Wednesday, March 15, 2023

नाभी

 नाभी कुदरत की एक अद्भुत देन है !!

एक 62 वर्ष के बुजुर्ग को अचानक बांई आँख से कम दिखना शुरू हो गया। खासकर रात को नजर न के बराबर होने लगी। जाँच करने से यह निष्कर्ष निकला कि उनकी आँखे ठीक है परंतु बांई आँख की रक्त नलीयाँ सूख रही है। रिपोर्ट में यह सामने आया कि अब वो जीवन भर देख नहीं पायेंगे।.... मित्रो यह सम्भव नहीं है..
हमारा शरीर परमात्मा की अद्भुत देन है...गर्भ की उत्पत्ति नाभी के पीछे होती है और उसको माता के साथ जुडी हुई नाडी से पोषण मिलता है और इसलिए मृत्यु के तीन घंटे तक नाभी गर्म रहती है।
गर्भधारण के नौ महीनों अर्थात 270 दिन बाद एक सम्पूर्ण बाल स्वरूप बनता है। नाभी के द्वारा सभी नसों का जुडाव गर्भ के साथ होता है। इसलिए नाभी एक अद्भुत भाग है।
नाभी के पीछे की ओर पेचूटी या navel button होता है।जिसमें 72000 से भी अधिक रक्त धमनियां स्थित होती है
नाभी में गाय का शुध्द घी या तेल लगाने से बहुत सारी शारीरिक दुर्बलता का उपाय हो सकता है।
1. आँखों का शुष्क हो जाना, नजर कमजोर हो जाना, चमकदार त्वचा और बालों के लिये उपाय...
सोने से पहले 3 से 7 बूँदें शुध्द घी और नारियल के तेल नाभी में डालें और नाभी के आसपास डेढ ईंच गोलाई में फैला देवें।
2. घुटने के दर्द में उपाय
सोने से पहले तीन से सात बूंद अरंडी का तेल नाभी में डालें और उसके आसपास डेढ ईंच में फैला देवें।
3. शरीर में कमपन्न तथा जोड़ोँ में दर्द और शुष्क त्वचा के लिए उपाय :-
रात को सोने से पहले तीन से सात बूंद राई या सरसों कि तेल नाभी में डालें और उसके चारों ओर डेढ ईंच में फैला देवें।
4. मुँह और गाल पर होने वाले पिम्पल के लिए उपाय:-
नीम का तेल तीन से सात बूंद नाभी में उपरोक्त तरीके से डालें।
नाभी में तेल डालने का कारण
हमारी नाभी को मालूम रहता है कि हमारी कौनसी रक्तवाहिनी सूख रही है,इसलिए वो उसी धमनी में तेल का प्रवाह कर देती है।
जब बालक छोटा होता है और उसका पेट दुखता है तब हम हिंग और पानी या तैल का मिश्रण उसके पेट और नाभी के आसपास लगाते थे और उसका दर्द तुरंत गायब हो जाता था।बस यही काम है तेल का।

Sunday, March 5, 2023

शबरी माँ

"ओहो,ये जूस इतनी देर से रखा है! कहीं खराब ना हो गया हो।" पति के लिए जूस बनाया और

 जूस पीने से पहले ही पति की आंख लग गई थी। 

नींद टूटी,तब तक एक घंटा हो चुका था। 
पत्नी को लगा कि इतनी देर से रखा जूस कहीं खराब ना हो गया हो।
उसने पहले जरा सा जूस चखा और जब लगा कि स्वाद बिगड़ा नहीं है, तो पति दे दिया पीने को।

सवेरे जब बेटी के लिए टिफिन बनाया तो सब्जी चख कर देखी।
नमक, मसाला ठीक लगा तब खाना पैक कर दिया।
स्कूल से वापस आने पर बेटी को संतरा छील कर दिया। 
एक -एक परत खोल कर चैक करने के बाद कि कहीं कीड़े तो नहीं हैं!
सब देखभाल कर जब संतुष्टि हुई तो बेटी को एक एक करके संतरे की फान्के खाने के लिए दे दीं।

दही का रायता बनाते वक्त लगा कि कहीं दही खट्टा तो नहीं हुआ और चम्मच से मामूली दही ले कर चख लिया। 
"हां ,ठीक है ", जब यह तसल्ली हुई तब ही दही का रायता बनाया।

