Monday, November 18, 2019

जीवन और संगीत 

साहित्य संगीत कला विहीनः,
साक्षात् पशुः पुच्छ विषाणहीनः।
जीवन से तात्पर्य मानव जीवन से है। पशु-पक्षी जीवन से नहीं। संगीत से तात्पर्य केवल शास्त्रीय-संगीत ही नहीं, बल्कि भाव संगीत, चित्रपपट संगीत, लोक संगीत आदि से भी है। खास तौर से भारतीय जीवन के पग-पग में संगीत बना रहता है। जन्म से मृत्यु तक यह हमारे साथ बना रहता है। जिस क्षण बालक इस संसार से प्रथम परिचय प्राप्त करता है तो वह संगीत द्वारा (रोने के रूप में) अपना आभार प्रकट करता है और जिस समय मनुष्य इस संसार से विदा लेता है, संगीत के द्वारा उसे पावन राम-नाम की महिमा बताई जाती है। इतना ही नहीं, मानव के इतिहास में जब भाषा का जन्म तक नहीं हुआ था, उस समय आपस मे भावो का आदान-प्रदान संगीत द्वारा ही सम्भव था मैक्समूलर ने ठीक ही कहा है कि संगीत का जन्म भाषा से कही पूर्व हुआ है यहाँ पर संगीत का व्यापक अर्थ लिया गया है
भारतीय जीवन मे 16 संस्कार माने गये हैं, जैसे नामकरण, कर्ण-छेदन, मुन्डन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत (जनेऊ), विवाह आदि। इनमें से प्रत्येक का प्रारम्भ और अन्त संगीत से होता है। ऐसा कोई त्यौहार नहीं है जहाँ संगीत न हो, बल्कि संगीत के बिना त्यौहार अधूरा रह जाता है। छोटा बड़ा कोई भी उत्सव मनाया जाए, उसमें संगीत का रहना आवश्यक होता है, चाहे संगीत प्रार्थना तक ही क्यों न सीमित हो दिन भर के कठोर परिश्रम के बाद सायंकाल वंशी की एक छोटी सी धुन ग्रामीणांे का सारा श्रम हर लेती है जब फसल तैयार होती है तो उनका हर्षोल्लास होली के रूप मे प्रकट होता है। वे जिस खुशी और आत्मीयता से गले मिलते, रग छिड़काने और अबीर-बुक्का लगाते हैं, देखते ही बनता है। किन्तु उनके हर्ष की चरम सीमा उस समय पहुँचती है जब वे गांव के कोने-कोने में ढोलक लेकर अपनी - अपनी धुन में मस्त रहते हैं। मानों पूरे वर्ष की सारी थकावट निकाल रहे हों।
संगीत केवल विनोद की वस्तु नहीं बल्कि ऐसी चिर स्थाई आनंद है जिसमें हमें आत्मसुख मिलता है। इसलिए संगीत भक्ति का अभिन्न अंग रहा है। जितने भी अच्छे भक्त हुये हैं, सभी संगीत के ज्ञाता और साधक थे। भारत का कौन ऐसा व्यक्ति होगा जिसने सूर, तुलसी, मीरा आदि का नाम न सुना हो उनके प्रत्येक पद में भाव है कि मनुष्य आनन्द विभोर हो जाता है। स्व. डा. राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में हमारे साधु-संतों की संगीत साधना का ही यह प्रभाव था कि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, तुकाराम, नरसी मेहता ऐसी कृतियाँ कर गये लो 'हमारे और संसार के साहित्य में सर्वदा ही अपना विशिष्ट स्थान रखेंगी।'


