Tuesday, January 4, 2022

बहरूपिया

जब हम छोटे थे तो याद आता हैं कि एक व्यक्ति आता था जो रोज ही नया रूप बना कर आता था।कभी हनुमानजी बन कर आता था तो कभी महाकाली का रूप ले कर आता था।कोई न कोई पात्र को ले कर उसी के उपर वेशभूषा कर घर घर जाता था और बदले में भिक्षा पाता था। दुकानों में भी वही स्वरूप बना कर भिक्षा पाता था।जिसे देखने बच्चे तो बच्चे बड़े भी खड़े हो जाते थे।क्या हम इसकी करोना से तुलना कर सकते हैं?पहले आया तो अनजाना सा किसीने भी न देखा न सुना था।आया तो तूफान सा था।जिस से डर ज्यादा लगा था ,काल्पनिक राक्षस सा था ,जिसका रूप और रंग की हम सिर्फ कल्पना ही कर के रह गए थे।वास्तविक रूप का अता पता नहीं था एक वायका सा था ,जो बातें जैसे हवा के साथ बह कर पूरे विश्व में फेल गई।लेकिन भिक्षा में न जानें क्या क्या के गया और पीछे छोड़ गया आर्थिक नुकसान,सभी देशों ने लॉकडाउन लगाया और इंसानों को बंद करके रख दिया।फिर थोड़ी राहत हुई ,सोचा कि अब गया लेकिन जब वह  फिर आया तो महा भयंकर रूप धर के आया तो विश्व के सभी देशों को आर्थिक,मंजिल और आर्थिक स्वरूप से ध्वंस कर कठूराघात कर गया।इस रूप ने तो आधे विश्व को अस्पतालों के दरवाजे पर पहुंचा दिया और कइयों को स्मशान के सुपुर्द कर दिया।इस भयंकर रूप  कइयों को मानसिक रूप से विक्षिप्त कर के गया तो एक डर के साएं से बाहर तो आए लेकिन आहत तो रह गई कि ये वापस आया तो क्या होगा।उसे नाम दिया गया डेल्टा,जो एक भय अंकित कर गया।

और आया ओमिक्रोन एक और भयावह स्वरूप जो हवा सा फैलता हैं।                       फिर एक बार सब को आतंकित करने आया ये रूप क्या असर छोड़ के जायेगा उससे सभी अनजान हैं।ये राक्षसी रूप बच्चों को ग्रसित करने आ रहा हैं ऐसी धारणाएं बंध रही हैं।वैसे देखें तो बच्चें ही हर देश का भविष्य हैं और भविष्य ही घायल हो गया तो कल क्या होने जा रहा हैं इसे समझना आसान हो जायेगा। स्वास्थ का नुकसान तो हैं ही लेकिन इसके परिणाम स्वरूप आर्थिक और मानसिक नुकसान होने से कोई नहीं रोक पायेगा।उत्पादों में कमी आ जायेगी,वह चाहे खेत हो या औद्योगिक हो,इसकी वजह से महंगाई खूब बढ़ जाएगी,भुखमरी और गरीबी बेहिसाब बढ़ जाएगी।
 वैसे विज्ञान कहता हे कि कोई भी दवाई की साइड इफेक्ट क्या और कैसी होगी उसका जायजा तभी पता लगता हैं जब १० साल उपयोग करके उसके द्वारा होने वाले लाभ और हानी का वैज्ञानिक तरीके से अवलोकन किया जाएं।अभी तो हम सिर्फ तत्कालीन लाभ के लिए दवाई  या वैक्सीन ले लेते हैं बाद में वयस्क,युवा और बच्चें जिन्होंने दवाईयां या वैक्सीन ली हैं उनके स्वस्थ के ऊपर इस सारवार क्या असर होगा ये तो सिर्फ समय ही बताएगा।
     अभी तो हमें इस बहरपिया बीमारी से बचने के लिए करोना अनुरूप व्यवहार का अनुसरण करके अपने आप को बचाना होगा ,यही एक रास्ता हैं कि हम बचें रहे।वैसे भी कई देशों पाश्चात्य देशों की जनसंख्या मिलाने के जितनी जनसंख्या होती हैं,उतनी जनसंख्या वाला अपने देश में आई ऐसी मुसीबतों से लड़ना आसान बात नहीं है।