सासु माँ ने सुबह खीर खूब मन भर खाई और रात को फिर खाने मांगी तो झट से बहु ने सूंघी और चख ली कि 
कहीँ गर्मी में दिन भर की
 बनी खीर खट्टी ना हो गयी हो।
बेटे ने सेंडविच की फरमाईश की तो ककड़ी छील एक टुकड़ा खा कर देखा कि कहीं कड़वी तो नहीं है। ब्रेड को सूंघा और चखा 
की पुरानी तो नहीं दे दी दुकान वाले ने। संतुष्ट होने के बाद बेटे को गर्मागर्म सेंडविच बनाकर खिलाया। 
दूध, दही, सब्जी,फल आदि ऐसी कितनी ही चीजें होती हैं जो हम सभी को परोसने से पहले मामूली-सी चख लेते हैं। 
कभी कभी तो लगता है कि हर मां, हर बीवी, हरेक स्त्री अपने घर वालों के लिए शबरी की तरह ही तो है।
 जो जब तक खुद संतुष्ट नहीं हो जाती, किसी को खाने को नही देती। और यही कारण तो है कि हमारे घर वाले बेफिक्र होकर इस 
शबरी के चखे हुए खाने को खाकर स्वस्थ और सुरक्षित महसूस करते हैं। हमारे भारतीय परिवारों की हर स्त्री शबरी की तरह अपने 
परिवार का ख्याल रखती है और घर के लोग भी शबरी के इन झूठे बेरों को खा 
कर ही सुखी, सुरक्षित,स्वस्थ और संतुष्ट  रहते हैं। *हर उस महिला को समर्पित जो अपने परिवार के लिये "शबरी माँ" है


Saturday, March 4, 2023

चिट्ठियाँ

जिनमे लिखने के सलीके छुपे होते थे

कुशलता की कामना से शुरू होते थे
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थे!
और बीच में लिखी होती थी जिंदगी...
नन्हें के आने की खबर
मां की तबियत का दर्दं
और पैसे भेजने का अनुनय
फसलों के अच्छा या खराब होने की वजह!
कितना कुछ सिमट जाता था
एक नीले से कागज में....
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती
और अकेले में आंखों से आंसू बहाती!
मां की आस थी
पिता का संबल थी
बच्चों का भविष्य थी
और गांव का गौरव थी ये चिट्ठियाँ!
डाकिया चिट्ठी लाएगा
कोई बांच कर सुनाएगा
देख देख चिट्ठी को
कई कई बार छू कर चिट्टी को
अनपढ़ भी
एहसासों को पढ़ लेते थे!


अब तो स्क्रीन पर अंगूठा दौड़ता है
और अक्सर ही दिल तोड़ता हैं
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो
सब कुछ दो मिनिट में डिलीट होता है!
सब कुछ सिमट गया छै इंच में
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में
जज्बात सिमट गए मैसेजों में
चूल्हे सिमट गए गैसों में,
और इंसान सिमट गए पैसों में .....

दालान

 "80, 90 की मीठी यादें (बचपन Again)"

"दालान"
हम सबके घर में बाहर की तरफ एक बड़ा सा बारामदा या दालान हुआ करती थी। बचपन में देखा होगा कि हर घर की यह दालान गुलजार रहती थी और यहाँ पर बड़ी चहल-पहल रहती थी।
इस तरह की दालान में रात में सोने के लिए कई सारी चारपाई लगी रहती थी और छोटे-मोटे कार्यक्रम में 100-50 लोगों के बैठने खाने की व्यवस्था भी इसी में कर दी जाती थी। बस जाजिम या टाट बिछाया और पंगत लगना शुरू।
लेकिन धीरे-धीरे लोग गाँव से शिक्षा, नौकरी और व्यवसाय के लिए बाहर निकलते गये और अब लगभग अब हर घर की दालान सूनी पड़ी रहती है।



सौगंध को पीढ़ियों तक निभाना गाड़िया लुहारों से सीखे

मेवाड़ के महान योद्धा महाराणा प्रताप की सेना वर्ष १५७६ में हल्दीघाटी युद्ध में मुग़लो से पराजित हो गई।



