Tuesday, October 29, 2019

टी.वी. मित्र अथवा शत्रु

 वर्तमान समय बड़ी जटिलताओं और विसंगतियों से गुजर रहा है। कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर हमारा ध्यान जल्दी जाता ही नहीं हैं। टेलीविजन क्या हमारा सच्चा मित्र है अथवा पठनीय अमूल्य पुस्तकें।
 टी0 वी0 को हम सभी जान गये हैं कि यह आज घर-घर की शान और शोभा बन चुका है और यह भी कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि निर्धन से लेकर धनवान की यह जरूरत बनता जा रहा हे। इसका आविष्कार वैज्ञानिक जे0 एल0 बेयर्ड द्वारा किया गया था, लेकिन उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी कि लोग इसके इतने दीवाने हो जायेंगे कि दीवानगी में आविष्कारकर्ता का नाम ही भूल जायेंगे।
 टी0 वी0 घर में एक अलग मुक्त संस्कृति को जन्म दे रहा है जिसे टी0 वी0 संस्कृति ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। मनुष्य की पूरी दिनचर्या ही बदल रही है। बच्चे और युवा इसे अपनाकर एक नया हिन्दुस्तान बना रहे हैं। अपने से बड़ों और गुरूजनों का सम्मान मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है। पढ़ने-लिखने के प्रति रूचि घटती जा रही है और आवश्यकतायें दिन-दूनी रात-चैगुूनी बढ़ती जा रही हैं, आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संरक्षक गलत-सलत काम करने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। अधिक से अधिक धनवान बनने की होड़ लगी हुई है। देश का भविष्य ये बच्चे अपने संरक्षकों से क्या और कैसे संस्कार ग्रहण करेंगे?आज इसका उत्तर हमारे पास बहुत खोजने से भी नहीं मिल पा रहा है।
 बच्चे और बड़े सहजता का जीवन न अपनाकर बात-बात में झूठ बोलने का सहारा ले रहे हैं। एक अलग ही समाज बन रहा है। युवा वर्ग तो टी0 वी0 संस्कृति को पूरी तरह समर्पित हो रहा है। सत्य, श्रम, कर्मठता, देशभक्ति जैसे शब्द उनके जीवन में बेमानी से लगने लगे हैं। उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति पिछड़ी और बौनी होती जा रही है। टी0 वी0 संस्कृति की भेंट चढ़ता जीवन आज और कल को खोखला कर रहा है तथा दिनचर्या को अनियमित कर रहा है, अच्छा और बुरा सब कुछ गडमड होता नजर आ रहा है।
 पुस्तकों की पृष्ठभूमि और इतिहास बहुत ही प्राचीन है या ये कहे कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है तभी से ही इनकी ज्ञान गंगा बहती चली जा रही है, चार वेदों के रूप में, पुस्तकें मानव की बहुत पुरानी मित्र हैं यही मन-मस्तिष्क की खुराक हैं या कहें कि प्रत्येक मनुष्य का अच्छा जीवन बनाने की एक अमूल्य धरोहर है।
 राष्ट्रपिता महात्मागाँधी कहते हैं, ''पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं, ये कभी हमें धोखा नहीं दे सकती।'' अनेक महापुरूषों ने अतिरिक्त समय में पुस्तकों को ही अपना मित्र बनाया था जिससे वह कठिन परिस्थितियों से लोहा लेकर जीवन मूल्यों को स्थापित करने में समर्थ रहे।
 हम अच्छी ज्ञानवर्धक पुस्तकें तथा अपनी कक्षा के विषयों से सम्बन्धित पुस्तकों का लगन व परिश्रम से अध्ययन कर ऊँचाइयों पर चढ़ सकते हैं। कक्षा में, विद्यालय में और देश में अपना नाम कर सकते हैं। आगे बढ़ते हुए कड़ी मेहनत से ही प्रशासनिक अधिकारी, वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर आदि बन सकते हैं।
 साधारण मनुष्यों के जीवन को इन पुस्तकों ने ही महापुरूष बनाया है। इनसे इतिहास के अनेक पृष्ठ स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो चुके हैं जिसमें हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति श्री राजेेन्द्र प्रसाद जी, प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी आदि दिवंगत हो गये हैं तथा वर्तमान में पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी, प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी व महामहिम राष्ट्रपति डाॅ0 ए0 पी0 जे0 अब्दुल कलाम आदि हमारे लिए उदाहरण स्वरूप प्रेरणा के श्रोत हैं।
 वर्तमान में अच्छी पुस्तकों का पढ़ने का शौक ज्यादातर कम होता जा रहा है। विचारहीन पत्र-पत्रिकायें, उपन्यास काॅमिक्स आदि पढ़ने में कुछ बच्चे और बड़े अपना अमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं। ऐसी घटिया पुस्तकों को पढ़कर वे टी0 वी0 संस्कृति के मित्र बन रहे हैं। और न ही उन्हें उससे कुछ मिल पा रहा है, और न ही वे इससे समाज का कोई उपकार कर पा रहे हैं, हाँ, अपकार करने में अपना सहयोग कर रहे हैं। क्या यही जीवन की सार्थकता है, तनिक एकान्त में सोचिए?
 हम अच्छी पुस्तकें पढ़कर ही उन महापुरूषों, विद्वानों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों से प्रेरणा ले सकते हैं जिन्होंने समाज और देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। आज ये समाज और देश उन्हीं, की बदौलत जीवित है। हमें ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ने में रूचि लेनी चाहिये, यदि अच्छी पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों पर हर माह खर्च भी करना पड़े तो अकारथ नहीं जायेगा। उससे हमको इतना प्राप्त हो जायेगा कि उसकी अनुभूतियाँ और उसके अपरोक्ष लाभ हम शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकते।
 कौन सी कविता, कहानी, लेख, विचार हमारे तनाव युक्त जीवन को ससमय-सुखमय बना दें। जब हमें पढ़ने-पढ़ाने का शौक ही नहीं होगा तो कैसे बदलेगा जीवन, और हम संसार से बिना कुछ लिए और दिये यूँ ही अन्धकार और अहंकार में प्रस्थान कर लेंगे।
 आज अधिकांश बच्चे और बड़ों ने टी0 वी0 को अपना सच्चा और अच्छा मित्र बना लिया है तथा ज्ञानवर्धक पुस्तकें उन्हें निरर्थक शत्रुवत् लग रही हैं। इसी कारण घर-घर में तनाव, अशान्ति और भय, सुरसा से मुँह फैला रहे हैं। इसी कारण बच्चे और बड़ों के चेहरों से स्वाभाविकता, सहजता दूर कहीं सुदूर में प्रस्थान करती जा रही है। टी0 वी0 संस्कृति या कहें कि पश्चिमी संस्कृति हमें लक्ष्यहीन जीवन बिताने को प्रेरित कर रही है। खूब धन कमाओं, खूब खाओ, मौज मनाओ और असन्तोष को बढ़ाते हुए लक्ष्य विहीन बन जाओ।
 लक्ष्यविहीन प्रवृत्तियाँ हमें कभी ऊँचा नहीं उठा सकती, इनसे बचकर ही हम सार्थक जीवन की ओर बढ़ सकते हैं तथा समाज में एक-दूसरें को सुखों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
 काश! यह सम्पूर्ण समाज ही पूर्ण शिक्षित होकर मानवीय धर्म अपना लेता और महापुरूषों के प्रेरणाश्रोत बनाता तथा पुस्तकों को सच्चा मित्र, तो आज चहूँ ओर हिंसा'मारकाट, झूठ-फरेब और भय के आवरण में न जीना पड़ता। पूरी धरती के लोग ही सहज जीवन जी रहे होते।
 अति सर्वदा वर्जते। अति किसी भी चीज की नहीं होनी चाहिए। टी0 वी0 को भी वर्तमान में पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बच्चे और बड़े टी0 वी0 देखने में ज्यादा ही अति कर रहे हैं या कहें कि समय का दुरूपयोग कर रहे हैं। इसी कारण तीस प्रतिशत से भी अधिक बच्चे और बड़ों की आँखों में चश्मा चढ़ता जा रहा है, साथ ही अनेक मानसिक, शारीरिक विकृतियाँ बच्चों व बड़ों में बढ़ती जा रही हैं। अधिकतर लोग टी0 वी0 के पास बैठकर ही उसका चछुपान कर रहे हैं।
 जलपान या भोजन करते-करते टी0 वी0 आम प्रचलन में आ गया है, इसी कारण जीभ से निकलने वाले रस पाचन प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से नहीं मिल पा रहे हैं, जिसके कारण कब्ज, सिरदर्द, गैस जैसी बीमारी आम हो गयी है इससे बड़े तो बड़े बच्चे भी इसके आगोश में आते जा रहे हैं।
 टी0 वी0 ने बच्चे और युवाओं को एक नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।
 वास्तव में यदि हमें अपना और समाज का सर्वांगीण विकास करना है तो बच्चे और बड़ो को ज्ञान वर्धक पुस्तकों को ही सच्चा मित्र बनाना होगा तथा टी0 वी0 को मात्र एकाध घण्टे का कच्चा मित्र, वह भी अच्छा सीरियल या समाचार सुनने के लिए।