ठग दोस्त

करीम एक नेक इनसान था, वह रहीम को अपना दोस्त समझता था। एक दिन करीम ने देखा कि रहीम बड़ा परेशान दिख रहा है। करीम ने रहीम से उसकी परेशानी का कारण पूछा। रहीम ने कहा मेरे दोस्त मुझे दो सौ रुपयों की सख्त जरूरत है। रहीम को पता था कि करीम आज ही अपने खेत की सब्जी बेच कर दो सौ रुपया लाया है। करीम उसकी बात सुनकर बोला, दोस्त इसमें परेशानी की क्या बात है मेरे पास दो सौ रुपये है और अभी मुझे उनकी कोई आवश्यकता नहीं मैं रुपये तुम्हें दे देता हूँ जब मुझे आवश्यकता होगी तब लौटा देना। इस घटना को कई माह गुजर गये। अब करीम को फसल बोने के लिए बीज लाने थे, उसने रहीम से कहा, दोस्त मुझे बीज खरीदने के लिए पैसों की जरूरत है मेरे दो सौ रुपये मुझे लौटा दो। पैसों की बात सुनकर रहीम खामोश हो गया और बोला कैसे पैसे? मेरे पास तो कोई पैसे नहीं हैं, फिर मैंने तुम से पैसे कब लिए थे कोई गवाह लाओ। ये सुनकर करीम को बड़ा कष्ट हुआ उसने कहा हाँ! दोस्त गवाह है व बड़ा पीपल का पेड़, जिसके पास तुम मुझे परेशान मिले थे और मैंने तुम्हे रुपये दिये थे। इस पर रहीम हँसकर बोला मूर्ख, पेड़ भी कहीं गवाही देता है? इस पर करीम चिन्तित हो गया और उसने कहा अच्छा तो फिर काजी साहब के पास चलो, फैसला वहीं करेंगे। वह फौरन काजी साहब के पास जाने को तैयार हो गया। काजी साहब के पास पहुँचकर करीम पूरी घटना उनसे बयान कर दी, काजी साहब उसकी बात गौर से सुनते रहे फिर रहीम से बोले, भाई तुम्हे क्या कहना है, रहीम ने पूरी घटना से इनकार करते हुए, पैसों के लेन-देन से इनकार कर दिया। काजी साहब करीम से बोले तुम्हारे पक्ष में कोई गवाह है, करीम जल्दी से बोला जी हाँ गाँव के किनारे बड़ा पीपल का पेड़। इस पर काजी साहब ने कहा, ठीक है तुम अपने गवाह को लेकर आओ तब तक रहीम मेरे पास बैठा रहेगा। करीम चला गया और रहीम ये सोच कर कि कहीं पेड़ भी गवाही देने आ सकता है निश्चित बैठा रहा। कुछ देर बाद काजी साहब ने रहीम से पूछा क्या करीम पीपल के पेड़ तक पहुँच गया होगा? रहीम ने कहा अभी नहीं। कुछ देर बाद उन्होंने फिर अपना सवाल दोहराया इस पर रहीम ने कहा हाँ! अब पहुँच गया होगा। काजी साहब खामोश हो गये। कुछ देर बाद करीम उदास अकेला वापस आया। उसे उदास देखकर काजी साहब बोले, पीपल का पेड़ तो गवाही देकर चला गया तुम क्यों उदास हो, और ये कहकर काजी साहब करीम के पक्ष में फैसला सुनाते हुए बोले, रहीम मेरा फैसला है कि करीम का दो सौ रुपया लौटा दो। फैसला सुन कर रहीम बोला काजी साहब पेड़ कहाँ आया, मैं तो यहीं बैठा हूँ मैंने नहीं देखा। काजी साहब हँसकर बोले, मूर्ख अगर करीम सच न बोल रहा होता तो तुम्हे पीपल के पेड़ की यहाँ से दूरी कैसे पता चलती। ये जवाब सुनकर रहीम को अपनी मूर्खता का आभास हुआ और करीम के पैसे वापस करने पड़े। 


