Thursday, April 24, 2025

कर भला तो हो भला

जब रावण ने जटायु के दोनों पंख काट डाले तब काल उसको लेने आया !!

और जैसे ही काल आया गिद्धराज जटायु ने मौत को ललकार कहा "खबरदार ! ऐ मृत्यु ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना...

मैं मृत्यु को स्वीकार तो करूँगा...

लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकती जब तक मैं सीता जी की सुधि प्रभु "श्रीराम" को नहीं सुना देता...!

मौत उन्हें छू नहीं पा रही है काँप रही है खड़ी हो कर...मौत तब तक खड़ी रही, काँपती रही जब तक जटायु ने प्राण नही त्यागे

यही इच्छा मृत्यु का वरदान जटायु को मिला।

किन्तु महाभारत के भीष्म पितामह छह महीने तक बाणों की शय्या पर लेट करके मौत का इंतजार करते रहे...

आँखों में आँसू हैं रो रहे हैं भगवान मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!

कितना अलौकिक है यह दृश्य...

रामायण मे जटायु भगवान की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं...! प्रभु "श्रीराम" रो रहे हैं और जटायु हँस रहे हैं..!!

वहाँ महाभारत में भीष्म पितामह रो रहे हैं और भगवान "श्रीकृष्ण" हँस रहे हैं.

भिन्नता प्रतीत हो रही है कि नहीं.?

अंत समय में जटायु को प्रभु "श्रीराम" की गोद की शय्या मिला.!

लेकिन भीष्म पितामह को मरते समय बाण की शय्या मिली.!

जटायु अपने कर्म के बल पर अंत समय में भगवान श्री राम की गोद रूपी शय्या में प्राण त्याग रहे है

और बाणों पर लेटे लेटे भीष्म पितामह रो रहे हैं.!

ऐसा अंतर क्यों.?

ऐसा अंतर इसलिए है कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने द्रौपदी की इज्जत को लुटते हुए देखा था पर विरोध नहीं कर पाये थे.!

दुःशासन को ललकार देते.

दुर्योधन को ललकार देते.

लेकिन द्रौपदी रोती रही.

बिलखती रही चीखती रही चिल्लाती रही.

लेकिन भीष्म पितामह सिर झुकाये बैठे रहे.

नारी की रक्षा नहीं कर पाये!

उसका परिणाम यह निकला कि इच्छा मृत्यु का वरदान पाने पर भी बाणों की शय्या मिली !

और जटायु ने नारी का सम्मान किया अपने प्राणों की आहुति दे दी तो मरते समय भगवान "श्रीराम" की गोद की शय्या मिली.!

जो दूसरों के साथ गलत होते देखकर भी आंखें मूंद लेते हैं उनकी गति भीष्म जैसी होती है

और जो अपना परिणाम जानते हुए भी औरों के लिए संघर्ष करते है, उसका माहात्म्य जटायु जैसा कीर्तिवान होता है!!

"इसलिए कहते कि कर भला तो हो भला"


गो-महिमा

       एक बार नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा- नाथ! आपने बताया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति भगवान् के मुख से हुई है; फिर गौओं की उससे तुलना कैसे हो सकती है ? विधाता! इस विषय को लेकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।          

   ब्रह्माजी ने कहा- है नारद! पहले भगवान् के मुख से महान् तेजोमय पुंज प्रकट हुआ। उस तेज से सर्व प्रथम वेद की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् क्रमशः अग्नि, गौ और ब्राह्मण-ये पृथक्-पृथक् उत्पन्न हुए। मैंने सम्पूर्ण लोकों और भुवनों की रक्षा के लिये पूर्वकाल में एक वेद से चारों वेदों का विस्तार किया। 

अग्नि और ब्राह्मण देवताओं के लिये हविष्य ग्रहण करते हैं और हविष्य (घी) गौओं से उत्पन्न होता है; इसलिये ये चारों ही इस जगत् के जन्मदाता हैं। यदि ये चारों महत्तर पदार्थ विश्व में नहीं होते तो यह सारा चराचर जगत् नष्ट हो जाता। ये ही सदा जगत् को धारण किये रहते हैं, जिससे स्वभावत: इसकी स्थिति बनी रहती है। 