जयश्री बिरमी
अहमदाबाद

डुप्लीकेट लोगों की डुप्लीकेट धरती

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 

न जाने क्यों मुझे रह-रहकर मूर्धन्य 'की चिंता सताती रहती है। प्रदूषण से भरा  हर जगह हावी है। लगता है कभी-कभी 'ङ्’ अपने लुप्त होते उच्चारण की चिंता में आत्मदाह कर लेगा। न जाने कौन धीरे-धीरे शिरोरेखा को मिटाता जा रहा है। मौके-बेमौके खड़ी पाई को चुराता चला जा रहा है। नागरी के सारे अंक अपनी विलुप्तता का रोना अकेले में रोए जा रहे हैं। उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। मानो विदेशज के शब्दों ने देशज शब्दों को अंतरिक्ष में फेंक दिया है। यौगिक धातुओं के जमाने में हम स्टीलफाइबर सोडियम क्लोराइड के आदि हो चुके हैं। शुद्धता अब हमें कतई नहीं भाती। मिक्स्ड प्रवृत्ति को अपना स्वभाव बनाने के आदी हो चुके हैं।

दूरदर्शन के रामायण वाले हनुमान से नजर हटी तो बैटरी वाले हनुमान दिखाई दिए जो प्लास्टिक का पहाड़ उठाए पौराणिक ज्ञान को बाँचने का काम कर रहे हैं। बच्चों के हाथों में चल छैंया छैंया वाले प्लास्टिक के बने खिलौने वाले मोबाइलों की जगह असली मोबाइलों ने ले ली है, जो बड़ों की कद्र तो दूर उनके कहे को सो बोरिंग पकाऊ पिपुल कहकर आदर्श उवाचों को कचरे की पेटी में डालना अपना स्टेटस समझ रही है।  अब किसी भी घर में पुरानी नानियों के पहियों वाला काठ का नीला-पीला घोड़ा नहीं दिखता। हाइब्रिड अमरूदों ने असली अमरूदों का गला ऐसे घोंटा जैसे उसकी कोई पुरानी दुश्मनी हो। उस असली अमरूद की तरह असली धरती कब की लुप्त हो चुकी है। लोग डुप्लीकेट और धरती डुप्लीकेट हो चली है। सिर्फ छलावा ईमानदारी से किया जाता है।

आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते उड़ रहे हैं। अब घऱ में दादा की मिरजई टाँगने की कोई जगह नहीं बची है। न कोई ऐसा संग्रहालय है जहाँ पिता का वसूला माँ का करधन और बहन के बिछुए छिपाये जा सके। अब तो खिचड़ीठठेरामदारीलुहारकिताब सब सपने में आते हैं। वास्तविकता में इनका सामना किए अरसा बीत गया। अब न खड़ाऊ की टप-टप है न दातुन की खिच-खिच। और पीतल के लोटे का पीतल तो पिरॉडिक टेबल में बंधकर रह गया है, जिसे केवल एलिमेंट के नाम से पहचानना पड़ रहा है। अब गाँव में खेतजंगल में पेड़शहर में हवा, पेड़ों पर घोंसलेअखबारों में सच्चाईराजनीति में नैतिकताप्रशासन में मनुष्यतादाल में हल्दी खोजने पड़ते हैं। पहले की पीढ़ी लुप्तता की पीड़ा से मरी तो आज की पीड़ा वर्तमान पीढ़ी से मर रही है।

