Monday, October 21, 2019

संकल्प और लक्ष्य

 संकल्प और लक्ष्य मनुष्य के कार्यों को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आदतों को संकल्प और लक्ष्य की शक्ति द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है। व्यर्थ में बड़े से बड़ा नुकसान हो जाता है और जीवन की महत्वपूर्ण बातें धरी की धरी रह जाती है। यदि हम कोई लक्ष्य लेकर चलते हैं तो उसे संकल्प द्वारा, कर्म द्वारा, यथार्थ रीति द्वारा और आदतों को नियन्त्रित रखते हुये पूर्णतः की ओर बढ़ सकते हैं। जिस प्रकार सोना को साफ करने तथा उसमें चमक लाने के लिये आग में तपाना पड़ता है, उसी प्रकार सदा अपने लक्ष्य और संकल्प में अटल रहना पड़ता है। सभी के जीवन में उत्थान तथा पतन का भी समय आता है। विवेकी पुरुष की दृष्टि में परमात्मा की प्राप्ति श्रेयस्कर है। परमात्मा और आत्मा का संयोग उनके एकत्व का बोध परमार्थ माना गया है। जीवन में सुख - शान्ति तथा अध्यात्मिक उन्नति का मुख्य आधार भी यही है। दृष्टि से वृत्ति स्वयं बदल जाती है। वृत्ति के अनुसार बु(ि प्रभावित होती है। गुण और विशेषताऐं व्यक्ति की बु(ि से ही समझी जाती है। जैसे - हंस की पहचान उसके मोती ग्रहण करने करने से होती है। बु(ि संस्कार का एक वाहन है। बु(ि को श्रेष्ठ बल भी कहा गया है। बु(ि द्वारा ही संकल्प को दिशा दी जा सकती है। अभी नहीं तो कभी नहीं का संकल्प लक्ष्य तक ले जाने में सहायक होता है। व्यक्ति स्वयं भी विशेष है, और समय भी विशेष है। संकल्प को छोड़कर व्यर्थ की तरफ नहीं जाना चाहिए। यदि व्यक्ति हीन भावना से ग्रसित है तो वह संकल्प भी नहीं कर सकता है । विपरीत परिस्थितियों को देखकर अंशमात्र भी विचलित नहीं होना चाहिये।


पूर्ण विराम का महत्व

एक पत्नी ने अपने पति को पत्र लिखा लेकिन वाक्यों में उसने कहीं पूर्ण विराम नहीं लगाया। पत्र लिखने पर जब उसे इस गलती का अहसास हुआ तो उसने अनुमान से जल्दी-जल्दी पूर्ण विराम लगा दिये। जिससे सारे पत्र का अर्थ ही बदल गया। प्रस्तुत है वह पत्र-
प्रिय पति देव,
 प्रणाम! आपके चरणों में क्या चक्कर है। आपने कितने दिनों से चिट्ठी नहीं लिखी, मेरी प्यारी सहेली को नौकरी से निकाल दिया है 
हमारी गाय ने। बछड़ा दिया है दादा जी ने। शराब शुरू कर दिया है मैंने। बहुत पत्र डाले तुम आये नहीं मुर्गी के बच्चे। भेड़िया खा गया है राशन की चीनी। 
छुट्टी से आते वक्त ले आना एक खूबसूरत औरत। मेरी नई सहेली बन गयी है तुम्हारी माँ। तुम्हें याद करती है एक पड़ोसन। मुझे तंग करती है हमारी जमीन। पर गेहूं आ गया है ताऊ जी के सिर में। सिकरी हो गई मेरे पैर में चोट लग गई है तुम्हारी चिट्ठी को। हर वक्त तरसती रही।


गुणों से होती है सुंदरता की पहचान

 एक संत हर सुबह घर से निकलने के पहले आइने के सामने खड़े होकर खुद को देर तक निहारते रहते थे। एक दिन उनके शिष्य ने उन्हें ऐसा करते देखा। तो उसके चेहरे पर मुस्कान झलक पड़ी। वे समझ गये और शिष्य से बोले, ''तुम जरूर ये सोचकर मुस्कुरा रहे हो कि ये कुरूप व्यक्ति आइने में खुद को इतने ध्यान से क्यों देख रहा है? पकड़े जाने से शिष्य थोड़ा शर्मा गया। वह माफी मांगने वाला ही था कि इसके पहले संत ने बताना शुरू कर दिया। आइने में हर दिन मैं सबसे पहले अपनी कुरूपता को देखता हूँ। ताकि उसके प्रति सजग हो सकूँ। इससे मुझे ऐसा जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है, जिससे मेरे सद्गुण इतने निखरें कि वे मेरी बदसूरती पर भारी पड़ जाएँ। शिष्य बोला ''तो क्या सुन्दर व्यक्ति को आइने में अपनी छवि नहीं निहारनी चाहिए?'' संत ने कहा - ''बिल्कुल निहारनी चाहिए, लेकिन वह स्वयं को आइने में देखे तो यह अनुभव करे कि उनके गुण भी उतने ही सुंदर हों, जितना कि उनका शरीर है।


रामू का संकल्प

  कुशाग्र एवं तेज बुद्धि का रामू जब छः वर्ष का था, तब से वह अपने ननिहाल में रहकर पढ़ाई करता था। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह शहर आ गया, जहां उसके पिता एक औसत दर्जे का धन्धा करते थे। रामू की मां उसके पिता के काम धन्धे में साथ देती थी। उसने शहर के एक अच्छे विद्यालय की प्रवेश परीक्षा उच्चतम अंकों से उत्तीर्ण की, उस स्कूल का नाम दूर-दूर तक प्रसि( था। रामू हमेशा से ही एक प्रसिद्ध इंजीनियर बनना चाहता था, इसके लिए वह मेहनत भी करता था। दो वर्ष बाद उसने हाईस्कूल की परीक्षा उच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। अब तक रामू को शहर के बारे में ज्ञान हो गया था और उसके बहुत से दोस्त बन गये थे। किन्तु बुरी संगति में पड़कर वह अपने लक्ष्य से भटक गया और ग्यारहवीं की वार्षिक परीक्षा में फेल हो गया। जिससे सभी आश्चर्य चकित थे, उसके टीचरों को भी विश्वास नहीं हो रहा था। रामू बहुत ग्लानि महसूस कर रहा था। हर तरफ से उसे उलाहना ही मिल रहा था, उसका आत्मविश्वास पूर्णतयः खत्म हो गया था। रामू परेशान रहने लगा, एक दिन उसने आत्मदाह का प्रयास किया। किन्तु किसी तरह उसे बचा लिया गया। सभी ने उसे बहुत समझाया, तभी उसके एक शुभचिंतक दोस्त ने उसे एक किताब पढ़ने को दी। जिसको पढ़कर रामू ने कई बातें जानी जैसे कि कभी-भी अपना आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करना चाहिए, कभी-भी मन में नकारात्मक विचार नहीं लाने चाहिए। हमेशा बिना आलस किये हुए तथा घर की परिस्थितियों को देखते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसित होना चाहिए, इन सभी बातों का पालन करते हुए कभी भी लक्ष्य से न भटकने का उसने संकल्प लिया। अब तक वह समाज की सभी परिस्थितियां जान चुका था और उसने इंजीनियर बनने की ठान ली थी। तत्पश्चात् उसनें ग्यारहवीं ही नहीं बल्कि इण्टरमीडिएट में भी अपने विद्यालय में टाॅप करके एक अच्छे संस्थान से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की। कुशल होने के कारण एक विदेशी कम्पनी ने उसे नौकरी का अवसर प्रदान किया। कुछ वर्षों बाद रामू ने अपनी खुद की एक कम्पनी का उद्घाटन किया। उसके परिश्रम की बदौलत उसकी कम्पनी आसमान छूने लगी। वह एक सम्पन्न इंजीनयर के रूप में प्रसि( हो गया। जिस तरह रामू ने आत्म विश्वास एकत्रित कर ऊंचाइयों पर चढ़ना सीखा, उसी तरह हर व्यक्ति को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति बिना आलस किए हुए कठिन परिश्रम करता है, तो वह भी सफल व्यक्ति बन सकता है।