किसान और सारस

 एक किसान पक्षियों से बहुत तंग आ गया था। उसका खेत जंगल के पास था। उस जंगल में पक्षी बहुत थे। किसान जैसे ही खेत में बीज बोकर, पाटा चलाकर घर जाता, वैसे ही झुंड के झुंड पक्षी उसके खेत में आकर बैठ जाते और मिट्टी कुरेद-कुरेदकर बोये बीज खाने लगते। किसान पक्षियों को उड़ाते-उड़ाते थक गया। उसके बहुत से बीज चिड़ियों ने खा लिये। बेचारे को दुबारा खेत जोतकर दूसरे बीज डालने पड़े। इस बार किसान बहुत बड़ा जाल ले आया। उसने पूरे खेत पर जाल बिछा दिया। बहुत से पक्षी खेत में बीज चुगने आये और जाल में फंस गये। एक सारस पक्षी भी उसी जाल में फंस गया।
 जब किसान जाल में फँसी चिड़ियों को पकड़ने लगा तो सारस ने कहा-आप मुझ पर कृपा कीजिये। मैंने आपकी कोई हानि नहीं की है। मैं न मुर्गी हूँ, न बगुला और न बीज खाने वाला पक्षी। मैं तो सारस हूँ। खेती को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को खा जाता हूँ। मुझे छोड़ दीजिये।
 किसान क्रोध में भरा था। वह बोला- 'तुम कहते तो ठीक हो, किन्तु आज तुम उन्हीं चिड़ियों के साथ पकड़े गये हो, जो मेरे बीज खा जाया करती हैं। तुम भी उन्हीं के साथी हो। तुम इनके साथ आये हो तो इनके साथ दण्ड भोगो।
 जो जैसे लोगों के साथ रहता है, वैसा ही समझा जाता है। बुरे लोगों के साथ रहने से बुराई न करने वालों को भी दण्ड और अपयश मिलता है। उपद्रवी चिड़ियों के साथ आने से सारस को भी बन्धन में पड़ना पड़ा।


बालकों के लिए संस्कार-माला

 बालक यदि निम्न बातों पर ध्यान देंगे तो उनका जीवन सदैव सुखी रहेगा।
1. विद्यालय में ठीक समय पर पहुँच जाना और भगवत्स्मरणपूर्वक मन लगाकर पढ़ना चाहिये। किसी प्रकार का ऊधम न करते हुए मौन रहकर भगवान के नाम का जप-और स्वरूप की स्मृति रखते हुए प्रतिदिन जाना-आना चाहिये।
2. विद्यालय की स्तुति-प्रार्थना आदि में अवश्य शामिल होना और उनको मन लगाकर प्रेमभाव पूर्वक करना चाहिये।
3. पिछले पाठ को याद रखना और आगे पढ़ाये जाने वाले पाठ को उसी दिन याद कर लेना उचित है, जिससे पढ़ाई के लिए सदा उत्साह बना रहे।
4. पढ़ाई को कमी कठिन नहीं मानना चाहिये।
5. अपनी कक्षा में सबसे अच्छा बनने की कोशिश करनी चाहिये।
6. किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में अग्रसर होते देखकर खूब प्रसन्न होना चाहिये और यह भाव रखना चाहिये कि यह अवश्य उन्नति करेगा तथा इसकी उन्नति से मुझे और भी बढ़कर उन्नति करने का प्रोत्साहन एवं अवसर प्राप्त होगा।
7. अपने किसी सहपाठी से ईष्र्या नहीं करनी चाहिये और न यही भाव रखना चाहिये कि वह पढ़ाई में कमजोर रह जाय, जिससे उसकी अपेक्षा मुझे लोग अच्छा कहें।
8. किसी भी विद्या अथवा कला को देखकर उसमें दिलचस्पी के साथ प्रविष्ट होकर समझने की चेष्टा करनी चाहिये, क्योंकि जानने और सीखने की उत्कण्ठा विद्यार्थियों का गुण है।
9. अपने को उच्च विज्ञान मानकर कभी अभिमान न करना चाहिये, क्योंकि इससे आगे बढ़ने में बड़ी रूकावट होती है।
10. नित्य प्रति बड़ों की तथा दीन-दुःखी प्राणियों की कुछ न कुछ सेवा अवश्य करनी चाहिये।
11. किसी भी अंगहीन, दुःखी, बेसमझ, गल्ती करने वाले को देखकर हँसना नहीं चाहिये।
12. न्याय से प्राप्त हुई चीज को ही काम में लाना चाहिये।
13. माता, पिता, गुरू आदि बड़ों की आज्ञा उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करें। बड़ों के आज्ञा का उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करेे। बड़ों की आज्ञा पालन से उनका आर्शीवाद मिलता है, जिससे लौकिक और पारमार्थिक उन्नति होती हैं।
14. गुरूजनों की कमी हँसी न उड़ाये, प्रत्युत उनका आदर-सत्कार करें तथा जब पढ़ाने के लिये अध्यापक आवें और जायें, तब खड़े होकर और नमस्कार करके उनका सम्मान करें।
15. समान अवस्था वाले और छोटों से प्रेमपूर्वक बर्ताव करें।
16. सभा में भाषण या प्रश्नोत्तर सभ्यतापूर्वक करें तथा सभा में अथवा पढ़ने के समय बात-चीत न करें।
17. सबकों अपने प्रेम भरे व्यवहार से संतुष्ट करने की कला सीखें।
18. कभी किसी का अपमान या तिरस्कार न करे।
19. किसी भी काम को कभी असम्भव न माने, क्योंकि उत्साही मनुष्य के लिए कठिन काम भी सुगम हो जाते हैं।
20. सदा अपने से बड़े और उत्तम आचरण वाले पुरूषों के साथ रहने की चेष्टा करें तथा उनके सद्गुणों का अनुकरण करे।
21. अपने से छोटे बालक में कोई दुव्र्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसको समझायें अथवा उस बालक के हित के लिये अध्यापक को सूचित कर दें।
22. अपने में से दुर्गुण-दुराचार हट जाय और सदाचार आयें इसके लिए भगवान से सच्चे हृदय से प्रार्थना करें और ईश्वर के बल पर सदा निर्भय रहें।


