Tuesday, June 18, 2019

तिहाड़ जेल यथा नाम तथा काम

पढ़िए एक पत्रकार का सनसनीखेज कथानक


 


कैदी बन्दी आपस मे कैसा बर्ताव करते है सुना है अंदर फोन वगैरा भी मिलता है
● अंदर लड़की और शराब छोड़कर हर सुविधा है बस आप उस सुविधा के लायक हों खूब पैसा हो या आप बढ़िया बदमाश हो हर सम्पन्न है जेल आपके लिए. चरस गांजा अफीम स्मैक से लगाकर मोबाइल तक आपके पास रहेगा . कोई सिपाही सेट कर लीजिए आपको सब कुछ लाकर दे देगा.


 



एक ऐसी जगह जहाँ शायद ही कोई जाना चाहता हो। एक ऐसी जगह जिसे धरती का जीता जागता नरक समझा जाता है। वो घर है जेल, जेल भी ऐसी जो भारत सहित एशिया की बड़ी जेलों में शुमार रखती है। कैसा है वहा का हाल। पुलिस का क्या रवैया रहता है। बंदियों की दिनचर्या कैसी रहती है । आजकल चर्चित पत्रकार मनीष दुबे की तिहाड़ जेल पर लिखी किताब जेल जर्नलिज्म खासा चर्चा में है । इसी कड़ी में दैनिक अयोध्या टाइम्स हिंदी दैनिक के एडिटर इन चीफ श्री ब्रजेश मौर्या ने जर्नलिस्ट मनीष दुबे से उनकी जेल जिंदगी पर विस्तार से बातचीत की और अंदर की दुनिया के हालातों का जायजा लिया
पेश है एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
●आज जब जेल जैसी जगह जाने में लोग कांप उठते है वहा से लौटकर उस सब्जेक्ट पर किसी से चर्चा नही चलाता आप ने जेल जर्नलिज्म जैसी बुक लिख डाली.
मैं भी कांप रहा था जब जेल जा रहा था बाकी अब ये सोचता हूँ कि जेल एक ऐसी जगह है जहाँ सबको एक बार जाना चाहिए. दुनिया की हर रुबाइयों से पर्दा उठ जाता है.
●जेल जाकर किताब लिखने का आईडिया दिमाग मे कब और कैसे आया.
हां ये अच्छा सवाल किया आपने(हंसते हुए) जेल मैं 2012 में 4 जनवरी को गया. दिल्ली में कुछ अननोन आताताइयों की वजह से मुनासिब हुआ था वहां जाना. दिल्ली की एक प्रतिष्टित मीडिया पत्रिका में काम कर रहा था. वहां भी नया नया जॉइन किया था अतएव हाथ खड़े कर दिए तब नियति मान कर चल दिया. साल के आखिर में जमानत हुई छूटकर घर आया 2014 में शादी हो गई एक बेटी हुई सब कुछ भूल भालकर अपनी दुनिया मे मगन था कि फिर उसी केस में सजा हो जाती है तब कीड़ा उठा कि यार ये क्या कर लिया जो लिखा था वो दिखा ही नही अगर दिखाता तो ये आज शायद ना होता. आधी किताब तब उसी कस्टडी में लिख ली थी फिर लिखी वहां से 2018 मध्य में बरी हुआ. फिर बाहर आकर टाइपिंग वाइपिंग करके छपवा मारी .
●सुना है किताब दो पार्ट में है.
जी ये एक नावेल है जो दो भागों में पढ़ने को मिलेगा. ये नावेल जब प्रकाशित हो रही थी तो कुछ सबा साढ़े चार सौ पेजो की हो रही थी. मुझे लगा अबे ये तो ग्रन्थ टाइप हो जाएगा पढ़ेगा कौन. तब पब्लिशर ने आईडिया दिया। भारतीय साहित्य संग्रह(पुस्तक.ऑर्ग) के संस्थापक अम्बरीष शुक्ला जी जो हमारे फैमिली मेम्बर जैसे ही है उन्होंने कहा यार इसे दो भागों में करो.दोनों कस्टडी को अलग अलग दिखाओ. तब ये पार्टबन्दी में हो गई.



