Tuesday, June 18, 2019

शार्क संरक्षण में महत्वपूर्ण हो सकती है मछुआरों और बाजार की भूमिका

 


शुभ्रता मिश्रा


वास्को-द-गामा (गोवा), 18 जून, (इंडिया साइंस वायर):भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शार्क मछली पालक देश है। लेकिन भारतीय मछुआरे और मछली व्यापारी शार्क संरक्षण संबंधी नियमों से अनजान हैं।


 


भारतीयमछुआरे प्रायः बड़ी शार्क मछलियां नहीं पकड़ते हैं, बल्कि दूसरी मछलियों को पकड़ने के लिए डाले गए जाल में बड़ी शार्क भी फंसजाती हैं। अधिकतर मछुआरे और व्यापारीजानते हैं कि व्हेल शार्क को पकड़ना गैरकानूनी है। पर, वे अन्य शार्क प्रजातियों, जैसे- टाइगर शार्क, हेमरहेड शार्क, बुकशार्क, पिगी शार्क आदि के लिए निर्धारित राष्ट्रीय शार्क संरक्षण मानकों से अनजान हैं।


 


शार्क मछलियों को उनके मांस और पंखो के लिए पकड़ा जाता है।शार्क के पंखों के अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्थिति काफी हद तक अनियमित है।भारत में शार्क के मांस के लिए एक बड़ा घरेलू बाजार है। जबकि निर्यात बाजार छोटा है। यहां छोटे आकार और किशोर शार्क के मांस की मांग सबसे ज्यादा है।आमतौर पर एक मीटर से छोटी शार्क मछलियां ही पकड़ी जाती हैं और छोटी शार्क स्थानीय बाजारों में महंगी बिकती हैं।


 


शार्क संरक्षण को लेकर किये गए एक अध्ययन में ये बातें उभरकर आई हैं।अशोका यूनिवर्सिटी, हरियाणा, जेम्स कुक यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया और एलेस्मो प्रोजेक्ट, संयुक्त अरब अमीरात के वैज्ञानिकों द्वारा किए गएइस अध्ययन में शार्क व्यापार के दो प्रमुख केंद्रों गुजरात के पोरबंदर और महाराष्ट्र के मालवन में सर्वेक्षण किया गया है।भारत में शार्क मछलियां पकड़ने में गुजरात और महाराष्ट्र का कुल 54 प्रतिशत योगदान है। शार्क मछलियां पकड़ने के लिए पोरबंदर में 65 प्रतिशत ट्राल नेटों और मालवन में 90 प्रतिशत गिलनेटों सहित हुक ऐंड लाइन मत्स्यपालन विधि का उपयोग होता है।


 


अध्ययन से जुड़ीं अशोका यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता डॉ. दिव्या कर्नाड ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “बड़ी शार्क मछलियों की संख्या में लगातार गिरावट की जानकारी ज्यादातर मछुआरों और व्यापारियों को है और शार्क व्यापारी स्थानीय नियमों का पालन भीकरते हैं। लेकिन,भारत में शार्क मछलियों की संख्या में गिरावट के सही मूल्यांकन के लिए बड़े पैमाने परशोध करने होंगे।”


शोधकर्ताओं के अनुसार, पिछले दस सालों में शार्क पंखों की अंतरराष्ट्रीय बिक्री में 95 प्रतिशत तक गिरावट हुई है।  उत्तर-पश्चिमी भारत में शार्क मछलियों की संख्या और आकार में लगातार गिरावट का आर्थिक असर मछुआरों और मछली व्यापारियों पर पड़ रहा है।अध्ययन के आंकड़े स्थानीय मछुआरों, नौका मालिकों, खुदरा विक्रेताओं और मछली व्यापारियों से साक्षात्कार के आधार पर एकत्रित किए गए।


