Sunday, May 31, 2020

पिता बेटी का रिस्त




बेटी की विदाई के वक्त बाप सबसे आखरी में रोता है ,बाकी सब भावुकता में रोते है पर बाप उस बेटी के बचपन से विदाई तक के पल याद कर कर के रोता है माँ बेटी के रिस्ते पर तो बात होती ही है पर बाप ओर बेटी का रिस्ता भी समुद्र से गहरा है,,हर बाप घर के बेटे को गाली देता है धमकाता है मारता है पर वही बाप अपनी बेटी की हर गलती नकली दादा गिरी से नजर अंदाज कर देता है ,बेटे ने कुछ मांगा तो एक बार डाट देता है पर बेटी ने धीरे से भी कुछ मांगा तो पिता सुना जाता है और जेब मे हो न हो बेटी की इच्छा पूरी कर देता है।

दुनिया उस बाप का सबकुछ लूट ले तो भी वो हार नही मानता पर अपनी बेटी के आंख के आंसू देख कर खुद अंदर से बिखर जाए उसे बाप कहते है ,,ओर बेटी भी जब घर मे रहती है तो उसे हर बात में बाप का घमंड होता है किसी ने कुछ कहा कि तपाक से बोलती है पापा को आने दे फिर बताती हु ...।

बेटी घर मे रहती तो माँ के आंचल में है पर बेटी की हिम्मत उसका बाप रहता है ,,बेटी की जब शादी में विदाई होती है तब वो सबसे मिलकर रोती तो है पर जैसे ही बिदाई के वक्त कुर्सी समेटते बाप को देखती है जाकर लिपट जाती है ऐसे पकड़ती है बाप को जैसे माँ अपने बेटे को,क्यो की उस बच्ची को पता है ये बाप ही है जिसके दम पर मैंने हर जिद पूरी की थी,,खैर बाप खुद रोता भी है और बेटी की पीठ ठोक कर फिर हिम्मत देता है कि बेटा चार दिन बाद आजाऊँगा लेने और खुद जानबूझकर निकल जाता है किसी कोने में ओर उस कोने में जाकर कितना फुट फुट रोता है वो बाप ये बात सिर्फ बेटी का बाप ही समझ सकता है ...।आँखों से नीर छलकता है , अधरों से प्यार बरसता है

दिल में पीड़ा सी होती है , जब कन्यादान  होता है। उन हाथों का कर्ज कोई नहीं चुका सकता जिन हाथों ने है ,कन्यादान किया ,झोली खाली हो जाती है, तब 

सोने का कोई सिक्का उसे कभी नहीं भर सकता लाख ठोकरें खाकर भी वह दरवाजे पर है दिखते उतार कर अपने सर की पगड़ी , पैरों पर है रख देते धैर्य ना जाने कितना उनकी रग-- रग में है बसता ,बेटी का घर ना उजड़े ,बस यही ख्याल दिल में है बसता।

 देखकर यह हालात मन विचलित सा हो जाता।

 कन्यादान ना किया हो जिसने वह क्या जाने पीर--पराई... पाल--पोसकर बड़ा किया फिर करनी पड़ती है विदाई...।

देना सीखो इन दिलदारों से लेना तो सबको है आता, झुकना सीखो इन प्यारों से झुकना तो सबको है आता, त्याग और बलिदान की है मूरत सौंप दी है तुम्हें प्यारी सी मूरत सौभाग्यशाली हैं वह जिन्होंने कन्यादान किया ,,उनसे अधिक सौभाग्यशाली है वह जिन्होंने कन्यादान लिया होता है ,,उधार ये ऋण जो बेटी किसी की है ले आते वो ऋणमुक्त तभी हो सकते जब कन्या को परिवार में सम्मान मिले और माता पिता को उनके बराबरी का हक और मान मिले...।