सकारात्मक अभिवृत्ति

 किसी मनोवैज्ञानिक वस्तु-व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह, संस्थाएं, सामाजिक परिवेश आदि के विषय में किसी व्यक्ति की अभिप्रेरणात्मक तथा संवेगात्मक प्रतिक्रिया को अभिव्यक्ति कहते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति, वस्तु विचार या घटना के प्रति दृढ़ विश्वास अथवा भावनायें अभिवृत्ति कहलाती हैं। हम जीवन पर्यन्त अभिवृत्तियों का निर्माण करते हैं। अभिवृत्तियों के महत्व के विषय में कहा गया है कि ये व्यक्ति के जीवन को दिशा प्रदान करती है और उसे सफलता के शिखर पर ले सकती है।
 परिवेश के अन्तर्गत घर, परिवार, पास-पड़ोस, विद्यालय आदि आते हैं। घर पर प्रातःकाल समय से उठने, वेशभूषा में स्वच्छाता, समय -पालन, बड़ों की आज्ञा का पालन, बड़ों के आदर्श व्यवहार से बच्चों में इन गुणों के प्रति अभिवृत्तियों का सकारात्मक निर्माण होता है।
 विद्यालय में प्रार्थना सभा में प्रधानाचार्य अथवा शिक्षकों का भाषण, पाठ में मूल्यों का अध्ययन, दीवारों पर आदर्श वाक्यों और आदर्श व्यक्तियों के चित्रों का प्रदर्शन, कला, कविता, पौराणिक कथानकों, महापुरुषों पर व्याख्यान आदि से विद्यार्थियों में इन सबके प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति का निर्माण होता है। मादक वस्तुओंके सेवन से हानियों पर आधारित अभिनय, कहानी, कथन आदि से इन बुरी आदतों के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति निर्धारित होती है।
 अधिगम की परिभाषा ''अनुभव के माध्यम से व्यवहार में प्रगति की दिशा में परिवर्तन'' से स्पष्ट है कि हम कार्य करके जो सीखते हैं वह हमारे व्यक्तित्व का स्थायी अंग बन जाता है। निम्नलिखित कहावत भी इसकी पुष्टि करती है।
 विद्यालय में श्रमदान, साक्षरता अभियान, शैक्षिक परिभ्रमण, सामुदायिक कार्य, नशा उन्मूलन रैली, शिक्षा प्रदर्शनी, आध्यात्मिक यात्रा, स्वास्थ्य आदि से इन क्रिया - कलापों से संबंधित मूल्यों, रुचियों और आदतों के प्रति अभिवृत्ति का निर्माण होता है। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात भी हम कर्मचारी/अधिकारी /व्यवसायी आदि के रूप में जो प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और उसे कार्यान्वित करते हैं उससे भी हममें श्रमशीलता, समय पालन, सहिष्णुता, सह अस्तित्व आदि के प्रति अभिवृत्तियों का निर्माण होता है।
 शिक्षा व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियों को उजागर करती है, उसके देवत्व का दर्शन कराती है, मानवीय मूल्यों की अनुभूति का उसे अवसर प्रदान करती है और स्वानुभूति का मार्ग प्रशस्त करती है। शिक्षा द्वारा ऐसे वातावरण की सर्जना अभीष्ट है जिससे व्यक्ति अपनी नैसर्गिक क्षमताओं का पूर्णतया विकास करने की ओर अग्रसर हो सके।
 शिक्षा के माध्यम से अभिवृत्तियों का निर्माण हो सकता है या नहीं, इस पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का कहना है कि- ।जजपजनकम ंतम बंनहीज दवज जंनहीज किन्तु कुछ विद्वान मूल्यों तथा सकारात्मक अभिवृत्तियों के निर्माण के लिए शिक्षा को सशक्त माध्यम मानते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में नैतिक शिक्षा और मूल्यों की शिक्षा पर अत्यधिक बल दिया गया है। शिक्षा के माध्यम से मूल्यों, अच्छीआदतों, राष्ट्रप्रेम आदि का बोध होता है। शिक्षा से सकारात्मक अभिवृत्तियों का निर्माण किया जा सकता है। जब हमें किसी मूल्य पर विचार का सम्यक बोध हो जाता है तो उसके प्रति हममें विश्वास उत्पन्न हो जाता है। ऐसे विश्वास के फलस्वरूप हम मूल्यों अथवा विचारों के प्रति श्र(ावान हो जाते हैं और तब अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा हम अपने जीवन में उन पर आचरण करने लगते हैं।
 शिक्षा के माध्यम से सत्यनिष्ठा,समय पालन, कर्तव्य परायणता, दयालुता, धैर्य, सह अस्तित्व,  समाज सेवा, परोपकार, राष्ट्रप्रेम आदि के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति के निर्माण करने में बड़ी सहायता मिलती है।


ज्योतिष एवं रोग

समीर कुमार श्रीवास्तव


ईश्वर करें:
''मेरी नासिका पुरों में श्वास,
कण्ठ में वाणी, आंखों में दृष्टि,
कानों में स्वर एवं शीश पर केंश रहें
मेरे दाँत कभी न टूटें न कलुषित हों,
मेरी भुजाओं में बल, जंघाओं में शक्ति, एवं पैरांे में गति रहे।
 मेरे कदम सदैव मजबूती से बढ़े। मेरे सर्वांग सुचारू रूप से काम करते रहें तथा मेरी आत्मा सदैव अविजित रहे।'' 
 आधुनिक जीवन की आपाधापी में यद्यपि विकसित चिकित्सा विज्ञान की कृपा से आम इंसान की आयु में बढ़ोत्तरी हुई है, परन्तु सेहत का ग्राफ पहले युग के मुकाबले अधिक नीचे आ गया है। 25 से 40 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते आज के नवयुवक असामान्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। जंक फूड, तनाव ग्रस्त स्थितियां एवं विपरीत स्थितियों में संघर्ष करने के कारण शरीर की जीवंतता बड़ी जल्दी क्षीण होने लगती है। तरह-तरह की चिकित्सा पद्धति की उपलब्धता के बावजूद 'तीर या तुक्का' की तरकीब लगाई जाती है कि प्राकृतिक न सही तो होम्योपैथिक और होम्योपैथिक न सही तो आयुर्वेदिक और कुछ नहीं तो एलोपैथिक तो है ही अन्तिम उपाय। इसी कारण आज के माहौल में ज्योतिष संबंधी भेषज ज्ञान की उपयोगिता और प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। मानव शरीर पूर्ण रूप से 12 राशियों, 27 नक्षत्रों तथा 9 ग्रहों से प्रभावित होता है। जिस समय जीव माता के गर्भ में होता है उस समय ग्रहों से आने वाली किरणें माता के गर्भ को प्रभावित करती है।
 आकाश में जो ग्रह बलवान होकर भ्रमण कर रहा होता है और उस समय उस ग्रह से सम्बन्धित अवयव का निर्माण हो रहा होता है तो वह अवयव मजबूत हो जाता है और जब उस ग्रह की दशा चलती है तो जातक को उस अंग से सम्बन्धित कष्ट होता है।
 कुछ लोगों का तर्क है कि इन सुदूर स्थित ग्रहों का प्रभाव पृथ्वी पर पड़ना केवल एक काल्पनिक सोच है और तथ्य से परे है। परन्तु यह तो विज्ञान भी मानता है कि चन्द्रमा के प्रभाव से ही सागर में ज्वार-भाटा आता है। अतः यह स्पष्ट है कि द्रव पर तो यह प्रभाव कारगर होता ही है, तो फिर मानव शरीर पर क्यों नहीं होगा जो 80 प्रतिशत द्रव पदार्थों से ही बना है।
 शरीर च नवच्छिद्रं व्याधिग्रस्तं कलेवरम्।
 औषधं जाहनवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः।।
 अर्थात् ये शरीर नौ छिद्रों से युक्त और व्याधिग्रस्त है, इसके लिए गंगाजल ही औषध और भगवान नारायण ही वैद्य है।