शिष्टाचार की बातें

 दैनिक जीवन में शिष्टाचार की कितनी अहमियत है, यह हम सब समझ सकते हैं। जो शिष्टाचार का पालन करता है, वह निर्धन और कम पढ़ा लिखा होने पर भी आदर पाता है लेकिन धनिक और शिक्षित को अशिष्ट व्यवहार करने पर निरादर ही मिलता हे। शिष्टाचार के गुण जन्मजात भी हो सकते हैंै। लेकिन परिवार के अतिरिक्त संगी-साथियों का व्यवहार आचार विचारों को प्रभावित करते रहते हैं। देखा जाता हैं कि पन्द्रह वर्ष की आयु तक आचार विचार के सीखे, समझे गुण आजीवन उसके व्यतित्व पर हावी रहते हैं। अतः हर माता-पिता का यह फर्ज बनता है कि वह अपनी संतानों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ायें, उन्हें किससे किस तरह व्यवहार करना चाहिए इसकी जानकारी देनी चाहिए। आजकल व्यस्तता की वजह से अधिकतर माता-पिता अपनी संतानों को उतना समय नहीं दे पाते जितना देना चाहिए, यह ठीक नहीं है। हमारे बच्चे कल सुसंस्कृत एवं शिष्ट नागरिक बनें, यह सोच रखना बहुत जरूरी हैं।
 विद्यार्थी और शिष्टाचार
1. छात्रों को अपने अध्यापक के सामने सावधान की स्थिति में खड़े होना चाहिए।
2. अध्यापक के कक्षा में प्रवेश होते ही खड़े होकर अभिवादन करना चाहिए।
3. अध्यापक के रहते हुए कक्षा में शोर करना या मजाक बनाना अच्छा नहीं हैं।
4. अध्यापक के निकट अथवा उनकी कुर्सी पर बैठना अशिष्टता है।
5. कई बच्चे रबड़ को दाँतों से काटते हैं, पेंसिल कान में या मुँह में डालते हैं, यह आदत ठीक नहीं है।
6. अपने सहपाठी से ली गई कोई भी चीज उसे समय पर और सुरक्षित रूप में वापस करनी चाहिए।
7. अपनी पुस्तकों, काँपियों और बस्तों को साफ-सुथरा रखें।
8. स्कूल में गन्दगी न करें, गन्दगी को दूर करने की कोशिश करें।
9. अपने सहपाठी से हँसी-मजाक तो करें लेकिन असभ्य भाषा का इस्तेमाल न करें।
10. विद्यालय में साफ और स्वच्छ परिधान पहिनकर आना चाहिये।
11. सदैव अच्छे और शिष्ट छात्रों से दोस्ती करें।


