भीख मांगने के कार्य में से संलग्न और ट्रांसजेंडर समुदाय को सुरक्षित जीवन जीने में यह केंद्रीय स्माइल अंब्रेला स्कीम मील का पत्थर साबित होगी- एड किशन भावनानी
Sunday, February 13, 2022
भिक्षुकों और ट्रांसजेंडर समुदाय की आजीविका, उद्यमों, कल्याण और व्यापक पुनर्वसन के लिए नायाब तोहफा
सच्चा भक्त
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव कि तारिक घोषित हो चुकी थी। सभी पार्टियों के नेता अपनी अपनी पार्टियों के चुनाव प्रचार में लगें हुए थे। सभी पार्टियों के साथ गांव गांव से अलग अलग लोग अपने नेता के समर्थन में प्रचार प्रसार में घूम रहे थे। एक व्यक्ति थे विदेश चौधरी जो भाजपा के समर्थन में भाजपा के नेता के साथ गांव गांव पार्टी का प्रचार प्रसार करा रहे थे। इससे पहले विदेश चौधरी ग्राम पंचायत के चुनावों में दो तीन बार प्रधान के साथ गांव में चुनाव प्रचार प्रसार करा चुके हैं और जिला पंचायत के चुनाव में भी दो तीन बार नेता के साथ चुनाव प्रचार प्रसार करा चुके हैं।
मतदान का दिन आया। लोग सुबह से ही वोट डालने के लिए मतदान केन्द्र की ओर जा रहे थे। सभी के मन में एक ही विश्वास था कि जिस नेता को वो वोट देंगे, वह अवश्य ही जीतेगा लेकिन विदेश चौधरी के मन में तो कुछ इसके विपरित ही विचार चल रहा था। जब वो वोट डालने के लिए घर से मतदान केन्द्र की तरफ निकले तो वो रास्ते में सोच रहे थे कि आज तक उन्होंने जिस भी नेता को वोट दिया है चाहे वो ग्राम प्रधान हों या जिला पंचायत वो सिर्फ हारा है।
जैसे ही विदेश चौधरी ई बी एम मशीन पर पहुंचे तो उन्होंने सोचा कि यदि वो साइकिल का बटन दवा दे तो साइकिल तो कैसा रहेगा? ज्यों ही उन्होंने साइकिल का बटन दबाने के लिए हाथ आगे बढाया त्यों ही उनके दिल के अन्दर से आवाज आई कि तू कमल ही दबा दें जो होगा देखा जायेगा और उन्होंने कमल का बटन दबा दिया।
लेखक
नितिन राघव
Friday, February 11, 2022
लोक कल्याण संकल्प पत्र, सत्य वचन, उन्नति विधान
नए डिजिटल भारत में चुनावी घोषणा पत्रों का स्वरूप बदला- नए प्रौद्योगिकी भारत में मतदाता स्पष्ट विकल्प चुनने में सक्षम
वजह
मुस्कुराहट की वजह बनो
क्यों दर्द की वजह बनते हो ?
मोहब्बत की वजह बनो
क्यों नफरत की वजह बनते हो ?
जीने की वजह बनो
क्यों मृत्यु की वजह बनते हो ?
निभाने की वजह बनो
क्यों बिखरने की वजह बनते हो ?
हंसने की वजह बनो
क्यों रुलाने की वजह बनते हो ?
दोस्ती की वजह बनो
क्यों दुश्मनी की वजह बनते हो ?
सम्मान की वजह बनो
क्यों अपमान की वजह बनते हो ?
आशा की वजह बनो
क्यों निराशा की वजह बनते हो ?
जीताने की वजह बनो
क्यों हराने की वजह बनते हो ?