जीवन का तत्व

 ''जोश और जोखिम किए जब जिन्दगी के नाम,
तूफानी लहरें भी कर गयी झुक कर सलाम।''
 अमिट दुस्साहस की भावना ने मानस के जीवन को जोश से ओत - प्रोत कर रखा है। कहा गया है जिंदगी जिंदादिली का नाम है मुर्दादिल क्या खाक जिया। संघर्ष करने वाला हो या मात्र मूक-दर्शक रोमांच की लहरों से स्पंदित कर देता है। मानव जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है इस तथ्य का श्रोत यह पद हो सकता है।
''जीवन के हर पथ पर माली पुष्प नहीं बिखरता है
प्रगति का पथ अवसर, पथरीला ही होता है।''
 जोखिम उठाने की यह साहस - भावना ही नित नयी खोजों और आविष्कारों की जननी है और ये नये आविष्कार ही हमें दुनिया के उस पार के दृश्यों से परिचित कराते हैं। वह जीवन ही क्या जो पानी के समान समतल भूमि पे बहता ही रहे। जीवन में आने वाले - चढ़ाव ही जीवन को नित नया रोमांस प्रदान करते हैं।
''आसान है हर लक्ष्य, समान जब स्वप्न हो पूरे दिल कें 
तू लेना तारों को, उड़ना ऊपर तुम बादल के।''


Sunday, November 17, 2019

आखिर क्यों होती है भ्रूण हत्या?

भ्रूण हत्या देश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। विश्व बैंक द्वारा कराए गये एक शोध के अनुसार भारत में हर साल 50 लाख बच्चियों को विकसित हुए बिना ही मार दिया जाता है। इन आँकड़ों की मानें तो हर 25 में से एक बच्ची की हत्या हो रही है। अगर दो दशकों के आँकड़े इकट्ठे करें तो कन्या भ्रूण हत्या के मामले एक करोड़ की संख्या पार कर चुके हैं, जोकि दिल्ली की कुल जनसंख्या के लगभग बराबर है। इस समस्या से निपटने के लिए देश में कई कानून बनाए गये। भारतीय दंड संहिता समेत विशेष कानून लाए गये लेकिन भू्रूण हत्या पर लगाम कसी नहीं जा सकी है। आज भी अजन्मी बच्चियों की हत्याएँ हो रही हैं। वैसे कानून की बात करें तो गर्भ की जाँच रोकने पर एक्ट (प्री. नटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स एक्ट) बनने के बाद 12 साल में चार हजार मामले सामने आने के बाद पहली बार 28 मार्च 2006 को हरियाणा के एक डाॅक्टर को दो साल की जेल की सजा सुनाई गई।
क्या कहता है कानून---------
 यदि स्त्री की सहमति से किए गये गर्भपात के दौरान उसकी मृत्यु हो जाए तो दोषी को दस वर्ष तक जेल के सलाखों के पीछे रहना पड़ सकता है और यदि ऐसा बिना स्त्री की सहमति के किए जा रहे गर्भपात के दौरान हुआ हो तो दोषी को धारा 314 के अनुसार उम्र कैद की सजा हो सकती हैं।
 यदि ऐसा कोई कार्य किया जाए जिससे गर्भस्थ शिशु जीवित पैदा न हो सके तो इसके लिए धारा 315 में दस वर्षों की सजा का प्रावधान है। जबकि गर्भ में पल रहे एवं हरकत में आ चुके शिशु की गैर इरादतन हत्या करने वालों को धारा 316 में दस वर्षों की सजा हो सकती है।
 गर्भभ्रूण की पहचान कर बालिका भ्रूण हत्या और गर्भपात में चिकित्सकों की अहम भूमिका आदि को ध्यान में रखकर ही 1971 में मेडिकल टर्मिनेंसी आॅफ प्रेगनेंसी एक्ट (एमटीपी) नामक विशेष कानून बनाया गया है। 
 एमटीपी एक्ट के अनुसार बिना गर्भवती की सहमति और यदि स्त्री की उम्र 18 वर्ष से कम हो या वह विक्षिप्त हो तो बिना उसके अभिभावक की सहमति के गर्भपात नहीं हो सकता है। साथ ही गर्भपात केवल सरकारी अस्पतालों या सरकार द्वारा इस प्रयोजन के लिए घोषित किए गए किसी स्थान के अलावा कहीं और नहीं किया जा सकता है।


