Tuesday, October 29, 2019

खेलकूद और अनुशासन

 अनुषासन विद्यालय का एक महत्वपूर्ण अंग है। अनुषासन की स्थापना में खेलकूद का विषेश योगदान है इसी सेविष्व के अनेक देषों में अनुषासन की स्थापना में खेलकूद के महत्व को स्वीकार करते हुए विद्यालयों में खेलकूद की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई है लेकिन हमारे देष में अभी विषेश ध्यान नहीं दिया गया है। प्रायः लोगों की मानसिकता है कि बच्चों को खेलकूद से दूर रखकर पाठ्य पुस्तक द्वारा एवं आचार संहिता द्वारा विद्यालय में अनुषासन की नींव सुदृढ़ की जा सकती है। लेकिन प्लेटों ने कहा ''बालक को दण्ड की अपेक्षा खेल द्वारा नियंत्रित करना कहीं अच्छा है।'' आजकल खेलकूद की उपेक्षा के कारण आए दिन हड़ताल, तोड़फोड़, परीक्षा में सामूहिक नकल का प्रयास, षिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार आदि घटनाएँ छात्रों द्वारा हो रही हैं। भारत जैसे विषाल देष में विद्यालयों में पनपती अनुषासनहीनता घातक सिद्ध हो रही है।
 खेलकूद की उपेक्षा से अनुषासनहीनता पनपती है। अनुषासन की स्थापना में खेलकूद विभिन्न प्रकार से सहयोगी है।
 (1) सामाजिक भावना - खेलकूद बच्चों को आपस में मिलजुल कर रहना, आपसी बैरभाव समाप्त करना, विभिन्न जाति व सम्प्रदाय के साथ आपसी तालमेल द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना सिखाता है। फलस्वरूप उनमें सामाजिक सहयोग के भाव उत्पन्न होते हैं जो उन्हें अनुषासन प्रिय बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। खेलकूद के अभाव में बच्चे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब विभिन्न देषों की टीमें खेलती हैं उनके सदस्यों में सहज ही मैत्रीभाव का विकास हो जाता है। क्रीड़ा जगत में एक साथ भाग लेने वाले खिलाड़ी परस्पर प्रतिस्पर्धा तो करते हैं परन्तु द्वेशभाव से दूर रहते हैं। खिलाड़ी हार-जीत को जब खिलाड़ी की भावना से लेने की षिक्षा पाते हैं तो वे जीवन में भी सफलता-असफलता के अवसरों पर सन्तुलन बनाये रखने में सफल होते हैं।
 (2) मस्तिश्क एवं षरीर पर प्रभाव - खेलकूद द्वारा छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्विहोती है। खेलने के दौरान प्रत्येक मांसपेषियाँ काम करती हैं तथा रक्त तीव्रता से षरीर में दौड़ने लगता है जिससे बालक का षरीर निरोग बना रहता है और निरोग षरीर में स्वस्थ मस्तिश्क होता है उसमें अच्छे-बुरे समझने की षक्ति होती है जिससे चारित्रिक दुर्बलताएँ मस्तिश्क में प्रवेष नहीं कर पाती हैं। खेलते समय बालक के अन्दर संयम, दृढ़ता, वीरता, गम्भीरता, एकाग्रता तथा सहयोग की भावना का विकास होता है इसके विपरीत खेलकूद के अभाव में छात्रों का षारीरिक एवं मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है और उनमें आत्मविष्वास की कमी उन्हें आत्मानुषासित बनाने में बाधक होती है। और वह कुण्ठाग्रस्त होकर गलत मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं
 (3) अतिरिक्त विकास- बालकों में किषोरावस्था में अतिरिक्त षक्ति होती है। खेलकूद द्वारा उनकी अतिरिक्त षक्ति को सरलता से रचनात्मक कार्यों मेें लगाया जा सकता है। और अतिरिक्त षक्ति का सदुपयोग हो जाता है। यदि अतिरिक्त षक्ति को खेलकूद में न लगाया जाए तो वह षक्ति बुरे कार्यों में लग सकती है।
 (4) अवकाष - खेलकूद के माध्यम से अवकाष का सदुपयोग होता है। प्रायः विद्यालयों में फैलती अनुषासनहीनता का प्रमुख कारण छात्रों को अवकाष के सदुपयोग की सुविधा न देना है। जहाँ अध्ययन के पष्चात् खेलकूद की सुविधा उपलब्ध होती है वहाँ प्रायः किसी प्रकार की अनुषासनहीनता नहीं होती है क्योंकि बालक खेलकूद में इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें बुरा देखने बुरा कहने-सुनने व करने का समय नहीं मिल जाता है। इसके विपरीत बच्चे उपद्रव मचाते हैं।
 (5) आत्मनियन्त्रण की भावना - छात्र जब किसी अन्य विद्यालय के छात्रों से मैच या किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है तो वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे उसकी तथा उसके स्कूल की बदनामी हो।
  फलतः उसमें आत्म नियन्त्रण की भावना जाग्रत होती है और वह अनुषासित ढंग से व्यवहार प्रदर्षन करता है। इसके विपरीत खेलकूद के अभाव में छात्र आत्मनियन्त्रित नहीं हो पाते।
 (6) उचित मार्ग दर्षन- कुछ विद्यार्थियों की पढ़ाई की अपेक्षा खेलकूद में अधिक रूचि होती है। उनकी रूचि के अनूकूल खेलकूद के क्षेत्र में उचित मार्गदर्षन किया जाए तो वे अच्छे खिलाड़ी बनकर भारत का गौरव बढ़ा सकते हैं।
 खेल के समय खिलाड़ी को प्रत्येक अवसर पर तत्क्षण निर्णय लेना होता है। वह किधर से आगे बढ़े कब किस गेंद को किस प्रकार खेलें आदि। इस दृश्टि से खेल व्यक्ति के मस्तिश्क को अनुषासन में बाँध देते हैं।
 उपरोक्त विवेचना के अनुसार खेलकूद और अनुषासन के अन्तरंग सम्बन्ध हैंै। आज की षिक्षा का उद्देष्य बालक का बहुमुखी विकास करना है। एकांगी नहीं।
अतः मानसिक विकास के साथ षारीरिक विकास आवष्यक है तभी छात्र मानसिक रूप से एकाग्रचित, नियन्त्रित अर्थात् अनुषासित रह सकते हैं।
 इस प्रकार अनुषासन के लिए खेलकूद अति आवष्यक है। खेलकूद बालक के सर्वांगीण विकास में सहयोगी व आवष्यक है। अतः खेलकूद के महत्व को स्वीकारते हुए विद्यालय में खेलकूद की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे बालक का बहुमूखी विकास हो सके।


