Tuesday, October 29, 2019

आज का मानव

 हम सब मनु जी की सन्तान हैं। इसलिए हम मनुष्य कहलाते हैं। हम मनुष्य या मानव कहलाने के अधिकारी तभी हो सकते हैं जब हमारे मानवी गुण यथादया, क्षमा, उदारता, साहस, निर्भीकता, सहनशीलता, सहिष्णुता, सत्यता, अहिंसा, अलोलुपता तथा संयम आदि समाहित हो।
 एक समय था जब मानव अपने कुटुम्ब, ग्राम, जनपद, राज्य देश तथा विश्व का शुभ चिन्तन करता था। हमें निम्न श्लोक कुछ इसी ओर संकेत करता सा प्रतीक होता है।
सर्वेच भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्वाणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत।।
 परन्तु खेद है। कि जब हम आज के मानव के संकीर्ण क्रिया-कलापों तथा उसके विचारों की ओर दृष्टिपात करते हैं। तो शर्म से हमारी नरजें नीचे हो जाती हैं। आज के मानव के क्या विचार हैं?
भगवान हमें ऐसा वर दो।
सारे जग की सारी सम्पत्ती मेरे घर भर दो!
भगवान हमें..................
कार्य हमारा जो भी होवे आप स्वयम् कर जावे!
हमतो मारे मौज मजे से, खाने को हल्लुवा ही पावे!!
जो भी हमसे टक्कर लेवे, उसको शक्कर आँखें ही गिर जावे!!
जिसकी ओर नजर भर देखूँ, उसकी आँखें ही गिर जावे!!
यदि हमको आ कर कर क्षुधा सताये तो खाने को घी शक्कर दो!!
भगवान हमें ऐसा वर दो!
 हाय! धन्य है। आज का मानव और उसके स्वार्थ भरे विचार। मैं आज के मानव की जो भी प्रशंसा करू, वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा।
 एक समय था जब हमारे पूर्वजो ने ''बसुधैव कुटुम्बकम'' का नारा ही नहीं दिया था बल्कि इसे अपने स्वभाव में ढाल कर के भी दिखाया था। कि पृथ्वी के सारे मानव मेरे कुटुम्बी हैं। और सारी धरती मेरा घर है। इसलिए हमारे पूर्वज गाया करते थे- 
विश्व है। मेरा सुन्दर धाम। करू मैं शत शत् इसे प्रणाम।।
विश्व में मंगल हो सब ओर। शंति का सागर करे हिलोर।।
विश्व हो सुन्दर स्वर्ग समान। मनुज का मनुज करे कल्यान।।
विश्व के मनुुज सभी है एक। एक में लगता हमें अनेक।। 
प्रभू का अंश जीव हर एक। भेद का करना, नहीं विवेक।।
 लेकिन जब हम आज के मानव के गीत सुनते हैं। तो हमें उसकी वैज्ञानिक बुद्धि पर तरस आता है। वह अपने कुटुम्ब के साथ तक रहना पसन्द नहीं करता है। उसका तो कहना है कि-
नोट: अरे आगे बढ़कर आओ! अरे आगे!!
  माता पिता को मारो गोली मां
 माता से नाता तोड़ो!
 अपना दरबा अलग बसाओ!!
 उनकी ड्यूटी खत्म हो गयी!
 तुम भी कुछ ब्यूटी दिखलाओ!!
अहा! आज का मानव की क्या सुन्दर धारणाएँ हैं। जिसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं है। एक समय था जब मानव अपनी जान की बाजी लगा कर दूसरों के हित के लिए अपने प्राण तक उत्सर्ग करने को उत्सुक रहता था। जिसके उदाहरण ऋषि दधिच, राजशिव, दानवीरकर्ण, राजा रन्तिदेव आदि दिये जा सकते हैं।
 परन्तु आज का मानव कैसा है। यह हम सब भली भाँति जानते है। दुराचार और विश्वासघास में तो वह अपने सगे सम्बन्धियों तक को नहीं छोड़ता। उसे अपने गुणों या दुर्गुणों की कोई परवाह ही नहीं है। उसे ईश्वर पर तो रंच-मात्र विश्वास नहीं रहा कि अगर हम गलत कार्य करेंगे तो ईश्वर हमें दंड देगा। चोरी, नशाखोरी, धूसखोरी, जमाखोरी, अनर्ग, प्रलाप तथा विश्वासघात तो आज के मानव की बाल-क्रीडाएं हैं। वह रात-दिन धन दौलत पाने के संकल्पों की माला फेरा करता है।
 आज का मानव विज्ञान में जो भी उपलब्धियाँ आज तक प्राप्त कर सका है। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन सब की प्राप्ति, हमारे पूर्वज ''प्राप्ति'' नामक सिद्धि के द्वारा प्राप्त कर लिया करते थे। तथा योग साधना के द्वारा ध्यान के द्वारा सारे संसार की जानकारी रखते थे।
 हमारे पूर्वजो ने अभी तक के मानवों की तीन श्रेणियाँ ही स्थापित की थी। परन्तु आज मानव चतुर्थ श्रेणी में आ गया सा प्रतीत होता है। चारों श्रेणियाँ इस प्रकार हैं।
1. देव कोटि - वे मानव जो अपना हित त्याग कर हित करते हैं।
2. मानव कोटि - वे मानव जो अपनों का भी हित करते हैं। और दूसरों का भी हित करते हैं।
3. दानव कोटि - वे मानव जो अपना तो हित करते हैं और दूसरों का अहित करते हैं।
4. पिशाच या प्रेत कोटि - वे मानव जो अपना भी अहित कर के दूसरों का अहित करते हैं।
आज के मानव को चाहिए कि वह अपने धर्म पंथ पर चलते हुये कबीर, गुरूनानक, महाप्रभू, चैतन्य देव, मुहम्मद साहब, ईसामसीह, मुईन उद्दीन चिश्ती, आदि के उपदेशों को ग्रहण करें। तथा आत्मनिरीक्षण करें। अपने दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का विकास करे। जाति रंग भेद, अस्पृश्यता आदि भेदभाव भूलकर ''वसुधैव कुटुम्बकम्, को साकार बनावे। अपने अन्धकार सत्य, दया, क्षमा उदारता, साहसिकता, निडरता, सहिष्णुता, सहनशीलता, अलोलुपता, संयमता, अहिंसा, आदि मानवीय गुणों का विकास करें। तथा विश्व को एक नया मार्ग प्रशस्त करें। हमारे विचार वाणी, कर्म पवित्र हो मंगल भावना से ओत प्रोत हो।
 आज के मानव को इस बात की महती आवश्यकता है कि वह विश्व कल्पमाण की कामना में रत रहने का संकल्प वृत ले, तभी विश्व कल्याण का स्वप्न साकार हो सकेगा।


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