  ब्राह्मण, देवता तथा असुरों को भी गौ की पूजा करनी चाहिये; क्योंकि गौ सब कार्यों में उदार तथा वास्तव में समस्त गुणों की खान है। वह साक्षात् सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है। सब प्राणियों पर उसकी दया बनी रहती है। प्राचीन काल में सबके पोषण के लिये मैंने गौ की सृष्टि की थी। गौओं की प्रत्येक वस्तु पावन है। और समस्त संसार को पवित्र कर देती है। गौ का मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी-इन पंचगव्यों का पान कर लेने पर शरीर के भीतर पाप नहीं ठहरता। इसलिये धार्मिक पुरुष प्रतिदिन गौ के दूध, दही और घी खाया करते हैं। 

     गव्य पदार्थ सम्पूर्ण द्रव्यों में श्रेष्ठ, शुभ और प्रिय हैं। जिसको गायका दूध, दही और घी खाने का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मल के समान है। अन्न आदि पाँच रात्रि तक, दूध सात रात्रि तक, दही दस रात्रि तक और घी एक मास तक शरीर में अपना प्रभाव रखती है। जो लगातार एक मास तक बिना गव्य का भोजन करता है, उस मनुष्य के भोजन में प्रेतों को भाग मिलता है, इसलिये प्रत्येक युग में सब कार्यों के लिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है। गौ सदा और सब समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है।

      जो गौ की एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर अक्षय स्वर्ग का सुख भोगता है। जैसे देवताओं के आचार्य बृहस्पतिजी वन्दनीय हैं, जिस प्रकार भगवान् लक्ष्मीपति सबके पूज्य हैं, उसी प्रकार गौ भी वन्दनीय और पूजनीय है।

      जो मनुष्य प्रात:काल उठकर गौ और उसके घी का स्पर्श करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। गौएँ दूध और घी प्रदान करने वाली हैं। वे घृत की उत्पत्ति-स्थान और घी की उत्पत्ति में कारण हैं। वे घी की नदियाँ हैं, उनमें घी की भँवरें उठती हैं ऐसी गौएँ सदा मेरे घर पर मौजूद रहें और गौ का घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मन में स्थित हो। 'गौएँ सदा मेरे आगे रहें। वे ही मेरे पीछे रहें। मेरे सब अंगों को गौओं का स्पर्श प्राप्त हो। मैं गौओं के बीच में निवास करूँ।' इस मन्त्र को प्रतिदिन संध्या और सबेरे के समय शुद्ध भाव से आचमन करके जपना चाहिये। ऐसा करने से उसके सब पापों का क्षय हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक में पूजित होता है। जैसे गौ आदरणीय है, वैसे ब्राह्मण; जैसे ब्राह्मण हैं वैसे भगवान् विष्णु। जैसे भगवान् श्रीविष्णु हैं, वैसी ही श्रीगंगाजी भी हैं। ये सभी धर्म के साक्षात् स्वरूप माने गये हैं। 

     गौएँ मनुष्यों की बन्धु हैं और मनुष्य गौओं के बन्धु हैं। जिस घर में गौ नहीं है, वह बन्धु रहित गृह है। छहों अंगों, पदों और क्रमों सहित सम्पूर्ण वेद गौओं के मुख में निवास करते हैं। उनके सींगों में भगवान् श्रीशंकर और श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं । गौओं के उदर में कार्तिकेय, मस्तक में ब्रह्मा, ललाट में महादेवजी, सींगों के अग्रभाग में इन्द्र, दोनों कानों में अश्विवनीकुमार, नेत्रों में चन्द्रमा और सूर्य, दाँतों में गरुड़, जिह्वा में सरस्वती देवी, अपान (गुदा)-में सम्पूर्ण तीर्थ, मूत्रस्थान में गंगाजी, रोमकूपों में ऋषि, मुख और पृष्ठभाग में यमराज, दक्षिण पार्श्व में वरुण और कुबेर, वाम पाश्र्व में तेजस्वी और महाबली यक्ष, मुख के भीतर गन्धर्व, नासिका के अग्रभाग में सर्प, खुरों के पिछले भाग में अप्सराएँ, गोबर में लक्ष्म, गोमूत्र में पार्वती, चरणों के अग्रभाग में आकाशचारी देवता, रँभाने की आवाज में प्रजापति और थनों में भरे हुए चारों समुद्र निवास करते हैं। 