●अमर जो किरदार है नावेल का कैसे देखता है बाहर की अपेछा अंदर की दुनिया को.
बहोत ही बुरा. अमर तड़पता है छटपटाता है अपनी पहली दो रातें रोकर गुजरता है हर घड़ी दर्द बिल्कुल अलग लोग बेतहाशा गालियां हर चेहरा अक्रूर हर तरफ अय्यार टाइप के लोग, जिन पर आप भरोसा ना कर सको और ना ही करना ही चाहे. अच्छे लोग भी मिलते है ऐसा नही पर हर तरफ की बुराइयों के बीच वो अंतर्ध्यान रहते हैं.
●नावेल मैंने भी पढ़ी है एक जगह आपने एक जेल गीत लिखा है जिसे आपने कोलावेरी डी नाम दिया है वो कहाँ से मिला.


ये गीत मैं अक्सर किसी ना किसी से वहां सुना करता था जिसे गाकर कैदी बन्दी अपनी एक तरह से भड़ास निकालते थे प्रशाशन सरकार के खिलाफ तो मुझे लगा यार ये पूरा कोई सुनाने वाला मिल जाये तो इसको अपनी बुक में शामिल कर लूं. इसके चलते मुझे कइयों के तेल लगाना पड़ा किसी ने नही बताया . फिर एक बन्दी मिला जिसने बिना तेल के ही लिखवा दिया.


https://www.youtube.com/watch?v=MdHUMgPVn8Q



●नावेल में गालियों का बहुलता से इस्तेमाल किया गया है.
ये कहानी की डिमांड थी.अब आप बताइए जेल जैसी विषयवस्तु की कल्पना गालियों बगैर पूरी भी कहा है. सब मीठा मीठा गप्प अपन को आता नहीं.
●प्रशाशन कैसा व्यवहार करता है अंदर.
प्रशाशन तो दुस्सासन है वहा का ना पता कब चीरहरण कर दे इसलिए बचा सम्भाल के रखना पड़ता है खुद को. बिल्कुल तानाशाहों वाला रवैया हर बन्दी कैदी को काटनेकी रोज नई नई तरकीबें इजादते रहते है। .
बुरा बर्ताव जरा जरा सी गलती पे जानवरों की तरह पिटाई. थर्ड डिग्री टॉर्चर हाथपैर बांधकर स्टैंड में टाँग दिया जाता है जिसे झूला कहते है लट्ठ बरसाए जाते है. भिन्न भिन्न उपनामो वाले जल्लाद सरीखे दिखती है जेल पुलिस।


https://www.youtube.com/channel/UClidKi9vEaXzdmtNMeSuNsA मंडल ब्यूरो, ब्यूरो, पत्रकार, छायाकार व मित्रों से अनुरोध है कि समाचार पत्र को बढ़ाने हेतु यूट्यूब चैनल को ज्यादा से ज्यादा सबस्क्राइब करें।


Friday, June 14, 2019

रोजाना लगाया जाता सिंदूर का लेप और कुछ घंटे में काले हो जाते हैं हनुमानजी, वजह कहीं ये तो नहीं


कानपुर,  शहर के प्रसिद्ध सिद्धनाथ मंदिर में शिवलिंग अरघा, हनुमान जी की मूर्ति के साथ ही तांबे का त्रिशूल का रंगा काला होता जा रहा है। रोजाना सफाई और सिंदूर का लेप लगाने के कुछ देर तक सब सही रहता है मगर, कुछ घंटे में ही हनुमानजी का रंग बदलकर काला हो जाता है। इस घटना को लेकर भक्तों में तरह तरह की भ्रांतियां जन्म लेने लगी हैं।


मंदिर में अचानक मूर्तियां काली पडऩे से भक्तों में रोष


शहर के जाजमऊ में सिद्धनाथ मंदिर विशेष आस्था का केंद्र है। यहां शहर ही नहीं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से भक्त दर्शन पूजन के लिए आते हैं। गंगा नदी के किनारे बने इस मंदिर की विशेष मान्यता है। यहां पर शिवलिंग, हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है और दर्शन के लिए रोजाना सैकड़ों भक्तों की भीड़ जुटती है। बीते कुछ महीनों से शिवलिंग का चांदी का अरघा काला पड़ गया है।


द्वार पर लगी हनुमानजी की मूर्ति भी काले रंग की हो गई है और तांबे का त्रिशूल का भी रंग बदलकर काला हो रहा है। यहां तक की मंदिर की दीवारों का भी रंग बदल रहा है। रोजाना मंदिर की साफ सफाई की जाती है और हनुमान जी को लाल बंदन का सिंदूर लेप चढ़ाया जाता है। कुछ देर तक रंग लाल रहता है लेकिन बाद में हनुमानजी की मूति काले रंग की हो जाती है। इस घटना के बाद से तरह तरह की भ्रांतियों के जन्म लेने के साथ लोगों में रोष भी पनप रहा है।


