चर्चों से चिठ्ठी निकल पड़ी,
Monday, December 27, 2021
जागो हिन्दू जागो
कॉस्मोप्रॉफ इंडिया ने भारत की कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री में बिखेरा जलवा
-अनिल बेदाग़-
महिला सशक्तिकरण
महिला सशक्तिकरण तब है जब महिलाओं को अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो। उनके लिए क्या सही है और उनके लिए क्या गलत है, यह तय करने में उन्हें पूरा अधिकार हो। महिलाओं को दशकों से पीड़ित होना पड़ा है क्योंकि उनके पास कोई अधिकार नहीं थे और अब भी बहुत सी जगह, गांव, यहां तक की बहुत से शहर और देश में भी नहीं है!
मिशन-कर्मयोगी - अब शासन नहीं भूमिका!!!
हम सुपर स्पेशलाइजेशन युग में प्रवेश कर रहे हैं - शासकों को अब शासन नहीं भूमिकाओं का निर्वहन करने का संज्ञान लेना ज़रूरी
Sunday, December 26, 2021
क्या आप बोल्ड हैं
वीरेंद्र बहादुर सिंह
डिजिटल भारत में अनुपालन बोझ को कम करने सुधारों की ज़रूरत
वैधानिक मापनविधा को गैर-अपराधी बनाने की ज़रूरत - स्वसत्यापन, स्वप्रमाणन, स्वनियमन को बढ़ावा देने की ज़रूरत
आज जन्मदिन विशेष है
उस महान आत्मा का ,
वफ़ा के नाम पे धोका (ग़ज़ल)
जिसने चराग़ दिल में वफ़ा का जला दिया
अटल हमारे अटल तुम्हारे
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
नहीं रहे अब बीच हमारे।जन जन के थे राज दुलारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
बेबाक रहे बोल चाल में।
मस्ती दिखती चालढाल में।
अश्क बहाते घर चौबारे।
अटल हमारे अटल तुुम्हारे।
अगर कहीं कुछ सही न पाया।
राजधर्म तब जा सिखलाया।
इसीलिये थे सब के प्यारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
सजे मंच पर जब आते थे।
झूम झूम कर फिर गाते थे।
नहीं बिसरते आज बिसारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
चला गया जनता का नायक।
छोड़ सभी कुछ यार यकायक।
जन जन उनको आज पुकारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
किया देश हित जीवन अर्पण।
बिरला देखा गूढ़ समर्पण।
रोते हैं यूँ चाँद सितारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
कम से कम की दिल आज़ारी।
खेली जम कर अपनी पारी।
लगा रहे सब मिल जय कारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
राजनीति थी खेल खिलौना।
खेला करके सब को बौना।
शब्द चढ़ाये शब्द उतारे।
अटल हमारे अटल तुम्हारे।
हमीद कानपुरी
(अब्दुल हमीद इदरीसी)
एहसास
सर्दी बहुत है
गर्मी का एहसास करवाइए ।
नफरत बहुत है
मोहब्बत का एहसास करवाइए ।
गम बहुत है
खुशियों का एहसास करवाइए।
बेगानापन बहुत है
अपनेपन का एहसास करवाइए।
अंधेरा बहुत है
रोशनी का एहसास करवाइए।
शोर बहुत है
शांति का अहसास करवाइए।
अस्थिरता बहुत है
स्थिरता का एहसास करवाइए।
मिथ्या बहुत हौ
सत्यता का एहसास करवाइए।
दोगलापन बहुत है