राजीव डोगरा
Wednesday, January 26, 2022
उरई से महेन्द्र कठेरिया तथा कालपी से विनोद चतुर्वेदी अब बने सपा के प्रत्याशी
दैनिक अयोध्या टाइम्स ब्यूरो
उरई(जालौन)। विधानसभा चुनाव मे टिकट कटने और मिलने के घमासान मे जनपदीय नेता रात दिन लखनऊ और जनपद जालौन को अधाधुंध भागदौड़ करके मानो एक किये दे रहे है। फलस्वरूप ताजा जानकारी के अनुसार पूर्व मे कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व विधायक विनोद चतुर्वेदी को अब कालपी विधानसभा सीट से तथा युवा उदयीमान नेता महेन्द्र कठेरिया को अब सपा का कालपी और उरई का प्रत्याशी बना दिया गया है। उक्त जानकारी सपा हाईकमान द्वारा दी जा रही है।
रोज रोज नए समीकरण बनने और बिगड़ने से जनपद के राजनीतिक हलकों मे जहां तगड़ा घमासान मचा हुआ है वहीं जनपद की जनता भी निष्ठा परिवर्तन के साथ साथ प्रत्याशिता परिवर्तन का मजा पूरे आनन्द के साथ देख रही है। स्मरण रहे कि एक दिन पूर्व सपा के यह दोनो टिकट क्रमशः पूर्व मंत्री श्रीराम पाल तथा उरई से पूर्व राज्यमंत्री दयाशंकर वर्मा के लिये घोषित किये जाने की चर्चा रही। किन्तु इन पुरानी बातों को निरमूल साबित करते हुए समाजवादी पार्टी के युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सवर्णो की अग्रणी विरादरी ब्राम्ह्रण को उपेक्षित करना उचित नही समझा और सवर्ण, वैकवर्ड तथा दलित समाज को सन्तुलित करने की ऐसी रणनीति बनायी कि रातों रात टिकट परिवर्तित कर दिये तथा सर्वत्र अखिलेश यादव की कूटनीतिक चतुराई की जनपद मे सराहना की जा रही है। क्योंकि ब्राहम्मण सामूहिकता मे सपा से एक भी टिकट न मिलने से अपने को खास उपेक्षित महसूस कर रहे थे और इसका नुकसान सपा के लिये चुनाव मे खतरनाक साबित हो सकता था। मगर अब सामाजिक सन्तुलन को बखूबी संभाल दिया गया है।
किसान नेताओं ने जिला कार्यालय पर किया झंडारोहण
दैनिक अयोध्या टाइम्स बाराबंकी। भारतीय किसान यूनियन (राधे) के जिला कार्यालय डीएम आवास के सामने राष्ट्रीय अध्यक्ष राधे लाल यादव व जिलाध्यक्ष शुऐब राईन द्वारा सामूहिक रूप से झंडा रोहण किया गया राष्ट्रगान के साथ बड़े हर्षोल्लास से राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस यूनियन के समस्त पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के साथ मनाया गया राष्ट्रीय अध्यक्ष राधे लाल यादव ने कहा किसानो की हक की लड़ाई के लिए किसी भी हद तक जाना पड़े पीछे नहीं हटूंगा किसानों की ज्वलंत समस्याओं पर शासन प्रशासन से इंसाफ दिलाकर रहूंगा
प्रदेश अध्यक्ष रीतू एडवोकेट ने ललकारते हुए कहा दुश्मन देश सावधान हो जाएं अब हिंदुस्तान मुंह तोड़ जवाब देना सीख गया है
जिलाध्यक्ष शुऐब राईन ने कहा यह आजादी हमें पूर्वजों के बलिदान के बाद मिली है हमें उन बलिदानों के त्याग को हमेशा याद रखना होगा जिनकी वजह से हम आज शांति की सांस ले रहे हैं विरासत में मिली आजादी को हमें सहेज कर रखने की जरूरत है
समस्त पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं ने देश की तरक्की में रोड़ा बने कोरोना महामारी की जल्द खातमे की ईश्वर से दुआ की सभी पदाधिकारियों ने एक दूसरे का मुंह मीठा करा कर गणतंत्र दिवस की बधाइयां दी
इस अवसर पर यूनियन के
युवा जिला अध्यक्ष आफताब अंसारी,
जिला प्रभारी सेठी चौधरी,
जिला वरिष्ठ उपाध्यक्ष वसीम अंसारी,
जिला उपाध्यक्ष शकील सिंगर,
जिला वरिष्ठ उपाध्यक्ष नसरीन खातून,
जिला उपाध्यक्ष तस्लीम खान,
जिला प्रचार मंत्री गया प्रसाद यादव,
नगर अध्यक्ष कलीम उर्फ मुनिया,
तहसील अध्यक्ष नवाबगंज बबलू ठाकुर,
जिला मीडिया प्रभारी सुहैल अंसारी,
प्रदेश मीडिया प्रभारी डॉ•बिलाल साहब,
आदि किसान नेताओं ने गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं दी।
कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ना है
हिम्मत और हौसला आज भारत की पहचान है
गणतंत्र दिवस!
