Tuesday, December 29, 2020

गजलकार दुष्यंत कुमार की पुण्य तिथि पर विशेष

दुष्यंत कुमार और हम


आज के माहौल में जब माइनस डिग्री का तापमान है,तब किसान आंदोलन कर रहे हैं,जवान भी सड़क पर खड़े हैं और जनता परेशान है,लोग भूखे पेट सो जाते हैं,महिलाओं की सुरक्षा नहीं है,अन्याय का बोलबाला है तो दुष्यंत कुमार की गजल का शेर याद आता है कि:--

तू  किसी रेल  सी  गुजरती है।
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।

सच में रेल सत्ता है और पुल जनता है जो हर बार, बार- बार थरथराती रहती है।असल में आज या आज से पूर्व कोई भी पार्टी ऐसी नहीं रही जिसने आम गरीब,किसान और मजदूर का भला किया हो क्योंकि इन्हें सिर्फ वोट बैंक समझा और हर बार,बार-बार बहकाया गया और आज भी बहकाया जा रहा है।तभी तो कलमकारों ने अपनी कलम को तलवार की तरह से तेज करना पड़ा।परिणाम यह हुआ कि कलमकारों को भी कोप का भाजन बनना पड़ा।इसका उदाहरण खुद दुष्यंत कुमार भी हैं क्योंकि दुष्यंत कुमार जब लिखते तो स्याही से नहीं दिल और दिल के अंदर खौलते खून से लिखते थे।तभी तो वो कह पाए कि--

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए।
मैंने नाम पूछा तो बोला कि हिन्दुस्तान हूँ।।

यकीन मानिए कि आज भी हालात बदले नहीं है बल्कि वो चीथड़े अब लीर-लीर हो चुके हैं मगर लानत किसी को आती नहीं।कमाल की बात तो यह भी है आज के दौर का कलमकार भी बदल गया है,उसके वो तेवर हैं हीं नहीं जो एक रचनाकार  के होने चाहिए।अब तो हाल यह है कि बस छपना चाहिए,बेशक पैसे देकर ही सही।इनामों की बौछार होनी चाहिए बेशक ले-देकर ही सही।रातों-रात नाम होना चाहिए बस,और परिणाम हम सबके सामने है।आज के चिल्लाऊ मीडिया,पक्षपाती रचनाकारों को देखकर तो ऐसा लगता है कि शायद दुष्यंत कुमार सही ही कह गए हैं कि:---

गूंगे निकल पड़े हैं,जुबां की तलाश में।
सरकार के खिलाफ ये साजिश तो देखिए।।

सम्भवतः ऐसा ही हो रहा है।पहले भी ऐसा होता रहा है तभी तो दुष्यंत लिख पाए मगर अब सीमा पार हो चुकी है।हर बात की लेबलिंग की जाती है।हर जुबान को खामोश करने का षड्यंत्र रचा जाता है।कम से कम कवियों को,लेखकों को,पत्रकारों को तो जागरूक और मुखर होना पड़ेगा, दुष्यंत की तरह।आज उनकी पुण्य तिथि है।आज ही के दिन यानि 30 दिसम्बर,1975 को भोपाल में दुष्यंत कुमार को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई थी मगर मात्र 44 साल हमारे बीच में रहे और ऐसा कुछ कर गए कि जमाना सदियों तक दुष्यंत कुमार को याद करता रहेगा।01 सितम्बर 1933 को बिजनौर के राजपुर नकदा गाँव में जन्में,इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए किया।मुरादाबाद से बी एड किया और आकशवाणी भोपाल में सहनिर्माता के पद पर कार्य किया।उनका एक गजल संग्रह "साए में धूप" पूरे भारत की तस्वीर पेश कर देता है।उनके तीन कविता संग्रह भी रहे--सूर्य का स्वागत,आवाजों के घेरे और जलते हुए वन का बसंत।बहुत कम लोग जानते होंगे कि उनका एक लघुकथा संग्रह भी आया जिसका नाम है "मन के कोण"।उन्होंने उपन्यास भी लिखा और नाटक :--"और मसीहा मर गया"भी लिखा।उनकी एक मूवी भी आई जिसका नाम था--हल्ला बोल।दिलचस्प बात यह है कि दुष्यंत ने दसवीं कक्षा से ही लेखन कार्य शुरू कर दिया था।गजल को हिंदी गजल की और ले जाने का श्रेय भी दुष्यंत को ही जाता है।निश्चित रूप से सही ही कहा है दुष्यंत ने कि:--

मत कहो आकाश में कुहरा घना है।
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।।
मतलब साफ़ है कि भगत सिंह अब तो खुद ही बनना पड़ेगा और वर्तमान दौर में देश और समाज जिस दौर से गुजर रहा है,उस दौर में एक और क्रान्ति की जरूरत है,वैचारिक क्रान्ति की क्योंकि यदि आगाज अब नहीं किया गया तो आने वाली संतानें हम सबको कोसेंगी,हम पर लानत भेजेंगी।अगर हम उम्मीद करते हैं कि भगत सिंह पड़ौसी के घर में तो फिर याद रखिए दुष्यंत कुमार की गजल का वो शेर कि:--

कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।।
अगर शेर की भाषा में कहें तो फिर शेर अपनी जगह और उसका मिजाज अपनी जगह।वास्तव में अब हमें खड़ा होना होगा और इंकलाब के लिए यह कहना ही होगा कि:----
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं है।
मेरी कोशिश है कि हर सूरत बदलनी चाहिए।।

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