शारीरिक शिक्षा की उत्पति, विद्यालय में शारीरिक शिक्षा की उपयोगिता

 शिक्षा शब्द से उत्पत्ति शारीरिक शिक्षा की हुई है क्योकि चाहें वह रामायण काल हो या महाभारत काल जिस प्रकार भगवान श्रीराम या कौरव और पाड्व गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे उनके साथ शारीरिक शिक्षा का भी पाठ्यक्रम रखा जाता था। परन्तु वह किस रूप में विकसित थी धनु विद्या तलवारबाजी, गदा युद्ध, कुश्ती आदि।
 उ0 प्र0 माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा शारीरिक शिक्षा को एक अनिवार्य विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि खेल का स्वर लगातार नीचे गिरने से दो साल से शारीरिक शिक्षा को अनिवार्य विषय कर दिया गया है। शारीरिक शिक्षा का कार्यक्रम अति व्यापक है। लेकिन कुछ विद्वान शारीरिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को समझ नहीं पाते है। छोटी-मोटी खेल की प्रतियोगिता कराकर अपने पाठ्यक्रम को खत्म कर देते हैं। लेकिन विद्यालय में नियमित रूप से शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। जिससे छात्रों का समुचित रूप से विकास हो सके। शारीरिक शिक्षा का अथ्र  विद्यार्थी को स्वस्थ व निरोग रखने और मानसिक, विकास बुद्ध क्रियायें, ऐथलेटिक, योगा, जिमनास्टिक, हाॅकी, क्रिकेट, फुटबाॅल आदि का  निर्माण रूप से अभ्यास कराना चाहिए। जिससे विद्यार्थी का अपना लक्ष्य प्राप्त करने में आसानी रहे। विद्यार्थी के अन्दर शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम से निम्न गुण विकसित होते है-
1. शारीरिक गुण का विकास होना।
2. चारितिक गुण का विकास होना।
3. सामाजिक गुण का विकास होना।
4. मानसिक गुण का विकास होना।
5. अनुशासन की भावना का विकास होना।
6. नैतिकता की भावना का विकास होना।
7. खेल भावना का विकास होना।
 जिस प्रकार शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक पीरियड खेल का इसलिए रखा जाता है कि सभी छात्र/छात्राओं का ध्यान खेल की तरफ केन्द्रित हो तो वह सारा दुःख और सुख छोड़कर खेल की तरफ केन्द्रित हो जाता है। जिससे उन्हें एक नयी ऊर्जा प्राप्त होती है। और उनके आगे नेये भविष्य के लिये मार्ग बनता हैं। वह पुनः पढ़ाई के लिये तत्पर हो जाते हैं।


