Friday, December 25, 2020

आधुनिकता की आड़ में अराजकता की होड़

प्राचीनतम से नवीनतम की तरफ गति करना बिल्कुल भी गलत नहीं है, क्योंकि किसी भी क्षेत्र में चाहें वह रहन-सहन हो या आचार-विचार, नवीनीकरण बहुत ही हितकारी होता है, परन्तु इस नवीनीकरण के दूरगामी परिणाम को भी गौर करना बेहद ही जरूरी होता है। बात जब आधुनिकता की हो तो कहने के लिए हम बीसवीं सदी में पदार्पण कर गये हैं, आखिर इतना बदलाव तो बनता है, मगर यह बदलाव जब आधुनिकता की आड़ लेकर मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने लगे तो क्या इसको हम आधुनिकता से संबोधित कर सकते हैं? नहीं! तब हम यही कहेंगे कि आधुनिकता की आड़ में अराजकता को हवा देने में लगे, मानव समाज के इस हिस्से ने मानवता को ही निगल लिया है। आधुनिक मानव समाज के पुरुष व नारी इस आधुनिकता की आड़ में अराजकता फैलाने में बराबर के हिस्सेदार हैं, ना कोई कम ना कोई ज्यादा! परन्तु भागीदारी में कोई किसी से कमतर नहीं है। हमारा पुरुष समाज तो आदि से आधुनिकीकरण की अराजकता हेतु बदनाम है, मगर हमारे आधुनिक समाज की स्त्री को अगर देखा जाए तो आधुनिकता की दौड़ में अव्वल हैं, जो रहन-सहन के साथ आचार-विचार व व्यवहार सबमें आधुनिकीकरण के दिखावे में पूर्ण दिग्भ्रमित होने के साथ-साथ सहभागी परिस्थितियों को भी दिग्भ्रमित किए जा रही हैं और ख्वाहिश व गुरूर बस यही कि इस आधुनिकता के दौर में वह सेल्फ डिपेंड हैं, उन्हें आखिर मानवता व मानवीय समाजवादी व्यवहारिक व्यवस्थाओं से क्या लेना-देना।

आखिर ऐसी आधुनिकता का क्या औचित्य जो स्वयं की उपस्थिति व स्वयं के विचारों को ही दिग्भ्रमित कर दे? आधुनिकता का मतलब होता है कि बढ़ती तकनीकी व विकासशील प्रक्रियाओं के द्वारा सुखमय जीवन व स्वस्थ्य विचारों, व्यवहारों को प्राप्त व प्रेषित करना, मगर यहाँ तो मामला ठीक अलग मार्ग का अनुसरण कर रहा है, यहाँ आधुनिकता की आड़ में मानव मानवीय व्यवहार को ऊँचा बनाने के बजाय अराजकता को जन्म देते हुए उच्च व निम्न के बीच की खाईं को और भी बढ़ा रहा है। चमक-दमक व दिखावे का ऐसा जुनून कि क्या कहें? ऐसी आधुनिकता आखिर किस काम की जो केवल सेल्फ डिपेंड के दिखावे से शुरू होकर दिखावे में ही समाप्त हो जाती हैं? आधुनिकता की आड़ में अराजकता के दौरान सबसे बड़ा बदलाव किसी भी चीज में शॉर्टकट का चयन अर्थात् इस आधुनिकीकरण की सोच चीजें जितनी छोटी होंगी, फायदे उतने अधिक होंगे, इसी फिराक में सबसे पहले परिवार का स्वरूप बदला, जो एकल हो गया, फिर पहनावे का रूप बदला, जो अत्यंत ही छोटा हो गया, फिर खान-पान का रूप बदला जो डाइटिंग तक आ गया बाकी व्यवहारिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत सामूहिक से घटकर स्व तक सीमित हो गया, इस स्व की भी बड़ी विचित्र बिडम्बना है जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना शायद संभव नहीं।
आधुनिकता की आड़ में ऐसी अराजकता मानवीय सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से बेहद ही निम्न स्तरीय स्थिति को इंगित करता है। आधुनिकता का यह दौर मानवता के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहा है, जिसे प्रत्यक्ष तो देख हर कोई रहा है, मगर प्रतिकार करे आखिर कौन? जब सभी इस अराजकतापूर्ण आधुनिकीकरण के वशीभूत हैं। इस आधुनिकता की आड़ में अराजकता के सहभागी कुछ प्रत्यक्ष हैं तो कुछ परोक्ष, मगर सहभागिता तो सभी की है। जहाँ आधुनिकता की अराजकता के रूप में सेल्फ डिपेंड का गुरूर अगर महिलाओं पर हावी है, तो वहीं पुरुष पर आधुनिकता की अराजकता के अंतर्गत पुरुष प्रधान समाज का भ्रम हावी है। आखिर इस आधुनिकता से तो बेहतर प्राचीनता ही है, जहाँ मानवीय समाजवादी व्यावहारिक व्यवस्थाओं में मानवता का अपना महत्वपूर्ण स्थान तो है। आधुनिकता किसी भी समय कालखण्ड में बेहतरी के लिए जानी-पहचानी जानी चाहिए, ना कि आधुनिकीकरण की अराजकता के लिए! अतः आधुनिकता अपनाइए मगर अराजकता से दूर रहते हुए! इसी में हमारा-आपका व इस समस्त मानव समाज का कल्याण निहित है।

मिथलेश सिंह मिलिंद
मरहट पवई आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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