Wednesday, July 10, 2019

पौधों की विविधता के लिए पर्याप्त पानी सबसे महत्वपूर्ण है


मोनिका कुंडू श्रीवास्तव द्वारा

नई दिल्ली, 9 जुलाई (इंडिया साइंस वायर): भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्र लगभग 329 मिलियन हेक्टेयर है।
जलवायु उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक बदलती रहती है। हालांकि, इस विविधता के बावजूद, थोड़ा
इस बारे में जाना जाता है कि जलवायु किसी विशेष क्षेत्र में बढ़ने वाले पौधों की विविधता को कैसे प्रभावित करती है।
डॉ। पूनम त्रिपाठी और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), खड़गपुर की टीम द्वारा हाल ही में एक अध्ययन,
यह दर्शाता है कि किसी स्थान पर वर्षा की मात्रा और तापमान प्रमुख पौधों की विविधता को कैसे प्रभावित करते हैं
भारत के बायोग्राफिकल जोन। अनुसंधान के तहत एकत्र पौधों की प्रजातियों की समृद्धि डेटा का उपयोग किया
राष्ट्रीय परियोजना 'लैंडस्केप स्तर पर भारतीय राष्ट्रीय स्तर की जैव विविधता विशेषता'।
पिछले 100 वर्षों के आंकड़ों से एक स्थान के तापमान और वर्षा की मात्रा की गणना की गई।
हालांकि सबसे शुष्क महीने (न्यूनतम वर्षा) के लिए वर्षा की मात्रा का सबसे अधिक प्रभाव था, ए
न्यूनतम वर्षा और न्यूनतम तापमान का संयोजन वांछनीय पाया गया। यह था
पानी और ऊर्जा संयंत्र की शारीरिक प्रक्रियाओं, पौधों की वृद्धि और इसकी उपज को प्रभावित करती है।
मध्यम तापमान और अच्छे जल की उपलब्धता वाले वातावरण में विविधता अधिक होती है
अधिकांश पौधे मध्यम जलवायु को चरम जलवायु से बेहतर सहन कर सकते हैं।
वैज्ञानिक पत्रिका PLoS ONE में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, उष्णकटिबंधीय क्षेत्र न केवल पौधे में सबसे समृद्ध हैं
विविधता लेकिन उन पौधों की संख्या में भी जो नमी में प्रतिस्पर्धा की कमी के कारण हो सकते हैं
पर्याप्त पानी की उपस्थिति। के बीच के क्षेत्र में पौधों की अधिकतम विविधता (623) पाई गई
गंगा का मैदान और हिमालय क्षेत्र। दक्कन में प्रजातियों की संख्या 10 से 609 के बीच है
पश्चिमी घाट में प्रायद्वीप, 31 और 581, उत्तर-पूर्व में 30 और 344, ट्रांस में 97 और 531
हिमालय, 14 और 160 तट के साथ, 3 और 517 अर्ध-शुष्क क्षेत्र में, और 6 और 175 रेगिस्तानी क्षेत्र में हैं।


पश्चिमी घाट, दक्कन प्रायद्वीप और हिमालय और ट्रांस-हिमालय में पौधों की विविधता अधिक थी
शुष्क और रेगिस्तानी क्षेत्रों की तुलना में क्षेत्र। जैसा कि इन क्षेत्रों में कमोबेश इसी तरह के उच्च तापमान हैं
इस तथ्य के कारण पौधे की विविधता पर पानी का एक मजबूत प्रभाव इंगित करता है कि शुष्क और रेगिस्तानी क्षेत्र
कम बारिश होती है। उत्तर-पूर्व क्षेत्र, इसके अलावा पहाड़ी जैसे अन्य कारकों से भी प्रभावित था
इलाके इस प्रकार पौधों की संख्या और विविधता को प्रभावित करते हैं।
ड्रियर जोन में पाए जाने वाले किस्मों की बहुत कम से मध्यम संख्या को निम्न द्वारा समझाया जा सकता है
मिटटी की नमी। ये जोन बहुत गर्म हैं। वर्षा अनियमित और कम (0.41 मिमी से 94 मिमी) है। की कमी
मिट्टी में पानी पौधों को बढ़ने नहीं देता है। इसके अलावा, तापमान की बड़ी रेंज अतिरंजित होती है
अत्यधिक जलवायु के प्रभाव से सीमित किस्म के पौधे पैदा होते हैं जो शुष्क स्थानों में उगते हैं। हालाँकि,
तापमान में लगातार और बड़े उतार-चढ़ाव भी पौधों को बहुत कम समय के भीतर समायोजित करने का कारण बनते हैं
चरम सीमाओं से सामना करना पड़ता है, अर्थात् बहुत अधिक से बहुत कम तापमान तक। यहाँ पाए जाने वाले हार्डी पौधे हो सकते हैं
कठोर पर्यावरणीय चुनौतियों को पार किया।
डॉ। पूनम त्रिपाठी के अनुसार, “विभिन्न पर्यावरण के तहत पौधों की समृद्धि पैटर्न का ज्ञान
जैव विविधता संरक्षण और प्रबंधन कार्यों से निपटने के लिए परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण हैं। ”
अनुसंधान दल के अन्य सदस्य डॉ। मुकुंद देव बेहरा और डॉ। पार्थ सारथी रॉय हैं। (इंडिया
विज्ञान तार)
कीवर्ड: विविधता, जैव-भौगोलिक क्षेत्र, अत्यधिक जलवायु, उष्णकटिबंधीय जलवायु, गंगा का मैदान, दक्कन
पठार, पश्चिमी घाट और रेगिस्तान, हार्डी पौधे