टीबी का गढ़ बनते देश को करनी होगी चिंता

- टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है।

अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार-लेखक
करीब 140 साल पहले रॉबर्ट कोच ने ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) बैक्टीरिया की खोज की थी। इंसान की ओर से खोजी गई यह उन शुरुआती बीमारियों में से एक है, जिसके कारक स्पष्ट हैं। संक्रामक रोग होने से टीबी मौत का अहम कारण बनती है। सालाना एक करोड़ से अधिक लोग टीबी से संक्रमित होते हैं और 10 लाख से अधिक मौतें होती हैं। भारत पर टीबी का सबसे अधिक बोझ है। करीब 25 प्रतिशत मामले अकेले भारत से होते हैं और मौतें भी यहीं सबसे ज्यादा होती हैं। बीते कुछ वर्षों में भारत में टीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर विशेष जोर दिया गया है। इलाज के नए तरीके, पोषण सहायता के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है। साथ ही आंकड़ों का व्यापक प्रबंधन हुआ है। इससे लोगों में जागरुकता भी आई है। हालांकि कोविड महामारी ने कई सफल प्रयासों पर पानी फेर दिया है।
     रिपोर्ट कहती हैं कि भारत जानलेवा संक्रामक महामारी टीबी का गढ़ बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की द ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में टीबी के मरीज दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। ड्रग रेसिस्टेंट टीबी, टीबी की वह खतरनाक किस्म है, जिस पर दो सबसे ताकतवर एंटी टीबी ड्रग्स भी नाकाम साबित हो जाते हैं। दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे एक जिंदा बम और भयंकर स्वास्थ्य संकट का नाम दे चुके हैं। इससे भी अधिक टीबी एक ऐसी बीमारी है, जो आपके जीवन के सबसे उत्पादक काल यानी 15-59 आयु वर्ग के लोगों को अपनी चपेट में लेती है। इतना सब होने के बाद भी दबे पांव हमारे जीवन में दखल देने वाली इस महामारी को लेकर जनता में कोई खास चिंता नहीं है। वैज्ञानिक और शोधकर्ता भी कमजोर पड़े हुए हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकारें इस पर बहुत कम पैसा खर्च कर रही हैं।
     टीबी पर लैंसेट कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 9,53,000 टीबी रोगी खो जाते हैं यानी या तो रोगी डायग्नोसिस के लिए नहीं आते या फिर वे रोगी जिन्हें टीबी होने का पता तो चला है, लेकिन उनकी सूचना दर्ज नहीं कराई गई। लैंसेट रिपोर्ट के मुताबिक, यदि प्राइवेट सेक्टर को पूरी तरह इस मुहिम में अपने साथ शामिल कर लिया जाए तो अगले 30 साल में भारत में 80 लाख जिंदगियों को बचाया जा सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2018 में टीबी की अधिसूचना नहीं देने को अपराध घोषित कर दिया यानी न केवल सरकारी बल्कि निजी चिकित्सकों को भी अपने पास आने वाले टीबी रोगियों की सूचना अनिवार्य रूप से देनी होगी, अन्यथा उन्हें जेल जाना पड़ सकता है। टीबी को खत्म करने का लक्ष्य साल 2025 तक रखा गया है। केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने सभी राज्यों को पत्र लिखा है। यह निर्णय अथॉरिटी के सदस्यों की अनुमति मिलने के बाद किया गया है।
