Tuesday, April 22, 2025

बुद्धिमानी

गाँव का नाम था ठगपुरा। गाँव का बच्चा-बच्चा जैसे माँ के पेट से ठगी सीख कर आया था । ठगी के काम से गाँव का कोई भी इन्सान खुद को बचा ना सका था। उसी गाँव में नन्दू के चाचा भी रहते थे। ठगपुरा में रहने कारण नन्दू के चाचा भी इस ठगी की संज्ञा से बच न सके थे। ठगी के बेमिसाल ज्ञाताओं में उनकी गिनती होती थी।

इसी कारण उन्हें गाँव वालों ने चाचा ठग का नाम दे दिया था। मगर सब उन्हें सिर्फ चाचा ही कहते थे। नन्दू आज पहली बार अपने चाचा के गाँव आया था, इसी कारण वह गाँव के लोगों के स्वभाव से परिचित न था।

शाम को चाचा ने उससे पूछा-“बेटा! तुम यहाँ कितने दिन रहने आये हो?”

अपने चाचा के इस प्रश्न पर नन्दू हड़बड़ा गया। वह बोला- “बस चाचा, तीन-चार दिन, फिर मुझे मामी के यहाँ जाना है।”

“ठीक है बेटे!” कहकर चाचा अपने काम में लग गये । मगर नन्दू की समझ में यह ना आया कि उसके चाचा ने उससे ऐसा प्रश्न क्यों किया था, इस बारे में वह काफी देर तक सोचता रहा, मगर उसकी समझ में ना आया। आखिरकार वह सो गया।

अगले दिन उसके चाचा ने कहा-बेटे मैं खेत पर जा रहा हूँ, मगर जाने से पहले एक बात बता देना उचित समझता हूँ। देखो बेटा, समय बहुत खराब है। वैसे भी यह गाँव बदनाम है और गाँव वाले भी कुछ ऐसे ही हैं। बाहर से आने वाले को यहाँ खास सावधानी बरतनी पड़ती है । अतः घर से ज्यादा दूर मत जाना।” कहकर चाचा खेत पर चले गये।

दोपहर के समय नन्दू ने सोचा कि क्यों ना गाँव की रौनक ही देख ली जाए। यह सोचकर वह घर से बाहर निकल गया। अभी वह कुछ दूर चला ही था कि अचानक उसके पास एक आदमी आया। नन्दू ने देखा कि वह एक आंख

से काना था। नन्दू के पास आते ही वह बोला।

“काहे भैया! का हाल है। मेरा नाम अच्छन है, तुम राघव हो ना ?”

“नहीं, मेरा नाम नन्दू है।” नन्दू ने कहा।

“ओहो” वह व्यक्ति अंगड़ाई तोड़ बोला-“अच्छा-अच्छा! नाम में कुछ गलती हो गयी। वैसे मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। तुम्हारे दादा से मेरे बड़े अच्छे सम्बन्ध थे। अच्छी बैठक रहती थी, हुक्का पानी रहता और भी साथ था वे मेरे मेरहबानों में से… ।”

नन्दू ने उसकी बात काटकर कहा-“उन्हें तो गुजरे हुए भी वर्षो हो गये। आपकी उम्र तो अभी बहुत कम है। इसीलिए आप उनके साथियों में से मालूम नहीं पड़ते।”

“ओह यह बात नहीं है बेटे! असल में मैं अपनी देखरेख बहुत ज्यादा रखता हूं। इसलिए मेरी उम्र का एहसास नहीं होता। खैर छोड़ो ! अब काम की बात पर आ जाओ।” वह व्यक्ति बोला।

“काम की बात? कौनसे काम की बात?” नन्दू ने हैरानी से उस व्यक्ति को घूरा। “मैं बताता हूँ बेटे! जरा कान खोल कर सुनो!” वह व्यक्ति बहुत ही प्यार से बोला-“वैसे तो तुम खुद ही देख रहे हो मेरी एक आँख नहीं है, जानते हो इसका क्या कारण है?”