गुनहगार नहीं वह होते जो कन्यादान है करते फिर क्यों उन्हें हर बार अपमान ही सहना पड़ता है, वही जिनके दिल के टुकड़े से ,घर परिवार है चलता तोड़ दोगे यदि स्तम्भ को तो घर कहाँ से बनाओगे,, याद रखो स्तम्भ के बिना तुम बेघर ही रह जाओगे,, **उससे बड़ा भी क्या कोई बलिदान करता है...?   वो पिता जो गोद मे खिलाई बेटी का कन्यादान करता है...?**

दान देने की प्रथा या कुप्रथा---

हमारे यहाँ दान देने की परम्परा पुरातन काल से चली आ रही है, दान भी कई प्रकार के होते हैं, जैसे स्वेच्छा दान ( धन दान एवं कन्या दान ), रक्त दान ( दूसरे के जीवन की रक्षा के लिये ) और ज्ञान दान ( गुरूकुल की परिपाटी ), दान शब्द के आते ही दाता की महानता ( रघुकुल भूषण, राज राजेश्वर अयोध्या नरेश श्री हरिश्चन्द्र ), क्षमता ( कुन्ती पुत्र दानवीर कर्ण एवं एकलव्य ) और पर उपकार के लिये प्रसिद्ध अपने हृदय की विशालता ( महर्षि शिवी एवं दधीचि ) के लिये सदा आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं एवं दक्षिणा दान की पूर्णाहुति होती है। दाता को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि दाता का हाथ ऊपर और प्राप्तकर्ता का हाथ नीचे होता है।

 कलियुग के वर्तमान काल में दान की व्याख्या ही बदल दी है, आज कन्यादान कर रहा महान दाता ( कन्या का पिता ) सदा वर पक्ष के मुखिया के जूते की नोंक पर टिका हुआ, अपने प्रतिष्ठा के रक्षार्थ, दया का पात्र बना, दहेज ( दक्षिणा का सम्भवतः अपभ्रंश ) की मार झेलने को विवश दीन हीन प्राणी दिखाई देता है। आरम्भिक काल में कन्या का पिता यह सोचकर कि बेटी नये घर में जा रही है, उसे कोई कष्ट की अनुभूति न हो, कुछ धन बेटी को दिया होगा, अब यह वर पक्ष के मुखिया का जन्मसिद्ध अधिकार हो गया, वह भी स्वेक्षा से नहीं बलात् ( पूर्व में ही धनराशि एवं इच्छित वस्तुओं ) की सूची थमा दी जाती है। एक लडका क्या पैदा कर लिया, लगा कि लघु उद्योग स्थापित कर लिया हो और कन्या ( आपके वंश की वृद्धि की सहभागीदार ) पैदाकर बेटी का बाप कोई अक्षम्य अपराध कर दिया हो...।

नन्ही सी परी को उसने गोद में खिलाया होगा,

हर दुख दर्द से उसे बचाया होगा,

ना जाने कितने आंसुओ को दफन कर,

उसके पिता ने कन्यादान का फर्ज निभाया होगा**।

भारी दहेज लेकर आई बहू से सास, ससुर, पति एवं परिवार के अन्य सदस्य यदि यथोचित सेवा-सुश्रुषा की अपेक्षा करना बेमानी होगी। बात पर बात ताना देकर बहू ( नारी ही नारी की दुश्मन ) को इतना क्रूर बना देते हैं कि वह आने वाले दिनों में अपने बहू के प्रति कठोरता की प्रतिमूर्ति बन जाती है, आपस की प्रेम भावना का धीरे धीरे ह्रास हो रहा है।