     दुनियाभर में जहां कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए कई वैक्सीन बनाने पर चर्चा हो रही है, वहीं टीबी के खिलाफ हमारी जंग इतनी दयनीय है कि हम आज भी 100 साल पहले विकसित की गई वैक्सीन का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह वैक्सीन हमें बचाने में नाकाम भी साबित हुई है। पिछले 40 वर्षों में इसकी कोई नई दवा तक नहीं विकसित हो पाई है। इसके रिसर्च और फंडिंग में अधिकांश लोग रुचि नहीं लेते हैं। वजह यह है कि अधिकांश मरने वाले विकासशील देशों के होते हैं, विकसित देशों के नहीं। आज जहां कोरोना वायरस का यूरोप और अमेरिका में घातक प्रकोप है, वहीं टीबी को यूरोप के बहुत से हिस्सों में भुला दिया गया है। हालांकि इसे लेकर हाल के वर्षों में जागरुकता बढ़ी है, लेकिन फिर भी विकसित देशों में बहुत से इस गलतफहमी में जीते हैं कि टीबी का उन्मूलन हो चुका है और इसका जिक्र अब केवल किताबों में ही मिलता है।
     टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है। कई बार तो रोग क्या है, इसकी सही जांच के लिए उसे दूसरे राज्यों तक दौड़ना पड़ता है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी तब होती है, जब टीबी के बैक्टीरिया शरीर के दूसरे हिस्सों जैसे रीढ़, पेट, मस्तिष्क आदि को प्रभावित करते हैं। टीबी की तुलना में इसकी पहचान काफी मुश्किल है, क्योंकि अभी इस क्षेत्र में वैज्ञानिक सबूत मौजूद नहीं हैं। कुछ लोगों की तो समय रहते टीबी की पहचान हो जाती है। मामला तब जटिल हो जाता है, जब मरीज को ऐसी कई दवाओं के संवेदनशीलता परीक्षण से गुजरना पड़ता है, जिन्हें आमतौर पर कम इस्तेमाल किया जाता है। इन परीक्षणों के आधार पर तय किया जाता है कि टीबी की खास किस्म के लिए कौनसी दवाएं दी जाएं। टीबी के इलाज में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित होना एक बड़ी बाधा है। ऐसे में सही परीक्षण के अभाव में बहुत से लोगों का समय उन दवाओं को लेने में बर्बाद हो जाता है, जो कारगर ही नहीं हैं।
     टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। हालांकि जागरुकता की कमी की वजह से लोगों को यह पता नहीं है कि सही दवा लेने के दो हफ्तों से दो महीनों के बीच इसका मरीज संक्रामक नहीं रह जाता। टीबी के बहुत से रोगियों को उनके अपने घरों और व्यवसाय की जगह पर ही सामाजिक अलगाव और दुराव का सामना करना पड़ता है। टीबी ग्रस्त लोग न केवल अपना रोजगार खो बैठते हैं, बल्कि उनमें से कई के जीवन साथी और दोस्त भी सामाजिक गलतफहमी के कारण उनसे दूर हो जाते हैं। सामाजिक-आर्थिक संबल के नाम पर बहुत मामूली सी मदद सरकार से मिलती है।
     केंद्र सरकार टीबी के रोगियों को पोषण भत्ते के रूप में महज 500 रुपए महीने देती है। सरकारी लालफीताशाही और समय पर फंड न होने से कई बार वह मरीज को मिल ही नहीं पाता। भले ही टीबी कोरोना वायरस के जितनी संक्रामक नहीं है, लेकिन घातक उतनी ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दिल की बीमारियों और स्ट्रोक के साथ-साथ टीबी दुनियाभर में होने वाली मौतों की 10 प्रमुख वजहों में शामिल है। टीबी से जुड़ी मौतें टेलीविजन पर बहस का हिस्सा नहीं बनतीं। अधिकतर ये अखबार के अंदर के पन्नों में छिपकर रह जाती हैं। टीबी मरीजों की लंबी होती सूची महज आंकड़ों में सिमट जाती है। असल में टीबी को आज भी गरीबों की बीमारी के रूप में देखा जाता है, जो कि सच्चाई सेे परे है। सच यह है कि अमीर इसे छिपा लेते हैं और गरीब ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं। टीबी के ऐसे हालातों के लिए हम सभी को सोचने की जरूरत है, तभी हालात में बदलाव और सुधार हो सकेंगे।