मेवाड़ पर मुग़लो का शासन हो गया। मेवाड़ी सेना को हथियार बना कर देने वाले वफादारों ने ५ सौगंध ली कि जब तक महाराणा का शासन वापस नहीं आएगा हम
(१) मेवाड़ वापस नहीं जायेंगे।
(२) कोई भी स्थाई निवास में नहीं रहेगा
(३) रात को दिया नहीं जलाएंगे
(४) गाड़ी में घर होगा
(५) कुए से पानी निकालने का रस्सा नहीं रखेंगे।
आज भी गाड़िया लुहार अपने परिवार व सामान के साथ गाड़ी में विचरण करते हुए पांचो कठिन सौगंधो को निभा रहे है।
भौतिक साधनो की होड़ व दुनिया के ऐशो आराम के साधन इनको अब तक विचलित नहीं कर पाये है। आज भी कड़ी तपस्या व मेहनत करते हुए लोहे को कूट कर खेती व घर का सामान बनाकर अपना जीवन यापन कर रहे है।

नृत्य रूप में भगवान शिव नटराजा

 नृत्य रूप में भगवान शिव नटराजा (The God of Dance), 6th Century Badami rock-cut गुफा मंदिर, कर्नाटक, भारत (भारत)



बादामी गुफा नं. 1 तांडव नृत्य शिव को नटराज के रूप में प्रवेश द्वार के दायीं ओर पत्थर के मुख पर चित्रित करता है। 5 फुट (1.5 मीटर) लंबा छवि, एक रूप में 18 हथियार हैं जो एक ज्यामितीय पैटर्न में आयोजित नृत्य की स्थिति को व्यक्त करता है, जो एलिस बोनर - एक स्विस कला इतिहासकार और भारत वैज्ञानिक, राज्यों का एक समय विभाजन है जो ब्रह्मांड पहिये का प्रतीक है। अठारह हथियार नाटय मुद्रा (प्रतीकात्मक हाथ के हावभाव) को व्यक्त करते हैं, जैसे कि ड्रम, एक लौ टॉर्च, एक सांप, एक त्रिशूल और एक कुल्हाड़ी जैसी कुछ वस्तुओं के साथ। शिव के पुत्र गणेश और बैल नंदी साथ है। नटराजा से लगी दीवार शक्तिवाद परंपरा की देवी दुर्गा को भैंस-देमन महिषासुर का वध करते हुए दर्शाती है।
बादामी गुफा मंदिर हिंदू और जैन गुफा मंदिरों का एक परिसर है जो बादामी में स्थित है जो कर्नाटक, भारत के उत्तरी भाग में स्थित है। गुफाओं को भारतीय रॉक-कट वास्तुकला, विशेष रूप से बादामी चालुक्य वास्तुकला का एक उदाहरण माना जाता है, जो 6 वीं शताब्दी से है। बादामी को पहले वाटपी बादामी के रूप में जाना जाता था, जो चालुक्य राजवंश की राजधानी है, जिसने 6 वीं से 8 वीं शताब्दी तक कर्नाटक में अधिकांश शासन किया था। बादामी मानव निर्मित झील के पश्चिम तट पर स्थित है जो पत्थर के कदमों से मिट्टी की दीवार से घिरा हुआ है; यह उत्तर और दक्षिण में बाद में बने किले से घिरा हुआ है।
बादामी गुफा मंदिर दक्कन क्षेत्र में हिन्दू मंदिरों के कुछ शुरुआती ज्ञात उदाहरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐहोल में मंदिरों के साथ उन्होंने मालाप्रभा नदी घाटी को मंदिर वास्तुकला के पालने में बदल दिया जिसने बाद में हिन्दू मंदिरों के घटकों को भारत में कहीं और प्रभावित किया।
मुकुल बनर्जी

कच्चे घर

 पुराने कच्चे घरों की बात ही अलग थी और है ऊहान ,ओबरी,बोहडी, परली बोहडी सब एक दरवाजे के साथ जुड़े होते थे सभी कमरों को 15 दिन के बाद नया फर्श मिलता था क्योंकि सब कच्चे फर्श होते थे तो घर की औरतें उनको गोहे मे सैल्ला रंग पाई के फिर से नया रूप देती थी ताकि सब साफ सुधरा दिखे एक अलग ही ख़ुश्बूब महक उठती थी पूरे घर का वातावरण साफ सुधरा हो जाता था सब नया नया लगता था I



