Sunday, October 6, 2019

बकुण्ड- इमारत कभी बुलंद थी- श्री रूपेश उपाध्याय एसडीएम श्योपुर

काल की गति और आक्रांताओं के कोप से ध्वस्त हुई इस विरासत के खंडहर अब मौन है। दूर-दूर तक फैली पुरा संपदा प्रमाणित करती है कि लगभग एक हजार वर्ष पूर्व यह स्थान समृद्ध और वैभवशाली नगर रहा था, पर अब वो वक्त नही रहा। अब तो खंडहर ही शेष रह गए है।
श्योपुर जिले की कराहल तहसील अतंर्गत गोरस श्यामपुर रोड से तीन किमी अंदर पारम नदी के किनारे डोब कुण्ड स्थित है। सन् 1992-93 में पहली बार डोब कुंड जाने का अवसर मिला। एक लम्बे अरसे बाद अब फिर से जाना हुआ।
घने जंगल के बीच पारम नदी के उदगम स्थल पर कटीली झाड़ियो मे प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच डोब कुण्ड के अवशेष देखे जा सकते है। पर यहां तक पहुँच पाना हर किसी के लिए आसान नही है।
किसी समय यहाँ बने दो विशाल मंदिरों से तमाम मूर्तियांश्योपुर और दूसरे संग्रहालयों भेज दी गई है। कुछ चोरी हो गई है। शेष अवशेष वहीं बिखरे पडे है।
प्रतिहार सत्ता के पतन के बाद ग्वालियर मुरैना श्योपुर शिवपुरी क्षेत्र में चंदेलों के समकालीन एक अन्य राजवंश कच्छपघात का उदय हुआ। पहले ये सामन्त के रूप में शासन करते थे। कालांतर में प्रतिहार शासन के बिखराव का लाभ उठाकर उन्होंने स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
इस वंश की राजधानी मुरैना की तहसील अम्बाह में स्थित सिंहोनिया थी। इस वंश में द्वितीय शासक बज्र दमन था। इस वंश का ग्वालियर क्षेत्र के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में विशिष्ट योगदान है। कालांतर में कच्छपघात वंश में तीन शाखाये हो गई। सिंह पानिया, नरवर एवं डोब कुंड। डोब कुंड शाखा सिहोनिया से आवृजित हुई।
डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी के अनुसार सिंह पानिया नरेश बज्र दमन ने जब गांधी नगर के कुछ सदस्यों ने डोब कुंड की शाखा की नींव डाली।
इस शाखा का प्रथम शासक युवराज था। जिसके शासनकाल के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नही होती, किन्तु उसके उत्त्तराधिकारी अर्जुन को विक्रामसिहं द्वारा सन 1145 ई में स्थापित डूब कुंड प्रस्तर अभिलेख में उसे चंदेल शासक विद्याधर का करद शासक होना बताया गया है।
अर्जुन के उत्तराधिकारी अभिमन्यु ने सन् 1035 से 1044 ई तक शासन किया। डोब कुंड अभिलेख में उसके पराक्रम का उल्लेख है।
अभिमन्यु का उत्तराधिकारी विजयपाल हुआ। इसका उल्लेख बयाना के अभिलेख में किया गया है। अभिलेख अनुसार अधिराज विजय के साम्राज्य में श्रीपत नामक जैन साधु रहता था।
विजयपाल के बाद विक्रम सिंह डोब कुंड की गद्दी पर बैठा। सन् 1145 ई के किसी शासक के बारे में जानकारी प्राप्त नही है।
ग्वालियर स्टेट गजेटियर के अनुसार इस गैर आबाद गाँव में तालाब किनारे दो मंदिर है। इनमें एक हरि गौरी का है तथा दूसरा खास मंदिर जैनियों का है। इसके तीन तरफ 8 बुर्जिया है। मंदिर और बुर्जियों के दरवाजे पर निहायत उम्दा खुदाई का काम है। तमाम मूर्तिया नंगी है। जिससे मालूम होता है कि यह दिगम्बरी मंदिर है।
यहॉ वालों का खयाल है कि कुछ मंदिर एक मराठा अमर खंडू के जूल्म ज्यादती से खराब हो गया। यहॉ एक खम्बे पर 59 सत्तरों का बडा लम्बा कतबा खुदा है। इस कतबे में कच्छपघात घराने का हाल लिखा है। इसे विक्रमसिंह कच्छपघात ने खुदवाया था।
डोब कुंड का संरक्षरण न हो पाने से यहॉ अब सब कुछ खत्म होने कगार पर है। हम जैसे जुनूनी व्यक्ति के लिय वहॉ कुछ आकर्षण बचा है तो भटकते भटकते इनकी खैर खबर लेने कभी-कभी वहॉ तक पहुँच जाते है।


No comments:

Post a Comment