अक्षरों की दुविधा
किसी को भी पूछ लो कि अंग्रेजी में कितने अक्षर होते हैं तो वे फट से बता देते हैं – छब्बीस। हिंदी में ऐसा नहीं है। कोई कहता है यह अक्षर संयुक्ताक्षर है इसे वर्णमाला में नहीं गिनना चाहिए। कोई कहता है अं, अः अयोगवाह है इसलिए इन्हें स्वर के रूप में स्थान नहीं देना चाहिए। बारहखड़ी लिखते समय ऋ की मात्रा का उपयोग करते हैं। ऋ की मात्रा का उपयोग करने से वह तेरहखड़ी हो जाती है। फिर भी कहने को बारहखड़ी ही कहते हैं। हो सकता है कि इसके पीछे भाषाई कारण हो, फिर भी सामान्य लोगों के पल्ले यह बात कैसे पड़ेगी?”
हिंदी अक्षरों को लेकर शुरु हुई बातचीत बेनतीजा रही। सभी मित्र रात होते ही अपने-अपने घर लौट गए। मैं भी लौट आया। उस रात मैं भी सोचने लगा कि मित्रों की बात में दम तो है। अंग्रेजी की तरह हिंदी अक्षरों की संख्या एकदम सुलझी हुई क्यों नहीं है? हो सकता है यह मेरा हिंदी भाषाई ज्ञान के प्रति अज्ञान का परिणाम है, फिर भी मैं संशय में था। यही सब सोचते-सोचते मैं सो गया। सपने में अक्षरों की महासभा शुरु हुई। मानो ऐसा लगा जैसे सारे स्वर हाथ बाँधे व्यंजनों के सामने याचनार्थी के रूप में खड़े थे। अनुस्वार और विसर्ग को तो मानो कोई पूछने वाला ही न था। वे तो कोने में पड़े-पड़े रो रहे थे। साथ ही अपने भाग्य पर खुशी मना रहे थे कि लुप्त होते अक्षरों की सूची से बाल-बाल बचते रह गए। किंतु लुप्त होते अक्षरों की याद रह-रह कर आती और बदले में जब-तब आँसू बहा देते। कुछ अक्षर तो अपने बदलते आकारों और उच्चारणों को लेकर भीतर ही भीतर कूढ़ते जा रहे थे। मानव उच्चारण के आगे अपनी निस्साहयता को लेकर अपनी दुस्थिति पर रो रहे थे।
अंतस्थ अक्षर अपने अंतर में झाँककर अपने खोखलेपन को ढूँढ़ने की लाख कोशिश कर रहे थे। दुर्भाग्य से उनका अंतस्थ अब अंत की कगार पर आ चुका था। अघोष सघोष के दबाव में बिखरते जा रहे थे, जबकि सघोष अपने में रह-रहकर पागलों की तरह बतिया रहे थे। सरल अक्षर अपनी सरलता का खामियाजा तो संयुक्ताक्षर अपनी संयुक्तता की खिचड़ी संस्कृति से कराह रहे थे। अनुनासिक अपने स्वामी की नाक की इज्जत बनाये रखने के लिए नथुनी फुला-फुलाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। महाप्राण तो निराला के जाने के बाद से ही मात्र दिखावे के महाप्राण रह गए थे। अब वे हथेली में अपने प्राण धरे अपनी खैर मना रहे थे। समाज में हो रही अराजकता को देखकर भी जिनके खून की ऊष्मा ठंडी पड़ चुकी हो, उन्हें देख ऊष्माच्चारण वाले अक्षर अपने जन्म को कलंक मानने लगे थे। संयुक्ताक्षर अपने जन्मदाता अक्षरों पर अपनी धौंस दिखाने से बाज़ नहीं आ रहे थे। रह-रहकर शेष अक्षरों की क्लास लगाने की फिराक में रहते थे।
दीर्घ स्वर अब पहले जैसे दीर्घ नहीं रहे। प्रदूषण के चलते गले की रूँधता दीर्घ उच्चारणों से कतराते नजर आ रहे थे। दीर्घता की कमी के चलते अब आवाज उठाने वाले स्वर लुप्त होते जा रहे थे। यहाँ सारे के सारे व्यंजन अपनी-अपनी कौम को बचाने में पीसते जा रहे थे। कोई देशज उच्चारण में देशभक्ति तो कोई विदेशज उच्चारण में वैश्वीकरण की गंध देखता था। कोई तत्सम के पीछे अपना समस्तम खोने को तैयार था तो कोई तद्भव के बल पर अपना उद्भव करना चाहता था। कोई कंठाक्षरी होकर गले तक तो कोई तालु भर की ताल बजाकर सामने वाले की मूर्धन्यता से दो-दो हाथ करने की फिराक़ में था। कोई दंताक्षरी बनकर अपने दाँत बजाता था तो कोई ओष्ठाक्षरी की गरिमा के विरुद्ध समाज की बुराई से बचने के लिए अपने ओष्ठ सीकर बैठा था।
