Thursday, February 1, 2024

दुआलिया चूल्हा!

ये हमारी गैस चूल्हा जैसा ही होता था। एक जगह लकड़ी जलाओ और एक साथ दो चीजें बनाओ।

सुबह सबसे पहला काम होता है झाड़ू लगाकर राख उठाओ फिर एक बरतन में चिकनी मिट्टी भिगोकर एक कपड़े से चूल्हा और आस-पास की मिट्टी की दीवारों को पोता जाता था जिसे हमारी तरफ सैतना कहते हैं और जिस बरतन में मिट्टी भिगोकर रखी जाती है उसे सैतनहर कहते हैं। सैतने वाले कपड़े को पोतना या सैतनी कहते हैं।


चूल्हा अच्छी तरह से सैत कर फिर दीवार सैती जाती थी। मैं जब पुताई करती थी तब दीवार पर उंगलियों को घुमाकर डिजाइन बना दिया करती थी।
पुताई करने के बाद चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी, उपले, धान की भूसी रखी जाती है। चूल्हे से निकली राख से दाल, चावल की बटुली -बटुले ,कड़ाही,चाय की पतीली सब पर एक साथ ही लेप लगा दिया जाता था जिसे लेईयाना कहते थे। राख की लेप लगाने से चूल्हे पर भोजन बनाने से बरतन जलते नहीं थे और उन्हें साफ करने में आसानी रहती थी।
इस चूल्हे पर एक तरफ चाय बनती है तो दूसरी तरफ सब्जी बन जाती है। सब्जी बनने के बाद रोटी बनती जाती है और घर के लोग गर्मागर्म रोटी सब्जी और चाय का नाश्ता करने लगते हैं।
बाद में एक तरफ चावल और दूसरी तरफ दाल बन जाती है।
जब मैं भोजन बनाती थी तब तो एक तरफ दूध गर्म करती थी दूसरी तरफ चाय बनाती थी। चाय के साथ भूजा या चूरा नाश्ता होता था और फिर दाल चावल बनाती थी चावल जल्दी बन जाता था तो चावल उतार कर उसी चूल्हे पर सब्जी छौंक देती थी। सब्जी भी बन जाती थी तब कहीं जाकर दाल बनकर तैयार होती थी। सब्जी की कड़ाही उतारकर उस चूल्हे पर तवा चढ़ा कर रोटी बनने लगती थी।
यू एक साथ भोजन बन जाता था और फिर जिसे भोजन करना हो वो भोजन कर लिया करते थे।
ये चूल्हा जमीन में थोड़ा सा गाड़ दिया जाता है ताकि इधर उधर न तो खिसके न हिले।
कई बार बरतन छोटा और चूल्हे का मुहँ बड़ा हो जाता था तब बरतन को अच्छी तरह से चूल्हे के मुँह पर बैठाने के लिए एक ईंट का टुकड़ा लगाया जाता था जिसे उचकुन कहते थे।
हमारी तरफ चूल्हे की सारी राख उठाकर अच्छी तरह से प्रतिदिन चूल्हा पोतकर साफ किया जाता था। रात में बिन पोते भोजन बनता था बस दिन के बने भोजन की राख चूल्हे से निकालकर बगल में कर दी जाती थी जिसे सुबह चूल्हे की सफाई करते समय उठा लिया जाता था। बिन चूल्हे को पोते भोजन नहीं बनता था क्योंकि रसोई जूठा समझा जाता था।
दोनों समय की चूल्हे से निकली राख को गृह वाटिका में लगी सब्जियों पर छिड़क दिया जाता था ये राख कीट नाशक और खाद दोनों का काम करती थी।

Tuesday, January 30, 2024

50/- प्रति किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!

 ₹ 50/- प्रति किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!

चमड़ा सिटी के नाम से प्रसिद्ध कानपुर में जाजमऊ से गंगा जी के किनारे किनारे 10 -12 कि.मी. के दायरे में आप घूमने जाओ तो आपको नाक बंद करनी पड़ेगी! यहाँ सैंकड़ों की तादात में गंगा किनारे भट्टियां धधक रही होती हैं! इन भट्टियों में जानवरों को काटने के बाद निकली चर्बी को गलाया जाता हैं!
इस चर्बी से मुख्यतः 3 ही वस्तुएं बनती हैं!
(1) एनामिल पेंट (जिसे अपने घरों की दीवारों पर लगाते हैं!)
(2) ग्लू (फेविकोल) इत्यादि, जिन्हें हम कागज, लकड़ी जोड़ने के काम में लेते हैं!)
(3) सबसे महत्वपूर्ण जो चीज बनती हैं वह है "देशी घी"