 


 


 

युवा अन्वेषकों के हाइटेक नवाचारों को पुरस्कार

उमाशंकर मिश्र

नई दिल्ली, 8 जुलाई (इंडिया साइंस वायर): खेत में कीटनाशकों का छिड़काव करते समय
रसायनिक दवाओं के संपर्क में आने से किसानों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है। इंस्टीट्यूट फॉर
स्टेम सेल साइंस ऐंड रिजेनेरेटिव मेडिसिन, बेंगलूरू के छात्र केतन थोराट और उनकी टीम ने
मिलकर डर्मल जैल नामक एक ऐसी क्रीम विकसित की है, जिसे त्वचा पर लगाने से कीटनाशकों
के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है।
आईआईटी, दिल्ली की रोहिणी सिंह और उनकी टीम द्वारा विकसित नई एंटीबायोटिक दवा
वितरण प्रणाली भी देश के युवा शोधकर्ताओं की प्रतिभा की कहानी कहती है। इस पद्धति को
विकसित करने वाले शोधकर्ताओं का कहना है कि शरीर में दवा के वितरण की यह प्रणाली
भविष्य में कैंसर के उपचार को बेहतर बनाने में मदद कर सकती है।
आईआईटी, खड़गपुर की शोधार्थी गायत्री मिश्रा और उनकी टीम ने एक ई-नोज विकसित की है,
जो अनाज भंडार में कीटों के आक्रमण का पता लगाने में उपयोगी हो सकती है। इसी तरह,
भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरू के छात्र देवल करिया की टीम द्वारा मधुमेह रोगियों के लिए
विकसित सस्ती इंसुलिन पंप युवा वैज्ञानिकों की प्रतिभा का एक अन्य उदाहरण है।
इन युवा शोधार्थियों को उनके नवाचारों के लिए वर्ष 2019 का गांधीवादी यंग टेक्नोलॉजिकल
इनोवेशन (ग्यति) अवार्ड दिया गया है। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में ये पुरस्कार शनिवार को
उपराष्ट्रपति एम. वैंकेया नायडू ने प्रदान किए हैं। चिकित्साशास्त्र, ऊतक इंजीनियरिंग, मेडिसिन,
रसायन विज्ञान, जैव प्रसंस्करण, कृषि और इंजीनियरिंग समेत 42 श्रेणियों से जुड़े नवोन्मेषों के
लिए 21 युवा शोधकर्ताओं को ये पुरस्कार प्रदान किए गए हैं।
इस अवसर पर उपराष्ट्रपति ने अग्रणी विचारों और नवाचारों को बढ़ावा देने के लिए एक ऐसा
राष्ट्रीय नवाचार आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया है, जो जीवन में सुधार और समृद्धि को
बढ़ावा देने का जरिया बन सके। उपराष्ट्रपति ने नए और समावेशी भारत के निर्माण के लिए
समाज के हर वर्ग में मौजूद प्रतिभा को उपयोग करने की आवश्यकता पर बल दिया।
सोसायटी फॉर रिसर्च ऐंड इनिशिएटिव्स फॉर सस्टेनेबल टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन्स (सृष्टि) द्वारा
स्थापित ग्यति पुरस्कार जैव प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत कार्यरत संस्था बायोटेक्नोलॉजी
इंडस्ट्री असिस्टेंस काउंसिल (बाइरैक) द्वारा संयुक्त रूप से प्रदान किए जाते हैं। तीन श्रेणियों में
दिए जाने वाले इन पुरस्कारों में बाइरैक-सृष्टि पुरस्कार, सृष्टि-ग्यति पुरस्कार और ग्यति