नारी बिना साहित्य जगत है अधूरा 

साहित्य मानवीय संवेदनाओं के चिंतन एवं चित्रण की श्रेश्ठतम अभिव्यक्ति है। नारी सजल संवेदनाओं का मूर्तरूप है। अतः साहित्य नारी के बिना आधा अधूरा एवं एकांगी है। सृश्टि के ऊशाकाल से ही नारी पुरूश की सुकोमल भावनाओं में चेतना का संचार करती और उसकी विविध कल्पनाओं को निरभ्र गगन में उड़ान भरने के लिये प्रेरित करती रही है। इसी कारण नारी साहित्य के साम्राज्य पर सदैव ही अधिश्ठित और प्रतिश्ठित रही है। साहित्यकार मानते हैं कि कविता का उद्गम स्त्रोत नारी प्रेरित है। नारी स्वयं एक कविता हैं, नारी स्वयं एक परिपूर्ण साहित्य है। नारी की पवित्रता, षुचिता, सौंदर्य के बिना साहित्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।
 सजल संवेदना की अविरल धारा जब स्थिर होकर रूपायित हुई तो उसमें नारी का रूप निखर उठा और जब इसकी अभिव्यक्ति हुई तो साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। अतः नारी और साहित्य का सम्बंध अनन्य और अखण्ड रहा है। नारी के संवेदनषील गर्भ से साहित्य की सृजन धारा फूट पड़ी है। सृजन की इस महती प्रक्रिया में नारी का योगदान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में हुआ है। अप्रत्यक्ष रूप से पुरूश द्वारा नारी का भरपूर उपयोग किया गया है और इसका कारण है- (1) सौंदर्यानुभूति (2) नैतिक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति (3) सामाजिक परिवेष का चित्रण।
 ये तीन संवेदनायें ही मानवी मन को साहित्य सृजन के लिये प्रेरित करती है। जिसमें सौंदर्यानुभूति किसी भी साहित्यकार की साहित्य-साधना का मूल आधार रही है। भारतीय साहित्य में पुरातन से अद्यतनकाल तक सौंदर्य एवं श्रंगार को विषिश्ट स्थान प्राप्त है और हो भी क्यों न, क्योंकि संवेदना की धारा जब उमड़ती है, सौंदर्य एवं श्रंगार स्वतः स्फूर्त, आलोड़ित-उद्वेलित होते हैं। यह सौंदर्य कल्याणकारी एवं सत्य की आभा से मंडित होता था, जिसमें षील एवं षुचिता आधार बने हुये थे। जैसे ही ये आधार टूटने-बिखरने लगे, सौंदर्य एवं श्रृंगार की दिषा अधोगामी हो गई और साहित्य जीवन प्रदायक अमृत से जीवन हरने वाला विश बन गया, परंतु साहित्य की प्राचीन एवं श्रेश्ठ सौंदर्याभिव्यक्ति कालिदास, जायसी, तुलसी से लेकर पंत, प्रसाद और निराला आदि तक अविच्छिन्न रूप से निखरी है।
 नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में भी नारी ने साहित्य को अपूर्व योगदान प्रदान किया है। संस्कृति को सींचने के लिये नारियों ने स्वयं को खपा दिया है। नारी अपने दरद को लेखिनी के माध्यम से उठाती रही है। सांमती मानसिकता पर करारा प्रहार करने वाली नारी लेखिकाओं की कमी नहीं है। रामधारी सिंह दिनकर नें यहाँ तक कहा है कि सांस्कृतिक संवेदना नारी के बिना अपंग-अपाहिज के समान है। सांस्कृतिक ध्वजा को साहित्य के गगन में कम संख्या में ही सही, लेकिन दमदार ढंग से नारियों ने लहराया है। ठीक इसी प्रकार नैतिकता एवं सामाजिकता के अनेक विशयों को नारियों ने साहित्य से जोड़ा और अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बोध कराया है।
 साहित्य साधिकाओं में मीराबाई का नाम ध्रुवतारा के समान प्रदीप्त है। मीरा हिन्दी साहित्य के काव्य फलक पर महान कवियत्री के रूप में प्रतिश्ठित है। मीरा की कविता के बिना हिंदी साहित्य का लालितय अधूरा माना जायेगा। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य को छायावाद, रहस्यवाद, प्रतीकयोजन, वेदना, गीतकला, प्रकृति चित्रण रूपी अनेक अनुपम उपहार देने के रूप में जानी जाती है।
 वैदिककाल की नारियाँ जैसे अपाला, घोशा, गार्गी, विष्ववारा, अरूंधती अनसूया आदि ने भी अपने चिंतन से नारी जगत में नयी दिषा दी। ठीक इसी प्रकार आधुनिक काल में अमृता प्रीतम, चंद्रकिरण, ऊशादेवी मित्रा, षषि प्रभा षास्त्री, मृणाल पाण्डेय, सूर्यबाला, नासिरा षर्मा, षिवानी आदि तमाम रचनाकारों की सषक्त कृतियों से समृद्ध होती हुई आज नारी चेतना सम्पन्न एवं सुदृढ़ धरती तक पहुँच गई है। लेखिकाओं ने जहाँ संवेदनषील मानवीय संबधों को रचनाओं में उकेरा है, वहीं सामयिक ज्वलंत प्रष्नों को भी रेखांकित किया है। 'इक्कीसवीं सदी नारी सदी' की संभावना को साकार करने का यह श्रेश्ठ एवं पुण्यकार्य है, जिसे किसी भी कीमत पर करना ही चाहिये।
 'पुस्तक से रहित कमरा आत्मा से रहित षरीर के समान है। (सिसरो)


कोल्ड ड्रिंक एक खतरनाक पेय

 कोल्ड ड्रिंक हमारे षरीर के लिये कितना घातक हो सकता है, इस बात का अहसास लोगों को नहीं है। अमेरिका की 'दि अर्थ आइलैण्ड जनरल' ने एक षोध प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार आजकल धड़ल्ले से बिक रहे विदेषी कम्पनियों के षीतल पेय की एक बोतल में 40 से 72 मि0 ग्राम तक नषीले तत्व ग्लिसरीन अल्कोहल, ईस्टरगम व पषुओं से प्राप्त ग्लिसरोल पाये जाते हैं, अतः षाकाहारी किसी भ्रम में न रहें कि यह मांसाहार का एक रूप नहीं है, सर्वाधिक आष्चर्यचकित तो उनकी अन्य खोजे हैं, साइट्रिक एसिड होने के कारण षौचालय में किसी भी साफ्ट ड्रिंक को एक घण्टे के लिए डाल दें तो वह फिनाइल की तरह उसे साफ कर देगा। कहीं जंग लग गया हो तो इस पेय में कपड़ा गीला करके रगड़ दें, वह हट जाएगा। वस्त्रों पर ग्रीस लग गई हो तो साबुन के साथ उसे कोल्ड ड्रिंक में गीला कर दे, वह दाग को बिल्कुल हटा देगी। इंसान की हड्डियों व दांतों को गलाने में मिट्टी को कई साल लग जातें हैं, पर साफ्ट ड्रिंक पीकर अपनी अंतड़ियों, यकृत तथा षरीर को भारी नुकसान पहुँचा रहे हैं। क्या फिर भी आप कोल्ड ड्रिंक्स पीना या पिलाना चाहेंगे?विवेकषील मनुश्य होने के नाते आपसे उम्मीद कि आप जान-बूझकर जहर न स्वयं पीना चाहेंगे और न अपने ईश्ट-मित्र को पिलाना चाहेंगे। जब अन्तर्राश्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पेप्सी-कोला, कोक आदि कोल्ड ड्रिंक्स मनुश्य के षरीर में विभिन्न अंगों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं। तब निष्चित ही कोल्ड ड्रिंक्स पीना विश-पास के समान है। आप स्वयं ही उससे दूर रहे और अपने सभी संगी-साथियों को उनके पान करने से परहेज करने की सलाह दें।