बोहडी रोज दोपहर के खाने के बाद चुले को गोलमे से फिर से चमका देती थी रात को चुले में घोटु आग में दबा देती थी ताकि सुबह आग जलाने के लिए माचिस की जरूरत ही नही पड़ती थी परली बोहडी चल्ला होता था जहाँ कच्चे घड़े में पीने का पानी होता था जिसे बायीं से रोज ताजा ले के आते थे बर्तन दोहने का पानी अलग रखा होता था सभी के कमरे में पीतल की लोडकी में पानी रखा होता था पीने के लिए कच्चे आँगन होते थे हर बरसात के बाद नया आँगन बनता था मिट्टी से मिट्टी को नया रूप दे कर आँगन तैयार किया जाता था पुरा परिवार साथ मे मिलकर आपने काम मे मस्त रहते थे बच्चों के खेल के साथ साथ घरवालों का काम आसान हो जाता था बच्चों को भी पता नही चलता था कि घर वाले उनसे काम करवा रहे है क्योंकि बच्चे गिल्ली मिट्टी में मस्त हो के खेलते रहते थे I
वो कच्चे घर बहुत संदेश देते है जिन्हें हम समझ ही नही पाए बस चमक के चक्कर मे भुल गए क्यों पहले इतनी बीमारियों के नाम ही नही होने दिए थे ना ही बीमार होते थे कुछ तो था जो हम सोच ही नही पाए I
बेशक दिखावे के लिए आज हवेलियां डाल ली हो पर सकून पुराने घरों में ही था और है...

Wednesday, March 1, 2023

पारले जी

 अधिकम पारले जी: 25 से अधिक वर्षों से उनकी कीमत में कोई बदलाव नहीं हुआ है! 1994 से ₹ ​​4/- का पैकेट। यह आज भी मजबूती से कायम है।

कभी सोचा है ये कैसे मुमकिन है? कई परिचालन अनुकूलन, पैकेजिंग, ग्राहकों को कोई बड़ा झटका नहीं, पारले ने इसे संभव बनाने के लिए एक अविश्वसनीय मनोवैज्ञानिक रणनीति लागू की।
साल 1994 में पारले जी के एक छोटे पैकेट की कीमत ₹4 थी और 2021 तक यही रही, अब इसमें ₹1 की बढ़ोतरी की गई है। आज की तारीख में एक छोटे पैकेट की कीमत ₹5 है।


अब, जब मैं 'छोटा पैकेट' कहता हूँ तो आपके दिमाग में क्या आता है? एक पैकेट जो आपके हाथ में बड़े करीने से फिट बैठता है जिसमें मुट्ठी भर बिस्कुट हैं? खड़ी धारियां और रंगीन पैकेट हैं।
हम में से ज्यादातर लोगों ने इसे इसी तरह देखा है और पारले इसे अच्छी तरह जानता है।
पारले सिर्फ एक बिस्किट नहीं है, इसके साथ भावनाएं और विश्वास जुड़ा हुआ है। इसकी कीमतें बढ़ाने के बजाय, वे समय के साथ इसके आकार को कम करना जारी रखते हैं, छोटे पैकेटों के लिए मनोवैज्ञानिक जगह बनाए रखते हैं।
यह 1994 में ₹4/- प्रति 100 ग्राम था। कुछ साल बाद उन्होंने इसे 92.5 ग्राम और फिर 88 ग्राम कर दिया, और आज, 5 रुपये के एक छोटे पैकेट का वजन 55 ग्राम होता है, जो कि पहले की तुलना में 45% कम है। बिस्किट की पैकेजिंग का नजारा भी कमाल का है।
बिस्किट के पैकेट पर खड़ी धारियां आपको तुरंत पैकेट के सिकुड़ते आकार का अंदाजा नहीं देंगी। एक अद्भुत ऑप्टिकल भ्रम पैदा होता है।
आलू वेफर्स, चॉकलेट बार, टूथपेस्ट आदि बनाने वाली कंपनियां भी यही रणनीति अपनाती हैं। इस तकनीक को ग्रेसफुल डिग्रेडेशन कहा जाता है, जहां कुछ अवांछित (वजन / आकार में कमी) नियमित अंतराल पर होता है, भले ही ग्राहक को इसके परिणाम महसूस न हों।
डिजिटल ट्रांजैक्शन में भी ऐसा ही होता है। याद रखें, कैसे हम सभी को Google Pay, PayTM स्क्रैच कार्ड के साथ भारी कैश-बैक मिलता था, लेकिन समय के साथ यह कम होता गया। अब कैश-बैक नगण्य है। यह भी एक मार्केटिंग रणनीति है।
फर्क सिर्फ इतना है कि इसे कितनी प्रभावी तरीके से लागू किया जाता है?
"संपीड़न मुद्रास्फीति" कहना गलत नहीं है।
पार्ले वास्तव में ऐसा करने में प्रतिभाशाली है और इसलिए आज, पार्ले-जी वास्तव में भारत में और भारत के बाहर कई देशों में सबसे अच्छा बिस्किट है।
नोट: वर्तमान में Parle G के छोटे पैक को घटाकर 50 ग्राम कर दिया गया है।
सुने गए व्याख्यान के आधार पर लिखा गया है।