जी हाँ तथाकथित "शुध्द देशी घी"
यही देशी घी यहाँ थोक मण्डियों में 120 से 150 रूपए किलो तक खुलेआम बिकता हैं! इसे बोलचाल की भाषा में "पूजा वाला घी" बोला जाता हैं!
इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग भण्डारे कराने वाले भक्तजन ही करते हैं! लोग 15 किलो वाला टीन खरीद कर मंदिरों में दान करके अद्भूत पुण्य कमा रहे हैं!
इस "शुध्द देशी घी" को आप बिलकुल नहीं पहचान सकते!
बढ़िया रवे दार दिखने वाला यह ज़हर सुगंध में भी एसेंस की मदद से बेजोड़ होता हैं!
दिल्ली एनसीआर के शुद्ध भैंस के देसी घी के कथित ब्रांड ***रस व ***रम( कानूनी पक्ष को देखते हुए पूरा नाम अंकित नहीं किया गया है) इसे 20 25 वर्ष पहले से ही इस्तेमाल कर रहे हैं जानवरों की चर्बी को।
औधोगिक क्षेत्र में कोने कोने में फैली वनस्पति घी बनाने वाली फैक्टरियां भी इस ज़हर को बहुतायत में खरीदती हैं, गांव देहात में लोग इसी वनस्पति घी से बने लड्डू विवाह शादियों में मजे से खाते हैं! शादियों पार्टियों में इसी से सब्जी का तड़का लगता हैं! कुछ लोग जाने अनजाने खुद को शाकाहारी समझते हैं! जीवन भर मांस अंडा छूते भी नहीं, क्या जाने वो जिस शादी में चटपटी सब्जी का लुत्फ उठा रहे हैं उसमें आपके किसी पड़ोसी पशुपालक के कटड़े (भैंस का नर बच्चा) की ही चर्बी वाया कानपुर आपकी सब्जी तक आ पहुंची हो! शाकाहारी व व्रत करने वाले जीवन में कितना संभल पाते होंगे अनुमान सहज ही लगाया जा सकता हैं!
अब आप स्वयं सोच लो आप जो वनस्पति घी आदि खाते हो उसमें क्या मिलता होगा!
कोई बड़ी बात नहीं कि देशी घी बेंचने का दावा करने वाली बड़ी बड़ी कम्पनियाँ भी इसे प्रयोग करके अपनी जेब भर रही हैं!
इसलिए ये बहस बेमानी हैं कि कौन घी को कितने में बेच रहा हैं,
अगर शुध्द घी ही खाना है तो अपने घर में गाय पाल कर ही शुध्द खा सकते हो, या किसी गाय भैंस वाले के घर का घी लेकर खाएँ, यही बेहतर होगा! आगे आपकी इच्छा..... विषमुक्त भारत----

Saturday, January 27, 2024

रिक्शावाला

महज पांच सात वर्ष पहले तक रिक्शा पटना की लाइफ लाइन हुआ करती थी पटना के किसी गली मोहल्ले से स्टेशन बस स्टैंड या किसी भी बाजार में जाने के लिए लोग रिक्शे का इस्तेमाल करते थे पर अब शहर से रिक्शा पुल पुलिया फ्लाईओवर और नए नवनिर्माण के कारणों से दूर हो गया है और पटना के कुछ इलाकों में ही आपको रिक्शा देखने को मिल जाएगा याद कीजिए कि पिछली बार आपने रिक्शे की सवारी कब की थी।मेरे लिए रिक्शे में बैठना एक कठिन निर्णय होता रहा है, रिक्शे की सवारी के समय मेरा ध्यान हमेशा उसकी पैरों की पिंडलियों पर रहता था, कि कितनी मेहनत से खींचता है रिक्शा , सड़क पर कोई भी मोटरसाइकिल वाला या कार वाला उसको ऐसे हिकारत की निगाह से देखता है जैसे कोई जुर्म कर दिया हो, मैनें नोटिस किया अक्सर कारों वालों के अहम के सामने रिक्शेवाले भाई को अपने रिक्शे में ब्रेक लगाने पड़ते थे , गलती किसी की हो थप्पड़ हमेशा रिक्शेवाले के गाल पर ही पड़ता था। पुलिसवाले के गुस्से का सबसे पहला शिकार ये बेचारा रिक्शेवाला ही होता है। बेचारा 2 आंसू टपकाता, अपने गमछे से आँसू पोंछता फिर से पैडल पर जोर मार के चल पड़ता। यार ये दौलत कमाने नहीं निकले, सिर्फ 2 वक़्त की रोटी मिल जाये, बच्चे को भूखा न सोना पड़े बस इसीलिए पूरी जान लगा देते हैं। कभी इनसे मोल भाव मत करना, बस1 दे देना कुछ एक्स्ट्रा , ईश्वर भी फिर प्लान करेगा आपको कुछ एक्स्ट्रा देने का, कभी कभी यूं ही सवारी कर लेना.. रिक्शे की मदद हो जाएगी। भीख देकर उनका अपमान मत करना , वो गरीब हैं भिखारी नहीं I बस कभी कभी यूँ ही सवारी कर लेना I