कला ही जीवन है और जीवन ही कला

 कला हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है इसके बिना जीवन सम्भव नही है। कला का दूसरा नाम सांस्ड्डतिक जीवन है।
 कला 'कल' धातु से बना हुआ संस्कृत का वह शब्द है जिसका अर्थ सुन्दर एवं मधुर है 'कल' आनन्द यति ''इतिकला'' अर्थात् जो मानव के मन मस्तिष्क और आत्मा को आनन्द विभोर कर दे वह कला कहलाती है। अंग्रेजी और फ्रेंच  में 'आर्ट' लैटिन में आर्टम और आर्स शब्द से कला को व्यक्त किया गया है। लैटिन में आर्स शब्द का वही तात्पर्य है जो संस्ड्डत की धातु 'अर' का। अर अर्थात बनाना, रचना करना या पैदा करना।
 कला को अभिव्यक्ति, आनन्द प्राप्ति सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् की भावनाओं को अनुभूति कराने का साधन कहा गया है। यदि कला को सूक्ष्म रूप से देखे तो तीन भेद स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते है।
आचरण विषयक कला- इसके माध्यम से व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता है। इस कला को उपदेशात्मक कला भी कह सकते हैं।
 ललित कला- इसके अन्तर्गत आनन्द देने वाली संगीत कला जो श्रोता को भाव विभोर सांस्ड्डतिक सांसारिक संतापो से विमुक्त कर ब्रह्मलीन कराती है। मूर्तिकला और चित्रकला में जान फूंकने वाले कलाकारों के माध्यम से हमें उस ब्रह्म का ज्ञान होता है, जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया है।
उदार कला- शेष सभी विषय जो मानव मात्र के लिए हितकर है और उसके लिये उपयोगी होते हुए भी आनन्द की अनुभूति कराते हैं, इसके अन्तर्गत आते हैं।
 विज्ञान, काव्य और साहित्य विद्या के अन्तर्गत आते है। सभी प्रकार की कलाएं एवं समस्त ज्ञान जिससेे रसानुभूति के साथ-साथ कौशल का भी हमें आभास होता है, उपविद्या के अन्तर्गत आती है। हमारा लोक जीवन बहुत विशाल है साथ ही साथ गहराई लिए हुए भी। भारतीय इतिहास का कोई भी युग ऐसा नहीं है जिसमें पुरातत्व की सामग्री कहीं न कहीं कला रूप में दृष्टि गोचर न हो, )ग्वेद में कला के व्यापक प्रयोग के साथ-साथ रामायण में महाराजा दशरथ के महल को कला शिल्पियों द्वारा सुसज्जित करना तथा इन्द्रजीत ;मेघनादद्ध के रथ पर कला का मोहक चित्रण किया गया। महाभारत में फर्श इस प्रकार बनवाये गये थे, जहाँ पानी भरे होने का भ्रम होता था दीवारों पर द्वार होने का भ्रम उत्पन्न होता था। अजन्ता एवं एलोरा गुफाओं की चित्रकला, प्राचीन भारत की विकसित कला का बेजोड़ नमूना है। मुगलकालीन युग में अकबर चित्रकला का विशेष प्रेमी था तथा शाहजहां भी अच्छे कलाकारों को पसन्द करता था।
 कला एवं संस्कृति, सृजनात्मकता एवं सौन्दर्य को प्रत्यक्ष करने का साधन है। प्रत्येक कलात्मक रचना में सौन्दर्य की अनुभूति होती है। और उसमें हमें श्री भी दृष्टिगोचर होती है। श्री और सौन्दर्य को देखने के लिए सहृदय होने की आवश्यकता है।
रूप भेदाः, प्रमाणान्ति, भाव, लावण्य योजनम्।
सदृश्य वार्णिका भंग इति चित्र शडांगकम्।।
 वास्तव में कला सत्य की खोज के समय ज्ञान का विश्लेषण करने और जीवन का मूल्यांकन करने में पूर्ण सहयोग करती है।