अध्ययन से पता चला है कि मछली पकड़ना भारतीय मछुआरों का प्राथमिक व्यवसाय है और शार्क व्यापार सिर्फ अतिरिक्त आमदनी का जरिया है। व्यापारी पूरी शार्क एक जगह से ही खरीदते हैं। लेकिन, उसके पंख और मांस अलग- अलग बेचते हैं। पंख बड़े मछली व्यापारियों और ताजा मांस स्थानीय बाजार में बेचा जाता है। शार्क के पंखमालवन से मडगांव और मंगलूरु जैसे दो प्रमुख मछली व्यापार केंद्रों से होते हुए अंततः चीन और जापान में भेजे जाते हैं। इसी तरह, पोरबंदर से ओखा, वैरावल, मुम्बई, कालीकट और कोच्चि से होते हुए सिंगापुर, हांगकांग और दुबई व आबूधाबी तक शार्क के पंख भेजे जाते हैं। शार्क मछलियों के पंखोंका उपयोगचीन, जापान, इंडोनेशियाऔर थाइलैंड जैसे देशों में सूप बनाने और दवाओं में होता है।


महासागर की सबसे बड़ी परभक्षी मछलियों शामिल शार्क की लगभग 4000 प्रजातियां है। भारत में शार्क प्रजातियों के पकड़ने के साथ साथ उनकेसंरक्षण संबंधी नियमों कोकड़ाई से लागू करनेके लिएसभी राज्योंके मत्स्य पालन विभागों, वन विभाग और समुद्री पुलिस के एक संयुक्त समन्वयितप्रयास की आवश्यकता है।स्थानीय मछुआरों एवं व्यापारियों में शार्क प्रबंधन और संरक्षण के प्रति जागरूकता भी कारगर हो सकती है।


यह अध्ययन एम्बिओ जर्नल में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं में डॉ. दिव्या कर्नाड के अलावा दीपानी सुतारिया और रीमा डब्ल्यू. जाबाडो भी शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)



मछली बाजार में शोधार्थियों के साथ डॉ. दिव्या कर्नाड



छोटी शार्क मछलियां



बड़ी शार्क


तिहाड़ जेल यथा नाम तथा काम

पढ़िए एक पत्रकार का सनसनीखेज कथानक


 


कैदी बन्दी आपस मे कैसा बर्ताव करते है सुना है अंदर फोन वगैरा भी मिलता है
● अंदर लड़की और शराब छोड़कर हर सुविधा है बस आप उस सुविधा के लायक हों खूब पैसा हो या आप बढ़िया बदमाश हो हर सम्पन्न है जेल आपके लिए. चरस गांजा अफीम स्मैक से लगाकर मोबाइल तक आपके पास रहेगा . कोई सिपाही सेट कर लीजिए आपको सब कुछ लाकर दे देगा.


 