“ना तो मैं जानता हू और ना जानना चाहता ।” नन्दू बिना वजह गले पड़ी इस मुसीबत से पीछा छुड़ाना चाह रहा था। अत: इतना कहकर जैसे ही वह आगे बढ़ा, उस व्यक्ति ने उसका हाथ थाम लिया और बोला-

“सुनो बेटे! पहले मेरी सुनो! जानते हो मेरी एक आंख क्यों है, क्योंकि दूसरी आख तुम्हारे दादा पास गिरवी रखी है। उन्होंने वायदा किया था तुम उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी से भी ले लेना। संयोग से आज उनके पोते यानि तुमसे भेट हो गई। इसलिए लाओ, दे दो मेरी आँख” वह बहुत ही मीठे स्वर में बात कर रहा था।

यह सुनकर नन्दू घबरा गया- “यह तो अजीब मुसीबत है। उसने सोचा।”

नन्दू की खामोशी देखकर वह व्यक्ति गरमी अख्तियार करने लगा। बात बढ़ने लगी तो नन्दू को एक उपाय सूझा। वह उस व्यक्ति से बोला-“ठीक है। भाई! यदि तुम्हारी आँख हमारे यहाँ गिरवी रखी है तो तुम घर चलो। चाचा के पास रखी तो है, मगर वे मुझे हाथ नहीं लगाने देंगे। तुम्हीं चलकर ले लो।”

यह सुनकर अच्छन नामक वह व्यक्ति नन्दू के साथ चाचा के घर की ओर रवाना हो गया।

घर पहुंचकर उसने पाया कि चाचा उसी का इन्तजार कर रहे हैं, उसने जल्दी-जल्दी चाचा को सारी बातें बताईं। हालांकि चाचा उसके साथ अच्छन को देखते ही समझ गये थे कि मामला गड़बड़ है, फिर भी नन्दू से सारी बात सुनने के बाद उन्होंने अन्जान बनकर अच्छन से पूछा- “कहो भाई अच्छन! कैसे आना हुआ?”

“जी कुछ ऐसी वैसी बात नहीं है, वैसे आप तो जानते ही होंगे कि इनके दादा, यानि आपके पिताजी बड़े सज्जन पुरुष थे। सारे गाँव की देखभाल रखते थे और आड़े टैम मै सबकी मदद भी करते थे ।” अच्छन ने कहा।

“जी! वह तो ठीक है, मगर यह तो बताइये कि आज आपको हमारे पिताजी की याद कैसे आ गई?” चाचा ने मुस्कुराकर पूछा।

“अब काहै बताऊँ चाचा । याद तो बहुत दिनों से आ रही थी मगर अब तक दिल में ही छुपा रखी थी।” अच्छन अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगा बैठा। मजबूरी वश चाचा को भी उसकी हंसी में हिस्सा लेना पड़ा।

“असल में चाचा बात ये है कि एक बार गाँव में बड़ी भयंकर बीमारी फैल गई थी, तो मैंने अपने बीवी-बच्चों और जमीन को बचाने के लिए आपके पिताजी के पास अपनी एक आँख गिरवी रख दी थी। अब यह रही उधार ली गई रकम और अब मैं नन्दू से अपनी आँख वापस मांग रहा हूं। यह इस बात के फैसले के लिए मुझे आपके पास ले आया ।”

तब चाचा ने अच्छन को समझा बुझाकर एक दिन की मोहलत ले ली।

अच्छन के जाने के बाद चाचा ने नन्दू से कहा-देखा! हो गया ना लफड़ा, इसीलिए तो मैं तुमसे पूछ रहा था कि कितने दिन रहोगे ।”

नन्दू चुप रहा। फिर चाचा पास के बूचड़खाने की ओर रवाना हुए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कुछ भेड़ बकरियों की आँखें खरीदीं और वापस लौट आए। वापस आकर उन्होंने नन्दू को कुछ समझाया और दोनों सो गये।

अगले दिन अच्छन मियां चाचा के यहाँ पहुँचे। उन्होंने देखा कि चाचा घर पर नहीं हैं, उन्होंने नन्दू पर अपनी हेकड़ी जमानी शुरू कर दी । बोले- “देखो नन्दू भाई, जल्दी से मुझे मेरी आँख ला दो।” वह जानता था कि नन्दू के पास आँख होगी ही नहीं तो वह देगा कहां से?”