समय 

 कल्पन कीजिए एक ऐसे बैंक की जो हर सुबह आपके खाते को $86,400 से क्रेडिट करता है। यह कोई अतिरिक्त बैलेन्स नहीं रखता और हर शाम यह उस राशि को मिटा देता है। जिसे आप उस दिन के अन्दर उपयोग नहीं कर सके इस ंिस्थति में आप क्या करेंगे?यही कि आप अपना सारा पैसा निकाल लेंगे।
 हम सभी के पास ऐसा ही बैंक होता है। जिसका नाम है, 'समय' यह हर सुबह आपके 86,400 सैकेण्ड को क्रेडिट करता हे। और हर रात यह उन सैकेन्डस को आपसे ले लेता है। जिन्हें आप दिन भर में किसी अच्छे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं कर सके या नहीं बचा पाये।
 हर रात यह आपके बचे हुए समय को समाप्त कर देता है। क्योंकि यह निरन्तर चलता रहता है। अगर आप अपने दिन के समय को अच्छी तरह नहीं भोग पाये तो यह आपका नुकसान होगा। यहाँ पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं है। और न ही आप समय को निकाल कर रख सकते हैं। कल के लिए आपको सिर्फ 'आज' में ही जीना पड़ता है। इसलिए आप कुछ ऐसा इन्वैस्ट कीजिए जिससे आप को सफलता, स्वास्थ्य व खुशी मि सके समय की घड़ी चलती रहती है। आज का इस्तेमाल करना सीखिए।
1.  एक 'साल' की कीमत फेल विद्यार्थी से जानिए।    
2.  एक 'महीने- की कीमत उस माँ से जानिए जिसने एक प्रीमेच्योर बच्चे को जन्म दिया हो।
3.  एक 'हफ्ते' की कीमत उससे पूछिये जो बोकली न्यूजपेपर का एडीटर हो।
4.  एक 'घंटे' की कीमत प्रेमियों से जानिए जो मिलने के लिए बेचैन रहते हैं।
5.  एक 'मिनट' की कीमत उससे जानिए जो अपनी ट्रेन मिस कर चुका है।
6.  एक 'सेकेण्ड' की कीमत उससे जानें जिसक एक्सीडेन्ट होने से बचा हो।
 याद रखिए समय किसी का इन्तजार नहीं करता।