एक ऐसी जगह जहाँ शायद ही कोई जाना चाहता हो। एक ऐसी जगह जिसे धरती का जीता जागता नरक समझा जाता है। वो घर है जेल, जेल भी ऐसी जो भारत सहित एशिया की बड़ी जेलों में शुमार रखती है। कैसा है वहा का हाल। पुलिस का क्या रवैया रहता है। बंदियों की दिनचर्या कैसी रहती है । आजकल चर्चित पत्रकार मनीष दुबे की तिहाड़ जेल पर लिखी किताब जेल जर्नलिज्म खासा चर्चा में है । इसी कड़ी में दैनिक अयोध्या टाइम्स हिंदी दैनिक के एडिटर इन चीफ श्री ब्रजेश मौर्या ने जर्नलिस्ट मनीष दुबे से उनकी जेल जिंदगी पर विस्तार से बातचीत की और अंदर की दुनिया के हालातों का जायजा लिया
पेश है एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
●आज जब जेल जैसी जगह जाने में लोग कांप उठते है वहा से लौटकर उस सब्जेक्ट पर किसी से चर्चा नही चलाता आप ने जेल जर्नलिज्म जैसी बुक लिख डाली.
मैं भी कांप रहा था जब जेल जा रहा था बाकी अब ये सोचता हूँ कि जेल एक ऐसी जगह है जहाँ सबको एक बार जाना चाहिए. दुनिया की हर रुबाइयों से पर्दा उठ जाता है.
●जेल जाकर किताब लिखने का आईडिया दिमाग मे कब और कैसे आया.
हां ये अच्छा सवाल किया आपने(हंसते हुए) जेल मैं 2012 में 4 जनवरी को गया. दिल्ली में कुछ अननोन आताताइयों की वजह से मुनासिब हुआ था वहां जाना. दिल्ली की एक प्रतिष्टित मीडिया पत्रिका में काम कर रहा था. वहां भी नया नया जॉइन किया था अतएव हाथ खड़े कर दिए तब नियति मान कर चल दिया. साल के आखिर में जमानत हुई छूटकर घर आया 2014 में शादी हो गई एक बेटी हुई सब कुछ भूल भालकर अपनी दुनिया मे मगन था कि फिर उसी केस में सजा हो जाती है तब कीड़ा उठा कि यार ये क्या कर लिया जो लिखा था वो दिखा ही नही अगर दिखाता तो ये आज शायद ना होता. आधी किताब तब उसी कस्टडी में लिख ली थी फिर लिखी वहां से 2018 मध्य में बरी हुआ. फिर बाहर आकर टाइपिंग वाइपिंग करके छपवा मारी .
●सुना है किताब दो पार्ट में है.
जी ये एक नावेल है जो दो भागों में पढ़ने को मिलेगा. ये नावेल जब प्रकाशित हो रही थी तो कुछ सबा साढ़े चार सौ पेजो की हो रही थी. मुझे लगा अबे ये तो ग्रन्थ टाइप हो जाएगा पढ़ेगा कौन. तब पब्लिशर ने आईडिया दिया। भारतीय साहित्य संग्रह(पुस्तक.ऑर्ग) के संस्थापक अम्बरीष शुक्ला जी जो हमारे फैमिली मेम्बर जैसे ही है उन्होंने कहा यार इसे दो भागों में करो.दोनों कस्टडी को अलग अलग दिखाओ. तब ये पार्टबन्दी में हो गई.



●अमर जो किरदार है नावेल का कैसे देखता है बाहर की अपेछा अंदर की दुनिया को.
बहोत ही बुरा. अमर तड़पता है छटपटाता है अपनी पहली दो रातें रोकर गुजरता है हर घड़ी दर्द बिल्कुल अलग लोग बेतहाशा गालियां हर चेहरा अक्रूर हर तरफ अय्यार टाइप के लोग, जिन पर आप भरोसा ना कर सको और ना ही करना ही चाहे. अच्छे लोग भी मिलते है ऐसा नही पर हर तरफ की बुराइयों के बीच वो अंतर्ध्यान रहते हैं.
●नावेल मैंने भी पढ़ी है एक जगह आपने एक जेल गीत लिखा है जिसे आपने कोलावेरी डी नाम दिया है वो कहाँ से मिला.


ये गीत मैं अक्सर किसी ना किसी से वहां सुना करता था जिसे गाकर कैदी बन्दी अपनी एक तरह से भड़ास निकालते थे प्रशाशन सरकार के खिलाफ तो मुझे लगा यार ये पूरा कोई सुनाने वाला मिल जाये तो इसको अपनी बुक में शामिल कर लूं. इसके चलते मुझे कइयों के तेल लगाना पड़ा किसी ने नही बताया . फिर एक बन्दी मिला जिसने बिना तेल के ही लिखवा दिया.


https://www.youtube.com/watch?v=MdHUMgPVn8Q



●नावेल में गालियों का बहुलता से इस्तेमाल किया गया है.
ये कहानी की डिमांड थी.अब आप बताइए जेल जैसी विषयवस्तु की कल्पना गालियों बगैर पूरी भी कहा है. सब मीठा मीठा गप्प अपन को आता नहीं.
●प्रशाशन कैसा व्यवहार करता है अंदर.
प्रशाशन तो दुस्सासन है वहा का ना पता कब चीरहरण कर दे इसलिए बचा सम्भाल के रखना पड़ता है खुद को. बिल्कुल तानाशाहों वाला रवैया हर बन्दी कैदी को काटनेकी रोज नई नई तरकीबें इजादते रहते है। .
बुरा बर्ताव जरा जरा सी गलती पे जानवरों की तरह पिटाई. थर्ड डिग्री टॉर्चर हाथपैर बांधकर स्टैंड में टाँग दिया जाता है जिसे झूला कहते है लट्ठ बरसाए जाते है. भिन्न भिन्न उपनामो वाले जल्लाद सरीखे दिखती है जेल पुलिस।