अब अक्षरों में क्रांति की लहर दौड़ रही थी। उनका क्रोधावेश अपने चरम पर था। वे अन्याय का विरोध करने वाले गीतों में मौन होकर अपना विरोध जताना चाहते थे। अक्षरमाला अपने उच्चारण स्वामी के स्वार्थ से मोहभंग हो चुके थे। वे सत्ता की आड़ में घमंड करने वालों नेता के झूठे प्रलोभन वाले भाषणों में अक्षरक्रांति करना चाहते थे। ऐसा न करने वाले अपने कौम के अक्षरों को देशनिकाला की भांति अक्षरनिकाला करने की शपथ लेकर बैठे थे। सच तो यह है कि अक्षर सारे कब के मर जाते, वे तो जी रहे हैं उन प्रश्नों के लिए जिनसे समाज की रक्षा हो रही है।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
दुनिया का सबसे खूबसूरत दस्तावेज है भारतीय संविधान
- मुकेश बोहरा अमन
दुनिया भर में भारत कई मायनों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । जिसमें भारतीय संविधान भी अपने आप में कई विशेषताओं को समेटे हुए है । भारत का संविधान भारत का सर्वाेच्च विधान है, जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। ऐसे में 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है, वहीं 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस के रूप में हर्ष और उल्लास के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। भारतीय संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है। भारतीय संविधान दुनिया का सबसे खूबसूरत दस्तावेज है । जिसमें अनेकानेक खूबियां व विशेषताएं समाहित है । भारतीय संविधान में प्रस्तावना का आगाज हम भारत के लोग से होता है । जो यह साबित करता है कि भारत की जनता में ही सब कुछ निहित है ।
भारतीय संविधान बहुत विशाल व विस्तृत नियमों, उपनियमों का एक ऐसा लिखित दस्तावेज है, जिसके अनुसार सरकार का संचालन किया जाता है। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र थे । जिनके नेतृत्व में भारतीय संविधान का निर्माण किया गया । वहीं संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे । डॉ. भीमराव आम्बेडकर को भारतीय संविधान का प्रधान वास्तुकार या निर्माता भी कहा जाता है। संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन का समय लगा । मूल संविधान में भारतीय संविधान, हमारे लोकतांत्रिक आदर्शों, उद्देश्यों व मूल्यों का दर्पण है । संवैधानिक विधि देश की सर्वोच्च विधि है ।
मूल भारतीय संविधान में 22 भागों में 395 अनुच्छेद तथा 8 अनुसूचियाँ थी । कालांतर भारतीय संविधान में समय-समय पर हुए संविधान संशोधनों से वर्तमान में भारतीय संविधान में 25 भागों में 470 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां है । भारत का मूल संविधान हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में हस्तलिखित है । जिसे प्रेम बिहारी रायजादा ने अपने हाथों से लिखा जिसके अंग्रेजी संस्करण में 146385 शब्दों का प्रयोग किया गया है । इस लिहाज से भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लम्बा लिखित संविधान है । भारतीय संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को दिल्ली संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में सभा के अस्थायी अध्यक्ष डॉ. सच्चिानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में बुलाई गई ।