भ्रष्टाचार, उन्मूलन एवं सम्पूर्ण परिवर्तन

 चरित्र मानव जीवन की अमूल्य निधि एवं मानवता का शृंगार है। सदाचार ही जीवन है। सदाचार ही पृथ्वी पर स्वर्ग को उतारता है, पर आज हमारे देश में उसका शनैः शनैः ट्ठास होता जा रहा है। सदियों की साधना से अर्जित जीवन-मूल्यों का पतन हो रहा है। अतः देश में अनेक समस्यायें उत्पन्न होती जा रही हैं जिन्होंने हमारे राष्ट्र के विकास को अवरु( कर रखा है। इनमें भ्रष्टाचार की समस्या भी एक है। 
 आज हमारे देश में रिश्वत का बाजार सर्वत्र गर्म है। आज अनुचित रूप से पैसा देकर अपनी इच्छानुसार कार्य कराया जा सकता है। न्याय तक क्रय किया जा सकता है। घूस देने वाले के समक्ष कठिनाइयों के पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं। विपत्तियों के बादल तिरोहित हो जाते हैं, निराशा का अन्धकार समाप्त हो जाता है। सुख की पियूस वर्षा होने लगती है, आनन्द का सागर लहराने लगता है। सब प्रकार की सुविधायें प्रदान करने के कारण इसको 'सुविधा शुल्क' नाम से विभूषित किया गया है। 
 उत्कोच ने देश में त्राहि-त्राहि मचा रखी है। इसके आतंक से प्रतिभा पलायन कर गयी है। सदगुण कन्दराओं में जा छिपे हैं न्याय सिर धुन रहा है, शासन गूंगा, बहरा और अपंग हो गया है। घूस के संरक्षण में गधे घी पी रहे हैं।, कौए सम्मान पा रहे हैं, हत्या, लूटमार आदि जघन्य अपराध पनप रहे हैं, पापी निर्भय होकर विचर रहे हैं, नारियों की इज्जत लूटी जा रही है, हरिजनों पर कहर ढाया जा रहा है। कहां गये मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन आदर्श? कहाँ गये योगिराज कृष्ण के गीता के उपदेश? ''धनपराव विषतै विषभारी।'' उक्ति के अनुसार क्या अब घूस के रूप में प्राप्त परायाधन विष के समान घातक नहीं है? शरीर के लिये नहीं तो आत्मा के लिये यह अवश्य घातक सि( होगा।
 राजनैतिक पार्टियां लोकतंत्र के नाम पर 65 वर्षों से एक ऐसी राजशाही कायम करने का प्रयास कर रही हैं जिसमें पूँजीपति तो ऐश कर रहे हैं लेकिन राष्ट्र की आम जनता की हालत बद से बदतर होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ आम जनता में आक्रोश नहीं था। लेकिन सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है जो अब समाप्त हो चुकी है। अब जनता जाग गयी है उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आन्दोलन छेड़ दिया है। यह आन्दोलन विश्व का एकमात्र ऐसा आन्दोलन बन गया है जिसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि हमारे संसद में सिर्फ भ्रष्ट लोग ही अपना कब्जा जमाये बैठे हैं। वहां भी सच्चे ईमानदार तथा जनता के प्रति जवाबदेही वाले सांसद हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनकी संख्या कम है या वे भ्रष्ट राजनैतिक पार्टियों से सम्ब( हैं। अगर जनता पूर्ण रूप से जग गयी तो भ्रष्ट व्यवस्था का अन्त निश्चित है लेकिन अभी भी राजनेता इस मुगालते में हैं कि जनता पिछली सब बातों को भूलकर उनके चक्रव्यूह में फंस जायेगी और वे फिर सत्ता में बैठकर जनता के विकास, स्वास्थ्य तथा मूलभूत सुविधाओं की लूट बदस्तूर जारी रखेंगे लेकिन यह दूर की कौड़ी साबित होने वाली है। आज से 2000 साल पहले चार्वाक )षि ने एक सूत्र दिया था कि - यावेत जिवेत सुखम जिवेत्, )णम् कृत्वा घृतम पिवेत, भस्मिभूतस्य शरीरस्य पुनरौ जन्मकुताः? यह सूत्र दो हजार वर्षों से धार्मिक साहित्यों में बन्द था। इस सूत्र को हमारे राजनेताओं नें अक्षरशः सत्य कर दिखाया। आज राजनीति पैसा कमाने का आसान जरिया बन गयी है। हर राजनेता देश को लूटने में मस्त है कोई रोकने वाला नहीं है। ये चाहते हैं कि वे जब तक जिये सुख से जियें और विदेशों से कर्ज लेकर घी पियें क्योंकि उनके इस शरीर का क्या एकदिन तो उसे आग में जल जाना है। उन्हें पता है कि उनका जन्म पुनः मनुष्य योनि में नहीं होना है क्योंकि इस जन्म में उन्होंने गि(ों को भी पीछे छोड़ दिया है। गि( तो मरे हुये शव को नोचकर खाते हैं, ये तो देश की तीन चैथाई जनता के हक को ऐसे नोचकर खा रहे हैं कि औद्योगिक क्रान्ति के बावजूद देश की जनता भरपेट भोजन के लिये तरस रही है। ऊपर से राजनेताओं का तुर्रा यह है कि भ्रष्टाचार आम जनता के अन्दर समा गया है इसे समाप्त करना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। लेकिन इन्हें कौन समझाये कि संसार में जितने भी चर और अचर प्राणी हैं उनकी पहली आवश्यकता आहार होती है। आहार जब राजनेता हड़प कर जाते हैं तो बेचारा गरीब किस प्रकार अपना तथा अपने परिवार का पेट भरे। जहां अभाव है वहां से सुचिता तथा आदर्श की उम्मीद करना ही बेमानी है। जिन लोगों को आदर्श स्थापित करना चाहिए वे तो कुछ और कर रहे हैं। देश की आजादी से अब तक तो आम जनता में इस व्यवस्था के खिलाफ रोष बढ़ा है और देश के कुछ खास लोगों का अप्रत्याशित रूप से कोष। ये पिछले 65 वर्षों से लोकतंत्र तथा देश की सर्वोच्च तथा पवित्र संसद पर कब्जा जमाये बैठे हैं। जब तक इन जनद्रोहियों तथा देश द्रोहियों की चलती रहेगी तब तक देश की गरीब जनता का भला होने वाला नहीं। एक समाज तभी उन्नत हो सकता है जब सही मायने में लोकतन्त्र स्थापित हो और यह तभी संभव है जब देश की जनता एक जुट होकर लोकतन्त्र स्थापित करने का प्रण ले।
इस देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने में हमारे आपके पूर्वजों की कुर्बानियां जुड़ी हैं। उनकी कुर्बानियों का लाभ देश के कुछ खास लोगों तक ही सीमित है। जिन्हें लाभ मिलना चाहिये उन्हें रोटी तथा सिर छुपाने के लाले पड़े हैं। कितने ताज्जुब की बात है कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी देश का विकास सिर्फ शहर तक ही सीमित है। हर प्रदेश के किसान आत्महत्या जैसे घृणित कार्य करने को मजबूर हैं। यह इस वर्तमान व्यवस्था की नाकामी ही है। राजनेताओं ने आम जनता को अंधेरे में रखकर देश की सम्पदा की ऐसी लूट मचा रखी है कि इन्होंने अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया है। अंग्रेजों ने जो लूटा उसका कुछ हिस्सा देश में भी लगा दिया लेकिन ये लोग तो देश का पैसा लूटकर विदेशों में जमाकर अप्रत्यक्ष रूप से विदेशियों की मदद कर रहे हैं। यह राष्ट्र द्रोह है इसलिये देश की समस्त देशभक्त जनता खासकर नौजवान पीढ़ी का कर्तव्य बनता है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था से देश को मुक्त कराया जाये, अगर इस भ्रष्ट व्यवस्था से मुक्ति न मिली तो ये देश को बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। ''ये खेत बेंच देंगे, खलिहान बेच देंगे। ये देश बेंच देंगे, ईमान बेच देंगे। इनसे बच के रहना यारो। इनका बस चले तो, देश के हर इंसान को बेच देंगे।''
 अगर देश इस भ्रष्ट व्यवस्था से मुक्त हो गया तो कोई कारण नहीं कि देश एक बार फिर सोने की चिड़िया न बने। इसके लिये जरूरत है राष्ट्र के प्रति युवा समर्पण की, क्योंकि युवा ऊर्जा से परिपूर्ण होता है युवा शक्ति ही वास्तविक राष्ट्रशक्ति होती है। राष्ट्र की पहचान युवाओं की आदर्शवादी विचारधारा से बनती है। युवा जब अपनी ऊर्जा का सही उपयोग करता है तो वह भगवान का अवतार बन जाता है। युवा शक्ति द्वारा ही राष्ट्र सवल बनते हैं। सेवा और समर्पण से राष्ट्र का निर्माण होता है। विश्व में जितनी भी क्रान्तियां एवं विकास हुआ है उसका शत-प्रतिशत श्रेय युवाओं को जाता है। अगर देश के युवा जग गये तो राम राज्य आना तय है। 


