कोयल की ऐसी कूक सुनो
जो सुनी नही थी बरसों से
छत से हीं गिरिवर दिख जाते
जो धुंध छँटी कल परसों से
अहो मन को आह्लादित करती
यह स्वच्छ हवा जो चलती है
हर बिगड़ी चीज बनाने को
प्रकृति की प्रवृत्ति बदलती है।
हां दुखदायी ये रोग हुआ
पर बुरा नही सब कुछ इस से
अब घिर आते हैं बादल भी
बारिश अच्छी होती जिनसे
थी जिसकी खोयी अविरलता
वह कल कल कर के बहती है
हर बिगड़ी चीज बनाने को
प्रकृति की प्रवृत्ति बदलती है।
शायद हम भी कुछ सीख सकें
जो आया संकट भारी है
जो अति हुई थी दोहन की
आई उस से महामारी है
इस कुदरत का सम्मान करो
धरती हम सब से कहती है
हर बिगड़ी चीज बनाने को
प्रकृति की प्रवृत्ति बदलती है।
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