जीवन के शुद्ध दृष्टिकोण की निर्मिति

 आज हमारे सामाजिक जीवन में चारों ओर समस्यायें ही दिखाई पड़ती है। जीवन के षुद्वदृश्टिकोण का अभाव ही हमारी प्रमुख समस्या है, जिसके रहते षेश समस्यायें लाख प्रयत्न करने पर भी सुलझ न पायेंगी। अतः जीवन का सत्य षुद्वदृश्टिकोण क्या होना चाहिये, जिसे लेकर चलने से मानव जीवन की सम्पूर्ण समस्याओं पर विजय प्राप्त करना सुलभ हो जाता है।
 हमारी संस्कृति के सर्वोत्कृश्ट भारतीय षास्त्रों के अनुसार इस समस्त विष्व में एकमेव अखण्ड परमेष्वर ओत-प्रोत है, किन्तु उसके अव्यक्त स्वरूप को समझना कठिन है। मनुश्य होने के नाते हमें सर्वसाधारण रीति से मानव समाज तक सीमित कल्पनाओं की अनुभूति ही सरलता से हो सकती है। अतएव अव्यक्त परब्रह्म की अनुभूति सरल रीति से करा देने के लिये मनुश्य-समाज को उस अव्यक्त परब्रह्म का विषाल एवं विराट रूप मानने और प्रत्येक मनुश्य को इसी दिव्य-देव के षरीर का घटक अवयव समझने का षास्त्र ने आदेष दिया है।
 इस दृश्टि से मनुश्य समाज का प्रत्येक व्यक्ति हमारे लिये पूज्य और सुसेव्य हो जाता हैं। भगवान का केवल षिर ही पूज्य है, पैर नहीं'-ऐसा सोचना मूर्खता है। जितना पवित्र और पूज्य उसका सिर है, वैसे ही उसके पाँव तथा षरीर का प्रत्येक घटक अवयव भी पवित्र है, पूज्य है और परमेष्वर के पाँव को तो षास्त्र ने परम पवित्र बताया है, जिससे स्पर्ष हुई धूलि और जिससे निकल हुआ जल भी परम पवित्र कहा गया है।
 समाज के सारे अंग-उपांग समान हैं और हमारे लिये सदैव सुसेव्य हैं। उनमें ऊँच-नीच का भेद न करते हुये सभी की सेवा समान षक्ति एवं तत्परता से करने की आवष्यकता है। इस विचार के अनुसार समाज की सेवा में भगवत-पूजा का भाव चाहिये और सच्ची भगवत्पूजा जीवन में प्राप्त श्रेश्ठतम भोग पदार्थों को भगवान की सेवा के निमित्त प्रगाढ़ श्रद्वायुक्त अन्तःकरण से समर्पित कर देने में ही हैं।
 जीवन के सार-सर्वस्व से प´च तत्व-प्राप्ति तक भगवत पूजा करते रहना ही षास्त्रों में जीवन का चरम लक्ष्य कहा गया है। अपनी समस्त सम्पत्ति सारी सम्पदा का नैवेध रूप में इस समाज परमेष्वर को समर्पित करके अपने भौतिक जीवन को पवित्र बनायें यहीं जीवन का सच्चा दृश्टिकोण है।
 इस प्रकार जिसने समाज में परमेष्वर के विराट रूप का साक्षात्कार किया है और जो उसकी सेवा में जीवन सर्वस्व लगाकर दक्ष रहता है उसे ऐसे लाखों की संख्या में इतस्ततः फैले हुये दीन-हीन निराश्रित प्राणी-परमात्मा के सर्वप्रथम पूजनीय रूप में ही दिखाई देंगे और वह उनकी सेवा में सम्पूर्ण षक्ति लगाने के लिये विकल हो उठेगा।
 नर के रूप में प्रकट नारायण को हम पहचानें। उनकी सुख-सुविधा के लिये तन-मन से कुछ कश्ट उठाने का प्रसंग भी आये, तो उसे भगवत्कृपा-प्रसाद समझकर सहर्श धारण करें। उसके निमित्त की गयी दौड़-धूप और उठाई गई असुविधा में त्याग की नहीं, पूजा की भावना चाहिये। सब कुछ करके भी मैने किसी पर उपकार नहीं किया, केवल स्वाभाविक कर्तव्य की पूर्ति मात्र की है। यही दृढ़ धारणा होनी चाहिये। इसमें अहंकार और आत्मष्लाधा के लिये काई स्थान नहीं है।
 इस दृश्टिकोण को यदि जीवन में लाने का प्रयत्न किया जाय, तो अनुभव होगा कि वैयक्तिक अथवा पारिवारिक, जो कुछ भी मेरी प्राप्ति है, वह कितनी भी अच्छी और प्रचुर मात्रा में क्यों न हो, उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं। यह भगवान की पूजा का नैवेद्य है। मै तो केवल प्रसाद मात्र का अधिकारी हूँ। जीवन-यात्रा में निर्वाह के लिये जितना परमावष्यक है, उतना ही मैं अपने उपयोग के लिये रखकर समाज की सेवा में समर्पित कर दूँ।
 भगवान की पूजा उत्तमोत्तम रीति से करने के निमित्त अधिकतम भोग-सामग्री एकत्र करूँगा, तन-मन का सारा सामथ्र्य द्रव्य पदार्थ संचित करूँगा किन्तु उसमें से अपने उपयोग के लिये केवल उतना ही रखूँगा, जिसके अभाव में समाज-परमेष्वर की अर्चा में अड़चन का योग न बन पावे। उससे अधिक पर अधिकार करना अथवा अपने व्यक्तिगत उपयोग में लाना भगवान की सम्पत्ति का अपहरण है। जो सर्वथा निन्दनीय और षास्त्र वर्जित है।
 जिस मनुश्य जीवन में राश्ट्र निर्माण के पवित्र कार्य करने का हमें अत्यन्त सौभाग्यपूर्ण अवसर और सामथ्र्य प्राप्त हुआ हैं, उसकों मृग तृश्णा के पीछे दौड़ने में नश्ट न कर दें। अतः भारतीय जीवन-रचना के इस सांस्कृतिक दृश्टिकोण को लेकर समश्टि (समाज) में परमात्मा का साक्षात्कार करते हुये कार्य-रूप से, षब्द-मात्र से नहीं, इस समज रूप पुराण-पुरूश की निरीह और अकिंचन भाव से पूजा करें। यह दृश्टि यदि अपने अन्दर रही तो एक समश्टि पुरुष अभिन्न रीति से आसेतु हिमाचल को व्याप्त किये हुये दिखाई देगा। कोई छुद्र भावना हृदय को छू न पायेगी और उस परम-पुरुश की आराधना में अपना सर्वस्व होम करके भी परम षान्ति का ही अनुभव होगा तथा जीवन के षुद्ध दृश्टिकोण की निर्मित होगी।


परिश्रम का विकल्प नहीं

 महर्शि कणाद अपने षिश्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर वहाँ रहा करते थे आश्रम में सभी कार्य षिश्य स्वयं ही किया करते थे, आश्रम के जीवन में पवित्रता थी, अतः वहाँ किसी भी प्रकार का कश्ट नहीं था।
 वर्शा ऋतु निकट ही थी महर्शि ने अपने षिश्यों को बुलाकर कहा-''देखो, वर्शा ऋतु आने वाली है हमें हवन तथा भोजनादि के लिये लकड़ी एकत्रित कर लेनी चाहिये।''
 गुरूदेव की इच्छा को आज्ञा मानने वाले षिश्य कुल्हाड़ी आदि लेकर जंगल की ओर चल पड़े बड़ी लगन तथा परिश्रम से उन्होनें लकड़ियाँ इकट्ठी कर गट्ठर बाँधें और कन्धों पर लाद कर आश्रम में ले आये। गुरू जी बहुत प्रसन्न हुये। उन्होंने षिश्यों को षुभाषीश दिया।
 कुछ समय के पष्चात् सभी षिश्य ऋशि कणाद के साथ नदी में स्नान करने गये। मार्ग में वहीं जंगल पड़ा जहाँ से षिश्य लकड़ी काटकर आश्रम में ले गये थे सबके आष्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब वन में उन्हें चारों ओर रंग-बिरंगे, सुगन्धित सुन्दर पुश्प दिखाई दियें सारा जंगल सुगन्धित था षिश्यों ने गुरू से पूछा-''गुरूवर, ये रंग-बिरंगे फूल कहाँ से आ गये, वायुमण्डल में सुगन्ध व्याप्त है, यह चमत्कार कैसे हुआ।'' ऋशि कणाद हँसे और कहने लगे-''यह सब तुम्हारे अथक परिश्रम का फल है, तुम्हारे षरीर से निकले षुद्ध, सच्चे पसीने की बूँदो का ही यह परिणाम है कि तुमको यहाँ का वातावरण मनमोहक सुन्दर तथा चमक दमक वाला दिखाई दे रहा है जहां भी तुम्हारा पसीना गिरा था, वही पुश्प उग गया, शिष्यों को बात ध्यान में आ गयी कि परिश्रम का कोई विकल्प (बदल) नहीं है, महान् बनने के लिये कठोर परिश्रम करना होता है और करना चाहिए।''


