बिल्ली मौसी बोली, बेटा! आओ-आओ,
मैं आई हूँ हरिद्धार से,
लो थोड़ा सा पेड़ा खाओ।
चूहा बोला, बस, बस, मौसी,
तुम मुझको न ऐसे बहकाओ।
तुम तो मुझको खा जाओगी,
दूर रहो बस पास न आऊँ।
बिल्ली बोली बेटा, मैने,
छोड़ दिया है पाप कमाना।
हरि नाम मैं हूँ जयती,
जल्दी से स्वर्ग मुझे है जाना।
इसी बीच चूहा लगा सोचने,
यह डायन है कैसी बदली।
इस बीच मौका पाकर,
बिल्ली उसके ऊपर ऊछली।
चूहा था चालाक झट,
घुस गया बिल के अन्दर।
रहगई बिल्ली हाथ मसल कर।।
Tuesday, October 29, 2019
चूहा और बिल्ली
राष्ट्रीय एकता व हिन्दी
मानव शरीर में जिस प्रकार से एक ही प्रकार के रक्त समूह के संचार से शरीर स्वस्थ व पुष्ट रहता है, ठीक उसी प्रकार से किसी भी राष्ट्र के स्वतन्त्र स्वरूप के लिए एक राष्ट्रभाषा आवश्यक है।
आज देश की सबसे बड़ी समस्या है राष्ट्रीय एकता। राष्ट्रीय एकता के लिजए राजनीतिक, धार्मिक साम्प्रदायिक तत्वा भाषायी एकता का होना जरूरी है। तो आइये, हम देखतें है कि क्या भारतवर्ष की भाषा, भारतवर्ष को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँध सकती है?
सन् 1950 मंे पंण्डित जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा था, ''प्रान्तीय भाषाओं के अधिकार क्षेत्रों की सीमाओं का उल्लघंन किए बिना हमारे लिए यह आवश्यक है अखिन भारतीय व्यवहार की एक भाषा हो। करोड़ो लोगों को एक नितांत विदेशी भाषा से शिक्षित नहीं किया जा सकता ।'' जाहिर है उनका इशारा हिन्दी की ओर था। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी को संविधान से बाहर ही रखा।
एक आयरिश कवि टौमस ने कहा है- ''कोई भी राष्ट्र मातृ-भाषा का परित्याग करके राष्ट्र नहीं कहला सकता। मातृ भाषा की रक्षा सीमाओं की रक्षा से भी ज्यादा जरूरी है।'' साहित्य समाज का दर्पण है तथा भाषा साहित्य सृजन का मूलभूत साधना। इसके माध्यम से व्यक्ति से व्यक्ति अपनी अन्तर्मुखी अनुमतियों तथा योग्ताओं को व्यक्त करता है। समय के साथ-साथ भाषा का महत्व तथा उपादेयता बढ़ती जा रही है। साहित्य, विज्ञान तथा अध्यात्म को विदेशी भाषा में अभिव्यक्त करने की बजाए देशी भाषा में अभिव्यक्त करना स्वाभाविक,सरल तथा उचित है।
पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा था। ''हिन्दी ही एकमात्र भाषा है, जो सारे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोती है। यदि हिन्दी कमजोर हुई तो देश कमजोर होगा और यदि हिन्दी मजबूत हुई तो देश की एकता मजबूत होगी।''
आशा की जानी चाहिए कि केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, विश्वविद्यालय अनुदान, आयोग, विश्वविद्यालय प्रशासन, स्वयंसेवी संस्थाओं तथा इन सबसे बढ़कर जनता जनदिन के सहयोग से हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी।
महापुरुषों का चरित्र-चिन्तन की कल्याणकारी