ये मानी जा रही वजह


मंदिर मूर्ति और अरघा काला पडऩे से भक्तों में बेहद रोष है। इसके पीछे गंगा घाट के किनारे नाले में जमा जहरीला सीवरेज के प्रदूषण को कारण माना जा रहा है। बुढिय़ाघाट और वाजिदपुर में नाला जल निगम ने टैप किया था। वाजिदपुर नाला की टैङ्क्षपग की बोरियां हटने से केमिकलयुक्त सीवरेज बहकर सिद्धनाथ घाट के आगे तक पहुंच गया है। इससे घाट किनारे एक बड़े नाले की शक्ल ले ली है। यहां एक माह से अधिक समय से नाले का सीवरेज जमा है, जिससे अत्यधिक दुर्गंध व गैस उठती है। सीवरेज का रंग भी लाल, हरा व काला हो गया है। माना जा रहा है इस जहरीली गैस के प्रभाव से सिद्धनाथ मंदिर में शिवङ्क्षलग का अरघा, हनुमानजी की मूर्ति और त्रिशूल काला पड़ रहा है। हैंडपंप से आने वाला पानी भी दूषित हो चुका है। यहां आने वाली महिलाओं की पायल व अंगूठियां भी काली पड़ रही हैं।


Thursday, June 13, 2019

वैज्ञानिकों ने उजागर की शीथ ब्लाइट के रोगजनक फफूंद की अनुवांशिक विविधता

उमाशंकर मिश्र



नई दिल्ली, 13 जून (इंडिया साइंस वायर) : भारतीय वैज्ञानिकों ने चावल की फसल के एक प्रमुख रोगजनक फफूंद राइजोक्टोनिया सोलानी की आक्रामकता से जुड़ी अनुवांशिक विविधता को उजागर किया है। नई दिल्ली स्थितराष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन में कई जीन्स की पहचान की गई है जो राइजोक्टोनिया सोलानी के उपभेदों में रोगजनक विविधता के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अनुवांशिक जानकारी शीथ ब्लाइट रोग प्रतिरोधी चावल की किस्में विकसित करने में मददगार हो सकती है।


इस शोध में राइजोक्टोनिया सोलानी के दो भारतीय रूपों बीआरएस11 और बीआरएस13 की अनुवांशिक संरचना का अध्ययन किया गया है और इनके जीन्स की तुलना एजी1-आईए समूह के राइजोक्टोनिया सोलानीफफूंद के जीनोम से की गई है। एजी1-आईए को पौधों के रोगजनक के रूप में जाना जाता है।


 


वैज्ञानिकों ने इन दोनों फफूंदों की अनुवांशिक संरचना में कई एकल-न्यूक्लियोटाइड बहुरूपताओं की पहचान की है तथा इनके जीनोम में सूक्ष्म खंडों के जुड़ने और टूटने का पता लगाया है। शोधकर्ताओं ने इन दोनों फफूंदों में विभिन्न जीन्स अथवा जीन परिवारों के उभरने और उनके विस्तार को दर्ज किया है, जिससे राइजोक्टोनिया सोलानीके भारतीय उपभेदों में तेजी से हो रहे क्रमिक विकास का पता चलता है।


 


इस अध्ययन का नेतृत्व कर रहे नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ गोपालजी झा ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “शीथ ब्लाइट के नियंत्रण के लिए प्राकृतिक स्रोतों के अभाव में इस रोग के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता रखने वाली चावल की किस्मों का विकास कठिन है। हम चावल की फसल और राइजोक्टोनिया सोलानी फफूंद से जुड़ी आणविक जटिलताओं को समझना चाहते हैं ताकि शीथ ब्लाइट बीमारी के नियंत्रण की रणनीति विकसित की जा सके।”


राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान में शोधकर्ताओं की टीम


राइजोक्टोनिया सोलानीके कारण होने वाली शीथ ब्लाइट बीमारी चावल उत्पादन से जुड़े प्रमुख खतरों में से एक है। इस फफूंद के अलग-अलग रूप विभिन्न कवक समूहों से संबंधित हैं जो चावल समेत अन्य फसलों को नुकसान पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं। चावल की फसल में इस फफूंद को फैलने की अनुकूल परिस्थितियां मिल जाएं तो फसल उत्पादन 60 प्रतिशत तक गिर सकता है। शीथ ब्लाइट पर नियंत्रण का टिकाऊ तरीका न होना दीर्घकालिक चावल उत्पादन और खाद्यान्न सुरक्षा से जुड़ी प्रमुख चुनौती है।



