Tuesday, June 18, 2019

तिहाड़ जेल यथा नाम तथा काम

पढ़िए एक पत्रकार का सनसनीखेज कथानक


 


कैदी बन्दी आपस मे कैसा बर्ताव करते है सुना है अंदर फोन वगैरा भी मिलता है
● अंदर लड़की और शराब छोड़कर हर सुविधा है बस आप उस सुविधा के लायक हों खूब पैसा हो या आप बढ़िया बदमाश हो हर सम्पन्न है जेल आपके लिए. चरस गांजा अफीम स्मैक से लगाकर मोबाइल तक आपके पास रहेगा . कोई सिपाही सेट कर लीजिए आपको सब कुछ लाकर दे देगा.


 



एक ऐसी जगह जहाँ शायद ही कोई जाना चाहता हो। एक ऐसी जगह जिसे धरती का जीता जागता नरक समझा जाता है। वो घर है जेल, जेल भी ऐसी जो भारत सहित एशिया की बड़ी जेलों में शुमार रखती है। कैसा है वहा का हाल। पुलिस का क्या रवैया रहता है। बंदियों की दिनचर्या कैसी रहती है । आजकल चर्चित पत्रकार मनीष दुबे की तिहाड़ जेल पर लिखी किताब जेल जर्नलिज्म खासा चर्चा में है । इसी कड़ी में दैनिक अयोध्या टाइम्स हिंदी दैनिक के एडिटर इन चीफ श्री ब्रजेश मौर्या ने जर्नलिस्ट मनीष दुबे से उनकी जेल जिंदगी पर विस्तार से बातचीत की और अंदर की दुनिया के हालातों का जायजा लिया
पेश है एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
●आज जब जेल जैसी जगह जाने में लोग कांप उठते है वहा से लौटकर उस सब्जेक्ट पर किसी से चर्चा नही चलाता आप ने जेल जर्नलिज्म जैसी बुक लिख डाली.
मैं भी कांप रहा था जब जेल जा रहा था बाकी अब ये सोचता हूँ कि जेल एक ऐसी जगह है जहाँ सबको एक बार जाना चाहिए. दुनिया की हर रुबाइयों से पर्दा उठ जाता है.
●जेल जाकर किताब लिखने का आईडिया दिमाग मे कब और कैसे आया.
हां ये अच्छा सवाल किया आपने(हंसते हुए) जेल मैं 2012 में 4 जनवरी को गया. दिल्ली में कुछ अननोन आताताइयों की वजह से मुनासिब हुआ था वहां जाना. दिल्ली की एक प्रतिष्टित मीडिया पत्रिका में काम कर रहा था. वहां भी नया नया जॉइन किया था अतएव हाथ खड़े कर दिए तब नियति मान कर चल दिया. साल के आखिर में जमानत हुई छूटकर घर आया 2014 में शादी हो गई एक बेटी हुई सब कुछ भूल भालकर अपनी दुनिया मे मगन था कि फिर उसी केस में सजा हो जाती है तब कीड़ा उठा कि यार ये क्या कर लिया जो लिखा था वो दिखा ही नही अगर दिखाता तो ये आज शायद ना होता. आधी किताब तब उसी कस्टडी में लिख ली थी फिर लिखी वहां से 2018 मध्य में बरी हुआ. फिर बाहर आकर टाइपिंग वाइपिंग करके छपवा मारी .
●सुना है किताब दो पार्ट में है.
जी ये एक नावेल है जो दो भागों में पढ़ने को मिलेगा. ये नावेल जब प्रकाशित हो रही थी तो कुछ सबा साढ़े चार सौ पेजो की हो रही थी. मुझे लगा अबे ये तो ग्रन्थ टाइप हो जाएगा पढ़ेगा कौन. तब पब्लिशर ने आईडिया दिया। भारतीय साहित्य संग्रह(पुस्तक.ऑर्ग) के संस्थापक अम्बरीष शुक्ला जी जो हमारे फैमिली मेम्बर जैसे ही है उन्होंने कहा यार इसे दो भागों में करो.दोनों कस्टडी को अलग अलग दिखाओ. तब ये पार्टबन्दी में हो गई.



●अमर जो किरदार है नावेल का कैसे देखता है बाहर की अपेछा अंदर की दुनिया को.
बहोत ही बुरा. अमर तड़पता है छटपटाता है अपनी पहली दो रातें रोकर गुजरता है हर घड़ी दर्द बिल्कुल अलग लोग बेतहाशा गालियां हर चेहरा अक्रूर हर तरफ अय्यार टाइप के लोग, जिन पर आप भरोसा ना कर सको और ना ही करना ही चाहे. अच्छे लोग भी मिलते है ऐसा नही पर हर तरफ की बुराइयों के बीच वो अंतर्ध्यान रहते हैं.
●नावेल मैंने भी पढ़ी है एक जगह आपने एक जेल गीत लिखा है जिसे आपने कोलावेरी डी नाम दिया है वो कहाँ से मिला.


ये गीत मैं अक्सर किसी ना किसी से वहां सुना करता था जिसे गाकर कैदी बन्दी अपनी एक तरह से भड़ास निकालते थे प्रशाशन सरकार के खिलाफ तो मुझे लगा यार ये पूरा कोई सुनाने वाला मिल जाये तो इसको अपनी बुक में शामिल कर लूं. इसके चलते मुझे कइयों के तेल लगाना पड़ा किसी ने नही बताया . फिर एक बन्दी मिला जिसने बिना तेल के ही लिखवा दिया.


https://www.youtube.com/watch?v=MdHUMgPVn8Q



●नावेल में गालियों का बहुलता से इस्तेमाल किया गया है.
ये कहानी की डिमांड थी.अब आप बताइए जेल जैसी विषयवस्तु की कल्पना गालियों बगैर पूरी भी कहा है. सब मीठा मीठा गप्प अपन को आता नहीं.
●प्रशाशन कैसा व्यवहार करता है अंदर.
प्रशाशन तो दुस्सासन है वहा का ना पता कब चीरहरण कर दे इसलिए बचा सम्भाल के रखना पड़ता है खुद को. बिल्कुल तानाशाहों वाला रवैया हर बन्दी कैदी को काटनेकी रोज नई नई तरकीबें इजादते रहते है। .
बुरा बर्ताव जरा जरा सी गलती पे जानवरों की तरह पिटाई. थर्ड डिग्री टॉर्चर हाथपैर बांधकर स्टैंड में टाँग दिया जाता है जिसे झूला कहते है लट्ठ बरसाए जाते है. भिन्न भिन्न उपनामो वाले जल्लाद सरीखे दिखती है जेल पुलिस।


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