Wednesday, January 24, 2024

सगपहिता

 घर से कल ये बथुआ और उड़द आया था तो सगपहिता न बने भला कैसे हो सकता था।

ध्यान से इस उड़द का रंग देखिए! न काला रंग है न ही हरा है बल्कि भूरा है।
वर्षों से घर से दूर रहने के कारण घर की दाल के स्वाद और सुगंध को तरस जाया करते थे तो रंग भला कहाँ याद रहता।
हालांकि मैं भोजन बनाते समय पूरी मेहनत और कोशिश करती थी कि मेरे बनाये भोजन में सुगंध और स्वाद गांव का आ सके परन्तु नजदीक मात्र पहुंचती थी पूरी कामयाब नहीं हो पाती थी।


यही कारण है कि गांव जाने पर मानों भूख दस गुना बढ़ जाती थी क्योंकि भोजन बनते समय ही आती हुई मनपसंद, चिरपरिचित सुगंध उदर क्षुधा को मानों भड़का देती थी। भोजन सामने आते ही टूट पड़ते हैं और पेट से अधिक खा लिया करते थे परन्तु ये ओवरईटिंग हमे कभी नुकसान नहीं पहुँचाता था क्योंकि भोजन करने के बाद हमारी सक्रियता इतनी होती थी कि खाया हुआ भोजन किधर गया कब पच गया पता ही नहीं चलता था।
हाँ जी! तो हम गांव से वापस आते हैं और उड़द के रंग की बात करते हैं । हमने पंजाब में एकदम काले रंग के उड़द या उड़द दाल खरीदा था जिसे धोने पर इतना काला रंग निकलता था कि समझ में नहीं आता था कि भला खेत में उगे उड़द की फलियों के अंदर रंग कैसे डाल आता है क्योंकि प्रकृति के रंग तो इतने कच्चे नहीं होते कि पानी पड़ते ही उतर जाए।
खैर ! लखनऊ आयी तब पता चला कि हरी मतलब मूंग ही नहीं होती बल्कि उड़द भी हरी होती है जो खाने में काली उड़द से ज्यादा स्वादिष्ट होती है तबसे मेरे घर पर हरी रंग वाली उड़द ही आने लगी है।
कल घर से ये जो भूरे रंग की उड़द आयी देखने में तो ये भी हरी लग रही है परन्तु हम जो बाजार से हरे रंग की उड़द लाते हैं वो एकदम हरे रंग की होती है और गांव से आयी इस उड़द का रंग मुझे भूरा लग रहा है इसलिए हम तो भूरा ही नाम दे दिया है।
तो फिर कल घर से आया बथुआ और भूरे रंग वालीं उड़द की सगपहिता दाल बनवाई पता नहीं भूरे रंग के उड़द और घर के बथुआ का कमाल था या माँ के प्रेम का कमाल था परन्तु दाल बहुत स्वादिष्ट बनी थी उपर से घर का बढ़िया खुशबुदार जम्भीरी प्रजाति का संतरे के आकार वाला नींबू भी था अहा!भोजन करने का तो आनंद ही आ गया था।
पोस्ट अच्छी लगे तो घर पर सगपहिता बनाइये खाइए और मेरी पोस्ट को लाइक करके कमेंट में अनुभव लिखकर जाइए और शेयर भी कर दीजियेगा ताकि आप सबसे जुड़े लोग भी पोस्ट का लाभ ले सके।

