शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मध्यप्रदेश सरकार अशासकीय विद्यालयों को कुछ अनुदान देती थी। कुछ प्रबन्ध समितियों की अनियमितताओं के चलते सरकार द्वारा दिए जाने वाले इस अनुदान को "वेतन संदाय अधिनियम 1978" में बदल दिया गया था। इस अधिनियम के तहत अनुदान प्राप्त सभी शिक्षकों को शासन की ओर से अनुदान की जगह 100 % वेतन दिया जाने लगा। इसलिए इस अधिनियम का नाम अनुदान न होकर वेतन संदाय कर दिया गया। अतः शासकीय शिक्षकों के समान इन शिक्षकों को भी सभी लाभ दिए जाने लगे। रिक्त पदों पर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्ती के लिए बाकायदा विज्ञापन दिए जाने लगे। शासकीय शिक्षा विभाग द्वारा आदेशित अधिकारियों या उनके द्वारा नियुक्त विषय विशेषज्ञों सहित अधिकृत चयन
कमेटियों द्वारा साक्षात्कार लेकर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्तियांँ हुईं। शिक्षा विभाग द्वारा उनके अनुमोदन हुए। तब भर्ती परीक्षाएँ नहीं होती थीं किन्तु यह सब विधि सम्मत था।
उक्त अधिनियम में पेंशन का प्रावधान नहीं था किन्तु इसके बदले में इन शिक्षकों को दो वर्ष की अतिरिक्त आवश्यक सेवा अवधि के लाभ का प्रावधान किया गया। यदि शासकीय शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 60 वर्ष की आयु में होती थी तो इन विद्यालयों के शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 62 वर्ष पूर्ण होने पर होती थी। इसके साथ ही हर विद्यालय की प्रबन्ध समिति शिक्षक की सहमति और उपयोगिता के आधार पर सरकार से प्रति वर्ष एक वर्ष की वृद्धि की स्वीकृति लेकर 65 वर्ष तक के लिए इनकी सेवाएँ बढ़ा सकती थी इस तरह सेवा की अधिकतम आयु 65 वर्ष तक थी।
शिक्षकों ने इसे राष्ट्रीय और शासकीय सेवा समझकर इस नौकरी को सहर्ष स्वीकार कर लिया था। सन् 2000 तक इन शिक्षकों को आने वाली हर सरकार भी पूरा वेतन व सुविधाएँ देती रही, शिक्षकों ने भी जी भर कर परिश्रम किया और अन्यों की तुलना में अच्छे से अच्छे परिणाम दिए। इस कारण इन विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या सीमा से अधिक ही रहा करती थी। एडमिशन के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। सरकारों ने इन शिक्षकों से भी जनगणना, मकान गणना, मतदाता सूची, चुनाव आदि राष्ट्रीय और राजकीय कार्यों हेतु ड्यूटी लगाकर खूब काम लिया।
दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! नेकी के परिणाम ही बदी में बदल गए। एक ही घटना ने मध्यप्रदेश की पूरी शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त कर दी। दिग्विजय सिंह की सरकार ने सन् 2000 में नया अध्यादेश लाकर फिर उसे विधानसभा में विधेयक के रूप में प्रस्तुत कर पारित करवा लिया। कानून बन गया जिसमें हिन्दुओं के विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में प्रति वर्ष 20% कटौती करते हुए पाँच वर्ष में पूरा वेतन खत्म कर देने की कार्यवाही कर दी वहीं अल्प संख्यकों द्वारा संचालित विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में कभी कोई कटौती नहीं की जाने का भी प्रावधान किया गया। इस अवसर पर माननीय कैलाश विजयवर्गीय जैसे विपक्ष के समर्थ कई विधायकों ने क्रोधित होकर विधेयक का विरोध करते हुए हंगामें के साथ विधानसभा में इस विधेयक की प्रतियाँ फाड़ीं थीं।
कानून पास होते ही न जाने कितने शिक्षकों ने नौकरियाँ छोड़ दीं। कई शिक्षकों की हृदय गति रुकने से मृत्यु हो गई। कइयों को अन्य अनेक कारणों से अल्पायु में ही मरना पड़ा। कई पागल हो गए।धन के अभाव में अवसादग्रस्त कई शिक्षकों के बच्चों की उच्च शिक्षा रुक गई, वे फिर कभी अपना समुचित विकास न कर पाए। कुछ के बेटे शराबी और अपराधी हो गए। एक ऐसी मानसिक अराजकता में छात्रों की शिक्षा में प्रगति रुक गई, उसी में राष्ट्र निर्माता शिक्षक उलझ गया। कइयों की बेटियों को क्या-क्या नहीं भुगतना पड़ा? शिक्षिकाओं की आँखें हमेशा के लिए गीली हो उठीं। तत्कालीन सत्ताधारी मन्त्रियों विधायकों में किसी को भी दया नहीं आई। तथाकथित सम्मान के धनी इन शिक्षकों के अपमान को जगह-जगह लेखक ने भी खूब अनुभूत किया है।