सार्थक स्वप्न

 तीन साधू अलग-अलग जाति के होते हैं। एक हिन्दू, एक मुस्लमान, एक ईसाई होता है। एक दिन तीनों साथ में टहलते हैं। उनको टहलते-टहलते रात हो जाती है। तो तीनों साधू एक गरीब परिवार में जातें हैं और रात भर रूकेने का निवेदन करते हैं। उस घर में केवल एक ही आदमी था। जो उन तीनों साधुओं को रूकने के लिए एक कमरा दे देता है। तो वे तीनों साधु अपने भोजन के लिए आग्रह करते हैं। तो वह आदमी उनके लिए खीर बना कर लाता है। तीनों के मन में एक विचार आता है। वे कहते हैं कि रात में जो अच्छा स्वप्न देखेगा, वही इस खीर को खाएगा। रात में तीनों को नींद तो आती नहीं है और तीनों अपने मन में अच्छे-अच्छे स्वप्न के बारे में सोचते हैं। तो थोड़ी ही देर बाद मुसलमान और ईसाई को नींद आ जाती है। परन्तु हिन्दू उन दोनों के सो जाने का लाभ उठात है। वह उठकर सारी खीर खा जाता है। और सुबह तीनों हाथ-मुँह धोकर बैठते हैं। और अपने स्वप्न के बारे में बताने लगते हैं।
मुसलमान:- रात में हमारे अल्लाह जी आए थे और उन्होंने हमें बहुत सा पैसा दिया और प्यार भी किया।
ईसाई:- रात में हमारे ईसा-मसीह जी आए थे, उन्होंने हमें बहुत सा धन दिया और उन्होंने हमें गोद में बिठा कर अच्छी-अच्छी बाते बतायीं। अब हिन्दू की बारी आयी!
हिन्दू:- हमारे हनुमान जी तो हकीकत में आए थे।
दोनों साधु:- वे तुम्हारे लिए क्या कर गए?
हिन्दू:- आए और हमें अपने गदे से मार-मार कर सारी खीर-लिखा गए।
दोनों:- क्या तुम हकीकत में सारी-खीर खा गए?
हिन्दु:- जब हनुमान जी हकीकत में आए थे तो हमें मार-मार कर सारी खीर भी हकीकत में लिखा गए।