Saturday, January 20, 2024

हारमोनियम सीखना बहुतआसान

 हारमोनियम सीखना बहुतआसान है फिर सीखते क्यों नहीं

आम व्यक्ति समझता है हारमोनियम सीखना बहुत कठिन है, इसके लिए विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती होगी, या इसके लिए कोई गुरु होना चाहिए तभी हारमोनियम सीख सकते हैं, मेरा मानना है आपको थोड़ा बहुत मार्गदर्शन मिल जाए, बस
आप अपनी मेहनत और लगन से हारमोनियम महीने दो महीने में सम्पूर्ण तो नहीं कह सकते लेकिन सीख सकते हैं, तो फिर प्रश्न उठता है सीखते क्यों नहीं, अभी भी भारत वर्ष में 1℅ लोग हारमोनियम बजाते होगें
सबसे पहली परेशानी तो आप स्वयं हैं, आपको लगता है ये बहुत दुष्कर कार्य हैं, संगीत विद्या सभी के लिए नहीं हैं, मेरी उम्र ज्यादा हो गई है, या मेरे पास समय नहीं हैं, हारमोनियम बिना गुरु के नहीं सीख सकते हैं, मेरी आवाज अच्छी नहीं हैं
आदि आदि बातें आपके मन में चलती रहती हैं
सबसे पहले तो आपको हारमोनियम सीखने की इच्छा को प्रबल करना है, संगीत विद्या सीखने के लिए जनून चाहिए, बाकी के रास्ते स्वयं ही खुलते चले जायेंगे
संगीत विद्या जो भी सीखना चाहता है उसके लिए हैं, सीखने की कोई उम्र नहीं होती है, जब जागो तभी सबेरा
आपको जब भी समय मिलें आप हारमोनियम सीखने के लिए दे सकते हैं
थोड़ा बहुत मार्गदर्शन चाहिए हारमोनियम सीखने के लिए, कुछ लोगों को तो वो भी नहीं मिलता, अपनी इच्छा शक्ति, और लगन से वो हारमोनियम सीख जाते हैं, हारमोनियम गुरु भी हफ्ते में केवल दो दिन क्लास लेते हैं, बाकी का समय प्रेक्टिस के लिए देते हैं, हारमोनियम कोई सीखा नहीं सकता, आप स्वयं ही अपनी मेहनत और लगन से सीखते हैं
बहुत से गुरु तो इतना अनुशासन बताते हैं कि आत्मसम्मान ही खत्म कर देते हैं, इसलिए लोग हारमोनियम कक्षा छोड़कर भाग खड़े होते हैं, यह विद्या हवा पकड़ने जैसी हैं, हवा को केवल महसूस किया जा सकता है, उसे आप अपने अनुभव से ही पकड़ते हैं, जैसे गूंगे व्यक्ति को गुड़ मीठा महसूस होता है लेकिन वो किसी को बता नहीं सकता, इशारे के माध्यम से बता सकता है, कोई भी गुरु बस मार्गदर्शन दे सकता हैं, सीखने के लिए आपको स्वयं प्रस्तुत होना होता है, या ये कहूँ आप स्वयं सीखते हैं कोई आपको सीखा नहीं सकता, जब तक आप स्वयं सीखने के लिए तैयार ना हो
गुरु की कोई आवश्यकता नहीं, आप स्वयं अपने गुरु बन सकते हैं, बस थोड़ा बहुत मार्गदर्शन यूट्यूब, फेसबुक आदि के माध्यम से ले ले, और सच्ची लगन, जूनून और निष्ठा से आप हारमोनियम को बिना डरें, एक बार इसको स्पर्श तो करें
तीव्र इच्छा होना सबसे जरूरी है
आप सब बातें व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर लिख रहा हूँ कही से कापी पेस्ट की हुई नहीं हैं में #रामबाबूपटेलतेलसिर आपके साथ प्रतिक्षण मार्गदर्शक के रूप में जुड़ा रहूंगा हर संभव आपकी अप्रत्यक्ष रूप से मदद करूँगा आप इस पोस्ट को अधिक से अधिक लोगों तक शेयर करें मेरे फेसबुक पेज को फालो करें Rambabu Patel Telsir पेज
मेरा यूट्यूब चैनल भी है आप उससे भी जुड़ सकते हैं ये हारमोनियम सीखने के लिए पूरी प्लेलिस्ट हैं https://youtube.com/playlist...
मेरा यूट्यूब चैनल https://youtube.com/@Rambabupatelofficial?si=MiwvqcTgmaSLbc
हारमोनियम सीखने के पहले दिन से ही आप एक बात अच्छे से समझ ले हारमोनियम की बटनो से कोई शब्द नहीं बनते हैं