मगर नन्दू ने उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया। वह तेजी से अन्दर गया और चाचा की योजना के तहत वह अन्दर से एक बकरी की आँख ले आया।

और अच्छन से बोला-“लो भाईतुम्हारी आँख”

अच्छन ने चौंक कर नन्दू की हथेली पर रखी आँख को देखा फिर उसे अपने हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह मन ही मन परेशान भी हो रहा था, मगर आखिरकार ठगपुरा की इज्जत का प्रश्न था। उलट-पुलट कर देखने के बाद अच्छन ने मुंह बनाकर कहा।

यह तो बड़ी है, यह मेरी आँख नहीं है।” वह समझ रहा था कि नन्दू के पास वही एक आँख होगी।

मगर ऐसा तो था ही नहीं। नन्दू वापस अन्दर गया और दूसरी आँख ले आया और बोला- “तब यह वाली होगी?”

दूसरी आँख देखते ही अच्छन के होश-मन्तर होने को तैयार हो गये।

मगर जल्दी ही उसने खुद को सम्भाल लिया और बोला-“नहीं, यह भी मेरी आँख नहीं है

तब नन्दू ने योजनाबद्ध तरीके से एक-दो बार और आँखें दिखाईं, मगर जब अच्छन ने उन्हें अपनी आंखें ना बताई तो नन्दू झुझलाकर वह टोकरी जिसमें आंखें रखी थीं, उठा लाया और अच्छन के सामने पटक कर बोला-“इसमें से छाँट ले अपनी । तुम्हारे जैसे बहुत से गरीबों ने दादाजी के पास अपनी आँखें गिरवी रख दी थीं।”

यह सुन और देखकर अच्छन ने झेप उतारने के लिए सभी आँखों से अपनी आँख ढूंढ़ने का नाटक किया फिर कुछ देर बाद गुस्से में भरते हुए बोला-“यह क्या मजाक है?”

“क्यों, क्या हुआ?” नन्दू ने जल्दी से पूछा।

“देखो चुपचाप, शराफत से मुझे मेरी आँख वापस लौटा दो… ” वह आग-बबूला होने का भरसक प्रयास करते हुए बोला।

क्यों इसमें तुम्हारी आँख नहीं है क्या?” नन्दू ने उसकी बात काट कर पूछा।

“लड़के मुझे ज्यादा बकवास पसन्द नहीं है, शराफत से मेरी आंख दो वरना.दुगुनी रकम वसूल लुगा।” उसने नन्दू के आगे टोकने से पहले ही जल्दी-जल्दी सब कुछ कह डाला।

यह गरमा-गरमी सुनकर अन्दर खामोश बैठे, नन्दू से यह सब नाटक करवा रहे चाचा फुर्ती से बाहर आए -“बोले

अच्छन भाई! इस तरह तो तुम्हारी आँख मिलने से रही। ऐसा करो तुम अपनी आँख नन्दू को दे जाओ, ताकि कल वह तुम्हारी दूसरी आंख से मिलाकर वैसी ही आँख तलाश दे।”

“क्या?” अच्छन का मुंह खुला का खुला रह गया।

“अगर कहो तो मैं निकाल दें अच्छन भाई?” चाचा ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा।

इतना सुनते ही अच्छन मियाँ वहाँ से इस तरह भागे जैसे उनके पीछे यमदूत पड़े हों।

अच्छन मियाँ को इस तरह भागते देख चाचा-भतीजे खिल-खिलाकर हंस पड़े। इस तरह चाचा ने नन्दू की जान बचा कर बुद्धिमत्ता की नई मिसाल कायम कर दी।

