Tuesday, October 29, 2019

औपचारिक शिक्षा और अभिभावक

 मनुष्य अपने जीवन में दो प्रकार की शिक्षा ग्रहण करता है-औपचारिक शिक्षा और अनौपचारिक शिक्षा। औपचारिक शिक्षा उसे शैक्षिक संस्थाओं से प्राप्त होती है जैसे कि विद्यालय, कालेज और तकनीकी संस्थान। इसके साथ ही अनौपचारिक शिक्षा उसे परिवार, समुदाय, समाज और धर्म जैसी संस्थाओं सें प्राप्त होती है। दोनो प्रकार की शिक्षाओं की हमारे जीवन के संवर्धन एवं परिमार्जन के लिये महती आवश्यकता होती है।
 आज के भौतिकवादी आधुनिक तापरस्त विश्व में औपचारिक शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। यह जीवन की आधार शिला होती है। समुचित दिशा निर्देशों के अभाव में यह मनुष्य को लक्ष्यहीन कर देती है। अतः औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में अभिभावकों की भूमिका बहुत कम अभिभावक ऐसे हैं जो अपने बच्चों की औपचारिक शिक्षा के विषय में चिन्तन-मन्थन करते है।
 सर्वप्रथम प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान देना आवश्यक होता है क्योंकि बच्चे कच्ची तैयार मिट्टी के समान होते हैं जिन्हें कोई भी रूप और आकार दिया जा सकता है। अतः यह अभिभावक का कर्तव्य है कि वे निश्चित करें कि अपने पाल्य को वे कैसा शैक्षिक परिवेश देने जा रहे हैं। शिशु या बालक के जीवन रूपी भवन की नींव जितनी सुदृढ़ और अटल होगी। उतना ही उसके जीवन का भवन स्थाई, महत्वपूर्ण और प्रभवशाली तथा समृद्ध होगा। इस अवस्था की शिक्षा भयमुक्त वातावरण में श्रवय एवं दृश्य सामग्री के माध्यम से प्रदान केी जानी चाहिये। बालक या बालिकाइस शिक्षा को स्वयं पर, लदा हुआ बोझ न समझे बल्कि इसके प्रति उसमें स्वयं रूचि उत्पन्न हो ऐसा इस शिक्षा का स्वरूप होना चाहिये।
 इसके पश्चात कक्षा-6 से 8 तक के छात्र उन पनपते हुये पादपों के रूप में होते हैं, जिन्हें जल, उर्वरक एवं प्रकाश की अत्यधिक आवश्यकता होती हैं। यदि उन्हें अनुकूल परिस्थितियाँ और संसाधन तथा मार्ग निर्देश प्राप्त होते रहते हैं तो वे अभीप्सित दिशा की ओर उन्नयन प्राप्त करते हैं। इस अवस्था में छात्र/छात्रायें जहाँ पादप के रूप में होते हैं वही अभिभावक माली की भूमिका का निर्वहन करते है। यही छात्र/छात्रायें भावी पीढ़ी की बगिया की पौध होते हैं।
 कक्षा-9 एवं 10 में छात्र/छात्राओं के कदम किशोरावस्था की ओर बढ़ने लगते हैं। स्वाभाविक है कि उनमें अनेक शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन आते हैं। अतः अभिभावकों को उनके प्रति सहज, सरल एवं मित्रवत होना चाहिये। इस अवस्था में स्पेयर द रोड एंड स्पोइल द चाइल्ड के सिद्धान्त को लागू नहीं करना चाहिए। अरस्तू के अनुसार  We should never be commanding to them instead of directiveand a true guide.'
 कक्षा-11 एवं 12 किशोरावस्था के उत्कर्ष काल हैं। यही है-बौद्धिक ऊर्जा का संग्रह काल। इसी काल में या तो यह ऊर्जा वृद्धि की ओर गमन करती अथवा भिन्न दिशाओं में फैलकर निरूद्देश्य हो जाती है। अतः अभिभावक को बहुत अधिक सावधान एवं सचेत रहना पड़ता है। उन्हें अपने पाल्य के दैनिक क्रिया-कलापों का ज्ञान अवश्य रखना चाहिये। यदि वे लक्ष्य से भटक रहे हों तो उन्हें अपने अनुभूत परिणामों से अवगत कराते हुये निश्चित दिशा एवं लक्ष्य केी ओर प्रोत्साहित करना चाहिये। यही वह अवस्था है जब छात्र/छात्रा को उसके द्वारा प्राप्त परिणाम एवं उसकी रूचि के आधार पर उसे व्यावसायिक शिक्षा की ओर मोड़ा जाता है। यही व्यावसायिक शिक्षा उसके जीवन में सुख और समृद्धि की जननी होती है।
