Thursday, January 7, 2021

लखनऊ

तुम संसद से होते जा रहे हो
क्यों तहजीब खोते जा रहे हो
तुम्हारी हवा अब दिल्ली सरीखी हो चली है
तुम्हारी रेवड़ी तिल्ली सरीखी हो चली है
शहरों में भी तुम गांव से लगते थे हमको
चिलकती धूप में भी छांव से लगते थे हमको
यहां हर शख्स ही खुद में भिखारी हो चला है
नवाबों का शहर अब तो शिकारी हो चला है
इमारत को यहां फिर से सजाया जा रहा है
तुम्हारी शान में बाजा बजाया जा रहा है
यहां पर गंज है, बागें वही हैं
बहुत से पेड़ पर शाखें नहीं है
मुकदमें बहुत सारे अब यहां दायर हुए हैं
वही तहजीब लौटा दो जहां शायर हुए हैं

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