डॉ झा ने बताया कि “राइजोक्टोनिया सोलानीके जीन्स के अधिक अध्ययन से इस फफूंद की रोगजनक भूमिका को विस्तार से समझने में मदद मिल सकती है। इससे चावल में रोग पैदा करने से संबंधित जीन्स में अनुवांशिक जोड़-तोड़ करके शीथ ब्लाइट प्रतिरोधी चावल की किस्में विकसित करने में मदद मिल सकती है।”


 


शोधकर्ताओं में डॉ झा के अलावा श्रयान घोष, नीलोफर मिर्जा, पूनम कंवर और कृति त्यागी शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका फंक्शनल ऐंड इंटिग्रेटिव जीनोमिक्स में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)


 


 


 


Tuesday, June 11, 2019

वैज्ञानिकों ने घाव भरने के लिए विकसित किया दही आधारित जैल डॉ अदिति जैन

नई दिल्ली, 11 जून (इंडिया साइंस वायर): दवाओं के खिलाफ बैक्टीरिया की बढ़ती प्रतिरोधक
क्षमता के कारण कई बार घावों को भरने के लिए उपयोग होने वाले मरहम बेअसर हो जाते हैं,
जिससे मामूली चोट में भी संक्रमण बढ़ने का खतरा रहता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान
(आईआईटी), खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने अब दही आधारित ऐसा एंटीबायोटिक जैल विकसित
किया है जो संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि रोकने के साथ-साथ तेजी से घाव भरने में
मददगार हो सकता है।
दही के पानी में जैविक रूप से सक्रिय पेप्टाइड्स होते हैं, जिनका उपयोग इस शोध में उपचार
के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं ने 10 माइक्रोग्राम पेप्टाइड को ट्राइफ्लूरोएसिटिक एसिड
और जिंक नाइट्रेट में मिलाकर हाइड्रोजैल बनाया है। इस जैल की उपयोगिता का मूल्यांकन
दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता रखने वाले बैक्टीरिया स्टैफिलोकॉकस ऑरियस और
स्यूडोमोनास एरुजिनोसा पर किया गया है। यह हाइड्रोजैल इन दोनों बैक्टीरिया को नष्ट करने
में प्रभावी पाया गया है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने पाया कि स्यूडोमोनास को नष्ट करने के लिए
अधिक डोज देने की जरूरत पड़ती है।
आईआईटी, खड़गपुर की शोधकर्ता डॉ शांति एम. मंडल ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि
“बैक्टीरिया समूह आमतौर पर किसी जैव-फिल्म को संश्लेषित करके उसके भीतर रहते हैं जो
उन्हें जैव प्रतिरोधी दवाओं से सुरक्षा प्रदान करती है। इस जैव-फिल्म का निर्माण बैक्टीरिया की
गति पर निर्भर करता है। हमने पाया कि नया हाइड्रोजैल बैक्टीरिया की गति को धीमा करके
जैव-फिल्म निर्माण को रोक देता है।”
घावों को भरने में इस हाइड्रोजैल की क्षमता का आकलन करने के लिए वैज्ञानिकों ने
प्रयोगशाला में विकसित कोशिकाओं का उपयोग किया है। इसके लिए त्वचा कोशिकाओं को
खुरचकर उस पर हाइड्रोजैल लगाया गया और 24 घंटे बाद उनका मूल्यांकन किया गया। इससे
पता चला कि हाइड्रोजैल के उपयोग से क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की प्रसार क्षमता बढ़ सकती है।
इसी आधार पर शोधकर्ताओं का मानना है कि यह जैल घाव भरने में उपयोगी हो सकता है।


शोधकर्ताओं में डॉ मंडल के अलावा, सौनिक मन्ना और डॉ अनंता के. घोष शामिल थे। यह
अध्ययन शोध पत्रिका फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया
साइंस वायर)
Keywords: Wounds, antibiotic resistance, bioactive peptides, curd, IIT-
Kharagpur
भाषांतरण : उमाशंकर मिश्र


Friday, June 7, 2019

नई इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल स्टेम सेल अपटेक में सुधार कर सकती है