एकसारता का एहसास करवाइए।
राजीव डोगरा
(भाषा अध्यापक)
गवर्नमेंट हाई स्कूल ठाकुरद्वारा
पता-गांव जनयानकड़
किस्सा, किस्से और किस्साहट
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
उजाले में भी अंधेरा बसता है। ‘किसी-किसी’ को दिखता है। ‘किसी-किसी’ को नहीं दिखता है। ‘किसी-किसी’ को दिखकर भी नहीं दिखता है तो ‘किसी-किसी’ को नहीं दिखकर भी दिखता है। यह ‘किसी-किसी’ कहलाने वाले लोग गुफाओं या आदिम युग में नहीं रहते। हमीं में से कोई ‘किसी-किसी’ का पात्र निभाता रहता है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ‘किसी’ दूसरे ‘किसी’ को ‘किसी-किसी’ का किस्सा बताकर अपनी किसियाने की खुसखुसी करता रहता है। कोई ‘किसी’ के दुख में किसी सुख को तलाशने की कोशिश करता है। कोई ‘किसी’ की आग में ‘किसी’ की रोटी सेंकने का काम करता है। । कोई ‘किसी’ के गिरने में ‘किसी’ के उठने की राह जोहता है। यह ‘किसकिसाने’ का फसाना बहुत पुराना है। हमसे-तुमसे-सबसे पुराना है। ‘किसी’ की बात में ‘किसी’ की चुप्पी, ‘किसी’ के लिखे में ‘किसी’ के मिटने और ‘किसी’ की ताजगी में ‘किसी’ के बासीपन की याद हो आना ‘किस्साहट’ नहीं तो और क्या है!
यह ‘किसी-किसी’ कहलाने वाले प्राणी बड़े विचित्र होते हैं। एक ‘किसी’ दूसरे ‘किसी’ के शव को छूना नहीं चाहता है। यह ‘किसी’ कभी ‘किसी’ का बेटा बनकर ‘किसी’ पिता को अंतिम दर्शन करने के सौभाग्य से वंचित कर देता है। ‘किसी’ का पति बनकर ‘किसी’ पत्नी का सुहाग उजाड़ देता है। ‘किसी’ का भैया बनकर ‘किसी’ भाई का सहारा छीन लेता है। ऐसा ‘किसी’ ‘किसी-किसी’ का नहीं होता। ‘किसी’ ने खूब कमाया, कोठियाँ खड़ी कीं, घोड़ा-गाड़ी का ऐशो आराम देखा। किंतु यह केवल ‘किसी-किसी’ तक सीमित रहा। आगे उसी ‘किसी’ के ‘किसी-किसी’ ने उसे भोगा। यह ‘किसी-किसी’ का किस्सा युगों से चला आ रहा है।
‘किसी-किसी’ ने ‘किसी-किसी’ के साथ मिलकर जिंदगी के चार दिन बिताए थे। ‘किसी’ के सामने किसी ने सिर उठाकर अपनी गुमानी दिखायी थी। दुर्भाग्य से एक ‘किसी’ के मरने पर कोई ‘किसी’ के साथ नहीं गया। सब के सब यहीं रह गये। उसका बंगला, घोड़ा, नौकर-चाकर सब के सब यहीं रह गए। ‘किसी’ कहलाने वाला चार ‘किसी’ कहलाने वाले कंधों के लिए तरसकर रह गया। न जाने कैसे उस ‘किसी’ को ‘किसी’ ने ‘किसी’ तरह ‘किसी’ ऐसी जगह पहुँचाया जहाँ ‘किसी-किसी’ को मुक्ति मिलती है। ‘किसी-किसी’ की बातें, ‘किसी-किसी’ की यादें, और ‘किसी-किसी’ के किस्से तब तक हैं जब तक कोई ‘किसी’ को ‘किसी’ तरह यह आपबीती सुनाता है। एक ‘किसी’ को जीने के लिए ‘किसी’ चीज़ की जरूरत पड़े न पड़े, लेकिन जाते समय ‘किसी’ कहलाने वाले चार कंधों की जरूरत अवश्य पड़ती है। सच है, चार कंधे भी ‘किसी-किसी’ को किस्मत से ही मिलते हैं।
94 वें जन्मोत्सव पर अटल जी को स्मरण किया