उस समय सत्ता ऐसे दुष्टों के हाथ में कैद हो गई थी, जिनमें नैतिकता और मानवता के लिए सुखकारी लकीरें ही नहीं थीं। उस शासन में बिजली की इतनी किल्लत थी कि किसान मजदूर शहरी ग्रामीण सभी दुखी हो गए। सड़कों की दुर्दशा, सभी दैनिक वेतनभोगियों की एक ही दिन में अकारण बर्खास्तगी, रोडवेज कर्मचारियों की नौकरी ख़त्म करने के आदेश आदि अनेक जनविरोधी निर्णयों को याद करते हैं तो उस समय की दुर्दशा पर रूह काँप उठती है। हाय रे क्रूरता की पराकाष्ठा राम!राम! अगर कुछ सुखी थे तो मात्र सत्ता से जुड़े हुए लोग। सत्ता के मद में चूर केवल यही लोग समझ रहे थे कि अभी तक के शासन कालों में जनता सबसे अधिक खुशहाल और प्रसन्न है।
ऐसे में बेचारे इन शिक्षकों के परिवारों ने तब हमेशा के लिए दृढ़ होकर संकल्प लिया था कि जिस दल की सरकार ने हमारे परिवारों को भूखों मारा है, उसे सत्ता में अब नहीं आने देंगे। ऐसा हुआ भी। इसीलिए इन शिक्षकों के परिवार आज तक काँग्रेस और विशेषकर दिग्विजय सिंह का बिल्कुल समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि अन्तरात्मा से श्राप दे चुके हैं। सभी शिक्षकों को तभी से उनसे एक घृणा सी हो गई है। शापित होने के कारण ही अब वह दल और दिग्विजय सिंह दोनों बुरी तरह अपना जनाधार खो चुके हैं। हाँ, पार्टी में सक्षम नेतृत्व के अभाव और अपने राजनीतिक छल-बल से वे राज्य सभा के लिए
चुन लिए जाते हैं किन्तु सत्य तो यह है कि उनकी पार्टी में मन से उन्हें कोई भी पसन्द नहीं करता। ऐसे नेता पर मध्य प्रदेश क्या समूचा देश गर्वित न हो कर अत्यधिक लज्जित होता है।
दूसरी सरकारें आईं उन्होंने भी चुनाव के समय झूठे आश्वासन दिए किन्तु किया कुछ नहीं। भला हो उस सुप्रीम कोर्ट का जिसने 2014 में वेतन संदाय अधिनियम 1978 को पुनर्जीवित कर दिया। तब जाकर कुछ न्याय मिल सका। 100% वेतन फिर मिलने लगा लेकिन सन् 2000 से 2014 तक क्या-क्या नहीं बीती इन शिक्षकों पर ईश्वर ही जानता है। इतने पर भी इन शिक्षकों को अभी पूरा लाभ नहीं मिला है।
वर्तमान सरकार ने भी अभी तक सातवाँ वेतनमान नहीं दिया क्रमोन्नति लाभ भी नहीं दिये। यहाँ तक कि सेवानिवृत्त शिक्षकों को आधिकारिक रूप से मिलने वाली ग्रेच्युटी तक नहीं दी पेंशन तो बहुत दूर की बात है। दो साल सेवा का लाभ भी नहीं दिया है। 2016 से सेवानिवृत्त शिक्षकों को कुछ भी नहीं मिला न सातवाँ वेतनमान न क्रमोन्नति,न ग्रेच्युटी, न पेंशन, न दो साल की सेवा का अतिरिक्त लाभ, न समयमान वेतनमान।
देश के दूसरे प्रान्तों में अनुदान प्राप्त शिक्षकों को उक्त सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। कितना अमानवीय व्यवहार हुआ है शिक्षकों के साथ , कल्पना से परे है।
सांसद विधायक आदि पाँच साल तक उच्च वेतन भत्ते व सेवा के बाद पेंशन प्राप्त करते हैं किन्तु 40 साल सेवा करने के बाद भी बेचारे इन शिक्षकों को कोई पेंशन क्यों नहीं मिलती? जब ग्रेच्युटी हर कर्मचारी का अधिकार है तो ग्रेच्युटी क्यों नहीं दे रही सरकार। सत्ता के मद में हमारे नेता क्यों नहीं समझते? समय बढ़ाने के लिए कोर्ट चले जाते हैं। समझ से परे है। गम्भीर विचार करना चाहिए। बुढ़ापा इनको भी सताता है। इनको भी बीमारी घेरती है। दवाइयों की जरूरत इनको भी है। वाह रे संवेदनशील सरकारी तन्त्र! न जाने कितने शिक्षक उचित न्याय अभाव में अपनी जान गँवा रहे हैं।
अब केवल न्यायालय का सहारा है उसमें भी सरकार तारीखों पर तारीखें बढ़वाती रहती है, समय पर न्याय भी नहीं मिलने देती। न्यायालय भी इन प्रकरणों पर ध्यान नहीं देते हैं। शिक्षक है। क्या करेगा? यह सोच कर काँग्रेस अब अपनी बहुत बड़ी भूल को सुधारने की बात कह रही है जबकि सत्ता में रहते मदमाते नेताओं को सोचना चाहिए था कि इस जगह हम होते तो क्या करते, लेकिन इन सभी की संवेदनशीलता मात्र घड़ियाली आंँसू सिद्ध होती रही है।
राष्ट्रनिर्माता कह देना और मानना दोनों बातों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। वर्तमान सरकार से भी पूरी तरह हताश ये शिक्षक घर के रहे न घाट के। इन शिक्षकों के परिवारों में यह भावना घर कर गई है कि सरकारें हमें कुछ नहीं देंगीं जो भी हक मिलेगा वह माननीय कोर्ट के द्वारा ही मिलेगा। अब ये सोच रहे हैं कि मध्यप्रदेश में एक बार फिर सामूहिक प्रण किया जाए। ये शिक्षक संख्या में भले ही कम हों किन्तु किसी एक जाति या किसी एक वर्ग के नहीं होने से इन शिक्षकों को विभिन्न समाजों में पसरे शिष्यों से गहरा सम्मान प्राप्त होता है। जी में आता है कि इस प्रकरण की हर पहलू और उसके परिणाम पर विचार करते हुए ईमानदारी से एक ऐसी पुस्तक लिखी जाए जो काल-पात्र की संज्ञा को प्राप्त हो।
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर
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