नैनोटैक्नोलाॅजी: सुनहरा भविष्य

 जिस प्रकार तरल पदार्थ मापने की इकाई लीटर है तथा लम्बाई या दूरी नापने की इकाई मीटर है। उसी प्रकार दूरी का एक अति सूक्ष्म मात्रक नैनोमीटर हैं यह 1 मीटर का एक अरब भाग होता है। नैनो का अर्थ होता है बौना अर्थात छोटा, 1 बिलियनवाॅ भाग (1 अरबवाॅ भाग, 1 नैनोमीटर = 10-9 मीटर) इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि अगर हम हाइड्रोजन के 10 अणुओं को एक के बाद एक सटाकर बिछा दे तो मात्र यह 10 अणु ही एक नैनोमीटर लम्बे हो पायेंगे। अतः ''आज के समय कोई ऐसा पदार्थ या संयंत्र, उपकरण अथवा इसका कोई ऐसा भाग जिसका आकार एक नैनोमीटर या इसके आसपास हो और पूरी तरह से कार्यशील होकर प्रौद्योगिकी के उपयोग में आये, उससे जुड़ा हुआ विज्ञान नैनोटैक्नोलाॅजी कहलाता है।''
 नैनो की सूक्ष्मता का अनुमान आप इस बात से लगा सकते है मानव के एक बाल की मोटाई 80, 000 नैनोमीटर होती है, एक लाल रक्त कोशिका 5000 नैनोमीटर की होती है तथा 1 इंच 25 करोड़ 4 लाख नैनोमीटर होते हैं। डी.एन.ए. का एक अणु 2.5 नैनोमीटर का होता है।
 नैनोटैक्नोलाॅजी की शुरूआत:-
 जब भी नैनोटैक्नोलाॅजी के विषय में हम पीछे मुड़कर देखते है तो हमारा ध्यान 1959 में प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी रिचर्ड फेनमेन द्वारा बहुत ही लोकप्रिय लेक्चर There is Plenty of room at the bottom की तरफ जाता है जिसमें सर्वप्रथम उन्होंने नैनोमीटर स्तर पर पदार्थ के गुण और उससे बनने वाली वस्तुओं के संभावित विषय पर चर्चा की थी नैनोटेक्नोलाॅजी शब्द का प्रथम इस्तेमाल सर्वप्रथम टोकिया विश्वविद्यालय के नोरिओं तानीगुची ने 1974 में प्रकाशित अपने एक शोध पत्र में किया था लेकिन इस विज्ञान के बारे में जनचेतना का श्रेय अमरिका के फोरसाइट नैनोटैक संस्थान के संस्थापक निदेशक एरिक डेªक्सलर को जाता है जिन्होंने 1986 में अपने बहुत ही प्रसिद्ध दस्तावेज ''एन्जिन आॅफ क्रियेशन: द कमिंग नैनोटैक्नोलाॅजी'' को प्रकाशित किया। एरिक ड्रेसलर को नैनोटैक्नोलाॅजी के जनक के नाम से जाना जाता है। आज कल ये नैनोरेक्स नामक कम्पनी के मुख्य तकनीकी अधिकारी है।
 आज जो शोध   हो रहे है उनका केन्द्र बिन्दु दूसरी तकनीकियों के साथ नैनो का सामन्वय है। वास्तव में ऐसी अनेक प्रौद्योगिकियाॅ है जाहॅ आज नैनोकण, नैनो पाउडर, नैनो नलिकाओं   का सफलता से उपयोग हो रहा है। इस सूक्ष्म स्तर (नैनोस्तर) पर पदार्थ का व्यवहार बिल्कुल ही अलग होता है। उसकी रासायनिक प्रतिक्रिया क्षमता बहुत तीव्र हो जाती है। उसकी गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है। यहाॅ तक कि उसका रंग भी बदल जाता है। इस प्रकार हमारी दुनिया के सामानान्तर एक और दुनिया है जिसे नैनो विश्व कहा जा सकता है।
 ताँबे को नैनो स्तर पर लाने के बाद कमरे के तापमान पर ही इसका लचीलापन इतना अधिक बढ़ जाता है कि इसके तार को खींचकर 50 गुने लम्बे किये जा सकते है जिंक आॅक्साइड जो सफेद होता है नैनोस्तर पर पारदर्शी हो जाता है तथा एल्युमीनियम को नैनोस्तर पर लाने से वह खुद ही आग पकड़कर भस्म हो जाता है। उद्योगों से लेकर पर्यावरण, औषधियों, विज्ञानों और यहां तक कि बहुत सी घरेलू वस्तुओं में भी इसके उपयोग पर कई प्रयोग चल रहे है।
 साबुन, कपड़े, प्लास्टिक जैसे बहुलकों में जिंक नैनोकण तथा चाँदी के नैनोकणों का उपयोग किये जाने की संभावना है जिससे इनकी गुणवत्ता में कई गुना वुद्धि हो जाती है इन्हीं कणों का उपयोग सूक्ष्मजीव-रोधी, एन्टी बैक्टीरियल, एन्टीबायोटिक तथा एन्टीफंगल क्रीमों में उपयोग करके दिन-प्रतिदिन की वस्तुओं को इस कदर सुग्राही तथा प्रभावी बनाया जा सकेगा कि इन वस्तुओं के 100 प्रतिशत परिणाम नजर आयें।
 विश्व में ऊर्जा संकट को ध्यान में रखते हुए ठोस आॅक्साइड ईधन सैलों में  लैथेनम, सीरियम, स्ट्राॅन्शियम टाइटेनेट नैनोकणों और टेंटेलम नैनो कणों का उपयोग करके अगली पीढ़ी की लीथियम आयन बैट्रियों में बदलकर सर्वश्रेष्ठ बनाया जा रहा है। इसी प्रकार सौर ऊर्जा सैलों में बहुत ही उच्च शुद्धता वाले सिलिकाॅन नैनोकणों का उपयोग करके उनकी कार्यक्षमता के साथ-साथ कार्यकाल में वृद्धि की जा रही है।
नैनोटैक्नोलाॅजी की औषधि विज्ञान में भूमिका:- बहुत से नैनोकणों का उपयोग तो औषधि विज्ञान व जीव-विज्ञान में सीमा रहित हैं जैसे- कैल्शियम फाॅस्फेट के नैनो क्रिस्टल को इस्तेमाल करके क्रत्रिम हड्डी के ऐसे पदार्थ का निर्माण किया गया है जो हर हालत में अपनी गुणवत्ता वाले ग्.तंल चित्रों के लिये विशेष रूप से वे, जिनसे दांतों का परीक्षण किया जाता है, टंगस्टन आॅक्साइड नैनोकणों का उपयोग किया जा रहा है। यहां तक कि कैंसर के प्रभावी उपचार में भी इसके असीमित इस्तेमाल की संभावना है जिन पर अनुसंधान चल रहा है।
नैनोरोबोट्स अथवा नैनोबोटस:-
 नैनोबोट्स बहुत छोटे कण (0.5 से 3 माइक्रोमीटर के रोबोट) होते है कि ऐसे कल पुर्जों से बने होते हैं जिनका आकार 1 से 100 नैनोमीटर तक होता है। इसमें कार्बन की नैनोनलिकाओं जिन्हें फुलरीन्स कहते हैं, का उपयोग कर इलेक्ट्रानिक चिप्स बनाये जाते है इन रोबोट्स को शरीर के अन्दर रक्तवाहिनियों आदि में आसानी से प्रविष्ट कराया जा सकता है। इन नैनोरोबोटों से, प्रारम्भिक रूप से बगैर किसी ऐन्टीबायोटिक का इस्तेमाल कर रोग जनक बैक्टीरिया को तो नष्ट किया जा सकता है लेकिन वहीं दूसरी ओर हानि रहित व सामान्य जीवाणुओं को हानी पहुंचाये बिना भी बचाये रखा जा सकता है। ऐसे नैनोरोबोट्स शरीर की सामान्य प्रतिरोधक क्षमता में भी वृद्धि कर सकते हैं। बाहर से जब कोई अनचाहा रोगाणु प्रवेश करेगा तो ऐसी नैनो मशीनें उसमें पंक्चर कर उसके प्रभाव को समाप्त कर सकेगी।
 ऐसी क्रीम का भी प्ररीक्षण किया जा चुका है जिसमें नैनोरोबोट्स होते है। इस क्रीम में उपस्थित नैनोरोबोटों की सहायता से मृत व खराब त्वचा व पिम्पल्स को हटाकर त्वचा में अच्छी सौन्दर्यता प्रदान की जा सकती है। इस प्रकार भविष्य में मेक-अप की सामग्री नैनोटैक्नोलाॅजी के द्वारा उत्पादित हो सकेगी।
नैनो टैक्नोलाॅजी द्वारा कम्प्यूटर:-नैनो टैक्नोलाॅजी से बनने वाले भविष्य के कम्प्यूटर न केवल तेज रफ्तार वाले होंगे - क्योंकि उनमें कार्बन की नैनोनलिका द्वारा बने चालक की चिप्स होगी- बल्कि वे आकर में भी छोटे होंगे। एक विशेष प्रकार के क्वाण्टम कम्प्यूटर्स का निर्माण भी नैनो टैक्नोलाॅजी से ही संभव हो पायेगा। नैनो टैक्नोलाॅजी का उपयोग न सिर्फ उच्च प्राद्योगिकी में अपितु सुरक्षा विज्ञान और अन्य शाखाओं में हो रहा है। इसी प्रकार नैनो प्रोद्योगिकी का अन्य कई क्षेत्रों में भी जैसे जैव-प्रौद्योगिकी, क्वाॅटम कम्प्यूटर्स में महत्वपूर्ण उपयोग है। जिनके क्षेत्र में निरंतर अनुसंधान हो रहा है।
 परन्तु नैनो टैक्नोलाॅजी के असीमित उपयोगों के साथ कुछ हानियाँ (पर्यावरणीय खतरे) भी हैं। जिनको दूर करने के संबंध में प्रयास (अनुसंधान) हो रहे हैं।