इसिलिए प्रायः ऐसा भी देखा गया है कि कन्या भ्रूण की हत्या गर्भ में ही कर दी जाती है कि उसे वर पक्ष के सामने जलील ना होना पडे, हालांकि यह सर्वथा एक अनुचित कदम है, इस प्रवृत्ति को भी हमें रोकना ही होगा, क्योंकि इसके दुष्परिणाम स्वरूप लडके और लडकियों के अनुपात में भयानक गिरावट देखी गयी है, जो भविष्य के लिये खतरे की घंटी है। आये दिन लडकियों से छेड़छाड़ एवं बलात्कार की घटनाओं से आजकल बच्चों में असुरक्षा की भावना जोड  पकड रही है, वे कहीं भी स्वयं को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं, इस  पर नियंत्रण करना हमारा सामाजिक दायित्व हो गया है। इसका एकमात्र बिकल्प स्वयं में सुधार लाना, समाज में इसके दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता पैदा करना, दहेज प्रथा का हर स्तर पर विरोध ( वर वधू भी वैसे संबंध से इन्कार कर दें जो दहेज की बुनियाद पर खडा होने में प्रयास रत हो। आपका साहस ही इस कुप्रथा पर रोक लगा सकता है, काम थोड़ा कठिन अवश्य है पर नामुमकिन नहीं।

रीत आज कन्यादान की या मुहँ मांगे दहेज की---

कन्यादान करते समय हमारे समाज में माता पिता अपनी पुत्री और दामाद के पैर छूते हैं । कन्यादान के समय बेटी के हाथ पर शंख जरुरी होता हैं क्योंकि दान कभी खाली हाथ नहीं किया जाता । शंख हाथ मे रख कर उसका हाथ वर के हाथ मे दिया जाता हैं...।

क्यों जरुरी हैं ये दान ....?? क्या पुत्री कोई वस्तु हैं की आप उसको दान करके अपने किसी पाप का प्रायश्चित करना चाहते हैं... ?? क्यों पुत्री और दामाद के पैर माता पिता छुते हैं... ?? क्या आप अपने इस दुष्कर्म की माफ़ी मांग रहे हैं की आप अपनी बेटी दान कर रहे उस का जिसको दुनिया मे आप ही लाये हैं... । 

अरे-अरे!! ये मैं क्या कह गयी , सही नहीं कही क्या...? की धर्म ग्रंथो मे ये लिखा है की कन्यादान से मोक्ष मिलता हैं माता पिता अपना परलोक सुधारने के लिये पुत्री का दान करते हैं ।

कन्याभूण हत्या को अपराध मानने वाला ये समाज क्यों कन्यादान पर चुप्पी साध लेता हैं... ?? क्यों कोई भी लड़की मंडप मे इसका विरोध नहीं करती और क्यों किसी भी लड़के का अहम दान लेने पर नहीं कम नहीं होता...??

कम से कम कन्याभूण हत्या के समय तो कुछ ही हफ्तो का जीवन हैं जो खत्म कर दिया जाता हैं और आप इतना हल्ला मचाते हैं पर कन्यादान जैसी परम्परा को जहाँ एक लड़की को जो कम से कम  18 साल की हैं एक जानवर की तरह , किसी वस्तु की तरह दान कर जाता हैं , आप निभाते जाते हैं... ।

जब तक कन्या का दान होता रहेगा तब तक औरतें भोग्या बनती रहेगी क्योंकि दान मे आयी वस्तु का मालिक उसका जैसे चाहे भोग करे उपयोग करे या काम की ना लगने पर जला दे । क्या हमने तरक्की की हैं ...?? लगता नहीं क्योकि मानसिक रूप से हम सब आज भी बेकार की परम्पराओं मे अपने को जकडे हुये हैं... ।

आलेख आपने पढा , सही नहीं लगा... ?? भारतीय संस्कृति के खिलाफ हैं... ?? नारी को भड़काने वाला हैं... ?? 