अमित बैजनाथ गर्ग
वरिष्ठ पत्रकार-लेखक

ब्रेल लिपि की व्यवहारिक लब्धिया -

नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि

शैक्षिकविकास की चरम परिणति होती है। "नाइट राइटिंग" के नाम से प्रसिद्ध है यह लिपि विश्व के सभी नेत्रहीन व्यक्तियों के शैक्षिक विकास के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण है जिसका आविष्कार फ्रांस के लुई ब्रेल ने किया था जो स्वयं नेत्रहीन थे। लुई ब्रेल के पूर्व नेपोलियन बोनापार्ट के सैनिक रात्रि में एक दूसरे से बिना बातचीत किए अपना संदेश दूसरे सैनिक को पहुंचा देते थे लगभग उसी समय से ब्रेल लिपि का उद्भव माना जाता है।नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि शिक्षा के संस्कृतियों की वह श्रृंखला है जिसमें प्रत्येक राष्ट्र संपूर्ण नेत्रहीन मानवीय उपलब्धियों मे अपना अपना समायोचित अभिव्यक्ति प्राप्त करता है। आधुनिक युग में ब्रेल लिपि नेत्रहीनों के लिए शिक्षा के परिवर्तन की वह परिभाषा है जिससे एक राष्ट्र का विकास उच्चतम बिंदु पर  होता है।  प्रतियोगिता में पिछड़ जाने वाले नेत्रहीन बालको का मूल कारक शिक्षा है। शिक्षा प्रत्येक राष्ट्र की वह महान उदय यात्रा है जिसमें कल्याणकारी राज्य तत्वमीमांसा निहित रहती है। विश्व को माननीय उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ब्रेल लिपि का व्यवहारिक  ज्ञान होना नेत्रहीनों के लिए अत्यंत आवश्यक है। आज विश्व में शिक्षा के नए-नए आयामों की तलाश की जा रही है जिससे राष्ट्र का विकास हो सके। वर्तमान युग में नेत्रहीन बालक भी ब्रेल लिपि के माध्यम से राष्ट्र के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। आधुनिक युग में सभी ऑफिस के कामकाज को नेत्रहीन व्यक्तियों के द्वारा भी कराया जा रहा है जो ब्रेल लिपि का एक बहुत बड़ा महत्वपूर्ण योगदान है। संवेदना शून्य नेत्रहीन व्यक्ति ब्रेल लिपि के माध्यम से अपने जीवन के जीवंतता को बनाए रखने में सफल है। वर्तमान समय में ब्रेल लिपि की शिक्षा नेत्रहीन व्यक्तियों के लिए विश्व के कई देशों में कई भाषाओं में उपलब्ध है इसका अंदाजा विश्व के कई ऑफिस में नेत्रहीन व्यक्ति भी वर्कर्स के रूप में देखे जा सकते हैं। आज वैश्विक उपभोक्तावादी संस्कृति की छाया में आर्थिक विकास के श्रेणी में नेत्रहीन व्यक्ति यथार्थ के परिमाप को लिए प्रत्येक राष्ट्र के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