गुड़

 गुड़ सिर्फ एक मीठी वस्तु नहीं बल्कि इसमेँ कई औषधीय गुण भी मौजूद हैं जिनसे हम अनजान हैं

पुराने जमाने में गुड़ की अहमियत किसी औषधि से कम नहीं मानी जाती थी। बुजुर्ग अक्सर खाने के बाद गुड़ खाया करते थे। इससे मुंह का स्वाद तो मीठा होता ही है मगर साथ ही साथ यह सेहत के लिए भी खूब फायदेमंद होता है। क्या आप जानते हैं गुड़ में मोटापे से लेकर जोड़ों का दर्द ठीक करने तक का रहस्य छुपा है। इसमें ऐसे कई गुण हैं जो हमें स्वस्थ रहने में मददगार हैं। रोजाना गुड़ खाने से अच्छी सेहत भी बरकरार रहती है।
#आइये जानते हैं गुड़ के और फायदों के बारे में#
# जोड़ो का दर्द आजकल आम समस्या है लेकिन गुड़ खाने से आपको इस दर्द में राहत महसूस हो सकती है । जोड़ों के दर्द के लिए अदरक को पीसाकर, उसमे थोड़ा गुड़ मिला लें फिर इस मिश्रण का सेवन करे।
# आमतौर पर कपल्स सेक्स के तुरंत बाद पानी पीते हैं। लेकिन आप सेक्स करने के बाद मिश्री या गुड़ का सेवन करेंगे तो लाभदायक होगा । ऐसा करने से आपको कमजोरी का आभास नहीं होता।
# पीरियड्स के दौरान महिलाओं को पेट दर्द रहती है। मासिक धर्म की तकलीफ से बचने का सबसे अच्छा उपाय है गुड़। गुड़ खाने से पेट दर्द में राहत मिलती है।
# गुड़ में भरपूर मात्रा में मैग्नेशियम पाया जाता है। 10 ग्रामगुड़ खाने से आपके शरीर को लगभग 16 ग्राम मैग्नेशियम मिलता है। मैग्नेशियम शरीर में स्फूर्ति बनाए रखता है, जिस वजह से आप फ्रेश फील करते हैं।
# गुड़ की चाय पीने से वजन तेजी से कम होता है। पहले पानी गर्म करें,उसके बाद गुड़ डालें। फिर चायपत्ती डालें। कुछ देर उबलने दें। उसके बाद थोड़ा दूध डालें और चाय बनाते समय उसमें अदरक या इलायची पाउडर भी मिलाएं। आपकी चाय तैयार है। बेहतर परिणाम के लिए रोजाना ऐसी चाय पिएं। आपको फायदा नजर आएगा।
# सर्दी-ज़ुकाम के लिए भी गुड़ एक प्राकृतिक औषधि के समान है। ज़ुकाम होने पर गुन-गुने पानी में गुड़ डालकर पी लें। ऐसा करने से शरीर की जकड़न तो कम होगी ही और साथ-साथ सर्दी भी ठीक हो जाएगी।
# अनीमिया के रोगियों के लिए गुड़ बेहद लाभकारी है। इसमें भरपूर मात्रा में आयरन पाया जाता है। यह खून को शुद्ध करने में भी मदद करता है। गुड़ खाने से शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी दूर होती है।


Tuesday, February 28, 2023

आजादी

मैं तुम्हारी माँ के बंधन मे और नहीं रह सकती, मुझे अलग घर चाहिए जहाँ मैं खुल के साँस ले सकूँ। पलक रवि को देखते ही ज़ोर से चिल्ला उठी।