कुछ लोगों गीत या भजन के शब्द हारमोनियम पर ढूंढते रहते हैं और जीवन भर हारमोनियम नहीं सीख पाते हैं, हारमोनियम से केवल एक ध्वनि निकलती हैं, यह ध्वनि किसी भी भाषा के शब्दों को अपने अंदर आत्मसात करने की क्षमता रखती हैं
इसकी बटनों में जब शुरुआत से इसको बजाए तो आपको बता चल जाएगा की शुरुआत में इसकी आवाज भारी मोटी और नीची होती है जैसे जैसे आगे की बटनों में बढ़ते हैं आवाज पतली और उंची होने लगती हैं, यह ध्वनि ही हारमोनियम सीखने का आधार हैं
वैसे तो हारमोनियम में बारह पिच होती है जिसे हम शुरुआत में स्केल कह दिया करते हैं
ये बारह पिच आप समझ ले लेकिन शुरुआत केवल एक ही पिच से करना है
सबसे पहली पिच हारमोनियम का पहला सफेद है जिससे हारमोनियम शुरू हो रही है, आप अपनी हारमोनियम को ध्यान से देखें
सफेद बटन से हारमोनियम की शुरुआत हैं
सफेद मतलब शुद्ध, साफ, जिसमें कोई मिलावट ना हो , हारमोनियम पर कीजिये
पहले सफेद से लगातार आप सफेद पट्टी में आगे की और बढ़िए सात सफेद जैसे ही पूरी होगी यही पहली सफेद जहाँ से आपने शुरू किया वो आ जायेगी
ये सभी शुद्ध स्वर है जो प्रतीक रूप में सफेद पट्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं सा रे ग म प ध नि और पुनः वही पहली सफेद पट्टी आ गई जिसकी आवाज अब पहले सफेद से उंची हैं इसे भी " सा " कहगे ये पुनरावृत्ति फिर शुरू हो गई पूरी हारमोनियम में ये सात सफेद पट्टी पूरी होते ही फिर शुरू हो जाती है
हारमोनियम में पांच काले बटन है जो मिलावट का प्रतीक है जो सफेद पट्टी के बीच बीच में प्रयोग किये गए हैं
पहली सफेद पट्टी के बाद पहला काला दूसरी सफेद पट्टी के बाद दूसरा सफेद तीसरी सफेद पट्टी के बाद कोई काला बटन नहीं है चौथी सफेद पट्टी आ गई हैं
चौथी सफेद पट्टी के बाद तीसरा काला बटन हैं फिर पांचवी सफेद पट्टी फिर चौथी काली बटन फिर छटवी सफेद पट्टी और इसके बाद पांचवीं काली बटन फिर सातवीं सफेद
इसके बाद यही पुनरावृत्ति फिर शुरू हो जाती है
ये बारह पिच भी है इन्हें समझने के लिए आप ये तीन वीडियो देख लीजिए आपको पिच के लिए कभी कोई वीडियो नहीं देखना पड़ेगा
ये बारह पिच हैं
पिच समझने के लिए दूसरी वीडियो
ये वीडियो फेसबुक पेज की सबसे अधिक वाइरल वीडियो है
पिच शब्द अपने क्रिकेट में सुना है खेल के मैदान के बारे में हैं
वैसे ही आपकी आवाज या गले की बनावट के हिसाब से आपकी आवाज उंची या नीची होती है सभी अलग अलग पिच में गाते है इस को प्रेक्टिकल ज्ञान से समझने की कोशिश इस वीडियो से करेंगे
पिच समझने के बाद आपको बारह स्वर समझने हैं जिसके लिए आप ये वीडियो देख सकते हैं वीडियो ध्यान से देखें अन्यथा आप भ्रमित हो सकतें हैं
आप भ्रमित ना हो इसलिए अलग अलग ढंग से ये बात बताई हैं
आप इन बारह स्वर का ज्ञान इन वीडियो के माध्यम से कर ले
आपको स्वर ज्ञान बीच बीच में चेकिंग करने के लिए इस वीडियो से मदद मिल सकती है
सबसे जरूरी है हारमोनियम पर अंगुली चलन इसके लिए आप ये वीडियो देखें
आप ये वीडियो देखगें तो आपको बांये हाथ से अंगुली चलन समझ आ जायेगा
बारह स्केल में अंगुली चलन
ये सब वीडियो देखने के बाद आपको हारमोनियम पर अंगुली चलन में कोई भी समस्या नहीं रहेगी
पिच के लिए एक वीडियो और देखिए
क्रमशः
ये श्रंखला जारी रहेगी