मौलिक लेख
 सत्य प्रकाश सिंह 
केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज उत्तर प्रदेश

काल की चाल

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 

जीना भी एक कला है। काश यह विज्ञान होता। कम से कम इसमें दो और दो जोड़ने से चार तो होते। कम से कम हाइड्रोजन के दो परमाणु और ऑक्सीजन का एक परमाणु मिलकर जल का अणु तो बनता। यहाँ तो जिंदगी कागज की नाव की तरह बही जा रही है। जमाना बाढ़ बनकर हमेशा पीछे लगा रहता है। जब देखो तब डुबोने के चक्कर में। शायद औरों की झोपड़ियाँ जलाकर उस पर भोजन पकाने से खाने का मजा दोगुना हो जाता होगा। भूख से बिलखती जिंदगियों की अंतर्पीड़ाओं के बैकग्राउंड में एक अच्छा सा संगीत बजा देने से शायद वह कर्णप्रिय लगने लगे। हो सकता है ऊटपटांग गानों के बीच यह भी जोरों से धंधा कर ले। चलती का नाम गाड़ी है और इस गाड़ी में मुर्दों के बीच सफर करना जो सीख जाता है तो समझो उसकी बल्ले-बल्ले है। वैसे भी यहाँ कौन जिंदा है। सब के सब मरे हुए तो हैं। कोई जमीर मारकर जी रहा है। कोई किसी का मेहनताना खाकर जी रहा है। कोई झूठों वादों से बहलाकर जी रहा है तो कोई मैयत की आग पर रोटी सेककर जी रहा है। यहाँ उल्टा-सीधा जो भी कर लो, लेकिन जीकर दिखाओ यही आज की सबसे बड़ी चुनौती है। या फिर कहलो आठवाँ अजूबा है।

सिर उठाने के लिए नहीं झुकाने के लिए होता है। सिर उठाना तो हमने कब का छोड़ दिया। इतनी ही उठाने की ताकत होती तो दिन को रात, अनपढ़ को विद्वान, सूखी रोटी को मक्खन का टुकड़ा नहीं कहते। एक आदत सी हो गयी है बुरे को अच्छा कहने की, झूठे वादों को सच समझने की। बेरोजगारी को कलाकारी मानने की। जैसे पेड़ कटते समय कुल्हाड़ी में लगी लकड़ी को अपनी बिरादरी समझकर खुश होता है ठीक उसी तरह हम भी अपनी जाति-बिरादरी के मुखिया को चुनकर उनके हाथों गला घोंटवाने का परम आनंद प्राप्त करते हैं। शायद ऐसे ही लोग इस दुनिया में जीने के सच्चे हकदार होते हैं। दुनिया में कीड़े-मकौड़ों से भला किसे शिकायत हो सकती है? कीड़े-मकौड़े तब तक जीवित रहते हैं जब तक किसी के बीच दखलांदाजी नहीं करते। दखलांदाजी करने वालों का जवाब तो सारा जमाना मसलकर ही देता है।