प्रोत्साहन पुरस्कार शामिल हैं। पुरस्कृत छात्रों की प्रत्येक टीम को उनके आइडिया पर आगे काम
करने के लिए 15 लाख रुपये दिए जाते हैं और चयनित तकनीकों को सहायता दी जाती है।
इस वर्ष लाइफ साइंसेज से जुड़े नवाचारों के लिए 15 छात्रों को बाइरैक-सृष्टि अवार्ड और
इंजीनियरिंग आधारित नवाचारों के लिए छह छात्रों को सृष्टि-ग्यति अवार्ड प्रदान किए गए हैं।
इसके अलावा, 23 अन्य परियोजनाओं को प्रोत्साहन पुरस्कार प्रदान किया गया है। इस बार 34
राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 267 विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों में अध्ययनरत छात्रों
की 42 विषयों में 1780 प्रविष्टियां मिली थी।
एनआईटी, गोवा के देवेन पाटनवाड़िया एवं कल्याण सुंदर द्वारा टोल बूथ पर ऑटोमेटेड
भुगतान के लिए विकसित एंटीना, ऑस्टियोपोरोसिस की पहचान के लिए एनआईटी, सूरतकल
के शोधकर्ता अनु शाजु द्वारा विकसित रेडियोग्रामेट्री निदान पद्धति, केरल के कुट्टीपुरम स्थित
एमईएस कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के मुहम्मद जानिश द्वारा बनाया गया कृत्रिम पैर, गाय के
थनों में सूजन का पता लगाने के लिए श्री वेंकटेश्वरा वेटरिनरी यूनिवर्सिटी, तिरुपति के हरिका
चप्पा द्वारा विकसित पेपर स्ट्रिप आधारित निदान तकनीक, अमृता विश्वविद्यापीठम,
कोयम्बटूर के जीतू रविंद्रन का एनीमिया मीटर, आईआईटी, मद्रास की शोधार्थी स्नेहा मुंशी
द्वारा मिट्टी की लवणता का पता लगाने के लिए विकसित सेंसर और चितकारा यूनिवर्सिटी,
पंजाब के कार्तिक विज की टीम द्वारा मौसम का अनुमान लगाने के लिए विकसित एंटीना तंत्र
इस वर्ष पुरस्कृत नवाचारों में मुख्य रूप से शामिल हैं।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान मंत्री डॉ हर्षवर्धन, जैव प्रौद्योगिकी विभाग की
सचिव डॉ रेणु स्वरूप, सीएसआईआर के पूर्व महानिदेशक आर.ए. माशेलकर और हनी-बी
नेटवर्क के संस्थापक तथा सृष्टि के समन्वयक प्रोफेसर अनिल गुप्ता पुरस्कार समारोह में उपस्थित
थे। (इंडिया साइंस वायर)


Wednesday, June 26, 2019

ऊष्मीय अनुकूलन से कम हो सकती है एअर कंडीशनिंग की मांग

उमाशंकर मिश्र


 नई दिल्ली, 21 जून (इंडिया साइंस वायर):गर्मी के मौसम में भारतीय शहरों में एअर कंडीशनिंग का उपयोग लगातार बढ़ रहा है जो ऊर्जा की खपत बढ़ाने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के लिए भी एक चुनौती बन रहा है। पर्यावरणविदों का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए शहरों एवं भवनों को ऊष्मीय अनुकूलन के अनुसार डिजाइन करने से एअर कंडीशनिंग की मांग को कम किया जा सकता है।


सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरमेंट (सीएसई)की आज जारी की गईरिपोर्ट में ये बातें उभरकर आई हैं।इसमें कहा गया है किभारत के प्रत्येक घर में साल में सात महीने एअरकंडीशनर चलाया जाए तो वर्ष 2017-18 के दौरान देश में उत्पादित कुल बिजली की तुलना में बिजली की आवश्यकता 120 प्रतिशत अधिक हो सकती है। यह रिपोर्ट राजधानी दिल्ली में बिजली उपभोग से जुड़े आठ वर्षों की प्रवृत्तियों के विश्लेषण पर आधारित है। रिपोर्ट में दिल्ली में बिजली के 25-30 प्रतिशत वार्षिक उपभोग के लिए अत्यधिक गर्मी को जिम्मेदार बताया गया है। प्रचंड गर्मी के दिनों में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। इस वर्ष 7-12 जून के बीच प्रचंड गर्मी की अवधि में दिल्ली में बिजली की खपत में 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है जो इस मौसम में होने वाली औसत बिजली की खपत की तुलना में काफी अधिक है।


भविष्य में यह समस्या राष्ट्रीय स्तर पर देखने को मिल सकती है क्योंकि ताप सूचकांक और जलवायु परिवर्तन का दबाव देशभर में लगातार बढ़ रहा है। भारत का ताप सूचकांक 0.56 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से बढ़ रहा है। गर्मी (मार्च-मई) और मानसून (जून-सितंबर) के दौरान ताप सूचकांक में प्रति दशक वृद्धि दर 0.32 डिग्री सेल्सियस देखी गई है। ताप सूचकांक में बढ़ोत्तरी बीमारियों के संभावित खतरों का संकेत करती है।गर्मी के मौसम में देश के दक्षिण-पूर्वी तटीय क्षेत्रों (आंध्रप्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु) और मानसून में उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र (गंगा के मैदानी भाग और राजस्थान) में यह खतरा सबसे अधिक हो सकता है।


इस रिपोर्ट के लेखक अविकल सोमवंशी ने बताया कि “ऊर्जा दक्षता ब्यूरो का अनुमान है कि एअर कंडीशनरों के उपयोग से कुल कनेक्टेड लोड वर्ष 2030 तक 200 गीगावाट हो सकता है। यहां कनेक्टेड लोड से तात्पर्य सभी विद्युत उपकरणों के संचालन में खर्च होने वाली बिजली से है। ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, वर्ष  2015 में उपकरणों का कुल घरेलू कनेक्टेड लोड 216 गीगावाट था। इसका अर्थ है कि जितनी बिजली आज सभी घरेलू उपकरणों पर खर्च होती है, उतनी बिजली वर्ष 2030 में सिर्फ एअरकंडीशनर चलाने में खर्च हो सकती है।”


इस अध्ययन में पता चला है कि 25-32 डिग्री सेल्सियस तक तापमान होने पर बिजली की खपत में अधिक वृद्धि नहीं होती। पर, तापमान 32 डिग्री से अधिक होने से बिजली की मांग बढ़ जाती है, जिसके लिए ठंडा करने वाले यांत्रिक उपकरणों का अत्यधिक उपयोग और कम दक्षता से उपयोग जिम्मेदार हो सकता है।


सीएसई की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉय चौधरी ने बताया कि “अत्यधिक गर्मी सेनिजात पाने के लिए व्यापक स्तर पर वास्तु डिजाइन के अलावा शीतलन से जुड़ी मिश्रित पद्धतियों को प्रोत्साहित करने जरूरत है। इन पद्धतियों में कम बिजली खपतएवं ऊर्जा दक्षता वाले उपकरणों का उपयोग प्रमुखता से शामिल है। ऐसा न करने पर जलवायु परिवर्तन के शमन और ऊर्जा सुरक्षा से जुड़े भारत के प्रयासों को गहरा धक्का लग सकता है।”


रिपोर्ट बताती है कि यह स्थिति राष्ट्रीय कूलिंग एक्शन प्लान के लक्ष्यों को निष्प्रभावी कर सकती है।भारत पहले ही ऊर्जा संकट का सामना कर रहा है, जहां एअर कंडीशनिंग की शहरी पैठ 7-9 प्रतिशत है, और 2016-17 में (भारत ऊर्जा सांख्यिकी रिपोर्ट 2018 के अनुसार) बिजली की घरेलू मांग कुल बिजली खपत का 24.32 प्रतिशत थी।राष्ट्रीय कूलिंग एक्शन प्लान का कहना है कि सभी भवनों के निर्माण में ऊष्मीय अनुकूलन के मापदंडों पर अमल करना जरूरी है और सस्ते आवासीय क्षेत्र को भी इस दायरे में शामिल किया जाना चाहिए।(इंडिया साइंस वायर)