भारतीय संविधान के निर्माण में सबसे अधिक भारत शासन अधिनियम 1935 का प्रभाव रहा है । जिसमें से तकरीबन 250 अनुच्छेद लिए गए । इसके अलावा अलग-अलग देशों के संविधान से भी महत्वपूर्ण व उपयोगी व्यवस्थाओं को भारतीय संविधान में स्थान दिया गया है । जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, आयरलैंड, साउथ अफ्रीका, कनाडा, सोवियत संघ रूस, जापान, फ्रांस आदि देशों से अलग-अलग व्यवस्थाओं को भारतीय संविधान में जोड़ा गया है । और भारतीय संविधान को सशक्त व कारगर बनाया गया ।
भारतीय संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर तैयार हुआ लेकिन भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया । इस उपलक्ष में प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस मनाया जाता है । वहीं संविधान को 26 जनवरी को लागू करने के पीछे भी विशेष कारण रहा है । 26 जनवरी 1930 को भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी जिसको महत्व देने को लेकर 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान विधिवत् लागू किया गया । हम वर्ष 2022 में भारतीय गणतंत्र का 73वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे है । जिसकी आप सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।
मुकेश बोहरा अमन
Tuesday, January 4, 2022
बहरूपिया
जब हम छोटे थे तो याद आता हैं कि एक व्यक्ति आता था जो रोज ही नया रूप बना कर आता था।कभी हनुमानजी बन कर आता था तो कभी महाकाली का रूप ले कर आता था।कोई न कोई पात्र को ले कर उसी के उपर वेशभूषा कर घर घर जाता था और बदले में भिक्षा पाता था। दुकानों में भी वही स्वरूप बना कर भिक्षा पाता था।जिसे देखने बच्चे तो बच्चे बड़े भी खड़े हो जाते थे।क्या हम इसकी करोना से तुलना कर सकते हैं?पहले आया तो अनजाना सा किसीने भी न देखा न सुना था।आया तो तूफान सा था।जिस से डर ज्यादा लगा था ,काल्पनिक राक्षस सा था ,जिसका रूप और रंग की हम सिर्फ कल्पना ही कर के रह गए थे।वास्तविक रूप का अता पता नहीं था एक वायका सा था ,जो बातें जैसे हवा के साथ बह कर पूरे विश्व में फेल गई।लेकिन भिक्षा में न जानें क्या क्या के गया और पीछे छोड़ गया आर्थिक नुकसान,सभी देशों ने लॉकडाउन लगाया और इंसानों को बंद करके रख दिया।फिर थोड़ी राहत हुई ,सोचा कि अब गया लेकिन जब वह फिर आया तो महा भयंकर रूप धर के आया तो विश्व के सभी देशों को आर्थिक,मंजिल और आर्थिक स्वरूप से ध्वंस कर कठूराघात कर गया।इस रूप ने तो आधे विश्व को अस्पतालों के दरवाजे पर पहुंचा दिया और कइयों को स्मशान के सुपुर्द कर दिया।इस भयंकर रूप कइयों को मानसिक रूप से विक्षिप्त कर के गया तो एक डर के साएं से बाहर तो आए लेकिन आहत तो रह गई कि ये वापस आया तो क्या होगा।उसे नाम दिया गया डेल्टा,जो एक भय अंकित कर गया।
