Tuesday, April 29, 2025

यज्ञीय भाव- इदं न मम्

भारतीय परंपरा में चौरासी लाख प्रकार के जीवों के होने का कथन करते हुए यह कहा जाता है कि इन सबके बीच मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनों के लिए मेरे और दूसरों के लिए तेरे का व्यवहार करता है। यद्यपि कभी-कभी इसके इस व्यवहार से या तो श्री राम जैसे आदर्श पुत्र को सपत्नीक अपने जीवन भर विडंबना का जीवन जीना पड़ता है अथवा पांडवों और कौरवों के पूरे वंश का विनाश इस धरती को देखना पड़ता है।

 तत्कालीन परंपरा के अनुसार किसी भी राजा के जेष्ठ पुत्र को उसके बाद उसके राज्य का उत्तराधिकार मिलता था। इसीलिए अपनी वृद्धावस्था देखकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को अयोध्या का उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, किंतु उसी समय कैकेई ने सोचा कि राम तो मेरे पुत्र नहीं है ।वह तो कौशल्या के पुत्र हैं ।यदि उनको राज्य मिलता है तो मेरे पुत्र को सेवक की तरह काम करना पड़ेगा। जबकि श्री राम और भरत एक ही पिता की संतान थे। उनके बीच तेरे-मेरे जैसी कोई बात थी ही नहीं। फल यह हुआ कि श्री राम को महारानी सीता के साथ जीवन भर विडंबना का सामना करना पड़ा। इसी तरह से द्वापर में कौरव और पांडव की सेना युद्ध करने के लिए जब आमने-सामने खड़ी हुई तब धृतराष्ट्र ने दिव्य दृष्टि  प्राप्त संजय से पूछा कि संजय !! युद्धक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर मेरे पुत्र तथा पांडव के पुत्र क्या कर रहे हैं ? तब भी धृतराष्ट्र की तेरे-मेरे भाव वाली भावना ही प्रकट हुई। जबकि कौरव और पांडव भिन्न-भिन्न न होकर धृतराष्ट्र के लिए सभी अपने ही पुत्र थे।फल यह हुआ कि इतिहास को इतना बड़ा नरसंहार देखना पड़ा  जिसकी तुलना का युद्ध अभी तक दूसरा हुआ ही नहीं है।

तेरे और मेरे की भावना के मूल में न केवल लोभ रहता है,अपित इससे व्यक्ति का अहंकार भी प्रकट होता है। इसीलिए यज्ञादि की पूर्णता पर आचार्य- "इदं न मम्" अर्थात यह मेरा नहीं कह कर अपना कृतित्व ईश्वर को सौंप देते हैं।

यज्ञ के तीन चरण-१-देवपूजन २-दान ३-संगतिकरण। यज्ञ-  जीवमात्र प्राणी के कल्याण की भावना एवं पुण्य-परमार्थ परायण सत्कर्म।


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