खेलकूद और अनुशासन

 अनुषासन विद्यालय का एक महत्वपूर्ण अंग है। अनुषासन की स्थापना में खेलकूद का विषेश योगदान है इसी सेविष्व के अनेक देषों में अनुषासन की स्थापना में खेलकूद के महत्व को स्वीकार करते हुए विद्यालयों में खेलकूद की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई है लेकिन हमारे देष में अभी विषेश ध्यान नहीं दिया गया है। प्रायः लोगों की मानसिकता है कि बच्चों को खेलकूद से दूर रखकर पाठ्य पुस्तक द्वारा एवं आचार संहिता द्वारा विद्यालय में अनुषासन की नींव सुदृढ़ की जा सकती है। लेकिन प्लेटों ने कहा ''बालक को दण्ड की अपेक्षा खेल द्वारा नियंत्रित करना कहीं अच्छा है।'' आजकल खेलकूद की उपेक्षा के कारण आए दिन हड़ताल, तोड़फोड़, परीक्षा में सामूहिक नकल का प्रयास, षिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार आदि घटनाएँ छात्रों द्वारा हो रही हैं। भारत जैसे विषाल देष में विद्यालयों में पनपती अनुषासनहीनता घातक सिद्ध हो रही है।
 खेलकूद की उपेक्षा से अनुषासनहीनता पनपती है। अनुषासन की स्थापना में खेलकूद विभिन्न प्रकार से सहयोगी है।
 (1) सामाजिक भावना - खेलकूद बच्चों को आपस में मिलजुल कर रहना, आपसी बैरभाव समाप्त करना, विभिन्न जाति व सम्प्रदाय के साथ आपसी तालमेल द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना सिखाता है। फलस्वरूप उनमें सामाजिक सहयोग के भाव उत्पन्न होते हैं जो उन्हें अनुषासन प्रिय बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। खेलकूद के अभाव में बच्चे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब विभिन्न देषों की टीमें खेलती हैं उनके सदस्यों में सहज ही मैत्रीभाव का विकास हो जाता है। क्रीड़ा जगत में एक साथ भाग लेने वाले खिलाड़ी परस्पर प्रतिस्पर्धा तो करते हैं परन्तु द्वेशभाव से दूर रहते हैं। खिलाड़ी हार-जीत को जब खिलाड़ी की भावना से लेने की षिक्षा पाते हैं तो वे जीवन में भी सफलता-असफलता के अवसरों पर सन्तुलन बनाये रखने में सफल होते हैं।
 (2) मस्तिश्क एवं षरीर पर प्रभाव - खेलकूद द्वारा छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्विहोती है। खेलने के दौरान प्रत्येक मांसपेषियाँ काम करती हैं तथा रक्त तीव्रता से षरीर में दौड़ने लगता है जिससे बालक का षरीर निरोग बना रहता है और निरोग षरीर में स्वस्थ मस्तिश्क होता है उसमें अच्छे-बुरे समझने की षक्ति होती है जिससे चारित्रिक दुर्बलताएँ मस्तिश्क में प्रवेष नहीं कर पाती हैं। खेलते समय बालक के अन्दर संयम, दृढ़ता, वीरता, गम्भीरता, एकाग्रता तथा सहयोग की भावना का विकास होता है इसके विपरीत खेलकूद के अभाव में छात्रों का षारीरिक एवं मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है और उनमें आत्मविष्वास की कमी उन्हें आत्मानुषासित बनाने में बाधक होती है। और वह कुण्ठाग्रस्त होकर गलत मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं
 (3) अतिरिक्त विकास- बालकों में किषोरावस्था में अतिरिक्त षक्ति होती है। खेलकूद द्वारा उनकी अतिरिक्त षक्ति को सरलता से रचनात्मक कार्यों मेें लगाया जा सकता है। और अतिरिक्त षक्ति का सदुपयोग हो जाता है। यदि अतिरिक्त षक्ति को खेलकूद में न लगाया जाए तो वह षक्ति बुरे कार्यों में लग सकती है।
 (4) अवकाष - खेलकूद के माध्यम से अवकाष का सदुपयोग होता है। प्रायः विद्यालयों में फैलती अनुषासनहीनता का प्रमुख कारण छात्रों को अवकाष के सदुपयोग की सुविधा न देना है। जहाँ अध्ययन के पष्चात् खेलकूद की सुविधा उपलब्ध होती है वहाँ प्रायः किसी प्रकार की अनुषासनहीनता नहीं होती है क्योंकि बालक खेलकूद में इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें बुरा देखने बुरा कहने-सुनने व करने का समय नहीं मिल जाता है। इसके विपरीत बच्चे उपद्रव मचाते हैं।
 (5) आत्मनियन्त्रण की भावना - छात्र जब किसी अन्य विद्यालय के छात्रों से मैच या किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है तो वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे उसकी तथा उसके स्कूल की बदनामी हो।
  फलतः उसमें आत्म नियन्त्रण की भावना जाग्रत होती है और वह अनुषासित ढंग से व्यवहार प्रदर्षन करता है। इसके विपरीत खेलकूद के अभाव में छात्र आत्मनियन्त्रित नहीं हो पाते।
 (6) उचित मार्ग दर्षन- कुछ विद्यार्थियों की पढ़ाई की अपेक्षा खेलकूद में अधिक रूचि होती है। उनकी रूचि के अनूकूल खेलकूद के क्षेत्र में उचित मार्गदर्षन किया जाए तो वे अच्छे खिलाड़ी बनकर भारत का गौरव बढ़ा सकते हैं।
 खेल के समय खिलाड़ी को प्रत्येक अवसर पर तत्क्षण निर्णय लेना होता है। वह किधर से आगे बढ़े कब किस गेंद को किस प्रकार खेलें आदि। इस दृश्टि से खेल व्यक्ति के मस्तिश्क को अनुषासन में बाँध देते हैं।
 उपरोक्त विवेचना के अनुसार खेलकूद और अनुषासन के अन्तरंग सम्बन्ध हैंै। आज की षिक्षा का उद्देष्य बालक का बहुमुखी विकास करना है। एकांगी नहीं।
अतः मानसिक विकास के साथ षारीरिक विकास आवष्यक है तभी छात्र मानसिक रूप से एकाग्रचित, नियन्त्रित अर्थात् अनुषासित रह सकते हैं।
 इस प्रकार अनुषासन के लिए खेलकूद अति आवष्यक है। खेलकूद बालक के सर्वांगीण विकास में सहयोगी व आवष्यक है। अतः खेलकूद के महत्व को स्वीकारते हुए विद्यालय में खेलकूद की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे बालक का बहुमूखी विकास हो सके।


