Wednesday, June 3, 2020

कबीर को जानकर,मानिए

कबीर अपने आप में अप्रतिम हैं,विलक्षण हैं,अद्वितीय हैं।कबीर समाजशास्त्री हैं,कबीर भाषा वैज्ञानिक हैं,कबीर नायक है,कबीर सर्वोत्तम संत शिरोमणि हैं,कबीर प्रखर समाजसुधारक हैं,कबीर एकदम सरल और सहज हैं,कबीर जनवादी साहित्यकार हैं,कबीर सधे हुए पूर्ण साधक हैं,कबीर मानवता के प्रतीक हैं,कबीर धैर्यवान है,कबीर संयमी और संतोषी प्रवृति के हैं,कबीर पूर्णतया सामजिक है,कबीर सत्यता के प्रणेता और पांखड के धुर विरोधी हैं।इसलिए कबीर जैसा कोई और नहीं है सिर्फ और सिर्फ कबीर के अलावा,इसलिए तो कबीर,कबीर है और इनकी तुलना किसी से की ही नहीं जा सकती क्योंकि ये आत्मिश्वास और जज्बा केवल कबीर में ही है कि--"राम कबीरा एक भयो,कोय ना सके पहचानी"।ये कबीर ही है जो शरीर में रहते हुए डंके की चोट पर एलान कर देने का साहस रखते हैं कि-"मैं ना मरिबो,मरिबो संसारा,मुझको मिला जिलावनहारा"।धर्म के नाम पर धंधे और पांखड की दुकानों के विरोध करने का तरिका कबीर के पास विलक्षण है,वो कहते हैं कि-"पत्थर पूजे हरि मिले,मैं पूजूं पहाड़"।इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि कबीर आर्थिक,सामाजिक,व्यावसायिक न्याय के पक्षधर हैं और बोल रहे हैं कि--"साईं इतना दीजिए,जामे कुटुंब समाए..."।दूसरी और कबीर का भाव देखिए,कबीर हर बात से ऊपर हैं,और झटके में ही हर चीज का समाधान देते हैं कि--"कबीरा खड़ा बाजार में,सबकी मांगे ख़ैर,ना काहुँ से दोस्ती ना काहुँ से बैर"।मतलब साफ़ है एक ऐसा मानवतावादी विचार जो हर वाद-विवाद से ऊपर है,निर्लेप है,निर्वेर है।यदि आज अभी और तत्काल ये बातें देश में लागू हो जाए तो यकीन मानिए कि देश की आधी से ज्यादा समस्या तो वैसे ही हल हो जाएंगी।विश्वभर के तमाम अर्थशास्त्री भी हैरान हैं कि कबीर ने तो कमाल ही कर दिया।संयम,सहशीलता के बारे में कबीर का साफ़ मत है कि--"धीरे-धीरे रये मना,धीरे सब कुछ होय..."।यही वह दर्शन कि हम हर समस्या का सामना कर लेते हैं और उस समस्या से उभर भी जाते हैं।शायद कहीं अन्यत्र इस तरह का उदाहरण नहीं मिल पाएगा।पारिवारिक परम्परा के निर्वहण में किस तरह से सामंजस्य बैठना है,इसमें मानों कबीर ने पी एच डी की डिग्री हासिल की हो।यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कबीर परिवार निज परिवार न होकर समस्त संसार ही उनका परिवार है। कबीर की भाषा वैज्ञानिकता को देखिए कि भाषा कबीर को नहीं मोड़ पाती बल्कि कबीर भाषा को अपनी इच्छा के अनुसार मोड़ते हैं और वही छंद बन जाता है,वही काव्य सर्वोच्च हो जाता है।स्वयं भाषा कबीर के समक्ष नतमस्तक है।यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भाषा कबीर की सहचरी है,अनुगामिनी है।कबीर के हाथों में भाषा खेलती हुई-सी प्रतीत होती है।आध्यत्मिकता के भी शिखर पुरुष हैं कबीर और देखिए कबीर की बाणी क्या कहती है।कबीर साफ़ लिखते हैं कि--"मौको कहाँ ढूंढे बन्दे,मैं तो तेरे पास में...."।ध्यान दीजिए जितने भी हमने इस-उस तरह के प्रतीक खड़े कर रखे हैं,उनको एक झटके में ध्वस्त कर देते हैं और फिर कहते हैं कि--"खोजी होय तो तुरंत मिलैहो,पल भर की तलाश में"।प्रेम का अपना विज्ञान है और उस विज्ञान को कबीर भली-भांति न केवल समझते हैं बल्कि उसके माध्यम से गली-सड़ी वर्ण-व्यवस्था को ही चुनौती देते हुए कहते हैं कि--"पौथी पढ़-पढ़ जग मुआ,पंडित भया ना कोय...ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।"जात-पात के भी जबदस्त खिलाफ रहे कबीर और जो कबीर ने कहा,वह सम्भवतः किसी और की हिम्मत नहीं रही कहने की।सच में आज भी कबीर के जीवन और दर्शन में समस्त संसार की तमाम समस्याओं को चटकी में हल करने की क्षमता है। गजब है,कबीर का और हमारा दुर्भाग्य कि आज भी हम कबीर को तो मानते हैं,कबीर की नहीं मानते।कबीर को पहले जानिए फिर कबीर को नहीं कबीर की मानिए यकीनन आप खुद-ब खुद कबीर हो जाएंगे।

 

कृष्ण कुमार निर्माण

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