 यदि इस अवस्था में विद्यार्थी भटक जाता है, तो वह देश एवं समाज के लिये अनुत्पादक सिद्ध होता है। वह सुयोग्य नागरिक बनने के बजाय अपराध जगत से जुड़ जाता है। इस प्रकार वह प्रशासन और कानून के लिये भी चुनौती बन जाता है। ऐसी परिस्थिति में वह अभिभावकों में चिन्ताजनित करता है और उनके शान्तिमय जीवन को अशान्त कर देता है।
 लेकिन यहीं यदि उसे उचित व्यावसायिक शिक्षा की दिशा की ओर मोड़ दिया जाता है तो वह सफल, सुयोग्य, सम्पन्न एवं सुशिक्षित नागरिक के रूप में परिणित हो जाता है। अतः अभिभावकों को कर्तव्य हैं कि वे अपने पालय की सभी सुविधाओं का ध्यान रखने के साथ-साथ समयानुसार उसका मार्गदर्शन करते रहें और उद्देश्य के पूर्णता के पथ पर आने वाले अवरोधों को हटाते रहें क्योंकि समय व्यतीत हो जाने के बाद प्रायश्चित के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह जाता है-
 ''समय चूँकि पुनि का पछताने, का वर्षा जब कृषी सुखाने'' और ''अवसर चूँकि ग्वालिनें गावैं सारी रात'' वाली कहावतें हमारे जीवन में घटित हो जाती है।
 हम प्रायः अपने समाज में देखते हैं कि लोग (विशेषरूप से माध्यम वर्ग) फैशन और दिखावे पर तो पैसा पानी की तरह बहाते हैं। लेकिन और दिखावे पर तो पैसा पानी की तरह बहाते है।। लेकिन अपने पाल्यों की शिक्षा के मद पर ठीक से पैसा खर्च करने से कतराते हैं। यह शिक्षा ही है जो हमें जीवन जीने के सर्वथा उपयुक्त बनाती है और हमें उन्नति के शिखर तक पहुँचाती है। जिस प्रकार शरीर रीढ़ की हड्डी के बिना लचर और असमर्थ हो जाता है, उसी प्रका शिक्षा के बिना समाज और राष्ट्र रूपी शरीर की 'रीढ़ की हड्डी' होती है। अतः हम सभी अभिभावकों को शिक्षा का विशेष ध्यान रखते हुये, इस शिक्षा के मद को व्यय की सूची मेें सर्वोपरि रखना चाहिये। हम सभी अभिभावकों को अपने बच्चों को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार समुचित शिक्षा अवश्य प्रदान करनी चाहिए जिससे कि वे अपने जीवन में कहीं भी किसी प्रकार के अभाव का अनुभव न करें। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चित ही हम उनके साथ शत्रुता का व्यवहार कर रहे हैं। क्योंकि-
''माता शत्रुः, पिता वैरी, येन बालो न पाठितः।
ते न शोभन्ते संभामध्ये, हंस मध्ये वको यथा।''
आज यद्यपि हमारे समाज में वैचारिक क्रांति आ चुकी है तथापि कतिपय परिवार लिंग-भेद करते हैं अर्थात् बालिकाओं की शिक्षा पर बालकों की अपेक्षा बहुत कम ध्यान देते है। इस विषय में उनका चिन्तन होता है कि बालिकायें विवाह के पश्चात अपना घर-बसा लेती हैं और उनसे पितृपक्ष को आर्थिक सहायता और संबल प्राप्त नहीं हो पाता है। वास्तविकता यह है कि यह ऋणात्मक चिन्तन हमारे समाज, राज्य एवं राष्ट्र को पतन की ओर ले जा रहा है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा सामाजिक शैक्षिक, आर्थिक  तथा राजनैतिक उन्नयन हो तो निश्चित रूप से हमें बालिकाओं की शिक्षा पर भी विशेष ध्यान केन्द्रित करना होगा क्योंकि प्रसिद्ध शिक्षा-शास्त्री, दार्शनिक एवं हमारे स्वतंत्र भारत के द्वितीय राष्ट्रपति महोदय श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कहा है-


“Give us good and well-educated mothers and I will give you a developed nation in all respects.”


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