Thursday, February 1, 2024

दुआलिया चूल्हा!

ये हमारी गैस चूल्हा जैसा ही होता था। एक जगह लकड़ी जलाओ और एक साथ दो चीजें बनाओ।

सुबह सबसे पहला काम होता है झाड़ू लगाकर राख उठाओ फिर एक बरतन में चिकनी मिट्टी भिगोकर एक कपड़े से चूल्हा और आस-पास की मिट्टी की दीवारों को पोता जाता था जिसे हमारी तरफ सैतना कहते हैं और जिस बरतन में मिट्टी भिगोकर रखी जाती है उसे सैतनहर कहते हैं। सैतने वाले कपड़े को पोतना या सैतनी कहते हैं।


चूल्हा अच्छी तरह से सैत कर फिर दीवार सैती जाती थी। मैं जब पुताई करती थी तब दीवार पर उंगलियों को घुमाकर डिजाइन बना दिया करती थी।
पुताई करने के बाद चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी, उपले, धान की भूसी रखी जाती है। चूल्हे से निकली राख से दाल, चावल की बटुली -बटुले ,कड़ाही,चाय की पतीली सब पर एक साथ ही लेप लगा दिया जाता था जिसे लेईयाना कहते थे। राख की लेप लगाने से चूल्हे पर भोजन बनाने से बरतन जलते नहीं थे और उन्हें साफ करने में आसानी रहती थी।
इस चूल्हे पर एक तरफ चाय बनती है तो दूसरी तरफ सब्जी बन जाती है। सब्जी बनने के बाद रोटी बनती जाती है और घर के लोग गर्मागर्म रोटी सब्जी और चाय का नाश्ता करने लगते हैं।
बाद में एक तरफ चावल और दूसरी तरफ दाल बन जाती है।
जब मैं भोजन बनाती थी तब तो एक तरफ दूध गर्म करती थी दूसरी तरफ चाय बनाती थी। चाय के साथ भूजा या चूरा नाश्ता होता था और फिर दाल चावल बनाती थी चावल जल्दी बन जाता था तो चावल उतार कर उसी चूल्हे पर सब्जी छौंक देती थी। सब्जी भी बन जाती थी तब कहीं जाकर दाल बनकर तैयार होती थी। सब्जी की कड़ाही उतारकर उस चूल्हे पर तवा चढ़ा कर रोटी बनने लगती थी।
यू एक साथ भोजन बन जाता था और फिर जिसे भोजन करना हो वो भोजन कर लिया करते थे।
ये चूल्हा जमीन में थोड़ा सा गाड़ दिया जाता है ताकि इधर उधर न तो खिसके न हिले।
कई बार बरतन छोटा और चूल्हे का मुहँ बड़ा हो जाता था तब बरतन को अच्छी तरह से चूल्हे के मुँह पर बैठाने के लिए एक ईंट का टुकड़ा लगाया जाता था जिसे उचकुन कहते थे।
हमारी तरफ चूल्हे की सारी राख उठाकर अच्छी तरह से प्रतिदिन चूल्हा पोतकर साफ किया जाता था। रात में बिन पोते भोजन बनता था बस दिन के बने भोजन की राख चूल्हे से निकालकर बगल में कर दी जाती थी जिसे सुबह चूल्हे की सफाई करते समय उठा लिया जाता था। बिन चूल्हे को पोते भोजन नहीं बनता था क्योंकि रसोई जूठा समझा जाता था।
दोनों समय की चूल्हे से निकली राख को गृह वाटिका में लगी सब्जियों पर छिड़क दिया जाता था ये राख कीट नाशक और खाद दोनों का काम करती थी।

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