण के समय सभी का एक ही धर्म है कि वह अपने देश की सेना और सरकार के साथ मजबूती से विश्वास पूर्वक खड़ा रहे।

आदतें करती हैं आपका निर्माण

विचार दिशा देते हैं, पर सामर्थ्य  आदतों से रहती है। वे ही मनुष्य को किसी निर्धारित दिशा में चलने के लिए न केवल प्रेरणा देती हैं वरन कई बार तो उसे वे अनुरूप करा लेने के. लिए विवश तक कर देती हैं भले ही परिस्थितियाँ अनुकूल न हों। नशेबाजी जैसी आदतें इनका उदाहरण हैं। स्वास्थ्य, पैसा, यश आदि की हानियों को समझते हुए भी नशे के आदी मनुष्य नशा करते और उसके दुष्परिणाम भुगतते हैं। छोड़ने की बात सोचते हुए भी वे वैसा कर नहीं पाते। कारण कि "विचारों" की तुलना में, "आदतों" की सामर्थ्य अत्यधिक होती है। अनुपयोगी होते हुए भी वे कई बार इतनी प्रबल होती है कि पूरा करने के अतिरिक्त और कोई चारा दिखाई नहीं पड़ता। भले या बुरे जीवन क्रम में जितना योगदान आदतों का होता है उतना और किसी का नहीं।आदतें,आसमान से नहीं उतरतीं। विचारों को कार्यान्वित करते रहने का लंबा क्रम चलते रहने पर वह अभ्यास आदत बन जाता है और उसे अपनाए रहने में जितना समय बीतता है, उतना ही वह ढर्रा सुदृढ़ होता  चला जाता है। यह  परिपक्वता कालांतर में इतनी गहरी जड़ें जमा लेती है कि उखाड़ने के असामान्य उपाय ही भले सफल हों।* सामान्यतया तो वह अभ्यस्त ढर्रा ही जीवनक्रम पर सवार रहता है और उसी पटरी पर गाड़ी लुढ़कती रहती है।आदतें बनाई जाती हैं, भले ही उनका अभ्यास योजना बनाकर किया गया हो अथवा रुझान, संपर्क, वातावरण परिस्थिति आदि कारणों से अनायास ही बनता चला गया हो। ये आदतें ही मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व या चरित्र होता है। मनुष्य क्या सोचता है, क्या चाहता है, इसका अधिक मूल्य नहीं। परिणाम तो उन गतिविधियों के ही निकलते हैं जो आदतों के अनुरूप क्रियान्वित होती रहती है। प्रतिफल तो कर्म ही उत्पन्न करते हैं और वे कर्म अन्य कारणों के अतिरिक्त प्रधानतया आदतों से प्रेरित होते हैं।  जीवन जीते और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम सहते हैं।जिस क्रम से आदतें अपनाई जाती हैं, उसी रास्ते उन्हें छोडा या बदला जा सकता है। रुझान, संपर्क, वातावरण, अभ्यास आदि बदला जा सके तो कुछ दिन हैरान करने के बाद आदतें बदल भी जाती हैं। कई बार प्रबल मनोबल के सहारे उन्हें संकल्पपूर्वक एवं झटके से भी उखाड़ा जा सकता है। पर ऐसा होता बहुत ही कम है। बाहर की अवांछनीयताओं से जूझने के तो अनेक उपाय है, पर आंतरिक दुर्बलताओं से एक बार भी गुथ जाना और उन्हें पछाडकर ही पीछे हटना किन्हीं मनस्वी लोगों के लिए ही संभव होता है। दुर्बल मन वाले तो छोड़ने पकड़ने, आगे बढ़ने पीछे हटने के कुचक्र में ही फँसे रहते हैं। अभीष्ट परिवर्तन न होने पर उनका दोष जिस तिस पर मढ़ते रहते हैं। किंतु वास्तविकता इतनी ही है कि आत्म परिष्कार के लिए-सत्प्रवृत्तियों के अभ्यस्त बनने के लिए-सुदृढ़ निश्चय के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। जिन्हें पिछड़ेपन से उबरने और प्रगतिशील जीवन अपनाने की वास्तविक इच्छा हो उन्हें अपनी आदतों का पर्यवेक्षण करना चाहिए और उनमें से जो अनुपयुक्त हो उन्हें छोड़ने बदलने का सुनिश्चित निर्धारण करना चाहिए।स्वभाग्य निर्माता, प्रगतिशील महामानवों में से प्रत्येक को यही उपाय अपनाना पड़ता है।


