Tuesday, October 29, 2019

अधिक तृष्णा नहीं करनी चाहिए

 किसी वन प्रदेश में एक भील रहा करता था। वह बड़ा साहसी, वीर और श्रेष्ठ धनुर्धर था। वह नित्य-प्रति वन्य जन्तुओं का शिकार करता और उससे अपनी आजीविका चलाता तथा परिवार का भरण-पोषण करता था। एक दिन जब वह वन में शिकार के लिए गया हुआ था तो उसे काले रंग का एक विशालकाय जंगली सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर भील ने धनुष को खींचकर एक तीक्ष्ण बाण से उस पर प्रहार किया। बाण की चोट से घायल सूअर ने क्रुद्ध हो साक्षात् यमराज के समान उस भील पर बड़े वेग से आक्रमण किया और उसे सँभलने का अवसर दिये बिना ही अपने दाँतो से उसका पेट फाड़ दिया। झील वही मरकर भूमि पर गिर पड़ा। सूअर भी बाण की चोट से घायल हो गया था, बाण ने उसके मर्मस्थल को वेध दिया था अतः उसकी भी वहीं मृत्यु हो गयी।
 उसी समय भूख-प्यास से व्याकुल कोई सियार वहाँ आया। सूअर तथा भील दोनों को मृत पड़ा हुआ देखकर वह प्रसन्न मन से सोचने लगा-मेरा भाग्य अनुकूल है, परमात्मा की कृपा से मुझे यह भोजन मिला है। अतः मुझे इसका धीरे-धीरे उपयोग करना चाहिये, जिससे यह बहुत समय तक मेरे काम आ सके।
 ऐसा सोचकर वह पहले धनुष में लगी ताँत की बनी डोरी को ही खाने लगा। उस मूर्ख सियार ने भील और सूअर के मांस के स्थान पर ताँत की डोरी को खाना शुरू किया। थोड़ी ही देर में ताँत की रस्सी कटकर टूट गयी, जिसमें धनुष का अग्रभाग वेग पूर्वक उसके मुख के आन्तरिक भाग में टकराया और उसके मस्तक को फोड़कर बाहर निकल गया। इस प्रकार तृष्णा के वशीभूत हुए सियार की भयानक एवं पीड़ादायक मृत्यु हुई। इसीलिए नीति बताती है-''अधिक तृष्णा नहीं करनी चाहिए।''


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