श्रीनिवास रामानुजन् आयंगर

 कुछ व्यक्ति संसार में ऐसे भी पैदा होते हैं। जिनकी प्रतिभा को जन्मजात ही कहना चाहिए। वे स्वतः प्रसूत ज्ञान से समस्त विश्व को चैका देते हैं और सारी दुनिया उन्हें 'आश्चर्य' 'अद्भुत' की संज्ञा देती है।
 विलक्षण प्रतिभा के धनी उस गणितज्ञ का नाम था- श्रीनिवास रामानुजन् आयंगर।
 श्रीनिवास रामानुजन् का जन्म 22 दिसम्बर, 1887 को तत्कालीन मद्रास प्रान्त में हुआ था। रामानुजन् का जन्म स्थान तंजौर जिले के कुम्भकोणम नगर के पास 'इरोद' नामक गांव है। रामानुजन् के पिता के श्रीनिवास आयंगर एक मुनीम का कार्य करते थे।
 रामानुजन् के पिता को दुकान के कार्य से बहुत कम समय मिल पाता था। रामानुजन् के लालन-पालन की समस्त जिम्मेदारी इनकी मां कोमल अमल ने संभाल रखी थी। धार्मिक विचारों वाली कोमल अमल मन्दिर में भजन गाया करती थी। अतः रामानुजन् का बचपन मंदिर परिसर के पवित्र वातावरण में बीता। रामानुजन् की प्रारम्भिक शिक्षा तामिल माध्यम के स्थानीय विद्यालय में हुई। बाद में नाना ने रामानुजन् को मद्रास के एक माध्यमिक विद्यालय में भर्ती कराया। गणित से रामानुजन् का औपचारिक परिचय माध्यमिक विद्यालय में भर्ती के बाद हुआ। 11 वर्ष की उम्र में रामानुजन् मकान में किराये पर रहने वाले दो विद्यार्थियों के साथ महाविद्यालय स्तर के गणित के प्रश्न हल करने लगे थे। गणित के प्रति रामानुजन् का रुझान देख, इन्हें उच्च त्रिकोणमिति पर एस.एल. लोनी द्वारा लिखित पुस्तक दी गई। 13 वर्ष की उम्र में ही रामानुजन् ने उस पुस्तक की सभी समस्याओं को सरलता से हल कर दिया था। रामानुजन् ने गणित की पुस्तकों के प्रश्न हल करने में महारत हासिल करने के साथ ही अपने स्तर पर भी कई प्रमेय सिद्ध कर दिखाए थे। हाई स्कूल परीक्षा में रामानुजन् ने गणित का प्रश्न पत्र निर्धारित समय से आधे समय में ही हल कर लिया था।
 16 वर्ष की उम्र में जार्ज कर द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ए सिनाॅप्सिस आफ एलिमेन्टरी रिजल्ट्स इन प्योर एण्ड एप्लाइड मैथेमेटिक्स' ने रामानुजन् को पूर्ण रूप से गणित की दुनिया में पहुंचा दिया।
 चारों ओर से प्राप्त प्रशंसा रामानुजन् को रास नहीं आई। इण्टर की परीक्षा का परिणाम आया तो रामानुजन् ने गणित में बहुत अच्छे अंक आए मगर अन्य विषयों में असफल रहे थे। पूर्व में स्वीकृत छात्रवृत्ति कोई काम नहीं आई।
 अतः डिग्री लिए बिना ही रामानुजन् को औपचारिक अध्ययन छोड़ना पड़ा। अपने अध्ययन के बल पर रामानुजन् कभी भी डिग्री प्राप्त नहीं कर सके। 22 वर्ष की आयु में रामानुजन् का विवाह 9 वर्ष की कन्या जानकी अमल से हुआ। अब तो एक और दायित्व आ पड़ा था। घर की आर्थिक दशा ऐसी नहीं थी कि परिवार का पोषण हो सके। मजबूर होकर उन्हें नौकरी की तलाश करनी पड़ी। पढ़ाई तो चल पानी मुश्किल ही थी। नौकरी पाने की उम्मीद में वह 'इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी' के संस्थापक श्री रामास्वामी अय्यर जो डिप्टी कलेक्टर भी थे, से मिलने गए। उन्होंने महसूस किया कि यहां देहात में उसकी प्रतिभा विनष्ट हो जायेगी, अतः उन्होंने एक परिचय-पत्र देकर उसे पी.बी. शेष अय्यर के पास कुम्भकोणम् भेज दिया।
 इसी बीच दीवान रामचन्द्र राव के प्रयास से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के सभापति सर फ्रांसिस स्प्रिंग ने रामानुजन् मंे रुचि ली। उनकी राय पर इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कालेज के फेलो प्रो० हार्डी को पत्र लिखा- 'मुझे विश्वविद्यालय की शिक्षा नहीं मिली है। परन्तु साधारण स्कूल का पाठ्यक्रम समाप्त कर चुका हूँ। स्कूल छोड़ने के पश्चात् मैं अपना समय गणित पर लगाता रहा हूं। मैंने श्क्पअमतहमदज ैमतपमेश् का विशेष अध्ययन किया है। अभी हाल में मुझे आपका श्व्तकमत व िप्दपिदपजलश् शीर्षक प्रकाशन मिला। उसके 36 वें पृष्ठ पर लिखा है कि अभी किसी दी हुई संख्या से कम श्च्तपउम छनउइमतश् (अभाज्य संख्या) की संख्या के लिए कोई निश्चित राशिमाला नहीं मिल सका है। मैंने एक ऐसी राशिमाला खोजी है जो वास्तविक परिणाम के अत्यन्त निकट है। उसमें जो अशुद्धि आती है, वह नाम मात्र और त्याज्य है। कहना न होगा कि रामानुजन् के परचे देखकर प्रो० हार्ड़ी कितने प्रभावित हुए।प्रो० हार्डी की इच्छा थी कि रामानुजन् यदि कुछ दिन कैम्ब्रिज में रहें तो उनकी मेधा और कुशाग्र हो जाएगी तथा उनके कुछ गणित ज्ञान का परिष्कार भी। पहले तो धार्मिक अड़चने सामने आई लेकिन अंततः वे राजी हो गये।  मद्रास गवर्नमंेट की स्वीकृति से मद्रास विश्वविद्यालय ने 250 पौण्ड की वार्षिक छात्रवृत्ति स्वीकार की। साथ में इंग्लैण्ड का मार्ग व्यय तथा वहां का प्रारम्भिक व्यय भी देना स्वीकार किया।
 रामानुजन् ने 17 मार्च, 1914 को इंग्लैण्ड की यात्रा आरम्भ की। अप्रैल में वह कैम्ब्रिज पहुंचे। ट्रिनिटी कालेज ने भी 4601 पौण्ड वार्षिक की छात्रवृत्ति प्रदान की। इंग्लैण्ड पहुंचने पर प्रो० हार्डी ने उनका जोरदार स्वागत किया। अन्य गणितज्ञों से मिलवाया।
 जब उनके शोध पत्र वहां के पत्रों में छपे तो पाश्चात्य जगत विस्मित हो उठा। प्रो० हार्डी ने महसूस किया रामानुजन् का गणित के कुछ क्षेत्रों में पूर्ण अधिकार है लेकिन कुछ चीजों की उन्हें कम जानकारी है। चूंकि रामानुजन् ने कोई विधिवत् पाठ्यक्रम का अध्ययन तो किया नहीं था, अतः प्रो० हार्डी ने उन चीजों को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लिया।
 रामानुजन् ब्राह्मण परिवार के थे और धर्म-कर्म में विश्वास करते थे। इंग्लैण्ड की कडी सर्दियों में स्नान करते। कपडा उतार कर भोजन बनाते। ऐसे में 1917 में उनमें तपेदिक के लक्षण दिखाई पड़ने लगे। डाॅक्टरों की राय में इंग्लैण्ड की जलवायु उनके स्वास्थ्य सुधार में बाधक थी, अतः उन्हें भारत लौटाने का निश्चिय किया गया। 27 फरवरी, 1919 को उन्होंने इंग्लैण्ड छोड़ा। 27 मार्च को रामानुजन् बम्बई पहुंचे और 2 अप्रैल को मद्रास। वह वहां से अपने गांव के पास कावेरी के तट पर स्थित कोडुमंडी पहुंचे। मगर स्वास्थ्य में सुधार न हुआ। हालात और खराब होते गये। अंत में 26 अप्रैल, 1920 को 33 वर्ष की अल्पायु में रामानुजम् दिवंगत हो गये।
 रामानुजन् ने आधुनिक विश्व के गणित मानचित्र पर भारत को विशिष्ट स्थान दिलाया। रामानुजम् ने यह भी प्रतिपादित किया कि आस्था मेधावी व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। रामानुजम् को सम्पूर्ण विश्व के गणितज्ञों का सम्मान मिला है। देश व तमिलनाडु राज्य विशेष रूप से रामानुजम् को याद करता है। कई पुरस्कार तथा सम्मान उनकी याद में प्रदान किए जाते हैं जिसमें 10,000 डाॅलर का सरस्त ;ैींदउनहीं ।तजे ैबपमदबम ज्मबीदवसवहल - त्मेमंतबी ।बंकमउल) रामानुजम् पुरस्कार सबसे महत्वपूर्ण है। यह गणित में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु दिया जाता है। रामानुजन् कठिन परिस्थतियों में भी निरन्तर आगे बढ़ने के आदर्श के रूप में भारतीय प्रतिभाओं को प्रेरणा देते रहेंगे। श्रीनिवास रामानुजन् की 125वीं जयंती के उपलक्ष्य में देश ने वर्ष 2012 को राष्ट्रीय गणित वर्ष तथा श्रीनिवास रामानुजन् के जन्मदिन 22 दिसम्बर को राष्ट्रीय गणत दिवस घोषित किया। इन आयोजनों की सार्थकता इस बात में निहित है कि रामानुजन् जैसी प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें उसी तरह तराशा जावे जिस तरह प्रो० हार्डी ने रामानुजन् को तराशा था।