Monday, January 15, 2024

गूलर के फल में है सैकड़ों बीमारियों का इलाज

 दुनिया भर की ताकत का भंडार आपके बगल में है, और एक आप हैं कि दुनिया भर में तलाश कर रहे हैं...

ये कमाल का पौधा आपके आसपास, बगल में लगा हुआ है लेकिन लोग ड्राई फ्रूट, दवाओं और छायादार वृक्षो के पीछे भाग रहे हैं। ये अकेला वृक्ष कॉम्बो पैक है साहब जो अपने आपमे एक इकोसिस्टम है।
बाकी की माथा पच्ची भी होगी, तब तक आप अपना अनुभव शेयर करें, जरा गैसिंग लगाइये कि मैं क्या कहने वाला हूँ। वैसे उमर के विषय मे हमारे क्षेत्र में एक कहावत है...
आंखि देख के माखी न निगलि जाए!
सहगी ऊमर फोड़ खे न खाय!!
इस देशी कहावत के अनुसार अगर ऊमर/गूलर को फोड़ कर खाया जाये तो हवा लगते ही इसमे कीड़े पड़ जाते हैं। इसीलिये इसे बिना फोड़े ही खाया जाता है। लेकिन सच तो यह है, कि इसमें छोटे छोटे कीड़े (wasp) मौजूद रहते ही हैं। वनस्पति विज्ञान की भाषा मे गूलर का फल हायपेन्थोडीयम कहलाता है, जिसमे फूल/ पुष्पक्रम के आधारीय भाग मिलकर एक बड़े कटोरे या बॉल जैसी संरचना बना लेते हैं। और इस गोलाकार फल जैसी संरचना के भीतर कई नर और मादा पुष्प/ जननांग रहते है, जिनमें परागण और संयुग्मन के बाद बीज बन जाते हैं।
फल के परिपक्व होने के पहले उस पर विशेष प्रकार की मक्खी सहित कई कीट प्रवेश कर जाते हैं। कई बार वे अपना जीवन चक्र भी यहीं पूर्ण करते हैं। जैसे ही फल टूटकर जमीन से टकराता है, यह फट जाता है, और कीड़े मुक्त हो जाते हैं। ऐसा न भी हो तो कीट एक छिद्र करके बाहर निकल जाते हैं।




चलिये इन सबसे हटकर अब चर्चा करते हैं, इसके औषधीय महत्व की, हमारे गाँव के बुजुर्गों के अनुसार इसके फलो को खाने से गजब की ताकत मिलती है, और बुढापा थम से जाता है। मतलब अंजीर की तरह ही इसे भी प्रयोग किया जाता है।
मेरी दादी कहती थी कि ऊमर के पेड़ के नीचे से बिना इसे खाये नही गुजर सकते हैं। इसकी छाल को जलाकर राख को कंजी के तेल के साथ पाइल्स के उपचार में प्रयोग करते हैं। दूध का प्रयोग चर्म रोगों में रामवाण माना जाता है। दाद होने पर उस स्थान पर इसका ताजा दूध लगाने से आराम मिलता है। कच्चे फल मधुमेह को समाप्त करने की ताकत रखते हैं। पेट खराब हो जाने पर इसके 4 पके फल खा लेना इलाज की गारंटी माना जाता है।
वहीं एक ओर इसके पेड़ को घर पर या गाँव मे लगाना वर्जित है, शायद भूतों से इसे जोड़ते हैं, लेकिन वास्तव में यह दैत्य गुरु शुक्राचार्य का प्रतिनिधि है। वास्तु के अनुसार दूध और कांटे वाले पौधे घर पर लगाना उचित नही होता।
बुद्धिजीवियो का मानना है कि वास्तव में इसे पक्षियों और जनवरो के पोषण के लिये छोड़ने के लिए ऐसी मान्यताएँ बना दी गई होंगी, जिससे लोग इसके फलों और पेड़ का अत्यधिक दोहन न कर सकें। पक्षीयों के लिए तो यह वरदान है। और पक्षी ही इसे फैलाते भी हैं। व्यवहारिक रूप से यह पक्षियों का पसंदीदा है तो पक्षियों की स्वतंत्रता के उद्देश्य से भी इसे घर से दूर लगाना सही प्रतीत होता है।
यह शूक्र ग्रह का प्रतिनिधि पौधा है तो इस नाते अनेको तांत्रिक शक्तिओ का स्वामी भी है। कहते है, इसकी नित्य पूजन करने से सम्मोहन की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। प्रेम और युवा शक्ति तो जैसे इस पेड़ के इर्द गिर्द ही घूमती रहती है। नव ग्रह वाटिका के पेड़ों में यह भी एक है। वृषभ राशि वालो का तो यह मित्र पौधा है। किंतु दुख की बात है, इन पेड़ों की संख्या दिन पर दिन कम होती जा रही है।
इसकी कोमल फलियों को सब्जियों के लिए भी प्रयोग किया जाता है, जो चिकित्सा का एक अनुप्रयोग है।
ऐसा कहा जाता है, कि दुनिया मे किसी ने गूलर का फूल नही देखा है, इसका कारण और जबाब मैं पहले ही बता चुका हूं।