*अटल जी विनम्रता, लोकप्रियता,मिलनसारिता की प्रतिमूर्ति थे -राष्ट्रीय अध्यक्ष अनिल आर्य*
जश्न बनाम हादसों की रात
लो फिर आ गई हादसों वाली रात.....,हर साल की तरह इस बार भी 31-दिसम्बर आने वाला हैं,महानगरों में तो कई लोगो ने जश्न की तैयारियां भी शुरू कर दी है। आजकल की युवा पीढ़ी को 31 दिसम्बर की रात का बेसब्री से इंतजार रहता हैं। पाश्चत्य संस्कृति को अपनाने वालों की धारणा होती हैं, कि बीता हुआ साल व आनेे वाले साल को ‘दिल ओ जान’ से मनाया जाए। इसलिए एक महीने पहले से ही इसकी तैयारी शुरू कर दी जाती है। हर उम्र के लोगों के लिए अलग अलग पार्टियां रखी जाती। इस रात को रोमानी और मनोरंजक बनाने के लिए हर तरह की व्यवस्था रखी जाती साथ ही साथ तरह तरह के फूड,शराब,कोकिन,हेरोइन,अश्लील नाच गाना,यहां तक की सम्भोग भी। इस रात को हसीन बनाने के लिए लाखो का खर्च कर तरह तरह की योजनाएं बनाई जाती। एक महीने पहले से ही ऑफर के साथ नाइट बुकिंग भी शुरू हो जाती हैं। कई पार्टियां तो शहर से दूर। सुनसान एरिये में रखी जाती, ताकी पुलिस की नजर न पड़े। टुरिस्ट प्लेसेस अधिक से अधिक सजाए जाते हैं ताकी अधिक से अधिक लोग इन जगह पर रात बिताएं । 31 दिसम्बर अब महानगरों तक ही सीमित नही हैं। छोटे छोटे कस्बों में भी इसका अच्छा खासा चलन हो गया हैं। कई युवक युवतियां तो शादी की तरह तैयारी करते साथ ही कई तो इस रात के लिए पहले से ही कई योजनाएं भी बनाकर रखते हैं। 31 दिसम्बर की शाम से ही शहर जगमगा जाते हैं। रात होते ही पार्टिया शबाब पर आ जाती। नाच- गाना, खाना-पीना, तरह तरह के ड्रग्स छोटे छोटे कपडों में मेकप से पूती लहराती युवतियां, हाथों में शराब लिए क्लबों में नाचते हुए, अलग ही रोमांचक रोनके शुरू हो जाती हैं। इन क्लबों में हर तरह का नशा किया जाता। कोई पहली बार आता हैं, तो कोई जबरदस्ती लाया जाता। कई दोस्तों को जर्बदस्ती मनुहार करके नशा करने को मजबूर किया जाता हैं, तो युवक युवतियों के साथ ड्रग्स शराब के सेवन के लिए प्यार की दुहाई देकर पिलाया जाता हैं। नया वर्ष शुरू होते होते सभी युवक युवतियां अपने होश खोने लग जाते हैं। फिर रात का तांडव शुरू होता। कई बार किसी युवती के साथ जबरदस्ती तो किसी की बेहोशी की हालात में इज्जत से खिलवाड़, नशे में धूत सडक़ पर घूमती युवतियों के साथ छेडख़ानी। देर रात पार्टियां खत्म होने पर नशे में धुत गाडी चलाने पर कई एक्सीडेंट होना। नया साल नए नए हादसों का साल बन जाता हैं। सुबह तक कई तरह के वारदाद को अंजाम दे दिया जाता हैं। धीरे धीरे हफ्ते तक सभी अंजाम सामने आते रहते हैं। अगर किसी युवती के साथ दर्दनाक बलात्कार हुआ तो नया कानुन,साथ ही जगह जगह मोमबत्ती जलाकर मातम मनाना,टीवी पर बहस....बस। सोचने वाली यह बात है, वाकई में हमारे नए वर्ष की शुरुआत ऐसे होना चाहिए ?,