एक बूँद

''बूंद-बूंद से भरती है गागर
स्नेह और बाती से दिया जलता है
खून को पसीनें में बदलो
मेहनत से नसीब बदलता है।''
  परिश्रम के पक्ष को प्रतिपादित करती ये प्रेरक पंक्तियां विकासशील समाज के लिए साहित्य का अनुपम उपहार हैं। विधाता की अनुपम सृष्टि-मनुष्य उर्वर मस्तिष्क वाला मनुष्य इन्हीं मस्तिष्कों से साहित्य का सृजन करता है। साहित्य और साहित्यकार की रचना संसार को सुनना समझना और देखना एक अत्यन्त सुखद अनुभव है। 
 इसी अनुभव का एहसास साहित्य को समाज से जोड़ता है और साहित्य में समाज प्रतिबिम्बित होता है। विद्यार्थी वर्ग अत्यन्त ही कल्पनाशील एवं भावुक हृदय वाला होता है। हर छोटी बड़ी घटना उनके मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है। हमने उनकी इसी शक्ति को प्रोत्साहित कर उसे निखरने के पूर्व अवसर प्रदान किए हैं।
 साहित्य सामाजिक अभिव्यक्ति का एक स्वरूप है। इस अभिव्यक्ति का सुख सब सुखों से बड़ा होता है। क्योंकि यह पाकर नहीं वरन् देकर मिलता है। ये अभिव्यक्तियाँ कभी आपकी थकान मिटायेंगी, कभी मनोरंजन करेगी, कभी नीरस मन को सरस करेगी, कभी मानसिक पीड़ा के लिए मरहम बनेगी, तो कभी जीवन के झुलसे मौसम में बसंती बयार बनेगी। 
 अंत में मेरा यही कहना है-
आगे बढ़ना सृष्टि का नियम है
पीछे वे देखते हैं
जिनके आगे राह नहीं होती है
स्थिर वे रहते हैं
जो चेतना शून्य होते हैं।