इस संसार में उन्नति करने-उत्थान के जितने की साधन हंै। सत्संग उन सब में अधिक फलदायक है और सुविधा जनक है। सत्संग का जितना गुणवान किया जाय थोड़ा है पारस लोहे को सोना बना देता है। रामचन्द्र जी के सत्संग से रीछ, वानर भी पवित्र हो गये थे। कृष्ण जी के संग मंे रहने से गँवार समझे जाने वाले गोप-गोपियाँ भक्त शिरोमणि बन गये। सत्संग मनुष्यों का हो सकता है और पुस्तकों का भी श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ उठना बातचीत करना आदि उत्तम पुस्तकों का मध्ययन भी सत्संग कहलाता है। मनुष्यों के सत्संग से जो लाभ होता है वह पुस्तकों के सत्संग से भी सम्भव है। अन्तर इतना है कि संतजनों का प्रभाव शीघ्रपड़ता है। आत्म संस्कार के लिए सत्संग से सरल व श्रेष्ठ साधन दूसरा नहीं है। बड़े-बड़े दुष्ट, बड़े-बड़े पापी घोर दूराचारी सज्जन और सच्चरित्र व्यक्ति के सम्पर्क में आकर सुधरे बिना नहीं रह सकते सत्संग अपना ऐसा जादू डालता है। कि मनुष्य की आत्मा अपने आप शुद्ध होने लगती है। महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आ कर न जाने कितनों का उद्धार हो गया था कभी-कभी विलाजी और फैशन परस्त सच्चे जनसेवक और परोपकारी बन गये थे। पुस्तकों का सत्संग भी आत्म संस्कार के लिए अच्छा साधन हो इस उदद्ेश्य के लिए महापुरूषों के जीवन चरित्र विशेष लाभ प्रद होते हैं। उनके स्वाध्याय से मनुष्य सत्कार्यों मंे प्रकृत होता है। और बुरे कार्यों से मुँह मोड़ता है। गोस्वामी जी की रामयण में राम का आर्दश पढ़ कर न जाने कितनों ने कुमग्र्ग से अपना पैर हटा लिया। महाराणा प्रताप और महाराज शिवाजी की जीवनियों को देश सेवा का पाठ पढ़ाया। सत्संग मनुष्य के चरित्र निमार्ण मंे बड़ा सहायक होता है। हम प्रायः देखते है कि जिनके घरों में बच्चे छोटे दर्जे के नौकरो चाकरों या अशिक्षित पड़ोसियों के संसर्ग में रहते है। वे भी असभ्य हो जाते हैं। और अशिष्ट बन जाते हैं। उनमें तरह-तरह के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। और उनमें से कितनों का जीवन बिगड़ जाता है। इसलिए हमें अपने बच्चों की देखरेख स्वयं भली प्रकार करना चाहियें। उन्हें भले आदमियों के पास उठने-बैठने दिया जाना चाहिये जिसमें उनमें अच्छे आचरण व विचार पनपते हैं। जो स्वयं भी भद्रोचित ढंग से बातचीत करते है। उनके बच्चे भी सभ्यव सुशील होते हैं। और उनकी बात चीत से सुनने वालों को प्रसन्नता होती है। इसलिए संत्सग की आवश्यकता बड़ी आयु में ही नहीं है। वरन् आरम्भ से ही हे। हमको इसविषय में सचेत हरना चाहिये और खराब व्यक्तियों का संग नहीं करना चाहिए। सत्संग का महत्व इस पौराणिक कथा द्वारा भी हम जान सकते है।
एक कथा प्रसिद्ध है कि एक बार विश्वामित्र ने वशिष्ठ को अपनी एक हजार वर्षों की तपस्या दान कर दी, बदले में वशिष्ठ ने एक क्षण के सत्संग का फल विश्वामित्र को दिया। विश्वामित्र ने अपना समझा। उन्होंने पूछा कि मेरे इतने बड़े दान का बदला आपने इतना कम क्यों दिया? वशिष्ठ जी विश्वामित्र को शेष जी के पास फैसला कराने ले गये शेष जी ने कहा, मैं पृथ्वी का बोझ धारण किये हूँ तुम दोनों अपनी वस्तु के बल से मेरे इस बोझ को अपने ऊपर ले लो हजार वर्ष भी तपस्या की शक्ति से वशिष्ठ पृथ्वी का बोझ न उठा सकें किन्तु क्षणभर के सत्संग के बल से विश्वामित्र ने पृथ्वी को उठा लिया। तब शेष जी ने फैसला किया कि हजार वर्ष की तपस्या से क्षण भर के सत्संग का फल अधिक है। तुलसी दास जी ने सत्संगी को सब मगंलो का मूल कहा है।