     जो प्रतिदिन स्नान करके गौसेवा.. गौमाताओं को भोजन कराता है एवं उनका स्पर्श करता है, वह मनुष्य सब प्रकार के स्थूल पापों से भी मुक्त हो जाता है। जो गौओं के खुर से उड़ी हुई धूल को सिर पर धारण करता है, वह मानों तीर्थ के जल में स्नान कर लेता है और सब पापों से छुटकारा पा जाता। 

इसलिये प्रत्येक मनुष्य को गौपालन गौसेवा अवश्य करनी चाहिए और जो मनुष्य अपने घर पर गौपालन नही कर सकता उसे गौमाताओं के निमित्त गौशाला में अवश्य अपना सहयोग देना चाहिए।

स्त्री-सर्वदुखहर्ता

एक पति-पत्नी में तकरार हो गयी, पति कह रहा था : "मैं नवाब हूँ इस शहर का लोग इसलिए मेरी इज्जत करते है और तुम्हारी इज्जत मेरी वजह से है।"


पत्नी कह रही थी : "आपकी इज्जत मेरी वजह से है। मैं चाहूँ तो आपकी इज्जत एक मिनट में बिगाड़ भी सकती हूँ और बना भी सकती हूँ।" 


नवाब को तैश आ गया और बोला-"ठीक है दिखाओ

मेरी इज्जत खराब करके..!!!"


बात आई गई हो गयी। नवाब के घर शाम को महफ़िल जमी थी दोस्तों की... हंसी मजाक हो रहा था कि अचानक नवाब को

अपने बेटे के रोने की आवाज आई, वो जोर जोर से रो

रहा था और नवाब की पत्नी

बुरी तरह उसे डांट रही थी। नवाब ने जोर से आवाज देकर पूछा कि क्या हुआ बेगम क्यों डाँट रही हो..??


बेगम ने अंदर से कहा., "देखिये न---आपका बेटा खिचड़ी मांग रहा है और जबकि उसका पेट

भी भर चुका है..!!"


नवाब ने कहा.., "दे दो थोड़ी सी

और..!!"


बेगम बोली., "घर में और भी तो लोग है सारी इसी को कैसे दे दूँ..??"


पूरी महफ़िल शांत हो गयी । लोग कानाफूसी करने लगे कि कैसा नवाब है ? जरा सी खिचड़ी के लिए इसके घर में झगड़ा होता है। नवाब की पगड़ी उछल गई। सभी लोग चुपचाप उठ कर चले गए।


नवाब उठ कर अपनी बेगम के पास आया और बोला.,"मैं मान गया, तुमने आज मेरी इज्जत तो उतार दी, लोग भी कैसी-

कैसी बातें कर रहे थे। अब तुम यही इज्जत वापस लाकर दिखाओ..!!"


बेगम बोली.., "इसमे कौन सी

बड़ी बात है आज जो लोग महफ़िल में थे उन्हें आप फिर किसी बहाने से उन्हें निमंत्रण

दीजिये..!!"


नवाब ने फिर से सबको बुलाया बैठक और मौज मस्ती के बहाने., सभी मित्रगण बैठे थे, हंसी मजाक चल रहा था कि फिर वही नवाब के बेटे

की रोने की आवाज आई


नवाब ने आवाज देकर पूछा.,

"बेगम क्या हुआ क्यों रो रहा है हमारा बेटा ?"

बेगम ने कहा., "फिर वही खिचड़ी खाने की जिद्द कर रहा है..!!"


लोग फिर एक दूसरे का मुंह देखने लगे कि यार एक मामूली खिचड़ी के लिए इस नवाब के घर पर रोज झगड़ा होता है।


नवाब मुस्कुराते हुए बोला., "अच्छा बेगम तुम एक काम करो तुम खिचड़ी यहाँ लेकर आओ .. हम खुद अपने हाथों से अपने बेटे को देंगे., वो मान जाएगा और सभी मेहमानो को भी खिचड़ी खिलाओ..!!"