मित्रों“ अवसर पड़ने पर जो युक्ति काम कर जाये, वही बुद्धिमत्ता कहलाती है, बुद्धिमान कभी मात नहीं खाता, अतः हमें बुद्धिमान बनने के लिए सतत् प्रयास करते रहना चाहिए। इसलिये अपनी बुद्धि का प्रयोग भी उसी जगह करना चाहिए जहाँ उसकी आवश्यकता हो।”

Friday, April 18, 2025

दस रुपये का चढ़ावा

गरमी का मौसम था, मैने सोचा पहले गन्ने का रस पीकर काम पर जाता हूँ। एक छोटे से गन्ने की रस की दुकान पर गया। वह काफी भीड-भाड का इलाका था, वहीं पर काफी छोटी-छोटी फूलो की, पूजा की सामग्री ऐसी और कुछ दुकानें थीं और सामने ही एक बडा मंदिर भी था, इसलिए उस इलाके में हमेशा भीड रहती है। मैंने रस का आर्डर दिया और मेरी नजर पास में ही फूलों की दुकान पे गयी , वहीं पर तकरीबन 37 वर्षीय एक सज्जन व्यक्ति ने 500 रूपयों वाले फूलों के हार बनाने का आर्डर दिया , तभी उस व्यक्ति के पिछे से एक 10 वर्षीय गरीब बालक ने आकर हाथ लगाकर उसे रस की पिलाने की गुजारिश की।

पहले उस व्यक्ति का बच्चे के तरफ ध्यान नहीं था , जब देखा तब उस व्यक्ति ने उसे अपने से दूर किया और अपना हाथ रूमाल से साफ करते हुए चल हट कहते हुए भगाने की कोशिश की।

उस बच्चे ने भूख और प्यास का वास्ता दिया !!

वो भीख नहीं मांग रहा था, लेकिन उस व्यक्ति के दिल में दया नहीं आयी। बच्चे की आँखें कुछ भरी और सहमी हुई थी, भूख और प्यास से लाचार दिख रहा था।

इतने में मेरा आर्डर दिया हुआ रस आ गया।

मैंने और एक रस का आर्डर दिया उस बच्चे को पास बुलाकर उसे भी रस पीला दिया। बच्चे ने रस पीया और मेरी तरफ बडे प्यार से देखा और मुस्कुराकर चला गया।

*उस की मुस्कान में मुझे भी खुशी और संतोष हुआ, लेकिन वह व्यक्ति मेरी तरफ देख रहा था। जैसे कि उसके अहम को चोट लगी हो।

फिर मेरे करीब आकर कहा:- आप जैसे लोग ही इन भिखारियों को सिर चढाते है

मैंने मुस्कराते हुए कहा:- आपको मंदिर के अंदर इंसान के द्वारा बनाई पत्थर की मूर्ति में ईश्वर नजर आता है, लेकिन ईश्वर द्वारा बनाए इंसान के अंदर ईश्वर नजर नहीं आता है! मुझे नहीं पता आपके 500 रूपये के हार से मंदिर में बैठा आपका भगवान मुस्करायेगा या नहीं, लेकिन मेरे 10 रूपये के चढावे से मैंने मेरे भगवान को मुस्कराते हुए देखा है।

मानव सेवा ही श्रेष्ठ सेवा है।

जीवन लक्ष्य

          ये  शरीर  कृष्ण कृपा से मिला है और केवल कृष्ण  की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इसलिये हम को चाहे कुछ भी त्यागना पडें, सब छोड़कर कृष्ण भक्ति   में तुरन्त लग जाना चाहिये।