हमें तो हमारा हिंदुस्तान चाहिए

हमें तो हमारा हिन्दुस्तान चाहिए।
न धरा न हमें आसमान चाहिए,
न ही हमें ऐ सान जहान चाहिए।
इच्छा न टूटे फूटे घर की हमें,
पुरवों का देश वो महान चाहिए।
हमें तो हमारा हिन्दुस्तान चाहिए।


 हमें न छिछोरी राजनीति चाहिए,
 न ही कपटी जनों की प्रीति चाहिए,
 दुख सुख में, जीते ही रहेंगे,
 हमें न किसी की दया - दान चाहिए।
 हमें तो हमारा हिन्दुस्तान चाहिए।
महाराणा जैसा देशभक्त चाहिए,
अन्याय पर उबले वो रक्त चाहिए।
जन्मभूमि हित, धन लाभ त्याग दें,
भामाशाह वाला वो ईमान चाहिए।।
हमें तो हमारा हिन्दुस्तान चाहिए।


 इस माअी के लिए जो जिए और मरे,
 पंथ की कुपन्थियों से न कभी डरें!
 भाव सदा शयता का सब में भरें,
 जायसी, रहीम, रसखान चाहिए।।
 हमें तो हमारा हिन्दुस्तान चाहिए। 


‘‘जान बची तो लाखो पाए’’

1.  वैसे तो मैं बहुत गरीब इन्सान हूँ
 मगर बाईं आँख से परेशान हूँ
 अपने आप चलती है।
2. लोग समझते हैं कि चलाई गई है
 एक बार क्लास में
 एक लड़की बैठी थी पास में।
3. नाम था सुरेखा उसने हमें देखा
 और मेरी बाईं आँख चल गयी
 लड़की हाय-हाय करके क्लासें निकल गई।
4. थोड़ी देर बाद हमें है याद
 प्रिंसिपल ने हमें बुलाया, लम्बा चैड़ा लेक्चर सुनाया
 हमने कहा हमसे भूल हो गई।
5. तो बोले ऐसा भी होता है भूल में,
 शर्म नहीं आँख चलाते हो स्कूल में।
 इससे पहले कि हम हकीकत बयान करते।
6. फिर चल गयी, प्रिंसिपल को खल गई।
 हुआ यह परिणाम
 स्कूल से कट गया नाम।
7. मुश्किल थी तमाम
 मिला एक काम
 तो इन्टरव्यू में खड़े थे।
8. एक लड़की थी आगे खड़ी, उसकी नजर हम पर पड़ी
 और मेरी बाईं आँख चल गई,
 लड़की उछल गयी।
9. दूसरे उम्मीदवार चैंके 
 लड़की का पक्ष लेकर भौंके,
 फिर क्या था मार-मार कर जूते चप्पल तोड़ दिया।
10. हम सिर पर पाँव रखकर भागे
 लोग पीछे हम आगे
 घबराहट में घुस गये एक घर में,
11. भयंकर पीड़ा हो रही थी सर में।
 बुरी तरह हाँफ रहे थे
 हाथ पैर -काँप रहे थे।
12. तभी पूछा घरवाली ने कौन?
 हम खड़े रहे मौन,
 वो फिर से पूछी कौन,
13. वह बोली, बतलाते हो या किसी को बुलाऊँ
 और इससे पहले कि जबान हिलाऊँ
 फिर चल गई वो मारे गुस्से के जल गई।
14. बुरी तरह से चीखी,
 साक्षात दुर्गा सी दिखी,
 बात ही बात में लोग हो गये इकट्ठा,
15. मच गया हंगामा 
 चड्ढी बना दिया पैजामा
 बनियान बन गया कुर्ता और हमें बना दिया भुर्ता।
16. हम चीखते रहे और मारने वाले हमें पीटते रहे
 भगवान जाने गुस्सा कब तक निकालते रहे।
 और जब हमें आया होश।
17. तो देखा अस्पताल में पड़े थे
 डाॅ. और नर्स घेर कर खड़े थे।
 नर्स बोली दर्द कहाँ है हमने कहा बतलाते है,
 इससे पहले की हम जबान हिलाते
 फिर मेरी बाईं आँख चल गयी
 नर्स कुछ न बोली पर डाॅ. को खल गई।
18. बोले इतने सीरियस हो फिर भी ऐसी हरकत करते हो इस हाल में,
 शर्म नहीं आती मुहब्बत करते हो अस्पताल में।
19. डाॅ. और नर्स के जाते ही आया एक वार्ड व्बाय 
 बोला भाग जाओ चुपचाप, नहीं तो जानते हो आप 
 अगर बात बढ़ गई और डाॅ. को खल गई।
20. तो मेरा क्या बिगड़वा देगा?
 मरा हुआ कहकर जिन्दा गड़वा देगा
 अब तो विकल्प एक, जिन्दगी रहे चाहे जाए।
21. हम यह कह झटके से निकले
 ''जान बची तो लाखों पाए।।''