https://www.youtube.com/channel/UClidKi9vEaXzdmtNMeSuNsA मंडल ब्यूरो, ब्यूरो, पत्रकार, छायाकार व मित्रों से अनुरोध है कि समाचार पत्र को बढ़ाने हेतु यूट्यूब चैनल को ज्यादा से ज्यादा सबस्क्राइब करें।


Friday, June 14, 2019

रोजाना लगाया जाता सिंदूर का लेप और कुछ घंटे में काले हो जाते हैं हनुमानजी, वजह कहीं ये तो नहीं


कानपुर,  शहर के प्रसिद्ध सिद्धनाथ मंदिर में शिवलिंग अरघा, हनुमान जी की मूर्ति के साथ ही तांबे का त्रिशूल का रंगा काला होता जा रहा है। रोजाना सफाई और सिंदूर का लेप लगाने के कुछ देर तक सब सही रहता है मगर, कुछ घंटे में ही हनुमानजी का रंग बदलकर काला हो जाता है। इस घटना को लेकर भक्तों में तरह तरह की भ्रांतियां जन्म लेने लगी हैं।


मंदिर में अचानक मूर्तियां काली पडऩे से भक्तों में रोष


शहर के जाजमऊ में सिद्धनाथ मंदिर विशेष आस्था का केंद्र है। यहां शहर ही नहीं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से भक्त दर्शन पूजन के लिए आते हैं। गंगा नदी के किनारे बने इस मंदिर की विशेष मान्यता है। यहां पर शिवलिंग, हनुमानजी की मूर्ति स्थापित है और दर्शन के लिए रोजाना सैकड़ों भक्तों की भीड़ जुटती है। बीते कुछ महीनों से शिवलिंग का चांदी का अरघा काला पड़ गया है।


द्वार पर लगी हनुमानजी की मूर्ति भी काले रंग की हो गई है और तांबे का त्रिशूल का भी रंग बदलकर काला हो रहा है। यहां तक की मंदिर की दीवारों का भी रंग बदल रहा है। रोजाना मंदिर की साफ सफाई की जाती है और हनुमान जी को लाल बंदन का सिंदूर लेप चढ़ाया जाता है। कुछ देर तक रंग लाल रहता है लेकिन बाद में हनुमानजी की मूति काले रंग की हो जाती है। इस घटना के बाद से तरह तरह की भ्रांतियों के जन्म लेने के साथ लोगों में रोष भी पनप रहा है।


ये मानी जा रही वजह


मंदिर मूर्ति और अरघा काला पडऩे से भक्तों में बेहद रोष है। इसके पीछे गंगा घाट के किनारे नाले में जमा जहरीला सीवरेज के प्रदूषण को कारण माना जा रहा है। बुढिय़ाघाट और वाजिदपुर में नाला जल निगम ने टैप किया था। वाजिदपुर नाला की टैङ्क्षपग की बोरियां हटने से केमिकलयुक्त सीवरेज बहकर सिद्धनाथ घाट के आगे तक पहुंच गया है। इससे घाट किनारे एक बड़े नाले की शक्ल ले ली है। यहां एक माह से अधिक समय से नाले का सीवरेज जमा है, जिससे अत्यधिक दुर्गंध व गैस उठती है। सीवरेज का रंग भी लाल, हरा व काला हो गया है। माना जा रहा है इस जहरीली गैस के प्रभाव से सिद्धनाथ मंदिर में शिवङ्क्षलग का अरघा, हनुमानजी की मूर्ति और त्रिशूल काला पड़ रहा है। हैंडपंप से आने वाला पानी भी दूषित हो चुका है। यहां आने वाली महिलाओं की पायल व अंगूठियां भी काली पड़ रही हैं।