शारीरिक शिक्षा की उत्पति, विद्यालय में शारीरिक शिक्षा की उपयोगिता

 शिक्षा शब्द से उत्पत्ति शारीरिक शिक्षा की हुई है क्योकि चाहें वह रामायण काल हो या महाभारत काल जिस प्रकार भगवान श्रीराम या कौरव और पाड्व गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे उनके साथ शारीरिक शिक्षा का भी पाठ्यक्रम रखा जाता था। परन्तु वह किस रूप में विकसित थी धनु विद्या तलवारबाजी, गदा युद्ध, कुश्ती आदि।
 उ0 प्र0 माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा शारीरिक शिक्षा को एक अनिवार्य विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि खेल का स्वर लगातार नीचे गिरने से दो साल से शारीरिक शिक्षा को अनिवार्य विषय कर दिया गया है। शारीरिक शिक्षा का कार्यक्रम अति व्यापक है। लेकिन कुछ विद्वान शारीरिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को समझ नहीं पाते है। छोटी-मोटी खेल की प्रतियोगिता कराकर अपने पाठ्यक्रम को खत्म कर देते हैं। लेकिन विद्यालय में नियमित रूप से शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। जिससे छात्रों का समुचित रूप से विकास हो सके। शारीरिक शिक्षा का अथ्र  विद्यार्थी को स्वस्थ व निरोग रखने और मानसिक, विकास बुद्ध क्रियायें, ऐथलेटिक, योगा, जिमनास्टिक, हाॅकी, क्रिकेट, फुटबाॅल आदि का  निर्माण रूप से अभ्यास कराना चाहिए। जिससे विद्यार्थी का अपना लक्ष्य प्राप्त करने में आसानी रहे। विद्यार्थी के अन्दर शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम से निम्न गुण विकसित होते है-
1. शारीरिक गुण का विकास होना।
2. चारितिक गुण का विकास होना।
3. सामाजिक गुण का विकास होना।
4. मानसिक गुण का विकास होना।
5. अनुशासन की भावना का विकास होना।
6. नैतिकता की भावना का विकास होना।
7. खेल भावना का विकास होना।
 जिस प्रकार शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक पीरियड खेल का इसलिए रखा जाता है कि सभी छात्र/छात्राओं का ध्यान खेल की तरफ केन्द्रित हो तो वह सारा दुःख और सुख छोड़कर खेल की तरफ केन्द्रित हो जाता है। जिससे उन्हें एक नयी ऊर्जा प्राप्त होती है। और उनके आगे नेये भविष्य के लिये मार्ग बनता हैं। वह पुनः पढ़ाई के लिये तत्पर हो जाते हैं।


समय 

 कल्पन कीजिए एक ऐसे बैंक की जो हर सुबह आपके खाते को $86,400 से क्रेडिट करता है। यह कोई अतिरिक्त बैलेन्स नहीं रखता और हर शाम यह उस राशि को मिटा देता है। जिसे आप उस दिन के अन्दर उपयोग नहीं कर सके इस ंिस्थति में आप क्या करेंगे?यही कि आप अपना सारा पैसा निकाल लेंगे।
 हम सभी के पास ऐसा ही बैंक होता है। जिसका नाम है, 'समय' यह हर सुबह आपके 86,400 सैकेण्ड को क्रेडिट करता हे। और हर रात यह उन सैकेन्डस को आपसे ले लेता है। जिन्हें आप दिन भर में किसी अच्छे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं कर सके या नहीं बचा पाये।
 हर रात यह आपके बचे हुए समय को समाप्त कर देता है। क्योंकि यह निरन्तर चलता रहता है। अगर आप अपने दिन के समय को अच्छी तरह नहीं भोग पाये तो यह आपका नुकसान होगा। यहाँ पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं है। और न ही आप समय को निकाल कर रख सकते हैं। कल के लिए आपको सिर्फ 'आज' में ही जीना पड़ता है। इसलिए आप कुछ ऐसा इन्वैस्ट कीजिए जिससे आप को सफलता, स्वास्थ्य व खुशी मि सके समय की घड़ी चलती रहती है। आज का इस्तेमाल करना सीखिए।
1.  एक 'साल' की कीमत फेल विद्यार्थी से जानिए।    
2.  एक 'महीने- की कीमत उस माँ से जानिए जिसने एक प्रीमेच्योर बच्चे को जन्म दिया हो।
3.  एक 'हफ्ते' की कीमत उससे पूछिये जो बोकली न्यूजपेपर का एडीटर हो।
4.  एक 'घंटे' की कीमत प्रेमियों से जानिए जो मिलने के लिए बेचैन रहते हैं।
5.  एक 'मिनट' की कीमत उससे जानिए जो अपनी ट्रेन मिस कर चुका है।
6.  एक 'सेकेण्ड' की कीमत उससे जानें जिसक एक्सीडेन्ट होने से बचा हो।
 याद रखिए समय किसी का इन्तजार नहीं करता।


सार्थक स्वप्न

 तीन साधू अलग-अलग जाति के होते हैं। एक हिन्दू, एक मुस्लमान, एक ईसाई होता है। एक दिन तीनों साथ में टहलते हैं। उनको टहलते-टहलते रात हो जाती है। तो तीनों साधू एक गरीब परिवार में जातें हैं और रात भर रूकेने का निवेदन करते हैं। उस घर में केवल एक ही आदमी था। जो उन तीनों साधुओं को रूकने के लिए एक कमरा दे देता है। तो वे तीनों साधु अपने भोजन के लिए आग्रह करते हैं। तो वह आदमी उनके लिए खीर बना कर लाता है। तीनों के मन में एक विचार आता है। वे कहते हैं कि रात में जो अच्छा स्वप्न देखेगा, वही इस खीर को खाएगा। रात में तीनों को नींद तो आती नहीं है और तीनों अपने मन में अच्छे-अच्छे स्वप्न के बारे में सोचते हैं। तो थोड़ी ही देर बाद मुसलमान और ईसाई को नींद आ जाती है। परन्तु हिन्दू उन दोनों के सो जाने का लाभ उठात है। वह उठकर सारी खीर खा जाता है। और सुबह तीनों हाथ-मुँह धोकर बैठते हैं। और अपने स्वप्न के बारे में बताने लगते हैं।
मुसलमान:- रात में हमारे अल्लाह जी आए थे और उन्होंने हमें बहुत सा पैसा दिया और प्यार भी किया।
ईसाई:- रात में हमारे ईसा-मसीह जी आए थे, उन्होंने हमें बहुत सा धन दिया और उन्होंने हमें गोद में बिठा कर अच्छी-अच्छी बाते बतायीं। अब हिन्दू की बारी आयी!
हिन्दू:- हमारे हनुमान जी तो हकीकत में आए थे।
दोनों साधु:- वे तुम्हारे लिए क्या कर गए?
हिन्दू:- आए और हमें अपने गदे से मार-मार कर सारी खीर-लिखा गए।
दोनों:- क्या तुम हकीकत में सारी-खीर खा गए?
हिन्दु:- जब हनुमान जी हकीकत में आए थे तो हमें मार-मार कर सारी खीर भी हकीकत में लिखा गए।


