दो दृगों को अपने नीचे कर
हा! कैसा मैं गंभीर बना
जिसे छोड़ चुकी है अब सरिता
मैं ठुकराया वो तीर बना
अब चिर तटस्थ और उदासीन
है स्वप्न सरस का चिन्ह नहीं।
अभी मौन हूँ, अनभिज्ञ नहीं।
है शुष्क हुआ सब सत्य मेरा
जीवन का अंश तो बाकी है
हुआ वंचित देखो हाला से
जो रुठा मुझ से साकी है
पर शास्वत है तृष्णा मेरी
कभी ना पीने को प्रतिज्ञ नही।
अभी मौन हूँ, अनभिज्ञ नही।
यह खोना और यह पाना तो
जीवन में क्रम से आता है
है आज मुझे यह जग भूला
कल देखें कौन बुलाता है
कभी हंस पाया अभी रो बैठा
कोई स्थिर सा प्रतिबिंब नही।
अभी मौन हूँ , अनभिज्ञ नही।
No comments:
Post a Comment