Thursday, January 7, 2021

महिला सशक्तिकरण को पलीता लगाती महिला जनप्रतिनिधि

आजादी के बाद से ही देश में महिला सशक्तिकरण के लिए पुरजोर तरीके से आवाज उठायी जाती रही है। देश का हर राजनीतिक दल खासकर जब वह बिपक्ष में  होता तो इस मुद्दे को जोर-शोर से संसद से सड़क तक उठाता रहा है।  आजादी के बाद देश की सबसे बड़ी पंचायत में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के बारे में भी काफी कुछ कहा सुना गया। 

 देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुनाव में (17वीं लोकसभा चुनाव में ) कुल 724 महिलाओ ने अपना भाग्य आजमाया था। जिनमें  78 महिला सांसद चुनकर आयीं।  इनमें से ज्यादातर संभ्रांत परिवारों से सम्बंधित है। कुछ राज परिवारों से भी हैं जिनको राजनीति बिरासत में मिली है।  ग्रामीण पृष्ठभूमि और निचले तबके से वहां पहुंची महिला सांसदों की संख्या न के बराबर है।  यह सांसदों की कुल संख्या के हिसाब से महज 17 प्रतिशत है जो कि बहुत ही कम है।
     काफी समय से लोगों की यह भी मांग रही है कि ग्राम पंचायतों में भी महिलाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित की जाय। सरकार ने कानून बनाकर ग्राम पंचायत में आधी आबादी को उनका हिस्सा दे दिया है। 
      हमारे देश में लगभग ढ़ाई लाख ग्राम पंचायते हैं जिनके तहत करीब छह लाख गांव आते है। उत्तर प्रदेश में कुल ग्राम पंचायतों की संख्या 59,163  हैं। देश में इस समय कुल 1,06,250 महिला सरपंच हैं। अभी हाल ही में समाप्त हुए कार्यकाल में 19,962 महिला सरपंच अकेले उत्तर प्रदेश से थीं ।  समाप्त हुए कार्यकाल में उत्तर प्रदेश महिला सरपंचों की संख्या के हिसाब से देश का पहला राज्य है जिसमें पिछले चुनाव में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं चुनाव जीतकर आयीं थीं। 
       ग्राम पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देने का मकसद था कि महिलाओं को उनके संख्या बल के हिसाब से बराबरी का हक मिले । जिससे वे अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए ग्राम पंचायतों के विकास को सही दिशा में ले जा सकें। महिला सशक्तिकरण को बल मिले। लेकिन महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करने वाले लोगों की आशा के अनुरूप महिला सरपंच खरी नहीं उतरीं।
      कुछ महिला सरपंचों ने आगे बढ़कर अपनी ग्रामसभा में विकास के बहुत ही सराहनीय कार्य किए हैं। लेकिन ज्यादातर महिला  सरपंच मुखौटा ही साबित हुई हैं। वह अभी भी पर्दे के पीछे ही बैठी हुई हैं। सरपंच की भूमिका में उनके पुत्र, पति, ससुर,जेठ और देवर फर्राटे भर रहे हैं। बहुत सारी महिला सरपंचों को सरकारी योजनाओं की जानकारी न के बराबर है। उनकी ग्रामसभा में उन्हें लोगों ने चुनाव के बाद से किसी सार्वजनिक काम में देखा तक नहीं है। हालात यह हैं कि यदि पूरी ग्रामसभा के लोगों को इकट्ठा कर दिया जाय और उनमें से दूसरे गांव के दस लोगों को दिखाकर उनके गांव का नाम पूंछा जाय तो सरपंच महोदया बंगले झांकने लगेंगी।
     आज गंवई सरकार में एक नया चलन "प्रतिनिधि " आ गया है। सांसद और विधायक का प्रतिनिधि तो समझ में आता है लेकिन प्रमुख तथा प्रधान का प्रतिनिधि समझ और तर्क से परे है। सांसद और विधायक सत्र में भाग लेने के लिए अपने क्षेत्र से दूर दिल्ली या अपने राज्य की राजधानी में चले जाते हैं। तो उनके न रहने पर जनता की समस्याओं को उन तक पहुंचाने के लिए प्रतिनिधि नामित करना ठीक है।  ग्राम प्रधान तो स्थानीय होती हैं वह तो हमेशा अपने घर में मौजूद रहती है। कभी कभार दो चार दिन के लिए मायके जाती होगी। ऐसे में प्रधान प्रतिनिधि नामित करने का कोई औचित्य नहीं जान पड़ता।