समाज में नारी की भूमिका

प्रस्तावना- ऋग्वेद में कहा गया है कि: यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता' यह कथन मनु का है इसका अर्थ है कि ''जहाँ नारी की पूजा होती है' वहीं देवता निवास करते है।'' पूजा का अर्थ है किसी स्त्री को गौरव दीजिए उसका सम्मान करो, उसकी शिक्षा की उचित व्यवस्था हो, उसके जीवन स्तर में सुधार हो जिसके फलस्वरूप प्रत्येक देश में स्त्रियों के जीवन में सुधार की विशेष आवश्यकता का अनुभव किया गया है। भारत जैसे प्रगतिशील देश के लिये तो स्त्री जीवन का विकास अत्यन्त आवश्यक है। धार्मिक रूढ़ियों में बँधे हुए अन्धविश्वसनीय भारत की स्त्री के जीवन के विकास के लिए स्वतंत्र भारत में हर सम्भव प्रयास हो रहे है।
 ''जो हाथ पालने को झुलाता है, वह संसार का शासन भी करता है'' यह अंग्रेजी भाषा की कहावत है। इससे स्पष्ट होता है कि माँ का बालकों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। एक बार नेपोलियन ने कहा था  “If you give me good mathers, I will give you a good nation.”
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जहाँ तक मेरा विचार है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल में प्रत्येक (काल) युग में नारी का किसी न किसी रूप में शोषण होता रहा है। यदि हम प्रत्येक युग में नजर डाले तो तस्वीर उभरती है।
प्राचीन काल: वैदिक काल में नारी को वे सम्पूर्ण आर्थिक राजनैतिक धार्मिक, सांस्कृतिक अधिकार प्राप्त वैदिक काल तक समाज ने नारी के जीवन को नरक बनाना शुरू कर दिया था।
बौद्धकाल: बौद्धकाल में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया था लेकिन अपने प्रिय शिष्य 'आनन्द' के विशेष आग्रह पर गौतम बुद्ध ने नारियों को संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी लेकिन उस समय तक स्त्रियों की दशा दयनीय स्थितियों की ओर प्रवेश कर चुकी थी।
मुगलकाल- मुगलकाल में नारियों की दशा बहुत ही सोचनीय हो गयी थी। अनेक प्रकार की कुप्रथायें और स्त्रियों को अनेक बन्धनों में जकड़ दिया गया था।
आधुनिक काल- आधुनिक काल में नारियों की दशा बहुत खराब हो गयी। अनेक समाज सुधारकों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ उन्होंने उनकी स्थिति को सुधारने के लिए अनेक प्रयास किये। उदाहरणार्थ- स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राॅय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी, महात्मा ज्योतिबा राव फुले आदि।
नारी के जीवन में आने वाली बाधाएँ- नारी के कष्टों व उसकी दुर्दशा को देखकर मुझे सुमित्रानन्दन पन्त की कविता स्मरण हो जाती है।
''अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में दूध और आँखों में पानी।''
आज समाज में नारी के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। नारी का अशिक्षित होना। वह उन प्राचीन कुप्रथाओं व रूढ़ियों को मानने के लिए विवश है। जिनका कोई औचित्य नहीं है। समाज को नारियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। इसके लिए हम सभी को आगे जाना चाहिए। समाज में आज भी पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह प्रचलित है तो और दहेज के दानव ने विकराल रूप धारण कर लिया है जिसमें अनेक कन्याओं की बलि दी जा रही है। साथ ही आजकल कन्या भ्रूण हत्या एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में समाज में प्रचलित हो गयी है उन्हीं दहेज लोभियों को कविता के माध्यम से सम्बोधित करते हुए मैं कह रहा हूँ।
''चूर किये मासूम स्वप्न सब कन्या का जीवन मुरझाया। ओ मेरे युग के प्रहरी तुम, इस कलंक का करो सफाया।।''
 नारी जीवन के विकास के लिये प्रयत्न: नारी जीवन के विकास के लिए समाज को ही नहीं सरकार को भी प्रयत्न करना चाहिए सबसे पहले प्रत्येक बालिका को शिक्षित करना होगा और जिनकी आर्थिक स्थित अच्छी न हो उन्हें छात्रवृत्ति देकर शिक्षा की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए और समाज में जो दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, आदि सामाजिक कुरीतियों के लिए कड़े नियम कानून बनाने होंगे। समाज में जागरूकता पैदा करनी चाहिए। संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण बिल पास कर उनके विकास के मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए।
अन्त में: जहाँ तक मेरा मानना कि नारी के विकास को लेकर प्रत्येक व्यक्ति ऊँची-ऊँची बातें करते हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। उदाहरण के तौर पर भारतीय संसद में ही महिला का कितना प्रतिनिधित्व है जो एक गणना मात्र है। हर नेता व मंत्रीगण महिलाओं के विकास की बातें करते हैं। लेकिन जहाँ संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण का मामला आता है। इसका विरोध होता है। ये है इनके चेहरे का असली मुखौटा। अतः मेरा विचार है कि समाज को नारी विकास में एक अहम् भूमिका निभानी होगी। समाज से कुप्रथा को बाहर कर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना होगा, जिसमें महिलाओं की समान भागीदारी होगी क्योंकि नारी और पुरूष दोनों एक गाड़ी के दो पहियों के समान है। जिससे परिवार रूपी संस्था चलती है। स्वस्थ परिवार से ही स्वस्थ समाज की स्थापना होती है। समाज में नारी के विभिन्न रूप है। माँ, पत्नी, पुत्री, बहन जो अपने कर्तव्यों का सफलता पूर्वक निर्वाह करती है। विश्वविख्यात साहित्यकार डाॅ0 रवीन्द्र नाथ टैगोर ने नारियों की गरिमा को बढ़ाते हुये कहा ''पवित्र नारी दुनिया की सर्वोत्तम कृति है।'' अतः समाज को नारियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। नारी शक्ति का प्रतीक है। इसी के साथ मैं अपना लेख समाप्त करता हूँ।
''कोमल है कमजोर नहीं, शक्ति का नाम ही नारी है।
सबको जीवन देने वाली, मौत तुझी से हारी है।।