बात बस इतनी थी कि सुलभा जी ने रवि और पलक को पार्टी मे जाता देख कर इतना भर कहा था कि वो रात दस बजे तक घर वापस आ जाए। बस पलक ने इसी बात को तूल दे दिया और दो दिन बाद ही उसने किरण के घर किटी मे उसे मकान ढूंढने की बात भी कह दी।
मुझे मम्मी जी की गुलामी मे रहना पसंद नहीं है ।
पलक, तुम्हारी तरह एक दिन मैं भी यही सोच कर अपनी सास से अलग हो गई थी। किटी ख़तम होते ही किरण पलक से मुख़ातिब थी।
तभी तो आप आज़ाद हो। पलक ने चहक कर कहा तो किरण का स्वर उदासी से भर गया, किरण पलक से दस वर्ष बड़ी थी।
नहीं,बल्कि तभी से मैं गुलाम हो गई, जिसको मैं गुलामी समझ रही थी वास्तव मे आज़ादी तो वही थी।
वो कैसे,
पलक.. जब मैं ससुराल मे थी दरवाज़े पर कौन आया, मुझे मतलब नहीं था क्योंकि मैं वहाँ की बहू थी। घर मे क्या चीज़ है क्या नहीं इससे भी मैं आज़ाद थी, दोनों बच्चे दादा-दादी से हिले थे। मुझे कहीं आने-जाने पर पाबंदी नहीं थी, पर कुछ नियमों के साथ, जो सही भी थे, पर जवानी के जोश मे मैं अपने आगे कोई सीमा रेखा नहीं चाहती थी। मुझे ये भी नहीं पसंद था कि मेरा पति आफिस से आकर सीधा पहले माँ के पास जाए।
तो!! फिर पलक की उत्सुकता बढ़ गई।
मैंने दिनेश को हर तरह से मना कर अलग घर ले लिया और फिर मैं दरवाज़े की घंटीं, महरी, बच्चों, धोबी, दिनेश सबके वक्त की गुलाम हो गई।
अपनी मरज़ी से मेरे आने-जाने पर भी रोक लग गई क्योंकि कभी बच्चों का होमवर्क कराना है, तो कभी उनकी तबीयत खराब है। हर जगह बच्चों को ले नहीं जा सकते। अकेले भी नहीं छोड़ सकते। तो मजबूरन पार्टियां भी छोड़नी पड़ती जबकि ससुराल मे रहने पर ये सब बंदिश नहीं थीं।
ऊपर से मकान का किराया और फालतू के खर्चे अलग, फिर दिनेश भी अब उतने खुश नहीं रहते।किरण की आँखें नम हो उठीं।
फिर आप वापस क्यों नहीं चली गयीं,
किस मुँह से वापस लौटती,
इन्होंने एक बार मम्मी से कहा भी था, पर पापा ने ये कह कर साफ़ मना कर दिया कि, एक बार हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला है अब दूसरा झटका खाने की हिम्मत नहीं है, बेहतर है अब तुम वहीं रहो।
ओह!
पलक घर से बाहर क़दम रखना बहुत आसान है पर जब तक आप माँ-बाप के आश्रय मे रहते हैं आपको बाहर के थपेड़ों का तनिक भी अहसास नहीं होता, माँ-बाप के साथ बंदिश से ज़्यादा आज़ादी होती है पर हमें वो पसंद नहीं होती। एक बार बाहर निकलने के बाद आपको पता चलता है कि आज़ादी के नाम पर ख़ुद अपने पाँव मे जंज़ीरें डाल लीं। बड़ी होने के नाते तुमसे यही कहूंगी सोच-समझ कर ही ये क़दम उठाना।
मन ही मन ये गणित दोहराते हुए पलक एक क्षण मे निर्णय ले चुकी थी-उसे किरण जैसी गुलामी नहीं चाहिए। घर की ओर चलते बढ़ते कदमों के साथ साथ ही वो मन ही मन बुदबुदा रही थी, की घर पहुंचते ही सासू मां के पैर छूकर क्षमा मांग लूंगी और सदा उनके साथ ही रहूँगी।
मां बाप को साथ नही रखा जाता, मां बाप के साथ रहना होता है...

Monday, February 27, 2023

मृत्युभोज_के_विरोध पर बहुत लिखा जा रहा है आजकल..