अरुणाचल में मिली कछुए कीदुर्लभ प्रजाति

उमाशंकर मिश्र


नई दिल्ली, 26 जून (इंडिया साइंस वायर):भारतीय शोधकर्ताओंको अरुणाचल प्रदेश के जंगलों मेंकछुए की दुर्लभ प्रजाति मनोरिया इम्प्रेसा कीमौजूदगी का पता चला है। यह प्रजाति मुख्य रूप से म्यांमार, थाईलैंड, लाओस, वियतनाम, कंबोडिया, चीन और मलेशिया में पायी जाती है। पहली बार इस प्रजाति के कछुए भारत में पाए गए हैं।


इस प्रजाति के दो कछुए एक नर और एक मादा को निचले सुबनसिरी जिले के याजली वन क्षेत्र में पाया गयाहै।इस खोज के बाद भारत में पाए जाने वाले गैर समुद्री कछुओं की कुल 29 प्रजातियां हो गई हैं।इन कछुओं के शरीर पर पाए जाने वाले नारंगी और भूरे रंग के आकर्षक धब्बे इस प्रजाति के कछुओं की पहचान है।


गुवाहाटी की संस्थाहेल्प अर्थ, बेंगलूरू स्थित वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटीऔर अरुणाचल प्रदेश के वन विभाग केशोधकर्ताओं ने मिलकर यह अध्ययन किया है।


वनों में रहने वाले कछुओं की चार प्रजातियां दक्षिण-पूर्व एशिया में पायी जाती हैं, जिनमें मनोरिया इम्प्रेसा शामिल है।नर कछुए का आकार मादा से छोटा है, जिसकी लंबाई 30 सेंटीमीटर है।मनोरिया वंश के कछुए की इस प्रजाति का आकार एशियाई जंगली कछुओं के आकार का एक-तिहाई है। मध्यम आकार के ये कछुए कम से कम 1300 मीटर की ऊंचाई वाले पर्वतीय जंगलों और नम क्षेत्रों में पाए जाते हैं।


हेल्प अर्थ से जुड़े जयदित्य पुरकायस्थ ने बताया कि “इस प्रजाति का संबंध मनोरिया वंश के कछुओं से है। मनोरिया वंश के कछुओं की सिर्फ दो प्रजातियां मौजूद हैं। इसमें से सिर्फ एशियाई जंगली कछुओं के भारत में पाए जाने की जानकारी अब तक थी। इस खोज के बाद इम्प्रेस्ड कछुओं का नाम भी इसमें जुड़ गया है।”


इस प्रजाति के कछुओं के मिलने के बाद अरुणाचल प्रदेश को कछुआ संरक्षण से जुड़े देश के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में शामिल करने पर जोर दिया जा रहा है। शोधकर्ताओं का कहना है कियह खोज उत्तर-पूर्वी भारत में, विशेष रूप से सीमावर्ती क्षेत्रों में उभयचर और रेंगने वाले जीवों के व्यापक सर्वेक्षण के महत्व को रेखांकित करती है।


अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ पुरकायस्थ के अलावा वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी के डॉ शैलेंद्र सिंह तथाअर्पिता दत्ता और अरुणाचल प्रदेश वन विभाग के बंटी ताओ एवं डॉ भारत भूषण भट्टशामिल थे।(इंडिया साइंस वायर)



कछुए की मनोरिया इम्प्रेसा प्रजाति



डॉ शैलेंद्र सिंह और डॉ जयदित्य पुरकास्थ


 


 


 


 


 