यहाँ चुपचाप चलने वालों की टांग में टांग अड़ाया जाता है। इतना होने पर भी वह अगर चलने लगता है, तो उसकी एक टांग काट दी जाती है। हालत यह होती है कि चलने वाला बची हुई एक टांग को अपना सौभाग्य समझकर टांग काटने वाले को शुक्रिया अदा करता है। जो होता है होने दो, जैसा चलता है चलने दो कहकर आगे बढ़ने की आदत डाल लेनी चाहिए। नहीं तो तुम से तुम्हारा भोजन, पानी, बिजली छीन लिया जाएगा। तब तंबूरा बजाने के लायक भी नहीं बचोगे। यह हवा, आकाश, पानी, आग, धरती सब बिकने लगे हैं। वह दिन दूर नहीं जब चंद सांसों के लिए भी इन्हें खरीदना होगा। तब चंद सांस देने वाला दुनिया का सबसे बड़ा दानी कहलाएगा। अपने लिए आहें भरवाएगा। यहाँ तुम्हारा कुछ नहीं है। तुम एकदम ठनठन गोपाल हो। इसलिए सिर उठाने, सवाल पूछने, परेशानी बताने जैसे देशद्रोही काम बिल्कुल मत करो। यह एक आभासी दुनिया है। यहाँ केवल अपना आभास मात्र रहने दो। इसे हकीकत समझने की भूल बिल्कुल मत करना। वरना किसी आरोप में सरेआम लटका दिए जाओगे।

मनुष्य आखिर है क्या?

मनुष्य का अन्तर्जगत इतने प्रचण्ड उत्पात-घात,प्रपंचों, उत्थान पतन, घृणा, वासना की धधकती ज्वालाओं और क्षण क्षण जन्म लेती इच्छाओं से घिरा हुआ है कि उसके सामने समुद्र की महाकाय सुनामी क्षुद्र...लघुतर है। सुनामी नष्ट कर लौट जाती है। मानव मन के पास लौट जाने वाली कोई लहर नहीं है। वह तो बार-बार उठने और उसकी संपूर्ण उपस्थिति को ध्वस्त, मलिन कर घुग्घू बना देने वाली शक्ति है, जिसे विरले ही पराजित कर पाते हैं। मैंने कई लोगों को देखा है। और मैं उन्हें देखकर चकित होता रहता हूं। बढ़ती आयु अथवा दूसरी विवशताएं भी उन्हें रोक नहीं पातीं। वे महत्तर संकल्प, प्रपंचों, सूक्ष्म और वैभवशाली उपायों से अपनी अग्नि को शांत करते हैं। हर क्षण किसी साधारण मनुष्य को खोजते हैं। उन्हें शिकार बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और वह साधारण मनुष्य जब ऊब कर चुपचाप विदा लेता है तो वे भी येन-केन प्रकारेण किनारा कर लेते हैं। लेकिन....मौका मिलते ही उसी साधारण मनुष्य को फांस कर फिर से नया गठन करते हैं। झूठ, मक्कारी, धूर्तता से भरे ये लोग हैरतअंगेज चालबाजियों से लाभ उठाने के अनगिन तरीके जानते हैं। किसी साधारण मनुष्य को ये वहां तक खींचते हैं, जहां तक खींचते हुए इन्हें जरा भी लाज नहीं आती। और अगर कोई चुपचाप इनकी मनमानियों, स्वार्थ से भरे आग्रहों का विद्रोह नहीं करता तो ये निरंतर खींचते चले जाते हैं। ये आत्मावलोकन नहीं करते। इनका मन अपराधबोध से नहीं भरता। इनकी आत्मा इन्हें कभी नहीं धिक्कारती। ये मानते हैं कि जीवन हर क्षण, हर परिस्थिति में एक भोग है। उसे भोगना चाहिए। जहां से जो संभव हो, प्राप्त कर लेना चाहिए। मैंने अपने जीवन में ऐसे कई मनुष्यों को देखा लेकिन एक मनुष्य अन्य सब पर भारी है। वैसी निर्लज्जता अन्य चालबाजों में भी नहीं है। उसने मुझे लगभग हर भेंट पर यह आश्वस्त किया कि उसकी आत्मा में निविड़ अन्धकार के सिवा कुछ नहीं है। वह महाभयंकर व्याध है जो किसी का भी फायदा उठा सकता है, उसे अप्रतिम निष्ठुरता से त्याग कर प्रतिदिन उसे गाली दे सकता है। किसी भी लड़की स्त्री के साथ सो सकता है। चमत्कारिक शातिरी के साथ आपको फंसा सकता है। आपको उसे त्यागता हुआ देख दूर तक आपका पीछा कर सकता है। आपके संकेतों, स्पष्ट किन्तु मौन निर्देशों के बाद भी आपको पकड़ सकता है और कुटिल हंसी के साथ सबकुछ सामान्य होने दिखलाने के प्रयास कर सकता है। विडम्बना यह है कि ऐसा मनुष्य भी एक विशिष्ट वर्ग में सम्मानित है। और उसने वहां बड़े जतन, अदृष्टपूर्व धूर्तता से अपने लिए स्थान बनाया है। मैं उसे बरसों से देख जान रहा हूं। इन बीत रहे बरसों बरस के साथ उसने यह सिद्ध किया है कि मनुष्य मूलतः एक ही बार जन्म लेता है। सुधार या परिमार्जन उत्थान वहीं संभव है, जहां कुछ मनुष्यता होती है। भयावह अंधकार से पुती आत्माएं कुछ शोध परिवर्तन नहीं करतीं। वे महांधकार में, कुटिलता की कंदराओं में उतरती चली जाती हैं। बस पतन.. पतन और पतन।