पर मेरा मत जरा अलग है.. मृत्युभोज कुरीति नहीं है. समाज और रिश्तों को सँगठित करने के अवसर की पवित्र परम्परा है, हमारे पूर्वज हमसे ज्यादा ज्ञानी थे ! आज मृत्युभोज का विरोध है, कल विवाह भोज का भी विरोध होगा.. हर उस सनातन परंपरा का विरोध होगा जिससे रिश्ते और समाज मजबूत होता है.. इसका विरोध करने वाले ज्ञानियों हमारे बाप दादाओ ने रिश्तों को जिंदा रखने के लिए ये परम्पराएं बनाई हैं!..., ये सब बंद हो गए तो रिश्तेदारों, सगे समबंधियों, शुभचिंतकों को एक जगह एकत्रित कर मेल जोल का दूसरा माध्यम क्या है,.. दुख की घड़ी मे भी रिश्तों को कैसे प्रगाढ़ किया जाय ये हमारे पूर्वज अच्छे से जानते थे.. हमारे बाप दादा बहुत समझदार थे, वो ऐसे आयोजन रिश्तों को सहेजने और जिंदा रखने के किए करते थे. हाँ ये सही है की कुछ लोगों ने मृत्युभोज को हेकड़ी और शान शौकत दिखाने का माध्यम बना लिया, आप पूड़ी सब्जी ही खिलाओ. कौन कहता है की 56 भोग परोसो.. कौन कहता है कि 4000-5000 लोगों को ही भोजन कराओ और दम्भ दिखाओ, मैं खुद दिखावे का विरोधी हूँ लेकिन अपनी उन परंपराओं की कट्टर समर्थक भी हूँ, जिनसे आपसी प्रेम, मेलजोल और भाईचारा बढ़ता हो. कुछ कुतर्कों की वजह से हमारे बाप दादाओं ने जो रिश्ते सहजने की परंपरा दी उसे मत छोड़ो, यही वो परम्पराएँ हैं जो दूर दूर के रिश्ते नाते को एक जगह लाकर फिर से समय समय पर जान डालते हैं . सुधारना हो तो लोगों को सुधारो जो आयोजन रिश्तों की बजाय हेकड़ी दिखाने के लिए करते हैं, किसी परंपरा की कुछ विधियां यदि समय सम्मत नही है तो उसका सुधार किया जाये ना की उस परंपरा को ही बंद कर दिया जाये. हमारे बाप दादा जो परम्पराएं देकर गए हैं रिश्ते सहेजने के लिए उसको बन्द करने का ज्ञान मत बाँटिये मित्रों, वरना तरस जाओगे मेल जोल को,,,,, बंद बिल्कुल मत करो, समय समय पर शुभचिंतकों ओर रिश्तेदारों को एक जगह एकत्रित होने की परम्परा जारी रखो. ये संजीवनी है रिश्ते नातों को जिन्दा करने की..

Friday, February 24, 2023

भालू भी सुनते हैं संत के भजन

 मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में घने जंगलों के बीच, कुटिया बनाकर रहने वाले एक साधु के पास उनके भजन की मधुर ध्वनि से आकर्षित होकर भालू आते हैं !! आसपास की जगह में चुपचाप बैठकर भजन सुनते हैं। ये सभी भालू भजन के दौरान खामोशी से साधु के आस-पास बैठ जाते हैं और भजन पूरा होने पर प्रसाद लेने के बाद वापस चले जाते हैं।



मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा में जैतपुर वन परिक्षेत्र के अंतर्गत खड़ाखोह के जंगल में सोन नदी के समीप राजमाड़ा में सीताराम साधु 2003 से कुटिया बनाकर रह रहे हैं। साधु ने बताया कि जंगल में कुटिया बनाने के बाद उन्होंने वहां प्रतिदिन रामधुन के साथ ही पूजा पाठ शुरू की।
एक दिन जब वह भजन में लीन थे तभी उन्होंने देखा कि दो भालू उनके समीप आकर बैठे हुए हैं और खामोशी से भजन सुन रहे हैं। साधु ने बताया कि यह देखकर वह सहम गये लेकिन उन्होंने जब देखा कि भालू खामोशी से बैठे हैं और किसी तरह की हरकत नहीं कर रहे हैं तो उन्होंने उक्त भालूओं को भजन के बाद प्रसाद दिया। प्रसाद लेने के कुछ देर बाद भालू वापस जंगल में चले गये।
सीताराम ने बताया कि बस उस दिन से भजन के दौरान भालुओं के आने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो वह आज तक जारी है। उन्होंने बताया कि भालुओं ने आज तक उन्हें किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है। इतना ही नहीं जब भी भालू आते हैं तो कुटिया के बाहर परिसर में ही बैठे रहते हैं और कभी भालुओं ने कुटिया के अंदर प्रवेश नहीं किया।
उन्होंने बताया कि फिलहाल इस वक्त एक नर और मादा भालू के साथ उनके दो शावक भी आ रहे हैं। सीताराम ने बताया कि भालुओं से उनका अपनापन इस तरह का हो गया है कि उन्होंने उनका नामकरण भी कर दिया है। उन्होंने बताया कि नर भालू को ‘लाला’ और मादा को ‘लल्ली’ के साथ ही शावकों को ‘चुन्नू’ और ‘मुन्नू’ का नाम दिया है।
वनविभाग के रेंजर ने भालुओं के वहां आने की पुष्टि करते हुए कहा कि सीताराम जी के भजन गाने के दौरान कुछ भालू उनके आस पास जमा हो जाते हैं और अब तक भालुओं ने किसी को नुकसान भी नहीं पहुंचाया है।

Thursday, February 23, 2023

विरासत

हल खींचते समय यदि कोई बैल गोबर या मूत्र करने की स्थिति में होता था तो किसान कुछ देर के लिए हल चलाना बन्द करके बैल के मल-मूत्र त्यागने तक खड़ा रहता था ताकि बैल आराम से यह नित्यकर्म कर सके, यह आम चलन था।
जीवों के प्रति यह गहरी संवेदना उन महान पुरखों में जन्मजात होती थी जिन्हें आजकल हम अशिक्षित कहते हैं, यह सब अभी 25-30 वर्ष पूर्व तक होता रहा ।
उस जमाने का देशी घी यदि आजकल के हिसाब से मूल्य लगाएं तो इतना शुद्ध होता था कि 2 हजार रुपये किलो तक बिक सकता है।


और उस देसी घी को किसान विशेष कार्य के दिनों में हर दो दिन बाद आधा-आधा किलो घी अपने बैलों को पिलाता था ।
टटीरी नामक पक्षी अपने अंडे खुले खेत की मिट्टी पर देती है और उनको सेती है।
हल चलाते समय यदि सामने कहीं कोई टटीरी चिल्लाती मिलती थी तो किसान इशारा समझ जाता था और उस अंडे वाली जगह को बिना हल जोते खाली छोड़ देता था । उस जमाने में आधुनिक शिक्षा नहीं थी ।
सब आस्तिक थे। दोपहर को किसान जब आराम करने का समय होता तो सबसे पहले बैलों को पानी पिलाकर चारा डालता और फिर खुद भोजन करता था । यह एक सामान्य नियम था ।
बैल जब बूढ़ा हो जाता था तो उसे कसाइयों को बेचना शर्मनाक सामाजिक अपराध की श्रेणी में आता था।
बूढा बैल कई सालों तक खाली बैठा चारा खाता रहता था, मरने तक उसकी सेवा होती थी।
उस जमाने के तथाकथित अशिक्षित किसान का मानवीय तर्क था कि इतने सालों तक इसकी माँ का दूध पिया और इसकी कमाई खाई है,अब बुढापे में इसे कैसे छोड़ दें,कैसे कसाइयों को दे दें काट खाने के लिए ??
जब बैल मर जाता तो किसान फफक-फफक कर रोता था और उन भरी दुपहरियों को याद करता था जब उसका यह वफादार मित्र हर कष्ट में उसके साथ होता था।
माता-पिता को रोता देख किसान के बच्चे भी अपने बुड्ढे बैल की मौत पर रोने लगते थे।
पूरा जीवन काल तक बैल अपने स्वामी किसान की मूक भाषा को समझता था कि वह क्या कहना चाह रहा है ।
वह पुराना भारत इतना शिक्षित और धनाढ्य था कि अपने जीवन व्यवहार में ही जीवन रस खोज लेता था,वह करोड़ों वर्ष पुरानी संस्कृति वाला वैभवशाली भारत था..!
वह सचमुच अतुल्य भारत था।।