    यहां तक कि बिकास खण्ड स्तर पर होने वाली मीटिंग, सेमिनार, प्रर्दशनी आदि में भी यह महिला जनप्रतिनिधि  दिखाई नहीं देतीं। वहां पर भी उनके घर के पुरुष सदस्य ही जनप्रतिनिधि  की भूमिका में होते हैं। बिकास खंड स्तर के अधिकारी सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने बैठे रहते हैं। 
      यदि इससे बड़े स्तर की बात की जाए तो ब्लाक प्रमुख में इससे भी बुरा हाल है। ब्लाक प्रमुख पद पर जो महिलाएं चुनाव जीतकर आती है वह तो कभी भी विकास खंड, तहसील और जिला स्तर पर दिखाई नहींं पड़ती। वह इनसे सम्बन्धित प्रशासनिक  अधिकारियों के पद, नाम तक नहीं जानती। इनके पति गाड़ियों में ब्लाक प्रमुख की नाम पट्टिका लगाये हुए हर मोड़ पर दिखाई पड़ जाते हैं।
पुलिस और राजस्व विभाग भी इस ग्रामीण सरकार से अनजान नहीं है। थाने के अधिकारी और कर्मचारी भी बिभिन्न कार्यो से गांवों में जाते हैं या ग्राम प्रधान को थाने में बुलाते हैं। तब भी महिला सरपंच के घर के पुरुष सदस्य ही जाते हैं। ठीक यही हाल राजस्व विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ भी है। लेकिन कभी भी यह नहीं पूछा गया होगा कि आप प्रधान नहीं हो तो  किस हैसियत से यहां आये हो या बोल रहे हो?  इससे लगता है कि लोगों ने इस गलत परिपाटी को सही मानना शुरू कर दिया है। 
       महिला सशक्तिकरण की दिशा में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को महिलाओं ने ही पलीता लगा दिया है। इसके लिए हमारे देश में सदियों से चली आ रही पुरुष प्रधान मानसिकता दोषी है। पुरूष आज भी अपने को सर्वोपरि देखना चाहता है। उसे अब भी यकीन नहीं हो रहा है कि महिलाएं हर काम को करने में समर्थ हैं। 
        वह चाहता है कि आरक्षित महिला सीट पर उसकी ही मां/ पत्नी चुनाव लड़ें। चुनाव प्रचार के समय घर के पुरुष महिला को हाथ जोड़कर याचना की मुद्रा में वोट मांगने के लिए घर घर भेजते है। तब उनको अपनी बेइज्जती महसूस नहीं होती। क्या उस समय उनके घर के पुरुष यह नहीं सोचते हैं कि जिस अधिकार को पाने के लिए उनकी मां/ पत्नी घर घर हाथ जोड़ रही हैैं, उनको अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए इन्ही घरों के चक्कर काटने पड़ेंगे?  
   पुरुष वर्ग कितना चालाक है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब जनता के सामने हाथ जोड़ने और याचना की बारी आती है तो वह अपने घर की महिलाओं को आगे कर देता है और जीत के बाद जब लोगों से प्रमुखजी और प्रधान जी जैसे शब्दों से सम्मानित होने की बारी आती है तो खुद आगे हो जाता है। 
     25 दिसंबर 20 को प्रदेश की 58656 ग्राम सभाओं को भंग कर दिया गया है। ग्राम सभाओं के प्रशासन को चलाने के लिए प्रशासकों की नियुक्ति कर दी गयी है। 15 मार्च से 05 अप्रैल के बीच त्रिस्तरीय चुनाव हो सकते हैं। ग्राम सभाओं में सीटों का आरक्षण अभी तय नहीं हुआ है। पिछले चुनाव में जो आरक्षण था वह तो बदलना निश्चित है। किन्तु आधी आबादी की सीटों की संख्या में कोई ज्यादा बदलाव नहीं होगा।
      यदि सरकार द्वारा पुरुष मानसिकता के प्रतीक प्रतिनिधि के चलन को न रोका गया तो  महिला सशक्तिकरण दूर की कौड़ी साबित होगा। अगर सरकार सही मायने में महिलाओं का  सशक्तिकरण करके उनको उनकी हिस्सेदारी देना चाहती है तो इस चलन पर विराम आवश्यक है। इनकी पहुंच बिधान सभाओं और संसद तक तभी होगी जब यह ग्राम प्रधान के रूप में सही मायने में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पायेंगी।

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