खेत में खड़ी फसल की रक्षा के लिए फसल गार्ड का नया अविष्कार


कन्नौज। बेसहारा जानवरों को लेकर परेशान किसानों के लिए खुशखबरी है। अब खेत में खड़ी फसल की रक्षा के लिए फसल गार्ड मौजूद रहेगा, जो बिल्कुल एक इंसान की तरह काम करेगा। इस फसल गार्ड का आविष्कार जिले के ही एक युवा ने किया है। ये इनोवेटर हैं, ठठिया कस्बे के इनोवेटर जीतू शुक्ला उर्फ अवनि। इन्होंने ही ऐसी डिवाइस बनाई है, जो मवेशियों से फसल को बर्बाद होने से बचाएगी, जिसे श्फसल गार्डश् नाम दिया है।
बेसहारा पशुओं से परेशान जीतू के मन में ऐसी डिवाइस बनाने का विचार आया जिससे जानवर खेत में न जा पाएं। दिन-रात मेहनत के बाद आखिर उन्हें सफलता मिली। इस डिवाइस को उन्होंने पेटेंट भी करा लिया है। इसके प्रयोग से किसानों को रात भर जागकर खेतों में खड़ी फसल की रखवाली नहीं करनी पड़ेगी। जीतू ने इस संबंध परिवहन मंत्री स्वतंत्र देव समेत अन्य लोगों से भी फसल गार्ड के बारे में चर्चा की है। उन्होंने दावा किया कि प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ को भी फसल गार्ड के बारे में बताया गया है। जीतू बताते है कि उन्होंने इस डिवाइस को खेत में लगाकर इसका डेमो किया है जो सफल रहा है। अब जल्द ही इसका डेमो प्रदेश सरकार के सामने दिखाया जाएगा।
सोलर ऊर्जा से चलने वाली ये डिवाइस खेत के पास लगाई जाएगी। इसमें सेंसर और कैमरा भी लगा है। थ्री-डी मैङ्क्षपग के तहत काम करने वाली इस डिवाइस में पहले से ही उन जानवरों की इमेज अपलोड कर दी गई है, जो फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। डिवाइस लगाने के दौरान किसान इसमें फसल का क्षेत्रफल मार्क करेगा। मार्क क्षेत्रफल में जैसे ही मवेशी घुसने का प्रयास करेगा, वैसे ही डिवाइस से कुछ किरणें और आवाज निकलेगी, जो थ्री-डी इफेक्ट देंगी और जानवर भयभीत होकर भाग जाएगा। उसे भी नुकसान नहीं पहुंचेगा। इस डिवाइस के रडार पर 50 बीघा तक का क्षेत्रफल रहेगा। इसे फसल के हिसाब से ऊंचाई पर लगाना होगा। इसे चोरी भी नहीं किया जा सकेगा।
जीतू इससे पहले भी किसान रोबोट मित्र समेत कई कई डिवाइस बनाकर उत्तर प्रदेश सरकार के नव प्रवर्तन दल से सेंसरमैन की उपाधि पा चुके हैं। गरीब परिवार मे पले जीतू के पिता देवेंद्र शुक्ला रेडियो मैकेनिक हैं। काम में उनका हाथ बटाते बटाते वह भी रेडियो तकनीक में हुनरमंद हो गए। जीतू ने यूपी बोर्ड से हाईस्कूल करने के बाद आइटीआइ से तकनीकी शिक्षा हासिल की। उन्होंने डिजिटल बाइक सिक्योरिटी डिवाइस, ऑन स्पॉट क्रिमिनल ट्रैकर, किसान रोबोट मित्र, चाइल्ड सेफ्टी डिवाइस भी बनाई है।


आम की पत्तियों में मिले जंग-रोधी तत्व


सुशीला श्रीनिवास


बेंगलुरु, 25 जून, 2019 (इंडिया साइंस वायर):भारतीय शोधकर्ताओं ने आम की पत्तियों के अर्क से एक ईको-फ्रेंडली जंग-रोधी सामग्री विकसित की है,जिसकी परत लोहे को जंग से बचा सकती है।यह जंग-रोधी सामग्री तिरुवनंतपुरम स्थित राष्ट्रीय अंतर्विषयी विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित की
गई है।


नई जंग-रोधी सामग्री का परीक्षण वाणिज्यिक रूप से उपयोग होने वाले लोहे पर विपरीत जलवायु परिस्थितियों में करने पर इसमें प्रभावी जंग-रोधक के गुण पाए गए हैं। आमतौर पर,लोहे के क्षरण को रोकने के लिए उस पर पेंट जैसी सिंथेटिक सामग्री की परत चढ़ाई जाती है, जो विषाक्त और पर्यावरण के प्रतिकूल होती है। लेकिन, आम की पत्तियों के अर्क से बनी कोटिंग सामग्री पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल है।


पेड़-पौधों मेंजैविक रूप से सक्रिय यौगिक (फाइटोकेमिकल्स)पाए जाते हैं जोरोगजनकों एवं परभक्षियों को दूर रखते हैं और पौधों के सुरक्षा तंत्र के रूप में काम करते हैं। शोधकर्ताओं ने पौधों के इन्हीं गुणों का अध्ययन किया है और आम के पौधे में प्रचुर मात्रा में पाए जाने वाले फाइटोकेमिकल्स का उपयोग जंग-रोधी पदार्थ विकसित करने के लिए किया है।



डॉ के.जी. निशांत, कृष्णप्रिया के.वी., नित्या जे., रोशिमा के., तेजस पी.के.