Thursday, January 11, 2024

5 लाख की 1 अगरबत्ती

 गुजरात से अयोध्या पहुंची 108 फीट लंबी अगरबत्ती

दैनिक अयोध्या टाइम्स ब्यूरो

आयोध्या। आगामी 22 तारीख को प्रभु श्री राम के मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के पहले नवनिर्मित मंदिर की सजावट और तैयारी जोर-शोर से चल रही है।  राम मंदिर को लेकर एक से बढ़कर एक प्रयोग हो रहे हैं जो अपने आप में कीर्तिमान रच रहे हैं।  इन्हीं प्रयोगों में एक बड़ा प्रयोग है 108 फीट लंबी अगरबत्ती का भी जिससे एक बड़ी इतिहास आयोध्या में  रची जा सके।बता दे कि  श्री राम मन्दिर के लिए गुजरात से अयोध्या 108 फीट लंबी अगरबती लायी गई हैं जिसका स्वागत  राम भक्तों ने भेलसर चौराहे पर जमकर किया हैं । यह अगरबती प्राण प्रतिष्ठा के लिए अर्पित की जायेगी। इस  अगरबत्ती  को 108 फीट लंबी और गोल आकर में बनाई गई है। अगरबती की लागत करीब 5 लाख है। इसकी सुंगध 15 से 20 किलोमीटर तक होगी।  यहां बुधवार को भाजपा जिला महामंत्री अशोक कसौधान, राज प्रताप सिंह , विनय लोधी , मालिक राम लोधी, आदर्श गुप्ता ने ढोल नगाड़े के साथ पुष्प वर्षा कर स्वागत किया। श्री श्याम भक्ति मंडल की ओर से महेश साहू, सुधीर सिंघल, विष्णु अग्रवाल, मनीष चौरसिया अशोक गर्ग आदि मौजूद रहे।



Tuesday, January 9, 2024

लोटा और गिलास के पानी में अंतर

जानिए #लोटा और #गिलास के पानी में अंतर.........
#भारत में हजारों साल की पानी पीने की जो सभ्यता है वो गिलास नही है, ये गिलास जो है #विदेशी है.
गिलास भारत का नही है. गिलास #यूरोप से आया.
और यूरोप में #पुर्तगाल से आया था. ये पुर्तगाली जबसे भारत देश में घुसे थे तब से गिलास में हम फंस गये.
गिलास अपना नही है. अपना लोटा है. और लोटा कभी भी #एकरेखीय नही होता. तो #वागभट्ट जी कहते हैं कि जो बर्तन एकरेखीय हैं उनका #त्याग कीजिये. वो काम के नही हैं. इसलिए गिलास का पानी पीना अच्छा नही माना जाता. लोटे का पानी पीना अच्छा माना जाता है. इस पोस्ट में हम गिलास और लोटा के पानी पर चर्चा करेंगे और दोनों में अंतर बताएँगे.
फर्क सीधा सा ये है कि आपको तो सबको पता ही है
कि पानी को जहाँ धारण किया जाए, उसमे वैसे ही #गुण उसमें आते है. पानी के अपने कोई गुण नहीं हैं.
जिसमें डाल दो उसी के गुण आ जाते हैं. #दही में मिला दो तो #छाछ बन गया, तो वो दही के गुण ले लेगा.
दूध में मिलाया तो #दूध का गुण. लोटे में पानी अगर रखा तो बर्तन का गुण आयेगा. अब लौटा गोल है तो वो उसी का गुण धारण कर लेगा. और अगर थोडा भी गणित आप समझते हैं तो हर गोल चीज का #सरफेस_टेंशन कम रहता है. क्योंकि सरफेस एरिया कम होता है तो सरफेस टेंशन कम होगा. तो सरफेस टेंशन कम हैं तो हर उस चीज का सरफेस टेंशन कम होगा. और स्वास्थ्य की दष्टि से कम सरफेस टेंशन वाली चीज ही आपके लिए लाभदायक है.अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाली चीज आप पियेंगे तो बहुत तकलीफ देने वाला है. क्योंकि उसमें #शरीर को तकलीफ देने वाला एक्स्ट्रा प्रेशर आता है.