डुप्लीकेट लोगों की डुप्लीकेट धरती
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
न जाने क्यों मुझे रह-रहकर मूर्धन्य 'ष' की चिंता सताती रहती है। प्रदूषण से भरा ‘श’ हर जगह हावी है। लगता है कभी-कभी 'ङ्’ अपने लुप्त होते उच्चारण की चिंता में आत्मदाह कर लेगा। न जाने कौन धीरे-धीरे शिरोरेखा को मिटाता जा रहा है। मौके-बेमौके खड़ी पाई को चुराता चला जा रहा है। नागरी के सारे अंक अपनी विलुप्तता का रोना अकेले में रोए जा रहे हैं। उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। मानो विदेशज के शब्दों ने देशज शब्दों को अंतरिक्ष में फेंक दिया है। यौगिक धातुओं के जमाने में हम स्टील, फाइबर सोडियम क्लोराइड के आदि हो चुके हैं। शुद्धता अब हमें कतई नहीं भाती। मिक्स्ड प्रवृत्ति को अपना स्वभाव बनाने के आदी हो चुके हैं।
दूरदर्शन के रामायण वाले हनुमान से नजर हटी तो बैटरी वाले हनुमान दिखाई दिए जो प्लास्टिक का पहाड़ उठाए पौराणिक ज्ञान को बाँचने का काम कर रहे हैं। बच्चों के हाथों में ‘चल छैंया छैंया वाले प्लास्टिक के बने खिलौने वाले मोबाइलों’ की जगह असली मोबाइलों ने ले ली है, जो बड़ों की कद्र तो दूर उनके कहे को ‘सो बोरिंग पकाऊ पिपुल’ कहकर आदर्श उवाचों को कचरे की पेटी में डालना अपना स्टेटस समझ रही है। अब किसी भी घर में पुरानी नानियों के पहियों वाला काठ का नीला-पीला घोड़ा नहीं दिखता। हाइब्रिड अमरूदों ने असली अमरूदों का गला ऐसे घोंटा जैसे उसकी कोई पुरानी दुश्मनी हो। उस असली अमरूद की तरह असली धरती कब की लुप्त हो चुकी है। लोग डुप्लीकेट और धरती डुप्लीकेट हो चली है। सिर्फ छलावा ईमानदारी से किया जाता है।
आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते उड़ रहे हैं। अब घऱ में दादा की मिरजई टाँगने की कोई जगह नहीं बची है। न कोई ऐसा संग्रहालय है जहाँ पिता का वसूला माँ का करधन और बहन के बिछुए छिपाये जा सके। अब तो खिचड़ी, ठठेरा, मदारी, लुहार, किताब सब सपने में आते हैं। वास्तविकता में इनका सामना किए अरसा बीत गया। अब न खड़ाऊ की टप-टप है न दातुन की खिच-खिच। और पीतल के लोटे का पीतल तो पिरॉडिक टेबल में बंधकर रह गया है, जिसे केवल एलिमेंट के नाम से पहचानना पड़ रहा है। अब गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों पर घोंसले, अखबारों में सच्चाई, राजनीति में नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी खोजने पड़ते हैं। पहले की पीढ़ी लुप्तता की पीड़ा से मरी तो आज की पीड़ा वर्तमान पीढ़ी से मर रही है।
टीबी का गढ़ बनते देश को करनी होगी चिंता
- टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है।
अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार-लेखककरीब 140 साल पहले रॉबर्ट कोच ने ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) बैक्टीरिया की खोज की थी। इंसान की ओर से खोजी गई यह उन शुरुआती बीमारियों में से एक है, जिसके कारक स्पष्ट हैं। संक्रामक रोग होने से टीबी मौत का अहम कारण बनती है। सालाना एक करोड़ से अधिक लोग टीबी से संक्रमित होते हैं और 10 लाख से अधिक मौतें होती हैं। भारत पर टीबी का सबसे अधिक बोझ है। करीब 25 प्रतिशत मामले अकेले भारत से होते हैं और मौतें भी यहीं सबसे ज्यादा होती हैं। बीते कुछ वर्षों में भारत में टीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर विशेष जोर दिया गया है। इलाज के नए तरीके, पोषण सहायता के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है। साथ ही आंकड़ों का व्यापक प्रबंधन हुआ है। इससे लोगों में जागरुकता भी आई है। हालांकि कोविड महामारी ने कई सफल प्रयासों पर पानी फेर दिया है।
रिपोर्ट कहती हैं कि भारत जानलेवा संक्रामक महामारी टीबी का गढ़ बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की द ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में टीबी के मरीज दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। ड्रग रेसिस्टेंट टीबी, टीबी की वह खतरनाक किस्म है, जिस पर दो सबसे ताकतवर एंटी टीबी ड्रग्स भी नाकाम साबित हो जाते हैं। दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे एक जिंदा बम और भयंकर स्वास्थ्य संकट का नाम दे चुके हैं। इससे भी अधिक टीबी एक ऐसी बीमारी है, जो आपके जीवन के सबसे उत्पादक काल यानी 15-59 आयु वर्ग के लोगों को अपनी चपेट में लेती है। इतना सब होने के बाद भी दबे पांव हमारे जीवन में दखल देने वाली इस महामारी को लेकर जनता में कोई खास चिंता नहीं है। वैज्ञानिक और शोधकर्ता भी कमजोर पड़े हुए हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकारें इस पर बहुत कम पैसा खर्च कर रही हैं।
टीबी पर लैंसेट कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 9,53,000 टीबी रोगी खो जाते हैं यानी या तो रोगी डायग्नोसिस के लिए नहीं आते या फिर वे रोगी जिन्हें टीबी होने का पता तो चला है, लेकिन उनकी सूचना दर्ज नहीं कराई गई। लैंसेट रिपोर्ट के मुताबिक, यदि प्राइवेट सेक्टर को पूरी तरह इस मुहिम में अपने साथ शामिल कर लिया जाए तो अगले 30 साल में भारत में 80 लाख जिंदगियों को बचाया जा सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2018 में टीबी की अधिसूचना नहीं देने को अपराध घोषित कर दिया यानी न केवल सरकारी बल्कि निजी चिकित्सकों को भी अपने पास आने वाले टीबी रोगियों की सूचना अनिवार्य रूप से देनी होगी, अन्यथा उन्हें जेल जाना पड़ सकता है। टीबी को खत्म करने का लक्ष्य साल 2025 तक रखा गया है। केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने सभी राज्यों को पत्र लिखा है। यह निर्णय अथॉरिटी के सदस्यों की अनुमति मिलने के बाद किया गया है।
दुनियाभर में जहां कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए कई वैक्सीन बनाने पर चर्चा हो रही है, वहीं टीबी के खिलाफ हमारी जंग इतनी दयनीय है कि हम आज भी 100 साल पहले विकसित की गई वैक्सीन का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह वैक्सीन हमें बचाने में नाकाम भी साबित हुई है। पिछले 40 वर्षों में इसकी कोई नई दवा तक नहीं विकसित हो पाई है। इसके रिसर्च और फंडिंग में अधिकांश लोग रुचि नहीं लेते हैं। वजह यह है कि अधिकांश मरने वाले विकासशील देशों के होते हैं, विकसित देशों के नहीं। आज जहां कोरोना वायरस का यूरोप और अमेरिका में घातक प्रकोप है, वहीं टीबी को यूरोप के बहुत से हिस्सों में भुला दिया गया है। हालांकि इसे लेकर हाल के वर्षों में जागरुकता बढ़ी है, लेकिन फिर भी विकसित देशों में बहुत से इस गलतफहमी में जीते हैं कि टीबी का उन्मूलन हो चुका है और इसका जिक्र अब केवल किताबों में ही मिलता है।
टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है। कई बार तो रोग क्या है, इसकी सही जांच के लिए उसे दूसरे राज्यों तक दौड़ना पड़ता है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी तब होती है, जब टीबी के बैक्टीरिया शरीर के दूसरे हिस्सों जैसे रीढ़, पेट, मस्तिष्क आदि को प्रभावित करते हैं। टीबी की तुलना में इसकी पहचान काफी मुश्किल है, क्योंकि अभी इस क्षेत्र में वैज्ञानिक सबूत मौजूद नहीं हैं। कुछ लोगों की तो समय रहते टीबी की पहचान हो जाती है। मामला तब जटिल हो जाता है, जब मरीज को ऐसी कई दवाओं के संवेदनशीलता परीक्षण से गुजरना पड़ता है, जिन्हें आमतौर पर कम इस्तेमाल किया जाता है। इन परीक्षणों के आधार पर तय किया जाता है कि टीबी की खास किस्म के लिए कौनसी दवाएं दी जाएं। टीबी के इलाज में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित होना एक बड़ी बाधा है। ऐसे में सही परीक्षण के अभाव में बहुत से लोगों का समय उन दवाओं को लेने में बर्बाद हो जाता है, जो कारगर ही नहीं हैं।
टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। हालांकि जागरुकता की कमी की वजह से लोगों को यह पता नहीं है कि सही दवा लेने के दो हफ्तों से दो महीनों के बीच इसका मरीज संक्रामक नहीं रह जाता। टीबी के बहुत से रोगियों को उनके अपने घरों और व्यवसाय की जगह पर ही सामाजिक अलगाव और दुराव का सामना करना पड़ता है। टीबी ग्रस्त लोग न केवल अपना रोजगार खो बैठते हैं, बल्कि उनमें से कई के जीवन साथी और दोस्त भी सामाजिक गलतफहमी के कारण उनसे दूर हो जाते हैं। सामाजिक-आर्थिक संबल के नाम पर बहुत मामूली सी मदद सरकार से मिलती है।
केंद्र सरकार टीबी के रोगियों को पोषण भत्ते के रूप में महज 500 रुपए महीने देती है। सरकारी लालफीताशाही और समय पर फंड न होने से कई बार वह मरीज को मिल ही नहीं पाता। भले ही टीबी कोरोना वायरस के जितनी संक्रामक नहीं है, लेकिन घातक उतनी ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दिल की बीमारियों और स्ट्रोक के साथ-साथ टीबी दुनियाभर में होने वाली मौतों की 10 प्रमुख वजहों में शामिल है। टीबी से जुड़ी मौतें टेलीविजन पर बहस का हिस्सा नहीं बनतीं। अधिकतर ये अखबार के अंदर के पन्नों में छिपकर रह जाती हैं। टीबी मरीजों की लंबी होती सूची महज आंकड़ों में सिमट जाती है। असल में टीबी को आज भी गरीबों की बीमारी के रूप में देखा जाता है, जो कि सच्चाई सेे परे है। सच यह है कि अमीर इसे छिपा लेते हैं और गरीब ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं। टीबी के ऐसे हालातों के लिए हम सभी को सोचने की जरूरत है, तभी हालात में बदलाव और सुधार हो सकेंगे।
अमित बैजनाथ गर्ग
वरिष्ठ पत्रकार-लेखक