         जैसे छोटा बालक कहता है कि माँ मेरी है। उससे कोई पूँछे कि माँ तेरी क्यों है तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है। उसके मन में यह शंका ही पैदा नहीं होती कि माँ मेरी क्यों है ? माँ मेरी है बस इसमें उसको कोई सन्देह नहीं होता। इसी तरह आप भी सन्देह मत करो और यह बात दृढता से मान लो कि कृष्ण  मेरे हैं। कृष्ण के सिवाय और कोई मेरा नहीं है क्योंकि वह  सब छूटने वाला है। जिनके प्रति आप बहुत आसक्त  रहते हैं, वे माँ-बाप, पति-पत्नी, बच्चे, रूपये, जमीन, मकान, रिश्ते-नाते आदि सब छूट जायेंगें। उनकी याद तक नहीं रहेगी।

           अगर याद रहने की रीत हो तो बतायें कि इस जन्म से पहले आप कहाँ थे। आपके माँ, बाप स्त्री, पुत्र कौन थे ? ‘

          आपका घर कौन सा था। जैसे पहले जन्म की याद नहीं है, ऐसे ही इस जन्म की भी याद नहीं रहेगी। जिसकी याद तक नही रहेगी उसके लिये आप अकारण परेशान हो रहे हो। यह सबके अनुभव की बात है कि हमारा कोई नहीं है सब मिले हैं और विछुड जायेगें, आज नहीं तो कल इसलिये- "मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई", ऐसा मानकर मस्त हो जाओ।

           दुनियाँ सब की सब चली जाये तो परवाह नहीं है पर हम केवल कृष्ण के हैं, और केवल कृष्ण हमारे हैं। केवल एक मात्र यही सच है और बाकी सब झूठ। इसके सिवाय और किसी बात की ओर देखो ही मत, विचार ही मत करो।

          आज से कृष्ण  के होकर रहो, कोई क्या कर रहा है कृष्ण जानें, हमें मतलब नहीं है। सब संसार नाराज हो जाये तो परवाह नहीं पर कृष्ण तो मेरे हैं - इस बात को पकड़ कर रखो।


कॉमन सेंस

एक पंडितजी के घर में उनकी पहली संतान का जन्म होने वाला था। उनका नाम पंडित विष्णुदत्त शास्त्री था। पंडितजी ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने दाई से कह रखा था कि जैसे ही बालक का जन्म हो नींबू प्रसूतिकक्ष से बाहर लुढ़का देना। 

बालक जन्मा लेकिन बालक रोया नहीं तो दाई ने हल्की सी चपत उसके तलवों में दी और पीठ को मला और अंततः बालक रोया। 

दाई ने नींबू बाहर लुढ़काया और बच्चे की नाल आदि काटने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गई।उधर पंडितजी ने गणना की तो उन्होंने पाया कि बालक की कुंडली में पितृहंता योग है अर्थात उनके ही पुत्र के हाथों ही उनकी मृत्यु का योग है। पंडितजी शोक में डूब गए और अपने पुत्र को इस लांछन से बचाने के लिए बिना कुछ कहे बताए घर छोड़कर चले गए। 

सोलह साल बीते।

बालक अपने पिता के विषय में पूछता लेकिन बेचारी पंडिताइन उसके जन्म की घटना के विषय में सबकुछ बताकर चुप हो जाती क्योंकि उसे इससे ज्यादा कुछ नहीं पता था। अस्तु! पंडितजी का बेटा अपने पिता के पग चिन्हों पर चलते हुये प्रकांड ज्योतिषी बना। उसी बरस राज्य में वर्षा नहीं हुई। राजा ने डौंडी पिटवाई जो भी वर्षा के विषय में सही भविष्यवाणी करेगा उसे मुंहमांगा इनाम मिलेगा लेकिन गलत साबित हुई तो उसे मृत्युदंड मिलेगा। 

बालक ने गणना की और निकल पड़ा। लेकिन जब वह राजदरबार में पहुंचा तो देखा एक वृद्ध ज्योतिषी पहले ही आसन जमाये बैठे हैं। राजन !! आज संध्याकाल में ठीक चार बजे वर्षा होगी।" वृद्ध ज्योतिषी ने कहा। 