सुशीला श्रीनिवास द्वारा



बेंगलुरू, 7 जून (इंडिया साइंस वायर): पुनर्योजी चिकित्सा में स्टेम कोशिकाओं का उपयोग एक चुनौती भरा कार्य है क्योंकि प्रतिरोपित कोशिकाओं के जीवित रहने से जुड़ी समस्याएं हैं। स्टेम सेल, जब एक घाव स्थल पर प्रत्यारोपित किया जाता है, तो पैरासरीन कारकों नामक रसायन छोड़ता है जो ऊतक पुनर्वृद्धि को शुरू करने के लिए आसपास के अन्य कोशिकाओं को उत्तेजित करता है। भारतीय वैज्ञानिकों के एक समूह ने एक इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल विकसित किया है जो प्रत्यारोपण कोशिकाओं को लंबे समय तक जीवित रहने में मदद कर सकता है।



Dr. Deepa Ghosh (Centre) withresearch team


मोहाली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ नैनोसाइंस एंड टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल में मेसेनचाइमल स्टेम सेल (MSC) नामक स्टेम सेल को एनकैप्सुलेटेड्टल सेल बनाने की विधि तैयार की है। प्रारंभिक अध्ययनों में, यह पाया गया है कि हाइड्रोजेल सेल व्यवहार्यता प्रदर्शित करता है और स्टेम कोशिकाओं के दीर्घकालिक अस्तित्व का समर्थन कर सकता है।
इंजेक्टेबल हाइड्रोजेल को सेल्यूलोज और चिटोसन (सीशेल्स में पाया जाने वाला) जैसे प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त किया गया है और यह लगभग एक महीने में बायोडिग्रेड हो जाता है। हाइड्रोजेल को शिफ आधार प्रतिक्रिया नामक एक विधि को नियुक्त करके एक अमीनो समूह के साथ एक एल्डिहाइड समूह को जोड़कर बनाया गया था।
“हाइड्रोजेल नकली संस्कृतियों में वयस्क स्टेम कोशिकाओं के दीर्घकालिक अस्तित्व के मुद्दे को संबोधित करता है जो वास्तविक शरीर के ऊतकों की नकल करते हैं। हमने देखा कि कोशिकाएं जीवित रहती हैं और एक महीने की अवधि के लिए गुणा करती हैं, जो ऊतक पुनर्वसन के लिए पर्याप्त समय है, ”भारत विज्ञान तार से बात करते हुए, अध्ययन की प्रमुख अन्वेषक डॉ दीपा घोष ने बताया।
कोशिकाओं के सामान्य कामकाज। आरोपण के बाद, हाइड्रोजेल में वयस्क स्टेम कोशिकाएं विकसित होती हैं और क्षतिग्रस्त ऊतकों में आसन्न ऊतकों से कोशिकाओं के प्रवास को प्रेरित करके ऊतक की मरम्मत को प्रोत्साहित करने के लिए पेरासिन कारक जारी करती हैं।
“हाइड्रोजेल में ऊतक कोशिकाओं के समान 95% पानी की सामग्री होती है, जो कोशिकाओं को ऊतक संरचना में व्यवस्थित करने की क्षमता का संकेत देती है। इसके अलावा, जेल आत्म-चिकित्सा है, जिसका अर्थ है कि यह घाव के बाद ऊतक को समरूपता और आसंजन प्रदान करने वाली घाव की जगह का आकार ले सकता है, ”अध्ययन के पहले लेखक, जीजो थॉमस ने कहा।
प्रयोगशाला अध्ययनों से पता चलता है कि हाइड्रोजेल में सेल व्यवहार्यता है और स्टेम कोशिकाओं की बायोएक्टिविटी का समर्थन करता है। सेल संगतता और हीमोलिसिस परख का उपयोग क्रमशः कोशिकाओं और रक्त में हाइड्रोजेल की संगतता का मूल्यांकन करने के लिए किया गया था। हाइड्रोजेल को इन संस्कृतियों में स्टेम कोशिकाओं के विकास का समर्थन करने के लिए देखा गया था।
खरोंच घाव परख नामक एक परीक्षण विधि ने स्थापित किया कि हाइड्रोजेल अछूता स्टेम कोशिकाओं से पेरासिन कारकों की रिहाई की जैविक गतिविधि की सुविधा देता है। उपयुक्त लैब मॉडल की मदद से, हाइड्रोगेल के प्रदर्शन को क्रमशः फाइब्रोब्लास्ट्स और चोंड्रोसाइट्स - त्वचा और उपास्थि की कोशिकाओं के साथ परीक्षण किया गया था, जो मरम्मत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जारी किए गए पेराक्राइन कारकों के जवाब में, मरम्मत कोशिकाओं ने घाव क्षेत्र में पलायन करना शुरू कर दिया, और इस प्रवासन की निगरानी एक मुखर माइक्रोस्कोप से की गई।
डॉ। घोष ने कहा, "नकली परिस्थितियों में सफल परिणामों के साथ, हम अब पशु मॉडल में हाइड्रोजेल का परीक्षण करने के लिए आगे की खोज कर रहे हैं।"
दीपा घोष और जीजो थॉमस के अलावा, टीम में अंजना शर्मा, विनीतापंवर और वियानी चोपड़ा शामिल थीं। अध्ययन के परिणाम जर्नलएसी एप्लाइड बायोमैटेरियल्स में प्रकाशित हुए थे। (इंडिया साइंस वायर)
कीवर्ड: वयस्क स्टेम सेल, पैरासरीन कारक, हाइड्रोजेल, नैनोसाइंस