गिलास और लोटा के पानी में अंतर गिलास के पानी और लौटे के पानी में जमीं आसमान का अंतर है.
इसी तरह #कुए का पानी, कुंआ गोल है इसलिए सबसे अच्छा है. आपने थोड़े समय पहले देखा होगा कि सभी #साधू #संत कुए का ही पानी पीते है. न मिले तो प्यास सहन कर जाते हैं, जहाँ मिलेगा वहीं पीयेंगे. वो कुंए का पानी इसीलिए पीते है क्यूंकि कुआ गोल है, और उसका सरफेस एरिया कम है. सरफेस टेंशन कम है. और साधू संत अपने साथ जो केतली की तरह पानी पीने के लिए रखते है वो भी लोटे की तरह ही आकार वाली होती है. जो नीचे चित्र में दिखाई गई है.
सरफेस टेंशन कम होने से पानी का एक गुण लम्बे समय तक जीवित रहता है. पानी का सबसे बड़ा गुण है सफाई करना. अब वो गुण कैसे काम करता है वो आपको बताते है. आपकी #बड़ी_आंत है और #छोटी_आंत है,
आप जानते हैं कि उसमें #मेम्ब्रेन है और कचरा उसी में जाके फंसता है. पेट की सफाई के लिए इसको बाहर लाना पड़ता है. ये तभी संभव है जब कम सरफेस टेंशन वाला पानी आप पी रहे हो. अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पानी है तो ये कचरा बाहर नही आएगा, मेम्ब्रेन में ही फंसा रह जाता है.
दुसरे तरीके से समझें, आप एक एक्सपेरिमेंट कीजिये. थोडा सा #दूध ले और उसे चेहरे पे लगाइए, 5 मिनट बाद रुई से पोंछिये. तो वो रुई काली हो जाएगी. स्किन के अन्दर का कचरा और गन्दगी बाहर आ जाएगी. इसे दूध बाहर लेकर आया. अब आप पूछेंगे कि दूध कैसे बाहर लाया तो आप को बता दें कि दूध का सरफेस टेंशन सभी वस्तुओं से कम है. तो जैसे ही दूध चेहरे पर लगाया, दूध ने चेहरे के सरफेस टेंशन को कम कर दिया क्योंकि जब किसी वस्तु को दूसरी वस्तु के सम्पर्क में लाते है तो वो दूसरी वस्तु के गुण ले लेता है.
इस एक्सपेरिमेंट में दूध ने स्किन का सरफेस टेंशन कम किया और त्वचा थोड़ी सी खुल गयी. और त्वचा खुली तो अंदर का कचरा बाहर निकल गया. यही क्रिया लोटे का पानी पेट में करता है. आपने पेट में पानी डाला तो बड़ी आंत और छोटी आंत का सरफेस टेंशन कम हुआ और वो खुल गयी और खुली तो सारा कचरा उसमें से बाहर आ गया. जिससे आपकी आंत बिल्कुल साफ़ हो गई. अब इसके विपरीत अगर आप गिलास का हाई सरफेस टेंशन का पानी पीयेंगे तो आंते सिकुडेंगी क्यूंकि #तनाव बढेगा. तनाव बढते समय चीज सिकुड़ती है और तनाव कम होते समय चीज खुलती है. अब तनाव बढेगा तो सारा कचरा अंदर जमा हो जायेगा और वो ही कचरा #भगन्दर, #बवासीर, मुल्व्याद जैसी सेंकडो पेट की बीमारियाँ उत्पन्न करेगा.
इसलिए कम सरफेस टेंशन वाला ही पानी पीना चाहिए. इसलिए लौटे का पानी पीना सबसे अच्छा माना जाता है, गोल कुए का पानी है तो बहुत अच्छा है. गोल तालाब का पानी, पोखर अगर खोल हो तो उसका पानी बहुत अच्छा. नदियों के पानी से कुंए का पानी अधिक अच्छा होता है. क्योंकि #नदी में गोल कुछ भी नही है वो सिर्फ लम्बी है, उसमे पानी का फ्लो होता रहता है. नदी का पानी हाई सरफेस टेंशन वाला होता है और नदी से भी ज्यादा ख़राब पानी समुन्द्र का होता है उसका सरफेस टेंशन सबसे अधिक होता है.
अगर #प्रकृति में देखेंगे तो #बारिश का पानी गोल होकर धरती पर आता है. मतलब सभी #बूंदे गोल होती है क्यूंकि उसका #सरफेस टेंशन बहुत कम होता है.
तो गिलास की बजाय पानी लोटे में पीयें.
तो लोटे ही घर में लायें.
गिलास का प्रयोग बंद कर दें. जब से आपने लोटे को छोड़ा है तब से भारत में लौटे बनाने वाले #कारीगरों की रोजी रोटी ख़त्म हो गयी. गाँव गाँव में कसेरे कम हो गये, वो #पीतल और #कांसे के लौटे बनाते थे.
सब इस गिलास के चक्कर में भूखे मर गये.
तो वागभट्ट जी की बात मानिये और लौटे वापिस लाइए