सत्संगति मुद मगंल मूला, सोई फल सिधि सब साधन फूला।
विपत्तियों से डरिये नहीं जूझिये
मनुष्य की इच्छा हो या न हो जीवन में परिवर्तनशील परिस्थितियाँ आती रहती हैं। आज उतार है तो कल चढ़ाव। चढ़े हुए गिरते हैं और गिरे हुए उठते हैं आज उँगली के इशारे पर चलने वाले अनेक अनुयायी हैं, तो कल सुख-दुख की पूछने वाला एक भी नहीं रहता। रंक कहाने वाला एक दिन घनपतिबन जाता है तो धनवान निर्धन बन जाता हैं। जीवन मं इस तरह की परिवर्तनशील परिस्तिथया आते जाते रहना नियति चक्र का सहज स्वाभाविक नियम है। अधिकांश व्यक्ति सुख सुविधा, सम्पन्नता, लाभ-उन्नति आदि में प्रसन्न और सुखी रहते हैं किन्तु दुःख कठिनाई, हानि आदि में दुःखी और उद्विग्न हो जाते हैं यह मनुष्य के एकांगी दृष्टिकोंण का परिणाम है और इसी के कारण कठिनाई, मुशीबत, कष्ट आदि शब्दों की रचना हुई वस्तुतः परिवर्तन मानव जीवन में उतना ही महत्वपूर्ण सहज और स्वाभाविक है। जितना रात और दिन का होना, ऋतुओं का बदलना, आकाश में ग्रह-नक्षत्रो का विभिन्न स्थितियों मंे गतिशील रहना। किेन्तु केवल सुख, लाभ अनुकूल परिस्थियाँ की ही चाह के एकांगी दृष्टिकोण के फल स्वरूप मनुष्य दुःख कठिनाई और विपरीतताओं में रोता है, दूसरों को अथवा ईश्वर को अपनी विपरीतताओं के लिए को सता है, शिकायत करता है किन्तु इससे तो उसकी समस्याएँ बढ़ती हैं, घटती नहीं है। कठिनाइयाँ जीवन की एक सहज स्वाभाविक स्थिति है जिन्हें स्वीकार करके मनुष्य अपने लिए उपयोगी बना सकता है जिन कठिनाइयों मंे कई व्यक्ति रोते हैं। मानसिक क्लेश अनुभव करते है। उन्हीं कठिनाइयों मंे दूसरे व्यक्ति नवनी प्रेरणा, नवउत्साह पाकर सफलता का वरण करते हैं। सबल मन वाला व्यक्ति बड़ी कठिनाइयों को भी स्वीकार करके आगे बढ़ता है तो निर्बल मन वाला सामान्य सी कठिनाई में भी निश्चेष्ट हो जाता है। परीक्षा की कसौटी पर प्रतितिष्ठ हुए बिना कोई भी वस्तु उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर सकती न उसका कोई मूल्य ही होता है। कड़ी धूप में तपने पर ही खेतों में खड़ी फसल पकती है आग की भयानक गोद में पिघलकर ही लोहा साँचे में ढलने के उपयुक्त बनता है परीक्षा की अग्नि में तपकर ही वस्तु शक्तिशील, सौंदर्ययुक्त और उपयोगी बनती है। कठिनाइयाँ मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इन्हें खुले मन से स्वीकार मानसिक विकास प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसे जीवन मंे कभी मुसीबतों का सामना न करना पड़ा हों। दिन और रात के समान सुख-दुख का कालचक्र सदा घूमता ही रहता है। जैसे दिन के बाद रात आना आवश्यक है वैसे ही सुख