Thursday, June 6, 2019

एस्ट्रोसैट जेलीफ़िश आकाशगंगा के दिल में स्थित है


सरिता विग द्वारा
तिरुवनंतपुरम, 4 जून (इंडिया साइंस वायर): भारत के अंतरिक्ष वेधशाला, एस्ट्रोसैट पर पराबैंगनी इमेजिंग टेलिस्कोप ने जेलीफ़िश आकाशगंगा के दिल में काम करने की प्रक्रियाओं पर एक अंतर्दृष्टि प्रदान की है।
जो201 नामक एक जेलीफ़िश आकाशगंगा के शरीर रचना विज्ञान का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया है कि इसमें एक उज्ज्वल टूटी हुई अंगूठी जैसी उत्सर्जन संरचना से घिरे एक केंद्रीय उज्ज्वल क्षेत्र शामिल हैं। बीच में रखा गया एक गुहा या शून्य है जैसा कि बेहोश पराबैंगनी उत्सर्जन का क्षेत्र है। उज्ज्वल अंगूठी से पराबैंगनी प्रकाश पिछले 200 से 300 मिलियन वर्षों में बने युवा सितारों के कारण है।
विभिन्न तरंगों पर अन्य दूरबीनों की छवियों के साथ इसकी तुलना करके, शोधकर्ताओं ने दिखाया कि गुहा युवा सितारों की कमी के कारण है। इसका मतलब है कि इस गुहा क्षेत्र में कम से कम पिछले 100 मिलियन वर्षों से कोई नए सितारे नहीं बने हैं।
आकाशगंगाएं गुरुत्वाकर्षण द्वारा धारण किए गए अरबों सितारों के बहुत बड़े समुच्चय हैं। माना जाता है कि मिल्की वे, हमारी होम गैलेक्सी को माना जाता है कि सूर्य के साथ लगभग दस बिलियन तारे हैं। बड़े पैमाने पर, यह पाया गया है कि आकाशगंगाओं के सैकड़ों के समूह में गुरुत्वाकर्षण के कारण भी आकाशगंगाएं एक साथ झुंड में चलती हैं, जिन्हें आकाशगंगा समूह के रूप में जाना जाता है।
इन आकाशगंगाओं के बीच का क्षेत्र बहुत गर्म गैस से भरा होता है जिसका तापमान लाखों डिग्री तक हो सकता है। जैसे ही एक आकाशगंगा इस गर्म गैस के माध्यम से आगे बढ़ती है, आकाशगंगा के बाहरी क्षेत्रों में ठंडी गैस में से कुछ को वापस खींचा जा सकता है, जिससे संरचनाओं में तारों का निर्माण होता है जो पूंछ या जाल के समान होते हैं। इससे उन्हें जेलिफ़िश की उपस्थिति मिलती है, और इसलिए, उन्हें जेलिफ़िश आकाशगंगा कहा जाता है। ऐसी ही एक जेलीफ़िश आकाशगंगा है JO201, जिसका अध्ययन GASP नामक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के एक भाग के रूप में भारत और विदेश के खगोलविदों द्वारा किया गया है।
"आकाशगंगाएँ दो किस्मों में आती हैं - जो नीले रंग की दिखाई देती हैं उनमें युवा सितारे होते हैं और स्टार बनाने वाली विविधता होती है, जबकि लाल वाले वे होते हैं जिनके पास पुराने सितारे होते हैं और उनमें हाल ही में सितारों का कोई गठन नहीं हुआ है," के। जॉर्ज ने समझाया इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स, बैंगलोर में अध्ययन किया।
यदि तारों का बनना बंद हो जाए तो एक नीली आकाशगंगा लाल हो सकती है। आकाशगंगा के भीतर विभिन्न प्रक्रियाओं के कारण आकाशगंगाएँ तारों को बनाना बंद कर सकती हैं जैसे कि केंद्र में सुपरमासिव ब्लैक होल का प्रभाव; एक आयताकार बार जैसी संरचना की उपस्थिति जो तारों से बनी है और केंद्र के पास स्थित है; या सुपरनोवा नामक तारकीय मृत्यु के साथ बड़े पैमाने पर विस्फोट। एक क्लस्टर में आकाशगंगाओं के बीच गर्म गैस में इसकी गति के कारण आकाशगंगा से गैस का निकलना भी सितारों के गठन को बाधित कर सकता है।