शोधकर्ताओं ने एथेनॉल के उपयोग से आम की सूखी पत्तियों सेफाइटोकेमिकल्स प्राप्त किया है क्योंकि सूखी पत्तियों में अधिक मात्रा में मेंजैविक रूप से सक्रिय तत्व पाए जाते हैं। इसके बादपत्तियों के अर्क की अलग-अलग मात्रा का वैद्युत-रासायनिक विश्लेषण किया गया है। 200 पीपीएम अर्क के नमूनों में सबसे अधिक जंग-रोधी गुण पाए गए हैं।


अध्ययनकर्ताओं में शामिल डॉ निशांत के. गोपालन ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “इस शोध में हमें पता चला है कि जैविक रूप से सक्रिय तत्व मिलकर एक खास कार्बधात्विक यौगिक बनाते हैं, जिनमें जंग-रोधक गुणहोते हैं।”


पत्तियों के अर्क में जंग-रोधी गुणों का परीक्षण जैव-रासायनिक प्रतिबाधा स्पेक्ट्रोस्कोपी और लोहे की सतह पर जंग का मूल्यांकन एक्स-रे फोटो-इलेक्ट्रॉन स्पेक्ट्रोस्कोपी से किया गया है। इस तरह, शोधकर्ताओं को जैविक रूप से सक्रिय तत्वों की जंग-रोधी भूमिका के बारे में पता चला है। इस कोटिंग सामग्री को 99 प्रतिशत तक जंग-रोधी पाया गया है जो आम के पत्तों के अर्क के जंग-रोधक गुणों को दर्शाता है।


लोहे पर सिर्फ अर्क की परत टिकाऊनहीं हो सकती।इसीलिए, शोधकर्ताओं ने अर्क को सिलिका के साथ मिलाकर मिश्रण तैयार किया गया है। इस मिश्रण को एक प्रकार की गोंद एपॉक्सी में मिलाकर कोटिंग सामग्री तैयार की गई है।


प्रमुख शोधकर्ता कृष्णप्रिया के. विदु ने कहा कि "हम विभिन्न तापमान और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार आम की पत्तियों के अर्क का परीक्षण करना चाहते हैं। हमारी टीम अब इस उत्पाद के स्थायित्व का परीक्षण करने के लिए आगे प्रयोग करने की योजना बना रही है। दूसरी मिश्रित धातुओं पर भी इसकी उपयोगिता का परीक्षण किया जा सकता है।"


शोधकर्ताओं में डॉ निशांत के. गोपालन और कृष्णप्रिया विदु के अलावा तेजस पेरिनगट्टू कलारीक्कल और नित्या जयकुमार शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका एसीएस ओमेगा में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)


 


Tuesday, June 18, 2019

शार्क संरक्षण में महत्वपूर्ण हो सकती है मछुआरों और बाजार की भूमिका

 


शुभ्रता मिश्रा


वास्को-द-गामा (गोवा), 18 जून, (इंडिया साइंस वायर):भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शार्क मछली पालक देश है। लेकिन भारतीय मछुआरे और मछली व्यापारी शार्क संरक्षण संबंधी नियमों से अनजान हैं।


 


भारतीयमछुआरे प्रायः बड़ी शार्क मछलियां नहीं पकड़ते हैं, बल्कि दूसरी मछलियों को पकड़ने के लिए डाले गए जाल में बड़ी शार्क भी फंसजाती हैं। अधिकतर मछुआरे और व्यापारीजानते हैं कि व्हेल शार्क को पकड़ना गैरकानूनी है। पर, वे अन्य शार्क प्रजातियों, जैसे- टाइगर शार्क, हेमरहेड शार्क, बुकशार्क, पिगी शार्क आदि के लिए निर्धारित राष्ट्रीय शार्क संरक्षण मानकों से अनजान हैं।


 


शार्क मछलियों को उनके मांस और पंखो के लिए पकड़ा जाता है।शार्क के पंखों के अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्थिति काफी हद तक अनियमित है।भारत में शार्क के मांस के लिए एक बड़ा घरेलू बाजार है। जबकि निर्यात बाजार छोटा है। यहां छोटे आकार और किशोर शार्क के मांस की मांग सबसे ज्यादा है।आमतौर पर एक मीटर से छोटी शार्क मछलियां ही पकड़ी जाती हैं और छोटी शार्क स्थानीय बाजारों में महंगी बिकती हैं।