बेगम ने जवाब दिया.., "जी नवाब साहब...!!" बेगम बैठक खाने में आ गई पीछे नौकर खाने का सामान सर पर रख आ रहा था, हंडिया नीचे रखी और मेहमानो को भी देना शुरू किया

अपने बेटे के साथ। 


सारे नवाब के दोस्त हैरान -जो परोसा जा रहा था वो चावल की खिचड़ी तो कत्तई नहीं थी। उसमे खजूर-पिस्ता-काजू बादाम-किशमिश गिरी इत्यादि से मिला कर बनाया हुआ

सुस्वादिष्ट व्यंजन था।


अब लोग मन ही मन सोच

रहे थे कि ये खिचड़ी है? नवाब के घर इसे खिचड़ी बोलते हैं तो -मावा-मिठाई किसे बोलतेहोंगे ?


नवाब की इज्जत को चार-चाँद लग गए । लोग नवाब की रईसी की बातें करने लगे।


नवाब ने बेगम के सामने हव---और जिस व्यक्ति को घर में इज्जत हासिल नहीं उसे दुनियाँ मे कहीं इज्जत नहीं मिलती..!!!"*


सृष्टि मे यह सिद्धांत हर जगह लागू हो जाएगा । अहंकार युक्त जीवन में स्त्री जब चाहे हमारे अहंकार की इज्जत उतार सकती है और नम्रता युक्त जीवन मे इज्ज़त बना सकती है....!!!!!

पुण्यों का मोल

एक व्यापारी जितना अमीर था उतना ही दान-पुण्य करने वाला, वह सदैव यज्ञ-पूजा आदि कराता रहता था।एक बार उसे व्यापार में घाटा चला गया ।अब उसके पास परिवार चलाने लायक भी पैसे नहीं बचे थे।

व्यापारी की पत्नी ने सुझाव दिया कि पड़ोस के नगर में एक बड़े सेठ रहते हैं। वह दूसरों के पुण्य खरीदते हैं।आप उनके पास जाइए और अपने कुछ पुण्य बेचकर थोड़े पैसे ले आइए, जिससे फिर से काम-धंधा शुरू हो सके।

पुण्य बेचने की व्यापारी की बिलकुल इच्छा नहीं थी, लेकिन पत्नी के दबाव और बच्चों की चिंता में वह पुण्य बेचने को तैयार हुआ। पत्नी ने रास्ते में खाने के लिए चार रोटियां बनाकर दे दीं।

व्यापारी चलता-चलता उस नगर के पास पहुंचा जहां पुण्य के खरीदार सेठ रहते थे। उसे भूख लगी थी।नगर में प्रवेश करने से पहले उसने सोचा भोजन कर लिया जाए। उसने जैसे ही रोटियां निकालीं एक कुतिया तुरंत के जन्मे अपने तीन बच्चों के साथ आ खड़ी हुई।

कुतिया ने बच्चे जंगल में जन्म दिए थे। बारिश के दिन थे और बच्चे छोटे थे, इसलिए वह उन्हें छोड़कर नगर में नहीं जा सकती थी। व्यापारी को दया आ गई। उसने एक रोटी कुतिया को खाने के लिए दे दिया।कुतिया पलक झपकते रोटी चट कर गई लेकिन वह अब भी भूख से हांफ रही थी।

व्यापारी ने दूसरी रोटी, फिर तीसरी और फिर चारो रोटियां कुतिया को खिला दीं। खुद केवल पानी पीकर सेठ के पास पहुंचा।व्यापारी ने सेठ से कहा कि वह अपना पुण्य बेचने आया है। सेठ व्यस्त था। उसने कहा कि शाम को आओ।

दोपहर में सेठ भोजन के लिए घर गया और उसने अपनी पत्नी को बताया कि एक व्यापारी अपने पुण्य बेचने आया है। उसका कौन सा पुण्य खरीदूं।

सेठ की पत्नी बहुत पतिव्रता और सिद्ध थी। उसने ध्यान लगाकर देख लिया कि आज व्यापारी ने कुतिया को रोटी खिलाई है।उसने अपने पति से कहा कि उसका आज का पुण्य खरीदना जो उसने एक जानवर को रोटी खिलाकर कमाया है। वह उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ पुण्य है।

व्यापारी शाम को फिर अपना पुण्य बेचने आया। सेठ ने कहा- आज आपने जो यज्ञ किया है मैं उसका पुण्य लेना चाहता हूं।

व्यापारी हंसने लगा। उसने कहा कि अगर मेरे पास यज्ञ के लिए पैसे होते तो क्या मैं आपके पास पुण्य बेचने आता!