बालक ने अपनी गणना से मिलान किया और आगे आकर बोला -  महाराज !! मैं भी कुछ कहना चाहूंगा। राजा ने अनुमति दे दी। 

राजन वर्षा आज ही होगी लेकिन चार बजे नहीं बल्कि चार बजे के कुछ पलों के बाद होगी।

वृद्ध ज्योतिषी का मुँह अपमान से लाल हो गया और उन्होंने दूसरी भविष्यवाणी भी कर डाली। 

महाराज !! वर्षा के साथ ओले भी गिरेंगे और ओले पचास ग्राम के होंगे।

बालक ने फिर गणना की। 

महाराज !! ओले गिरेंगे लेकिन कोई भी ओला पैंतालीस से अडतालीस ग्राम से ज्यादा का नहीं होगा।

अब बात ठन चुकी थी। लोग बड़ी उत्सुकता से शाम का इंतजार करने लगे। 

साढ़े तीन तक आसमान पर बादल का एक कतरा नहीं था लेकिन अगले बीस मिनट में क्षितिज से मानो बादलों की सेना उमड़ पड़ी। 

अंधेरा सा छा गया। बिजली कड़कने लगी लेकिन चार बजने पर भी पानी की एक बूंद न गिरी।लेकिन जैसे ही चार बजकर दो मिनट हुये धरासार वर्षा होने लगी। वृद्ध ज्योतिषी ने सिर झुका लिया।आधे घण्टे की बारिश के बाद ओले गिरने शुरू हुए। राजा ने ओले मंगवाकर तुलवाये। कोई भी ओला पचास ग्राम का नहीं निकला।

शर्त के अनुसार सैनिकों ने वृद्ध ज्योतिषी को सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया और राजा ने बालक से इनाम मांगने को कहा - महाराज !! इन्हें छोड़ दिया जाये। बालक ने कहा। राजा के संकेत पर वृद्ध ज्योतिषी को मुक्त कर दिया गया। 

बजाय धन संपत्ति मांगने के तुम इस अपरिचित वृद्ध को क्यों मुक्त करवा रहे हो।बालक ने सिर झुका लिया और कुछ क्षणों बाद सिर उठाया तो उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। क्योंकि ये सोलह साल पहले मुझे छोड़कर गये मेरे पिता श्री विष्णुदत्त शास्त्री हैं। वृद्ध ज्योतिषी चौंक पड़ा। 

दोनों महल के बाहर चुपचाप आये लेकिन अंततः पिता का वात्सल्य छलक पड़ा और फफक कर रोते हुए बालक को गले लगा लिया। आखिर तुझे कैसे पता लगा कि मैं ही तेरा पिता विष्णुदत्त हूँ।

क्योंकि आप आज भी गणना तो सही करते हैं लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग नहीं करते।" बालक ने आंसुओं के मध्य मुस्कुराते हुए कहा।

"मतलब"? पिता हैरान था। 

वर्षा का योग चार बजे का ही था लेकिन वर्षा की बूंदों को पृथ्वी की सतह तक आने में कुछ समय लगेगा कि नहीं?ओले पचास ग्राम के ही बने थे लेकिन धरती तक आते आते कुछ पिघलेंगे कि नहीं?              और... 

दाई माँ बालक को जन्म लेते ही नींबू थोड़े फैंक देगी,उसे कुछ समय बालक को संभालने में लगेगा कि नहीं और उस समय में ग्रहसंयोग बदल भी तो सकते हैं और पितृहंता योग पितृरक्षक योग में भी तो बदल सकता है न?

पंडितजी के समक्ष जीवन भर की त्रुटियों की श्रंखला जीवित हो उठी और वह समझ गए कि केवल दो शब्दों के गुण के अभाव के कारण वह जीवन भर पीड़ित रहे और वह थे-- कॉमन सेंस

तस्मै श्री गुरुवे नमः

हम बदलेंगे,युग बदलेगा।आपका हर पल मंगलमय हो।