शारीरिक शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण शिक्षा का अंग

 आधुनिक युग को यन्त्र युग कहा जाता है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि यन्त्रों ने मानव जीवन को इस प्रकार आच्छादित कर लिया है, जिस प्रकार सावन की घनघोर घटा आकाश को ढक लेती है। यदि मानव चाहे भी तो वह यन्त्रों से किसी भी अवस्था में छुटकारा नहीं पा सकता। उसने यन्त्रांे का अविष्कार किया था, जीवन को सुखमय बनाने के लिए परन्तु आज यन्त्र मानव के सेवक न रह कर उसके आश्रय-दाता बन गये हैं। इसी उथल-पुथल में मानव स्वयं भी एक यन्त्र बनकर रह गया है। जैविक खोजों ने इस बात के कई पुष्ट प्रमाण हमारे सामने प्रस्तुत किए हैं जिनमें हमें ज्ञात होता है कि जब से मानव ने यन्त्रों पर आश्रित रहना स्वीकार किया तभी से शारीरिक बल और शौर्य में कमी हुई है। आधुनिक मानव करोड़ों वर्ष पहले मानव की तुलना में तुच्छ अथवा हीन दिखाई पड़ता है। भले ही यन्त्र मानव के असंख्य, असाध्य कार्र्यांे को सम्पन्ना करने के येाग्य बन गये हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि मानव का इस सृष्टि में अस्तित्व बुनियादी तौर पर शारीरिक ही है। शरीर मानव की अमूल्य निधि है, तथा इसे खो कर मानव कहाँ तक अपना अस्तित्व बनाए रख सकेगा, एक विचारणीय प्रश्न है। यदि मानव अपने शरीर का सदुपयोग नहीं कर सकता, वह अभिवृ(ि और विकास के शिखर को नहीं छू सकता।
 यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा केवल मानसिक पहेलियों एवं अठ्खेलियांे का क्षेत्र न रह कर शारीरिक उन्नति का भी साधन समझी जाने लगी है और आज का शिक्षा शास्त्री इस बात पर अधिक जोर देता है कि एक अच्छा मनुष्य वही है जो शारीरिक दृष्टिकोण से हृष्ट-पुष्ट बलवान तथा सक्रिय, मानसिक दृष्टिकोण से तीव्र, संवेगात्मक दृष्टि कोण से सन्तुलित, बौ(िक दृष्टिकोण से प्रखर तथा सामाजिक दृष्टिकोण से सुव्यवस्थित हो। शिक्षा क्षेत्र की अभिनव खोजों तथा नए शिक्षा उपकरणों के अविष्कारों ने मानव कल्याण के लिए कई नए तथ्यों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। उनमें एक तथ्य यह भी है कि आज मानव को एक सुनियोजित खेल अथवा शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम की आवश्यकता है। हमें ज्ञात है कि सदैव परिवर्तित होता वातावरण मानव शरीर और मानव जीवन में असंख्य परिवर्तन लाता है। यह परिवर्तन अभी भी हो रहे हैं। जिनका प्रभाव अतिसूक्ष्म ढंग से मानव पर पड़ रहा है। बहुत से विद्वानों को इस बात का भी भय है कि यदि मानव ने अपने शरीर के उचित उपयोग के इस प्रबन्ध को समाप्त कर दिया तो एक दिन उसका शरीरिक अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा।
 शारीरिक शिक्षा एक बहुत पुराना विषय है परन्तु आजके युग ने इसे एक अनिवार्य अनुशासन की संज्ञा देकर क्रमब( और सुनियोजित किया है। इसे पाठशालाओं तथा उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका है। परन्तु इस संसार में अधिक संख्या उन्हीं व्यक्तियों की है जो इस विषय और अनुशासन के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते तथा न ही जानने का प्रयत्न करते हैं। वे स्वस्थ भी रहना चाहते हैं परन्तु इस अनुशासन को अपनाने के लिए तत्पर नहीं हैं। इस लिए यह आवश्यक है कि पुरातन अनुशासन के महत्व की जानकारी तथा प्रसार के लिए इससे सम्बन्धित परिभाषाओं, सि(ान्तों एवं तत्वज्ञान की व्याख्या की जाए।
 शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में छिपे हुए गुणों को अच्छी तरह से विकसित करना है, क्योंकि जन्मजात गुणों के विकास से व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास सम्भव है। एक व्यक्ति अगर तन और मन को एकाग्र न करे तो वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह दो ऐसे पक्ष हैं, जो एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। मानसिक स्तर पर थके हुए व्यक्ति को यदि बल पूर्वक शारीरिक प्रक्रियाएं कराएं तो हो सकता है कि वह इन्हें सन्तुलित एवं वंाछनीय ढंग से न कर सके। शारीरिक शिक्षा, क्योंकि शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा शिक्षा है। अतः विद्यार्थी विभिन्न अनुभवों के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक शिक्षा का माध्यम निः संदेह दीर्घ पेशी प्रक्रियायें हैं किन्तु इसका उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्य से भिन्न नहीं है। भारतीय शारीरिक शिक्षा तथा मनोरंजन के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड ने अपनी परिभाषा में शारीरिक शिक्षा व शिक्षा को इस प्रकार स्पष्ट किया है - ”शारीरिक शिक्षा शिक्षा ही है“। यह वह शिक्षा है जो बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा उसकी शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा शरीर मन एवं आत्मा के पूर्ण रूपेण विकास हेतु दी जाती है।


आर्कटिक-सागर ;उत्तरी ध्रुव

 आर्कटिक यानि उत्तरी ध्रुव जिसे भौगोलिक भाषा में 900 उत्तरी अक्षांश, जो बिन्दु मात्र रह जाता है, के नाम से जाना जाता है। अगर उसे हम पृथ्वी की छत कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां विशाल बर्फ के अतिरिक्त आर्कटिक सागर भी शामिल है। यह सागर कई देशों जैसे- कनाडा, ग्रीन लैण्ड, रूस, अमेरिका, आइसलैण्ड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैण्ड की जमीनों को छूता हैै।
 उत्तरी धु्रव पर पहुंचने का सबसे प्रथम सफल प्रयास राबर्ट पियरे ने किया। इसके पहले भी कई प्रयास हुए थे। लेकिन वे सफल नहीं हुए। यह व्यक्ति 1908 में इन अन्तरीप तक रूजवेल्ट नामक जहाज में गया। वहां से वह अपने दल के साथ पैदल ही आगे बढ़ा। बारह स्लेज गाड़ियों में उसका सामान लदा था जिसे 133 कुत्ते ;रेण्डियरद्ध खींच रहे थे। 
 6 अप्रैल 1909 को पियरे अपने साथी मैथ्यू हैनसन और चार एस्किमों के साथ पृथ्वी की उत्तरी-चोटी पर पहुंचा। आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ का विशाल सागर है जिसे अंध महासागर का उत्तरी छोर भी कहा जाता है इस क्षेत्र में वनस्पति कम मिलती है फिर भी लाइकेन, मांस तथा प्लैक्टन नामक पौधे पाये जाते हैं। इस जमीन पर धु्रवीय भालू और कुछ लोग भी रहते हैं। इस अनोखे भौगोलिक वातावरण के कारण यहां रहने वाले लोगों ने खुद को हालात के अनुसार ढाल लिया है यहां पर सर्दियां भीषण बर्फीली और अंधियारी होती है। गर्मियों में सूर्य 24 घण्टे निकला रहता है। यहां का मौसम सर्दियों में शून्य से 400ब् तक नीचे जा पहुंचता है। यहां का सबसे कम तापमान शून्य से 680ब् से नीचे तक रिकार्ड किया गया है। 
 यहां गर्मियों में भी ठण्ड बनी रहती है। ऐसा समुद्री हलचल के कारण होता है। कई तरह के पदार्थ भी इस क्षेत्र में मिलते हैं, जैसे-तेल, गैस, खनिज आदि। कई किस्म की जैव-विविधता, यहां प्राड्डतिक तौर पर संरक्षित हैं। कुछ समय से यह क्षेत्र पर्यटन उद्योग की दृष्टि में आया है। यहां विश्व के जल क्षेत्र का 1/5 प्रतिशत जल स्त्रोत है। इन्टरनेशनल आर्कटिक साईन्स कमेटी ने गत दस वर्षों में इस जटिल क्षेत्र के संदर्भ में कई नई जानकारियां जुटाई हैं तथा प्रयास भी कर रही हैं।
 इस क्षेत्र का सबसे रोचक दृश्य मिडनाईंट-सन और  पोलरनाईट है।