Thursday, June 13, 2019

वैज्ञानिकों ने उजागर की शीथ ब्लाइट के रोगजनक फफूंद की अनुवांशिक विविधता

उमाशंकर मिश्र



नई दिल्ली, 13 जून (इंडिया साइंस वायर) : भारतीय वैज्ञानिकों ने चावल की फसल के एक प्रमुख रोगजनक फफूंद राइजोक्टोनिया सोलानी की आक्रामकता से जुड़ी अनुवांशिक विविधता को उजागर किया है। नई दिल्ली स्थितराष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक ताजा अध्ययन में कई जीन्स की पहचान की गई है जो राइजोक्टोनिया सोलानी के उपभेदों में रोगजनक विविधता के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अनुवांशिक जानकारी शीथ ब्लाइट रोग प्रतिरोधी चावल की किस्में विकसित करने में मददगार हो सकती है।


इस शोध में राइजोक्टोनिया सोलानी के दो भारतीय रूपों बीआरएस11 और बीआरएस13 की अनुवांशिक संरचना का अध्ययन किया गया है और इनके जीन्स की तुलना एजी1-आईए समूह के राइजोक्टोनिया सोलानीफफूंद के जीनोम से की गई है। एजी1-आईए को पौधों के रोगजनक के रूप में जाना जाता है।


 


वैज्ञानिकों ने इन दोनों फफूंदों की अनुवांशिक संरचना में कई एकल-न्यूक्लियोटाइड बहुरूपताओं की पहचान की है तथा इनके जीनोम में सूक्ष्म खंडों के जुड़ने और टूटने का पता लगाया है। शोधकर्ताओं ने इन दोनों फफूंदों में विभिन्न जीन्स अथवा जीन परिवारों के उभरने और उनके विस्तार को दर्ज किया है, जिससे राइजोक्टोनिया सोलानीके भारतीय उपभेदों में तेजी से हो रहे क्रमिक विकास का पता चलता है।


 


इस अध्ययन का नेतृत्व कर रहे नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ गोपालजी झा ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “शीथ ब्लाइट के नियंत्रण के लिए प्राकृतिक स्रोतों के अभाव में इस रोग के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता रखने वाली चावल की किस्मों का विकास कठिन है। हम चावल की फसल और राइजोक्टोनिया सोलानी फफूंद से जुड़ी आणविक जटिलताओं को समझना चाहते हैं ताकि शीथ ब्लाइट बीमारी के नियंत्रण की रणनीति विकसित की जा सके।”


राष्ट्रीय पादप जीनोम अनुसंधान संस्थान में शोधकर्ताओं की टीम


राइजोक्टोनिया सोलानीके कारण होने वाली शीथ ब्लाइट बीमारी चावल उत्पादन से जुड़े प्रमुख खतरों में से एक है। इस फफूंद के अलग-अलग रूप विभिन्न कवक समूहों से संबंधित हैं जो चावल समेत अन्य फसलों को नुकसान पहुंचाने के लिए जाने जाते हैं। चावल की फसल में इस फफूंद को फैलने की अनुकूल परिस्थितियां मिल जाएं तो फसल उत्पादन 60 प्रतिशत तक गिर सकता है। शीथ ब्लाइट पर नियंत्रण का टिकाऊ तरीका न होना दीर्घकालिक चावल उत्पादन और खाद्यान्न सुरक्षा से जुड़ी प्रमुख चुनौती है।



डॉ झा ने बताया कि “राइजोक्टोनिया सोलानीके जीन्स के अधिक अध्ययन से इस फफूंद की रोगजनक भूमिका को विस्तार से समझने में मदद मिल सकती है। इससे चावल में रोग पैदा करने से संबंधित जीन्स में अनुवांशिक जोड़-तोड़ करके शीथ ब्लाइट प्रतिरोधी चावल की किस्में विकसित करने में मदद मिल सकती है।”


 


शोधकर्ताओं में डॉ झा के अलावा श्रयान घोष, नीलोफर मिर्जा, पूनम कंवर और कृति त्यागी शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका फंक्शनल ऐंड इंटिग्रेटिव जीनोमिक्स में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)