प्रफुल्ल सिंह ष्बेचैन कलमष्

युवा लेखकध्स्तंभकारध्साहित्यकार


वर्तमान प्रौद्योगिकी युग में मानवीय बुद्धि सब कुछ आर्टिफिशियल बनाने के चक्कर में है!!! 

प्राकृतिक मौलिकता और मृत् देह में जान फ़ूकना बाकी रहा!!! जो मानवीय बुद्धि के लिए असंभव है!!!  - एड किशन भावनानी 
 वैश्विक स्तर पर प्रौद्योगिकी का अति तीव्रता से विकास हो रहा है। शास्त्रों, पौराणिक ग्रंथों और अनेक साहित्यों में ऐसा आया है कि, सृष्टि में उपस्थित 84 करोड़ योनियों में मानव योनि सबसे सर्वश्रेष्ठ और अलौकिक बौद्धिक क्षमता का अस्तित्व धारण किए हुए हैं!! साथियों यह बात हम अक्सर आध्यात्मिक प्रवचनों में भी सुनते हैं कि यह मानवीय चोला बड़ी मुश्किल से मिलता है और इसे सत्यकर्म में उपयोग कर अपना मानव जीवन सफल बनाएं। साथियों बात अगर हम मानव बौद्धिक संपदा की क्षमता की करें तो हमें व्यवहारिक रूप से इसका लोहा मानना ही पड़ेगा। बहुत से ऐसे काम हैं, जिन्हें पहले करने में जहां देर लगती थी, वही अब चुटकियों में हो जाते हैं, इसके लिए विज्ञान के द्वारा विकसित की गई आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि, ए आई) को शुक्रिया कहा जा सकता है। हालांकि आज भी जिन कामों में बुद्धि के साथ विवेक की ज़रूरत होती है,वहां एआई पर भरोसा नहीं किया जाता। क्योंकि इस मानवीय बौद्धिक क्षमता ने ऐसे करतब दिखाए हैं और ऐसी ऐसी प्रौद्योगिकी, नवाचार, विज्ञान की उत्पत्ति की है जिसका हमारे पूर्वज, पीढ़ियों द्वारा सोचना भी अचंभित था!! याने हमारे पूर्वज सपने में भी नहीं सोचते होंगे कि मानव प्रौद्योगिकी, विज्ञान नवाचार में इतना आगे बढ़ जाएगा!पड़ोसी विस्तारवादी देश ने एक ऐसे ही विवेक भरे काम के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जज फॉर प्रॉसिक्यूशन का इस्तेमाल शुरू किया है, जिसके बारे में अब तक सोचा भी नहीं गया था। साथियों बात अगर हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बौद्धिकता) की करें तो हालांकि इस दौर में इसकी ज़रूरत है लेकिन अब इसका इस्तेमाल कुछ पारंपरिक कार्यो के लिए और प्राकृतिक मौलिकता में हाथ डालने के लिए किया जा रहे। एक टीवी चैनल के अनुसार, (1) विस्तारवादी देश ने दुनिया का पहला आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पावर प्रॉसिक्यूटर तैयार कर लिया है!! यह ऐसा मशीनी प्रॉसिक्यूटर है जो तर्कों और डिबेट के आधार पर अपराधियों की पहचान करेगा और जज के समान सजा की मांग करेगा। दावा किया जा रहा है कि यह मशीनी प्रॉसिक्यूटर 97 प्रतिशत तक सही तथ्य रखता है इस टेक्नोलॉजी के साथ ही एक नई डिबेट विश्व में शुरू हो गई है। चैनल के अनुसार, दावा किया गया है कि ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाला मशीनी जज वर्कलोड को कम करेगा और ज़रूरत पड़ने पर न्याय देने की प्रक्रिया में जजों को इससे रिप्लेस किया जा सकेगा। इसे डेस्कटॉप कम्प्यूटर के ज़रिये इस्तेमाल किया जा सकेगा और इसमें एक साथ अरबों आइटम्स का डेटा स्टोर किया जा सकेगा। इन सबका विश्लेषण करके ये अपना फैसला देने में सक्षम है।इसमें इस तरह के डाटा और सॉफ्टवेयर डाले गए हैं कि वह उन सभी परिस्थितियों को पढ़कर उसका फैसला देगा।  यह तार्किक तौर पर बहुत मददगार सिद्ध होगा ऐसा मानना है। इसे विकसित करने में साल 2015 से 2020 तक के हज़ारों लीगल केसेज़ का इस्तेमाल किया गया था, ये खतरनाक ड्राइवर्स, क्रेडिट कार्ड फ्रॉड और जुए के मामलों में सही फैसला दे सकता है। (2) एक टीवी चैनल के अनुसार विस्तार वादी देश ने जमीन का सूरज तैयार किया है जो इतनी तेज रोशनी 20 सेकंड में बाहर फेंकता है,विस्तारवादी देश की मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस प्रोजेक्ट की शुरुआत वर्ष 2006 में की थी। उन्होंने कृत्रिम सूरज को एचएल-2 एम, नाम दिया है, इसे चाइना नेशनल न्यूक्लियर कॉर्पोरेशन के साथ साउथवेस्टर्न इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिक्स के वैज्ञानिकों ने मिलकर बनाया है। प्रोजेक्ट का उद्देश्य प्रतिकूल मौसम में भी सोलर एनर्जी को बनाना भी है। परमाणु फ्यूजन की मदद से तैयार इस सूरज का नियंत्रण भी इसी व्यवस्था के जरिए होगा। चीन इस प्रोजेक्ट के जरिये 150 मिलियन यानि 15 करोड़ डिग्री सेल्सियस का तापमान जेनरेट होगा। उनके के मुताबिक, यह असली सूरज की तुलना में दस गुना अधिक गर्म है। जैसा कि विस्तारवादी देश के प्रयोग में उत्पन्न हुआ है। बता दें कि असली सूर्य का तापमान 15 मिलियन डिग्री सेल्सियस है।साथियों बात अगर हम, दूसरी अन्य मानवीय बुद्धि के कमाल की करें तो रोबोट मानव, चांद तक पहुंचना, चांद पर घर बनाना, एयर स्पेस में हाल ही में मानवीय टूरिज्म यात्राएं सहित अनेक अनहोनी प्रौद्योगिकी का उदय हुआ है!!! साथियों बात अगर हम मानवीय जीवन के प्राण की करें तो मेरा ऐसा मानना है कि चाहे कितनी भी लाख़ कोशिशें करें मानव बौद्धिक क्षमता इस हद तक विकसित नहीं हो सकती कि प्राकृतिक मौलिकता और मृत् देह में जान फूंक सके!!! क्योंकि बड़े बुजुर्गों का कहना है कि, गुरु सर्वगुण दे देता है, पर एक गुण अपने पास रखता है!! जो ब्रह्मास्त्र का काम करता है!! ताकि चेले में घमंड आने पर उससे भेदा जा सके!! ठीक उसी तरह कुदरत भी है! जीव में प्राण फूकना और प्राण निकालना यह मानवीय बुद्धि के बस की बात कभी नहीं होगी!!! अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि सब कुछ आर्टिफिशियल हो रहा है!!! वर्तमान प्रौद्योगिकी युग में मानवीय बुद्धि सब कुछ आर्टिफिशियल बनाने के चक्कर में है! जबकि प्राकृतिक मौलिकता और मृत देह में जान फूंकना बाकी रहा जो मानवीय बुद्धि के लिए असंभव है!!! 

-संकलनकर्ता लेखक- कर विशेषज्ञ एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र