के बाद दुख आना भी अनिवार्य है। इससे मनुष्य के साहस, धैर्य, सहिण्णुता और आध्यामित्कता की परीक्षा होती है। विपत्तियाँ साहस के साथ कर्म क्षेत्र में बढ़ने के लिए चुनौती है। हम उनसे घबरायें नहीं बहुत सी मुसीबतें तो केवल काल्पनिक होती है। छोटी-मोटी बातों को तूल देकर हम व्यर्थ ही चारों और भय का भूत खड़ा करते हैं। सुबोधराय का जन्म 4 बंगाल में हुआ 6 वर्ष की आयु में एक दिन लेटे-लेटे उनकी नेत्र ज्योति चली गई, उन्होंने निश्चय किया कि ज्ञान चक्षुओं का उपयोग करेगे। अंध विंघालय से उन्होंने एम. ए. प्रथम श्रेणी में किया। छात्रवृति मिली तो अमेरिका, इंग्लैण्ड पढ़ने चले गये। उनकी कुशाग्र कृषि देख कर एक बंगाली विदुषी ने उनसे विवाह कर लिया। डा. सुबोधराय ने पी. एच. डी करने के उपरान्त अपना जीवन उन्धों के विद्यालय बनाने तथा उनके कल्याण की संस्थाएँ बनाने में लगाया। याद रखिए विपत्तियाँ केवल कमजोर कायर और निठल्ले को ही डराती हैं। और उन लोगों के वश में रहती है। जो उनसे जूझने के लिए कमर कस कर तैयार रहते है। इस प्रकार दृढ़ संकल्प वालें व्यक्ति कभी निराश नहीं होते, वरन् दूसरे के लिए प्रेरणा के केन्द्र बन जाते हैं। राम, कृष्ण, महावीर, ब ुद्ध, ईसा, मोहम्मद साहब, दयानन्द, महात्मा गांधी आदि महापुरूषों के जीवन संकट और विपत्तियों से भरे हुए थे पर वे संकटों की तनिक भी परवाह न करते हुए अपने कत्र्तव्य मार्ग पर अविचल अग्रसर होते रहे। सफतः वे अपने उद्देश्य के सफल हुए और आज संसार उन्हें ईश्वरीय अवतार मानकर पूजा करता है। विपत्तियों एवं कठिनाईयों से जूझने मंे ही हमारा पुरूषार्थ ही यदि हम कोई महत्वपूर्ण कार्य करना चाहते हंै तो उसमें अनेक आपत्तियों का मुकाबला करने के लिए हमें तैयार ही रहना चाहये जिन्होंने इस रहस्य को समझकर धैर्य का आप्रय ग्रहण किया हो आपत्तियाँ संसार का स्वाभाविक धर्म हैं। वे आती हैं और सद आती रहेंगी उनसे न तो भयभीत होइए और न भागने की कोशिश करिए बल्कि अपने पूरे आत्मबल साहस और शूरता से अनका सामना कीजिए उन पर विजय प्राप्त कीजिए और जीवन में बड़े से बड़ा लाभ उठाइए।
कम्यूनिकेशन स्किल की कला
आज के भौतिक युग में रोजी, रोटी और मकान की आवश्यकताओं से परे इंसान की एक अन्य आवश्यकता भी है अनय लोगों से संवाद, यानी कैम्पू स्किल स्थापित करने की आवश्यकता-अब्राहम मोस्लो की यह प्रसिद्ध उक्ति मानव सभ्यता के जन्म से जुड़ी है, जहाँ एक व्यक्ति दूसरे से अपनी इच्छाओं, आशाओं, अपेक्षाओं तथा भावनाओं को एक दूसरे से शेयर करना चाहता है। दरअसल एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य तक अपने मनोभावो-उद्गारों और विचारों को विभिन्न माध्यमों, यथा-वाणी, लेखन या अन्य इलेक्ट्राॅनिक तकनीकों द्वारा पहुँचाता ही कैम्पू कहलाता है। इन तीनों में माउथ कॅम्यूनिकेशन सबसे पुराना होने के साथ-साथ सर्वाधिक प्रभावशाली भी है। क्योंकि इसमें वक्ता प्रवक्ता का संदेश श्रोता यानी सुनने वाले तक सीधे और तेजी से पहुँचाता