हिन्दू शब्द की खोज


'हिन्दू' शब्द, करोड़ों वर्ष प्राचीन,

संस्कृत शब्द है!

अगर संस्कृत के इस शब्द का सन्धि विछेदन करें तो पायेंगे ....

हीन+दू = हीन भावना + से दूर

अर्थात जो हीन भावना या दुर्भावना से दूर रहे, मुक्त रहे, वो हिन्दू है !

हमें बार-बार, हमेशा झूठ ही बतलाया जाता है कि हिन्दू शब्द मुगलों ने हमें दिया, जो "सिंधु" से "हिन्दू" हुआ l

हिन्दू शब्द की वेद से ही उत्पत्ति है !

जानिए, कहाँ से आया हिन्दू शब्द, और कैसे हुई इसकी उत्पत्ति ?

भारत में बहुत से लोग हिन्दू हैं, एवं वे हिन्दू धर्म का पालन करते हैं l

अधिकतर लोग "सनातन धर्म" को हिन्दू धर्म मानते हैं।

कुछ लोग यह कहते हैं कि हिन्दू शब्द सिंधु से बना है औऱ यह फारसी शब्द है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है!

हमारे "वेदों" और "पुराणों" में हिन्दू शब्द का उल्लेख मिलता है। आज हम आपको बता रहे हैं कि हमें हिन्दू शब्द कहाँ से मिला है!

"ऋग्वेद" के "ब्रहस्पति अग्यम" में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया हैं :-

“हिमलयं समारभ्य 

यावत इन्दुसरोवरं ।

तं देवनिर्मितं देशं

हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।

अर्थात : हिमालय से इंदु सरोवर तक, देव निर्मित देश को हिंदुस्तान कहते हैं!

केवल "वेद" ही नहीं, बल्कि "शैव" ग्रन्थ में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैं:-

"हीनं च दूष्यतेव् *हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।”

अर्थात :- जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं!

इससे मिलता जुलता लगभग यही श्लोक "कल्पद्रुम" में भी दोहराया गया है :

"हीनं दुष्यति इति हिन्दूः।”

अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं।

"पारिजात हरण" में हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है :-

”हिनस्ति तपसा पापां 

दैहिकां दुष्टं ।

हेतिभिः श्त्रुवर्गं च 

स हिन्दुर्भिधियते।”

अर्थात :- जो अपने तप से शत्रुओं का, दुष्टों का, और पाप का नाश कर देता है, वही हिन्दू है !

"माधव दिग्विजय" में भी हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है :-

“ओंकारमन्त्रमूलाढ्य 

पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।

गौभक्तो भारत:

गरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः ।

अर्थात : वो जो "ओमकार" को ईश्वरीय धुन माने, कर्मों पर विश्वास करे, गौपालक रहे, तथा बुराइयों को दूर रखे, वो हिन्दू है!

केवल इतना ही नहीं, हमार

"ऋगवेद" (८:२:४१) में

 विवहिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है, जिन्होंने ४६,००० गौमाता दान में दी थी! और "ऋग्वेद मंडल" में भी उनका वर्णन मिलता है l

         बुराइयों को दूर करने के लिए सतत प्रयास रत रहनेवाले, सनातन धर्म के पोषक व पालन करने वाले हिन्दू हैं।

      ,,*"हिनस्तु दुरिताम