समाज में नारी की भूमिका

प्रस्तावना- ऋग्वेद में कहा गया है कि: यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता' यह कथन मनु का है इसका अर्थ है कि ''जहाँ नारी की पूजा होती है' वहीं देवता निवास करते है।'' पूजा का अर्थ है किसी स्त्री को गौरव दीजिए उसका सम्मान करो, उसकी शिक्षा की उचित व्यवस्था हो, उसके जीवन स्तर में सुधार हो जिसके फलस्वरूप प्रत्येक देश में स्त्रियों के जीवन में सुधार की विशेष आवश्यकता का अनुभव किया गया है। भारत जैसे प्रगतिशील देश के लिये तो स्त्री जीवन का विकास अत्यन्त आवश्यक है। धार्मिक रूढ़ियों में बँधे हुए अन्धविश्वसनीय भारत की स्त्री के जीवन के विकास के लिए स्वतंत्र भारत में हर सम्भव प्रयास हो रहे है।
 ''जो हाथ पालने को झुलाता है, वह संसार का शासन भी करता है'' यह अंग्रेजी भाषा की कहावत है। इससे स्पष्ट होता है कि माँ का बालकों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। एक बार नेपोलियन ने कहा था  “If you give me good mathers, I will give you a good nation.”
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जहाँ तक मेरा विचार है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल में प्रत्येक (काल) युग में नारी का किसी न किसी रूप में शोषण होता रहा है। यदि हम प्रत्येक युग में नजर डाले तो तस्वीर उभरती है।
प्राचीन काल: वैदिक काल में नारी को वे सम्पूर्ण आर्थिक राजनैतिक धार्मिक, सांस्कृतिक अधिकार प्राप्त वैदिक काल तक समाज ने नारी के जीवन को नरक बनाना शुरू कर दिया था।
बौद्धकाल: बौद्धकाल में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया था लेकिन अपने प्रिय शिष्य 'आनन्द' के विशेष आग्रह पर गौतम बुद्ध ने नारियों को संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी लेकिन उस समय तक स्त्रियों की दशा दयनीय स्थितियों की ओर प्रवेश कर चुकी थी।
मुगलकाल- मुगलकाल में नारियों की दशा बहुत ही सोचनीय हो गयी थी। अनेक प्रकार की कुप्रथायें और स्त्रियों को अनेक बन्धनों में जकड़ दिया गया था।
आधुनिक काल- आधुनिक काल में नारियों की दशा बहुत खराब हो गयी। अनेक समाज सुधारकों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ उन्होंने उनकी स्थिति को सुधारने के लिए अनेक प्रयास किये। उदाहरणार्थ- स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राॅय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी, महात्मा ज्योतिबा राव फुले आदि।
नारी के जीवन में आने वाली बाधाएँ- नारी के कष्टों व उसकी दुर्दशा को देखकर मुझे सुमित्रानन्दन पन्त की कविता स्मरण हो जाती है।
''अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में दूध और आँखों में पानी।''
आज समाज में नारी के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। नारी का अशिक्षित होना। वह उन प्राचीन कुप्रथाओं व रूढ़ियों को मानने के लिए विवश है। जिनका कोई औचित्य नहीं है। समाज को नारियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। इसके लिए हम सभी को आगे जाना चाहिए। समाज में आज भी पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह प्रचलित है तो और दहेज के दानव ने विकराल रूप धारण कर लिया है जिसमें अनेक कन्याओं की बलि दी जा रही है। साथ ही आजकल कन्या भ्रूण हत्या एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में समाज में प्रचलित हो गयी है उन्हीं दहेज लोभियों को कविता के माध्यम से सम्बोधित करते हुए मैं कह रहा हूँ।
''चूर किये मासूम स्वप्न सब कन्या का जीवन मुरझाया। ओ मेरे युग के प्रहरी तुम, इस कलंक का करो सफाया।।''
 नारी जीवन के विकास के लिये प्रयत्न: नारी जीवन के विकास के लिए समाज को ही नहीं सरकार को भी प्रयत्न करना चाहिए सबसे पहले प्रत्येक बालिका को शिक्षित करना होगा और जिनकी आर्थिक स्थित अच्छी न हो उन्हें छात्रवृत्ति देकर शिक्षा की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए और समाज में जो दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, आदि सामाजिक कुरीतियों के लिए कड़े नियम कानून बनाने होंगे। समाज में जागरूकता पैदा करनी चाहिए। संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण बिल पास कर उनके विकास के मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए।
अन्त में: जहाँ तक मेरा मानना कि नारी के विकास को लेकर प्रत्येक व्यक्ति ऊँची-ऊँची बातें करते हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। उदाहरण के तौर पर भारतीय संसद में ही महिला का कितना प्रतिनिधित्व है जो एक गणना मात्र है। हर नेता व मंत्रीगण महिलाओं के विकास की बातें करते हैं। लेकिन जहाँ संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण का मामला आता है। इसका विरोध होता है। ये है इनके चेहरे का असली मुखौटा। अतः मेरा विचार है कि समाज को नारी विकास में एक अहम् भूमिका निभानी होगी। समाज से कुप्रथा को बाहर कर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना होगा, जिसमें महिलाओं की समान भागीदारी होगी क्योंकि नारी और पुरूष दोनों एक गाड़ी के दो पहियों के समान है। जिससे परिवार रूपी संस्था चलती है। स्वस्थ परिवार से ही स्वस्थ समाज की स्थापना होती है। समाज में नारी के विभिन्न रूप है। माँ, पत्नी, पुत्री, बहन जो अपने कर्तव्यों का सफलता पूर्वक निर्वाह करती है। विश्वविख्यात साहित्यकार डाॅ0 रवीन्द्र नाथ टैगोर ने नारियों की गरिमा को बढ़ाते हुये कहा ''पवित्र नारी दुनिया की सर्वोत्तम कृति है।'' अतः समाज को नारियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। नारी शक्ति का प्रतीक है। इसी के साथ मैं अपना लेख समाप्त करता हूँ।
''कोमल है कमजोर नहीं, शक्ति का नाम ही नारी है।
सबको जीवन देने वाली, मौत तुझी से हारी है।।