है। हाँलकि डायरेक्टर कैम्पू में यह खतरा भी होता है कि कहीं वक्ता के विचार कठिन भाषा एवं प्रवाह ममी भाषा और आक्रामक प्रदर्शन श्रोता को भ्रमित करके उसको निष्प्रभावी न बना दें। अतः माउथ कॅम्यूनिकेशन में वक्ता को सरल भाषा स्पष्ट व शुद्ध उच्चारण, आवाज में भापानुकूलता उतार-चढ़ाव चेहरे का भावपूर्ण प्रदर्शन आदि का ध्यान रखना जरूरी है क्योंकि कॅम्यूनिकेशन का उद्देश्य है अपने विचारों की बिना किसी भ्रम के स्पष्टता के साथ श्रोता तक पहुँचाना। कॅम्यूनकेशन तभी सफल माना जाता है। जब वक्ता और श्रोता दोनों उसके अर्थ को ठीक-ठीक समझने का प्रयत्न करें।
आज के दौर में चुनौतीपूर्ण जीवन में कसी भी क्षेत्र में सफलता पाने के लिए सशक्त व प्रभावशाली कैम्पू की जरूरत पड़ती है। क्योंकि इसमें व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व की झलक मिलती है। हर व्यक्ति को यह बात गाँठ-बाँध लेनी चाहिए कि कोई जन्म से ही प्रभावी कॅम्यूनिकेशन की क्षमता लेकर पैदा नहीं होता। वस्तुतः कॅम्यूनिकेशन एक कला है जिसे निरंतर अभ्यास द्वारा सीखा जा सकता है। जिसकी भाषा में सरलता, सुगमता विचार में गहनता व स्पष्टता, अभिव्यक्ति में ओज तेज व प्रवाह तथा वाणी में जादू होगा श्रोता मंत्र मुग्ध होकर उसकी बातों को ग्रहण करेगा। कैसे हासिल करें प्रभावी कॅम्यूनिकेशन इसके लिए निम्नलिखित तीन चरणों का ध्यान रखें।
1. बाधाओं को पहचाने व दूर करें।
2. कॅम्यूनिकेशन को बताए प्रभावशाली।
3. श्रोता का रखें पूर्ण ध्यान।
कला सीखने के लिए जरूरी है कि प्रभावशाली अभिव्यक्ति के रास्ते में आने वाली बाधाओं को पहचान कर उन्हें दूर करें। संवाद नहीं कर पाना विचारां की स्पष्टता और सारगर्भित तरीके से अभिव्यक्त न कर पाना अशुद्ध कठिन भाषाा का प्रयोग करना, विषय की अच्छी समझ न होना, आवेश में अपनी बात रखना, श्रोता की जरूरत समझे बिना अपनी बात करते रहना।
प्रभावशाली व्यक्तित्व के लिए भाषा की अच्छी समझ जानकारी, तर्कपूर्ण शैली, आवाज में मधुरता और बुलंदी, सुगंठित विचार होना जरूरी है। लगातार प्रयास से इसे डिवलप किया जा सकता है।
शैक्षणिक, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और सांस्कृतिक परिवेश का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। यदि श्रोता प्रबुद्ध है तो समझदार की भाषा और विवेचना शैली प्रभावी होती है। यदि श्रोता वक्ता की अपनी स्थिति से भिन्न है तो उसके स्तर पर पहुँचकर उसके अनुकूल भाषा का प्रयोग कर कैम्प स्थापित करना चाहिए। इस कला के माध्यम से कला सीखकर कोई भी लक्ष्य हासिल करने में सफल हो सकते हैं।
कौन माँ
माँ संक्षिप्त होते हुए भी कितना व्यापक और सारगर्भित शब्द है। इसीलिये तो माँ को जन्मभूमि के समान तथा स्वर्ग से महान बताया गया है। वस्तुतः माँ का स्थान जन्मभूमि से भी बढ़कर है क्योंकि वही तो मानव सृष्टि का मूल स्त्रोत है। वैदिक काल से ही माँ का सर्वोच्च स्थान रहा। सत्य कहा जाये तो माँ देवी के रूप में धरा पर अवतरित होकर सृष्टि में संचालन का गुरूतर भारत वहन करके अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराती है।
