प्रकृति उतना ही धन वैभव उत्पन्न करती है, जिसमें धरती पर रहने वाले सभी प्राणी अपना जीवनयापन सुविधापूर्वक कर सकें। व्यक्ति अधिक धनी बनने की चेष्टा करते हैं, तो इसका सीधा परिणाम होगा कि दूसरों का हक, हिस्सा कटने लगेगा। ऊंँची दीवार उठाने के लिए लिए किसी दूसरी जगह गड्ढा बनाना पड़ता है। कुछ अमीर बनना चाहें, तो यह तभी सम्भव हो सकेगा जब अन्य अनेकों को अभावग्रस्त गरीबी की स्थिति में रहना पड़े। इस प्रकार की विषमता जब भी जहाँ भी उत्पन्न होगी, वहाँ विग्रह खड़ा करेगी।अनावश्यक धन दुर्व्यसनों में,ठाट-बाट में, विलास-व्यभिचार में खर्च होता है, फलतः उनके दुष्परिणाम सामने आते हैं। नशेबाजी, आवारागर्दी, आलस्य, प्रमाद, सम्पन्नता का प्रदर्शन, निरर्थक अपव्यय ऐसे ही कृत्य हैं, जो अनावश्यक धन जमा करने वाले के पीछे पड़ते हैं। यह दुर्व्यसन अधिक धन की मांँग करते हैं और एक व्यक्तित्व को गिराने का दुश्चक्र चल दौड़ता है।एक अमीरी भोगे और दूसरा गरीबी में तड़फे, इस विषमता का सीधा परिणाम ईर्ष्या के रूप में सामने आता है।चोरी, डकैती और कुकृत्य भी प्रायः इसी आधार पर बढ़ते देखे जाते हैं। बड़ों की नकल करने की छोटों में ललक उपजती है, वे भी वैसी ही अमीरी के लिए लालायित होते हैं और तरीका बन नहीं पड़ता, तो गलत मार्ग अपनाते हैं। अनेकों विकृतियाँ प्रायः इसीलिए पनपती हैं कि बुराइयों का वातावरण बनने पर सामान्य लोग भी उसी प्रवाह में बहने लगते हैं। धन का अनावश्यक संग्रह एक प्रकार से समाज में अनेक दुष्प्रवृत्तियों का, अवांछनीयताओं का सृजन करता है।सीमित साधनों में निर्वाह करने की आदत मनुष्य को वह लाभ प्रदान करती है, जो सादगी अपनाने वाले सज्जनो को मिलता रहता है । समता ही एकता बनाए रहने में समर्थ है। एकता में मिल-जुलकर रहने की, मिल-बांटकर खाने की प्रवृत्ति पनपती है। उसी आधार पर हँसते - हंसाते, प्रसन्न एवं सन्तुष्ट जीवन जी सकना सम्भव होता है। परिवार में, मित्र संबंधियों में सद्भाव बनाए रखना उन्हें उनका चिन्तन और चरित्र मानवी गरिमा के ढाँचे में ढला रखना हो तो उसका प्रधान उपाय यही है कि आर्थिक पवित्रता बनाए रखने के लिए अपना आदर्श प्रस्तुत किया जाए और परिवार में आदर्शवादी वातावरण बनाए रखा जाए। इसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता आर्थिक शुचिता की है।
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