ऐसी बहुत सी बाते आप के मन मे आयेगी , पर अगर एक को भी ये पढ़ कर कन्यादान ना करने की प्रेरणा मिलाए तो मुझे लगेगा मेरा लिखना सार्थक हुआ... ।

 मुझे आप के कमेन्ट नहीं , आप की वाह- वाही नहीं बस आप की बदली हुई सोच मिल जाये तो एक बदलाव आना शुरू होगा... । बदलाव लेख लिख कर , पढ़ कर या वाद संवाद करके नहीं आ सकता , बदलाव सोच बदलने से आता हैं , जरुरी नहीं हैं की जो होता आया हैं वो सही ही हैं , और ये भी जरुरी नहीं हैं की सबको एक ही रास्ते पर चलना हैं

आईये सोच बदले ,नये रास्ते तलाशे और बेटियों का दान ना करके उनको इंसान बनाए... ।

यदि आज दहेज के कारण हमारे परिवार की स्थिति के बारे में विचार किया जाए---

जब कोई बाप अपनी बेटी के विवाह में लड़के वालों की मांग को पूरा करने के लिए जो कुछ भी करता है उसे दहेज कहते है....।

       दहेज़ एक ऐसा शब्द जो भारतीय समाज में कानून से भी ज्यादा गहराई से अपनी जड़े जमाए हुए है। इसे खत्म करने की बात हर कोई करता है लेकिन जब अपनी बारी आती है तो है किसी को दहेज़ चाहिए होता है।

     दहेज़ अभिशाप की तरह भारतीय समाज पर कहर बन कर बरप रहा है।इसकी सबसे ज्यादा मार गरीबों पर होती है।दहेज़ की वजह से ही आज हमारे समाज में बेटी को बोझ समझा जाता है। 

            दहेज़ और उपहार में बहुत ही ज्यादा अंतर होता है।

 जब कोई पिता अपनी बेटी की शादी में अपनी खुशी से जो भी देता है वह उपहार होता है और इसे देना पिता का हक भी होता है क्यूंकि उस पिता ने जिस बेटी को इतने सालों तक पाला पोसा है और जब वह बेटी बिन कुछ मांगे अपनी ससुराल चली जाती है तो पिता का यह अधिकार होता है कि वह अपनी बेटी को अपनी इच्छा से जो चाहे दे सकता है।

    लेकिन जब लड़की का पिता लड़के वालों की तरफ से या किसी बाह्य दबाव के कारण जो कुछ देने को मजबूर किया जाता है वह दहेज़ होता है। दहेज़ किसी भी रूप में हो सकता है वह किसी सामग्री के रूप में या फिर नकद भी हो सकता है।

     यह हमारे समाज की बिडंबना है कि आजकल दहेज़ भी समाज में प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होता है। जो    जितना अधिक दहेज़ पाता है उसे उतनी ही ज्यादा इज्ज़त दी जाती है। जो दहेज़ नहीं लेता है उसके बारे में तमाम तरह की अफ़वाहें उड़ाई जाती हैं और समाज में उसे नकारा समझा जाता है।

     हमें यह समझना होगा दहेज़ एक भीख से ज्यादा कुछ भी नहीं है जिसमें भिखारी वर पक्ष होता है और उनका कटोरा वर होता है। जब तक हम इन भिखारियों को इज्जत देते रहेंगे हमारे समाज से दहेज़ का दानव समाप्त नहीं होने वाला है। इसलिए हमें संगठित होकर इस समस्या से लड़ने की जरूरत है।दहेज़ लोभी आज भी दहेज़ की मांग करते हैं और पूरी न होने पर हत्या भी करते हैं।   इसका प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सबसे ज्यादा शिकार लड़कियां होती हैं। दहेज़ की वजह से समाज में लड़कियों को एक पिता बोझ के रूप में देखता है। अतः इस समस्या के ख़िलाफ़ सबसे पहले लड़कियों को खड़े होने की ज़रूरत है। इसके लिए लड़कियों को अपनी गृहलक्ष्मी की छवि से बाहर निकल कर दहेज़ लेने वालों को जवाब देने की जरूरत है...।

लड़के वालों हम लड़कियों को ये कहने पर मजबूर न करो की---

"झाड़ू-पोछा करब नाहि मांजब बर्तनवा,,,दहेज देके किनले बानी तोहरा के सजनवा..."

रीमा मिश्रा"नव्या"

आसनसोल(पश्चिम बंगाल)


 

 



 

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