जीवन की डोर

 जीवन की डोर बहुत कमजोर होती है। कब टूट जाये इसका कोई भरोसा नहीं। इस जीवन में कई मोड़ आते हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण मोड़ सुख तथा दुःख का होता है। जिस मनुष्य ने दुःख का अनुभव किया है वही सुख की कल्पना कर सकता है। आज तक बहुत कम लोगों ने जीवन का अर्थ समझा है। आज कल के तो नवयुवक जीवन का अर्थ यह बताते हैं कि जीवन सिर्फ मनोरंजन है। चाहे कोई मरे या जिए हमें उससे कोई मतलब नहीं है। अब यह दुनिया कितनी स्वार्थी हो गई है। उन्हें किसी से मतलब नहीं है। अगर मैं कुछ अच्छी बातें नवयुवकों को बताऊँ तो इसको एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देंगे। मैं 16 वर्षीय छात्रा हूँ। मैंने जीवन के थोड़े से पहलुओं को समझा है। मैं चाहती हूँ कि दूसरे मनुष्य जीवन के पहलुओं को समझो, उस पर अमल करे और उन पहलुओं को अपने जीवन में प्रयोग करें। पर ऐसा हो नहीं सकता है क्योंकि सबकी आँखों पर स्वार्थ तथा लालच की पट्टी बंधी हुई है। सभी मनुष्य स्वार्थी है।। मैं भी स्वार्थी हूँ। पूरे संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है। जो स्वार्थी न हो। सभी स्वार्थी हैं जैसे - (1) हम भगवान की पूजा इसलिए करते हैं कि भगवान हमारी सारी इच्छा पूरी करें तथा हमें सुखी रखें। (2) एक दोस्त दूसरे दोस्त से मेलजोल इसलिए बढ़ाता है क्योंकि मुसीबत में उसकी सहायता करे और जब उसकी मुसीबत टल जाती है तो वह अपने मित्र से मेलजोल खत्म कर लेता है। इससे पता चलता है कि वह उसका स्वार्थ था। अगर स्वार्थ के बारे में और बताऊँ तो उसका लेख कभी खत्म नहीं होता।