जन्म से लेकर सात वर्षो। तक बालक पूर्णतया माँ पर आश्रित होता है। इसी बीच माँ अपने बालक के भविष्य का निर्माण करती है। इसी बीच बालक की शिक्षा की नींव मजबूत होती है। किसी ने सत्य ही कहा है-
''यदि बालक की शिक्षा की नींव सुदृढ़ व सुन्दर होगी तो बालक उन्नति करेगा'' बालक अस्थिर चर्ममय वह आकृति है जिसे माॅ का स्नेह, त्याग, और तपस्या, उसे शारीरिक विकास प्रदान करती है। और पिता का अनुशासन, नैतिकता तथा गंगा का अमृत सिंचन करता है जिससे बालक संसार में पुष्पित तथा पल्लवित होता है। ''शिशु सुन्दर प्रभु का रूप है माँ कोमलता की खान पिता ज्ञान गंगा भरे, बालक बने महान्''।।
साष्टाँग दण्डवत् प्रणाम का महत्व
आजकल स्कूल, कालेज के बड़े-बड़े शिक्षा शास्त्रियों की शिकायत है कि शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों का श्रद्धाभाव बिल्कुल घट गया है। अतएव देश में अनुशासनहीनता तेजी से बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि हम ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट दण्डवत् प्रणाम की प्रथा को विदेशी अंधानुकरण के जोश में छोड़ने लगे है।।
साष्टांग दण्डवत् प्रणाम का अर्थ है कि साधक और शिष्य का शरणागतभाव जितना प्रबल होगा, उतना ही वह ज्ञानी महापुरूष के आगे झुकेगा और जितना झुकेगा उतना पायेगा। शिष्य का समर्पण देखकर गुरू का हाथ स्वाभाविक ही उसके मस्तक पर जाता है।
महापुरूषों की आध्यात्मिक शक्तियाँ समस्त शरीर की अपेक्षा शरीर के जो नोंक वाले अंग हैं उनके द्वारा अधिक बहती है। इसी प्रकार साधक के जो गोल अंग हैं उनके द्वारा तेजी से ग्रहण होती है। इसी कारण गुरू शिष्य के सिर पर हाथ रखते हैं ताकि हाथ की अंगुलियों द्वारा वह आध्यात्मिक शक्ति शिष्य में प्रवाहित हो जाये। दूसरी ओर शिष्य जब गुरू के चरणों में मस्तक रखता है तब गुरू के चरणों की अंगुलियाँ और विशेषकर अँगूठा द्वारा जो आध्यात्मिक शक्ति प्रवाहित होती है वह मस्तक द्वारा शिष्य अनायास ही ग्रहण करके आध्यात्मिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है।
विदेश के बड़े-बड़े विद्वान एवं वैज्ञानिक भारत में प्रचलित गंुरू समक्ष साधक के साष्टाँग दण्डवत् प्रणाम की प्रथा को पहले समझ नहीं पाते थे। लेकिन अब बड़े-बड़े प्रयोगों के द्वारा उनकी समझ में आ रहा है कि यह सब युक्ति-युक्त है। इस श्रद्धा भाव से किये हुये प्रणाम आदि द्वारा ही शिष्य गुरू से लाभ ले सकता है अन्यथा आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग पर वह कोरा ही रह जायेगा।
एक बल्गेरियन डाॅ0 लोजानोव ने इंस्टीट्यूट आॅफ एजेस्टोलाजी की स्थापना की। एक अन्तर्राष्ट्रीय सभा में इस युक्ति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि भारतीय योग में जोशवासन प्रयोग है उसमें से मुझे इस पद्धति को विकसित करने की प्रेरणा मिली''।