 


शार्क संरक्षण को लेकर किये गए एक अध्ययन में ये बातें उभरकर आई हैं।अशोका यूनिवर्सिटी, हरियाणा, जेम्स कुक यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया और एलेस्मो प्रोजेक्ट, संयुक्त अरब अमीरात के वैज्ञानिकों द्वारा किए गएइस अध्ययन में शार्क व्यापार के दो प्रमुख केंद्रों गुजरात के पोरबंदर और महाराष्ट्र के मालवन में सर्वेक्षण किया गया है।भारत में शार्क मछलियां पकड़ने में गुजरात और महाराष्ट्र का कुल 54 प्रतिशत योगदान है। शार्क मछलियां पकड़ने के लिए पोरबंदर में 65 प्रतिशत ट्राल नेटों और मालवन में 90 प्रतिशत गिलनेटों सहित हुक ऐंड लाइन मत्स्यपालन विधि का उपयोग होता है।


 


अध्ययन से जुड़ीं अशोका यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता डॉ. दिव्या कर्नाड ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “बड़ी शार्क मछलियों की संख्या में लगातार गिरावट की जानकारी ज्यादातर मछुआरों और व्यापारियों को है और शार्क व्यापारी स्थानीय नियमों का पालन भीकरते हैं। लेकिन,भारत में शार्क मछलियों की संख्या में गिरावट के सही मूल्यांकन के लिए बड़े पैमाने परशोध करने होंगे।”


शोधकर्ताओं के अनुसार, पिछले दस सालों में शार्क पंखों की अंतरराष्ट्रीय बिक्री में 95 प्रतिशत तक गिरावट हुई है।  उत्तर-पश्चिमी भारत में शार्क मछलियों की संख्या और आकार में लगातार गिरावट का आर्थिक असर मछुआरों और मछली व्यापारियों पर पड़ रहा है।अध्ययन के आंकड़े स्थानीय मछुआरों, नौका मालिकों, खुदरा विक्रेताओं और मछली व्यापारियों से साक्षात्कार के आधार पर एकत्रित किए गए।


अध्ययन से पता चला है कि मछली पकड़ना भारतीय मछुआरों का प्राथमिक व्यवसाय है और शार्क व्यापार सिर्फ अतिरिक्त आमदनी का जरिया है। व्यापारी पूरी शार्क एक जगह से ही खरीदते हैं। लेकिन, उसके पंख और मांस अलग- अलग बेचते हैं। पंख बड़े मछली व्यापारियों और ताजा मांस स्थानीय बाजार में बेचा जाता है। शार्क के पंखमालवन से मडगांव और मंगलूरु जैसे दो प्रमुख मछली व्यापार केंद्रों से होते हुए अंततः चीन और जापान में भेजे जाते हैं। इसी तरह, पोरबंदर से ओखा, वैरावल, मुम्बई, कालीकट और कोच्चि से होते हुए सिंगापुर, हांगकांग और दुबई व आबूधाबी तक शार्क के पंख भेजे जाते हैं। शार्क मछलियों के पंखोंका उपयोगचीन, जापान, इंडोनेशियाऔर थाइलैंड जैसे देशों में सूप बनाने और दवाओं में होता है।


महासागर की सबसे बड़ी परभक्षी मछलियों शामिल शार्क की लगभग 4000 प्रजातियां है। भारत में शार्क प्रजातियों के पकड़ने के साथ साथ उनकेसंरक्षण संबंधी नियमों कोकड़ाई से लागू करनेके लिएसभी राज्योंके मत्स्य पालन विभागों, वन विभाग और समुद्री पुलिस के एक संयुक्त समन्वयितप्रयास की आवश्यकता है।स्थानीय मछुआरों एवं व्यापारियों में शार्क प्रबंधन और संरक्षण के प्रति जागरूकता भी कारगर हो सकती है।


यह अध्ययन एम्बिओ जर्नल में प्रकाशित किया गया है। शोधकर्ताओं में डॉ. दिव्या कर्नाड के अलावा दीपानी सुतारिया और रीमा डब्ल्यू. जाबाडो भी शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)



मछली बाजार में शोधार्थियों के साथ डॉ. दिव्या कर्नाड



छोटी शार्क मछलियां



बड़ी शार्क