आज का मानव

 हम सब मनु जी की सन्तान हैं। इसलिए हम मनुष्य कहलाते हैं। हम मनुष्य या मानव कहलाने के अधिकारी तभी हो सकते हैं जब हमारे मानवी गुण यथादया, क्षमा, उदारता, साहस, निर्भीकता, सहनशीलता, सहिष्णुता, सत्यता, अहिंसा, अलोलुपता तथा संयम आदि समाहित हो।
 एक समय था जब मानव अपने कुटुम्ब, ग्राम, जनपद, राज्य देश तथा विश्व का शुभ चिन्तन करता था। हमें निम्न श्लोक कुछ इसी ओर संकेत करता सा प्रतीक होता है।
सर्वेच भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्वाणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत।।
 परन्तु खेद है। कि जब हम आज के मानव के संकीर्ण क्रिया-कलापों तथा उसके विचारों की ओर दृष्टिपात करते हैं। तो शर्म से हमारी नरजें नीचे हो जाती हैं। आज के मानव के क्या विचार हैं?
भगवान हमें ऐसा वर दो।
सारे जग की सारी सम्पत्ती मेरे घर भर दो!
भगवान हमें..................
कार्य हमारा जो भी होवे आप स्वयम् कर जावे!
हमतो मारे मौज मजे से, खाने को हल्लुवा ही पावे!!
जो भी हमसे टक्कर लेवे, उसको शक्कर आँखें ही गिर जावे!!
जिसकी ओर नजर भर देखूँ, उसकी आँखें ही गिर जावे!!
यदि हमको आ कर कर क्षुधा सताये तो खाने को घी शक्कर दो!!
भगवान हमें ऐसा वर दो!
 हाय! धन्य है। आज का मानव और उसके स्वार्थ भरे विचार। मैं आज के मानव की जो भी प्रशंसा करू, वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा।
 एक समय था जब हमारे पूर्वजो ने ''बसुधैव कुटुम्बकम'' का नारा ही नहीं दिया था बल्कि इसे अपने स्वभाव में ढाल कर के भी दिखाया था। कि पृथ्वी के सारे मानव मेरे कुटुम्बी हैं। और सारी धरती मेरा घर है। इसलिए हमारे पूर्वज गाया करते थे- 
विश्व है। मेरा सुन्दर धाम। करू मैं शत शत् इसे प्रणाम।।
विश्व में मंगल हो सब ओर। शंति का सागर करे हिलोर।।
विश्व हो सुन्दर स्वर्ग समान। मनुज का मनुज करे कल्यान।।
विश्व के मनुुज सभी है एक। एक में लगता हमें अनेक।। 
प्रभू का अंश जीव हर एक। भेद का करना, नहीं विवेक।।
 लेकिन जब हम आज के मानव के गीत सुनते हैं। तो हमें उसकी वैज्ञानिक बुद्धि पर तरस आता है। वह अपने कुटुम्ब के साथ तक रहना पसन्द नहीं करता है। उसका तो कहना है कि-
नोट: अरे आगे बढ़कर आओ! अरे आगे!!
  माता पिता को मारो गोली मां
 माता से नाता तोड़ो!
 अपना दरबा अलग बसाओ!!
 उनकी ड्यूटी खत्म हो गयी!
 तुम भी कुछ ब्यूटी दिखलाओ!!
अहा! आज का मानव की क्या सुन्दर धारणाएँ हैं। जिसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं है। एक समय था जब मानव अपनी जान की बाजी लगा कर दूसरों के हित के लिए अपने प्राण तक उत्सर्ग करने को उत्सुक रहता था। जिसके उदाहरण ऋषि दधिच, राजशिव, दानवीरकर्ण, राजा रन्तिदेव आदि दिये जा सकते हैं।
 परन्तु आज का मानव कैसा है। यह हम सब भली भाँति जानते है। दुराचार और विश्वासघास में तो वह अपने सगे सम्बन्धियों तक को नहीं छोड़ता। उसे अपने गुणों या दुर्गुणों की कोई परवाह ही नहीं है। उसे ईश्वर पर तो रंच-मात्र विश्वास नहीं रहा कि अगर हम गलत कार्य करेंगे तो ईश्वर हमें दंड देगा। चोरी, नशाखोरी, धूसखोरी, जमाखोरी, अनर्ग, प्रलाप तथा विश्वासघात तो आज के मानव की बाल-क्रीडाएं हैं। वह रात-दिन धन दौलत पाने के संकल्पों की माला फेरा करता है।
 आज का मानव विज्ञान में जो भी उपलब्धियाँ आज तक प्राप्त कर सका है। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन सब की प्राप्ति, हमारे पूर्वज ''प्राप्ति'' नामक सिद्धि के द्वारा प्राप्त कर लिया करते थे। तथा योग साधना के द्वारा ध्यान के द्वारा सारे संसार की जानकारी रखते थे।
 हमारे पूर्वजो ने अभी तक के मानवों की तीन श्रेणियाँ ही स्थापित की थी। परन्तु आज मानव चतुर्थ श्रेणी में आ गया सा प्रतीत होता है। चारों श्रेणियाँ इस प्रकार हैं।
1. देव कोटि - वे मानव जो अपना हित त्याग कर हित करते हैं।
2. मानव कोटि - वे मानव जो अपनों का भी हित करते हैं। और दूसरों का भी हित करते हैं।
3. दानव कोटि - वे मानव जो अपना तो हित करते हैं और दूसरों का अहित करते हैं।
4. पिशाच या प्रेत कोटि - वे मानव जो अपना भी अहित कर के दूसरों का अहित करते हैं।
आज के मानव को चाहिए कि वह अपने धर्म पंथ पर चलते हुये कबीर, गुरूनानक, महाप्रभू, चैतन्य देव, मुहम्मद साहब, ईसामसीह, मुईन उद्दीन चिश्ती, आदि के उपदेशों को ग्रहण करें। तथा आत्मनिरीक्षण करें। अपने दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का विकास करे। जाति रंग भेद, अस्पृश्यता आदि भेदभाव भूलकर ''वसुधैव कुटुम्बकम्, को साकार बनावे। अपने अन्धकार सत्य, दया, क्षमा उदारता, साहसिकता, निडरता, सहिष्णुता, सहनशीलता, अलोलुपता, संयमता, अहिंसा, आदि मानवीय गुणों का विकास करें। तथा विश्व को एक नया मार्ग प्रशस्त करें। हमारे विचार वाणी, कर्म पवित्र हो मंगल भावना से ओत प्रोत हो।
 आज के मानव को इस बात की महती आवश्यकता है कि वह विश्व कल्पमाण की कामना में रत रहने का संकल्प वृत ले, तभी विश्व कल्याण का स्वप्न साकार हो सकेगा।