इस आकाशगंगा में तारा-निर्माण पर अंकुश लगाने के संबंध में, शोधकर्ता सक्रिय गैलेक्टिक नाभिक (AGN) की परिकल्पना का पक्ष लेते हैं। माना जाता है कि अधिकांश बड़ी आकाशगंगाओं को उनके केंद्रों पर सुपरमैसिव ब्लैक-होल होते हैं। इन सुपरमैसिव ब्लैक होल का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से सैकड़ों-हजारों गुना अधिक हो सकता है। पड़ोस से निकलने वाली गैस और धूल बहुत अधिक वेग से सुपरमासिव ब्लैकहोल में घूमती है, जिससे मध्य क्षेत्र की चमक कई गुना बढ़ जाती है, और आकाशगंगा को AGN चरण से गुजरने के लिए कहा जाता है।
JO201 में, यह बताया गया है कि केंद्रीय क्षेत्र AGN की वजह से पराबैंगनी में उज्ज्वल है, और युवा सितारों के कारण नहीं। AGN से निकलने वाली ऊर्जा ठंडी गैस के बादलों को करीब से गर्म करती है। चूंकि ठंडी गैस के बादलों से तारे बनते हैं, इसलिए गैस के गर्म होने से तारे का निर्माण रुक जाता है। इसके परिणामस्वरूप, एजीएन के चारों ओर आकाशगंगा को गुहा जैसी दिखने वाली युवा सितारों की कमी का परिणाम मिलता है।
चमकदार अंगूठी के बाईं ओर पराबैंगनी की कमी के साथ देखी गई अपूर्ण रिंग संरचना को इस क्षेत्र में युवा सितारों की कमी के कारण समझाया गया है। हालांकि, इस मामले में, स्टार-गठन के इस समाप्ति को बाहरी प्रभावों के कारण समझाया गया है, जिसके परिणामस्वरूप आकाशगंगा से गैस छीनी जा रही है। ध्यान दें कि यह वही पक्ष है जिसमें संरचना जैसी पूंछ है, जो आकाशगंगा में बहुत दूर है।
लेखकों के अनुसार, यह आकाशगंगा अद्वितीय है क्योंकि यह आकाशगंगा में तारों के निर्माण को रोकने के लिए काम पर आंतरिक और बाहरी तंत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रदान करती है।
शोध के परिणामों को रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के मासिक नोटिस में प्रकाशित करने के लिए स्वीकार किया गया है। टीम में जीएएसपी सहयोग और भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान के वैज्ञानिक शामिल थे। JO201 की तस्वीर एस्ट्रोसैट पिक्चर ऑफ़ द मंथ (APOM) श्रृंखला का विषय है। एस्ट्रोसैट भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा सितंबर 2015 में शुरू किया गया भारत का पहला बहु तरंगदैर्ध्य वेधशाला है (भारत विज्ञान तार)
[सरिता विग एक खगोल भौतिकीविद और भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (IIST), तिरुवनंतपुरम में एक एसोसिएट प्रोफेसर हैं]
कीवर्ड: एस्ट्रोसैट, जेलिफ़िश आकाशगंगा, इसरो, अंतरिक्ष दूरबीन


एनई से ऑरेंज ककड़ी विटामिन ए का भंडार है: अध्ययन

डॉ। अदिति जैन द्वारा
 नई दिल्ली, 6 जून (इंडिया साइंस वायर): कृषि वैज्ञानिकों की एक टीम ने पाया है कि देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र से आने वाली नारंगी-मांसल ककड़ी की किस्में सफेद मांस से कैरोटीनॉयड सामग्री (विटामिन-ए) में चार से पांच गुना अधिक समृद्ध होती हैं। देश के अन्य भागों में व्यापक रूप से उगाई जाने वाली किस्में।