सेठ ने कहा कि आज आपने किसी भूखे जानवर को भोजन कराकर उसके और उसके बच्चों के प्राणों की रक्षा की है। मुझे वही पुण्य चाहिए।

व्यापारी वह पुण्य बेचने को तैयार हुआ। सेठ ने कहा कि उस पुण्य के बदले वह व्यापारी को चार रोटियों के वजन के बराबर हीरे-मोती देगा।

चार रोटियां बनाई गईं और उसे तराजू के एक पलड़े में रखा गया। दूसरे पलड़े में सेठ ने एक पोटली में भरकर हीरे-जवाहरात रखे।पलड़ा हिला तक नहीं। दूसरी पोटली मंगाई गई। फिर भी पलड़ा नहीं हिला।

कई पोटलियों के रखने पर भी जब पलड़ा नहीं हिला तो व्यापारी ने कहा- सेठजी, मैंने विचार बदल दिया है. मैं अब पुण्य नहीं बेचना चाहता।व्यापारी खाली हाथ अपने घर की ओर चल पड़ा। उसे डर हुआ कि कहीं घर में घुसते ही पत्नी के साथ कलह न शुरू हो जाए।

जहां उसने कुतिया को रोटियां डाली थी, वहां से कुछ कंकड़-पत्थर उठाए और साथ में रखकर गांठ बांध दी।

घर पहुंचने पर पत्नी ने पूछा कि पुण्य बेचकर कितने पैसे मिले तो उसने थैली दिखाई और कहा इसे भोजन के बाद रात को ही खोलेंगे। इसके बाद गांव में कुछ उधार मांगने चला गया।

इधर उसकी पत्नी ने जबसे थैली देखी थी उसे सब्र नहीं हो रहा था। पति के जाते ही उसने थैली खोली।उसकी आंखे फटी रह गईं। थैली हीरे-जवाहरातों से भरी थी।

व्यापारी घर लौटा तो उसकी पत्नी ने पूछा कि पुण्यों का इतना अच्छा मोल किसने दिया ? इतने हीरे-जवाहरात कहां से आए ?? व्यापारी को अंदेशा हुआ कि पत्नी सारा भेद जानकर ताने तो नहीं मार रही लेकिन, उसके चेहरे की चमक से ऐसा लग नहीं रहा था।

व्यापारी ने कहा- दिखाओ कहां हैं हीरे-जवाहरात। पत्नी ने लाकर पोटली उसके सामने उलट दी। उसमें से बेशकीमती रत्न गिरे। व्यापारी हैरान रह गया।फिर उसने पत्नी को सारी बात बता दी। पत्नी को पछतावा हुआ कि उसने अपने पति को विपत्ति में पुण्य बेचने को विवश किया।

दोनों ने तय किया कि वह इसमें से कुछ अंश निकालकर व्यापार शुरू करेंगे। व्यापार से प्राप्त धन को इसमें मिलाकर जनकल्याण में लगा देंगे।

ईश्वर आपकी परीक्षा लेता है। परीक्षा में वह सबसे ज्यादा आपके उसी गुण को परखता है जिस पर आपको गर्व हो।

अगर आप परीक्षा में खरे उतर जाते हैं तो ईश्वर वह गुण आपमें हमेशा के लिए वरदान स्वरूप दे देते हैं।

अगर परीक्षा में उतीर्ण न हुए तो ईश्वर उस गुण के लिए योग्य किसी अन्य व्यक्ति की तलाश में लग जाते हैं।

इसलिए विपत्तिकाल में भी भगवान पर भरोसा रखकर सही राह चलनी चाहिए। आपके कंकड़-पत्थर भी अनमोल रत्न हो सकते हैं।

   न डर रे मन दुनिया से

   यहाँ किसी के चाहने से नहीं

   किसी का बुरा होता है,

   मिलता है वही, जो हमने बोया होता है,

   कर पुकार उस प्रभु के आगे.. क्योकि सब कुछ उसी के बस में होता है।।