ऑरेंज-फ्लेशेड खीरे उत्तर-पूर्व के आदिवासी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। फलों का सेवन पकी हुई सब्जी या चटनी के रूप में किया जाता है। लोग इसे 'फंग्मा' और मिज़ोरम में 'हम्ज़िल' और मणिपुर में 'थाबी' कहते हैं।


किस्मों ने शोधकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया, जब वे नेशनल ब्यूरो ऑफ़ प्लांट जेनेटिक रिसोर्स (NBPGR) में जमा ककड़ी के स्वदेशी जर्मप्लाज्म की विशेषता बता रहे थे। आगे के निरीक्षण पर, उन्होंने पाया कि उन्हें मणिपुर और मिजोरम से एकत्र किया गया था। यह देखते हुए कि पौधों का नारंगी रंग उच्च कैरोटीनॉयड सामग्री के अनुरूप हो सकता है, उन्होंने अपनी विशेषताओं और पोषक तत्व का विस्तार से अध्ययन करने का निर्णय लिया।


“बहुत सारे फल उपलब्ध हैं जो बीटा कैरोटीन / कैरोटिनॉइड के दैनिक सेवन की सिफारिश कर सकते हैं। हालांकि, वे विकासशील देशों में गरीबों की पहुंच से परे हो सकते हैं। खीरा पूरे भारत में एक सस्ती कीमत पर उपलब्ध है। डेंटी and केटेशन और कैरोटेनॉइड रिच लैंडरेज का उपयोग, पोषण प्रयासों के क्षेत्र में हमारे प्रयासों में उल्लेखनीय रूप से बदलाव लाएगा, ”एनबीपीजीआर के एक वैज्ञानिक और अध्ययन दल के एक सदस्य डॉ। प्रगति रंजन ने समझाया। इंडिया साइंस वायर से बात की।


इस अध्ययन के लिए, वैज्ञानिकों ने मिजोरम और ओन (KP-1291) मिजोरम से (IC420405, IC420422, और AZMC-1) मणिपुर से अपने दिल्ली कैम्पसुलोंग में पूसा उदय के साथ, उत्तर भारत में आमतौर पर उगाए जाने वाले एक सफेद मांस की किस्म को विकसित किया। नारंगी मांसल किस्मों ने कुल शर्करा की समान सामग्री और सामान्य लोगों की तरह एस्कॉर्बिक एसिड की थोड़ी अधिक सामग्री दिखाई। हालांकि, ककड़ी के चरण के साथ कैरोटीनॉयड सामग्री भिन्न होती है। एक स्तर पर जब इसे सलाद के रूप में खाया जाता है, तो नारंगी के मांसल किस्मों में कैरोटीनॉयड की मात्रा सामान्य किस्म से 2-4 गुना अधिक थी। आगे की परिपक्वता पर, हालांकि, नारंगी ककड़ी में सफेद किस्म की तुलना में 10-50 गुना अधिक कैरोटीनॉयड सामग्री हो सकती है।


इसके बाद, शोधकर्ताओं ने 41 व्यक्तियों को स्वाद लेने और उन्हें स्कोर करने के लिए कहकर स्वाद की स्वीकार्यता के लिए पौधों का मूल्यांकन किया। सभी प्रतिभागियों ने इन खीरों की अनूठी सुगंध और स्वाद की सराहना की और स्वीकार किया कि इसे सलाद के रूप में या रायता में खाया जा सकता है।


डॉ। रंजन ने अपनी भविष्य की योजनाओं पर चर्चा करते हुए कहा, “उच्च कैरोटीनॉयड युक्त पदार्थों का उपयोग सीधे या ककड़ी सुधार कार्यक्रमों में एक अभिभावक के रूप में किया जा सकता है।
शोध टीम में अंजुला पांडे, राकेश भारद्वाज, के। के। गंगोपाध्याय, पवन कुमार मालव, चित्रा देवी पांडे, के। प्रदीप, अशोक कुमार (ICAR-NBPGR, नई दिल्ली) शामिल थे; ए। डी। मुंशी और बी.एस. तोमर (आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान)। अध्ययन के परिणाम जर्नल जेनेटिक रिसोर्स एंड क्रॉप इवोल्यूशन में प्रकाशित हुए हैं। (इंडिया साइंस वायर)
कीवर्ड: एनबीपीजीआर, ककड़ी, कैरोटीनॉयड, विटामिन ए, जैव विविधता, आईसीएआर, आईएआरआई