आधुनिक शिक्षा प्रणाली 

हमारे देश की शिक्षा प्रणाली भी अजीब है। सभी को एक ही साँचे में ढालती चली जाती हैं। सभी के दिमाग का स्तर, सोचने समझने, विचारने एवं स्मरण करने की शक्ति में विभिन्नताएँ है परन्तु किसी एक विषय - वस्तु को लेकर हमारे व्यक्तित्व एवं बौद्धिक स्तर का आकलन करना उचित नहीं। वर्तमान में उच्च से उच्च अंक प्राप्ति ही विद्यार्थियों का एक मात्र लक्ष्य रह गया है। अब कुछ विद्यालय इस तरह के खुलने लगे हैं जिसमें वैज्ञानिक, तकनीकी, वाणिज्य आदि की शिक्षा दी जाने लगी है। ये विद्यालय भी दो प्रकार के होते हैं एक जिससे परीक्षा लेने के पश्चात दाखिला होता है और दूसरे जिनमें एक लम्बी रकम लेकर दाखिल होना है।
जिन्दगी में सफल होने के लिए कुछ गुणों की आवश्यकता होती है। यह न तो परिस्थितियों को समझने की सूझ-बूझ देती है और न उनसे संघर्ष करने की शक्ति/सत्य यह है कि जब पढ़ाई समाप्त हो जाती है तब जिन्दगी को असली पढ़ाई ठोकरे खा-खाकर आदमी सीखता है और वह ही सच्ची पढ़ाई होती है।
शिक्षा तो वह होती है जिसका एक - दो वाक्य भी यदि कान में पड़ जाए और मनुष्य उसे जीवन में ग्रहण कर ले तो उसका यह जीवन ही सफल न हो जाए बल्कि संसार-सागर से भी उद्धार हो जाए। 


संगीत एवं स्वर  

संगीत   -  स्वर
  सा  -  समझ
  रे  -  रिआज
  गा  -  ज्ञान, गुण
  म  -  माया
  प  -  परमेश्वर
  ध  -  ध्यान
  नि.  -  निर्गुण, निराकार
  सा  -  साज
संगीत के ये स्वर मात्र संगीत तक सीमित न होकर वरन् सम्पूर्ण सृष्टि एवं जीवन को अपने इन स्वरों में समाहित किए हुए हैं। प्रकृति के हर रूप में मानों यही स्वर गूँज रहे हो, चाहें वह वर्षा की पहली बूँद का धरा से मिलन हो, चाहे उगते हुए सूर्य की पहली किरण हो या ढलते हुए सांझ की लुप्त होती प्रभा। प्रकाशित होते चांद की चंद्रिका या फिर बदली में छिपते हुए से सितारों की आभा, खिलती हुई कलियों को माधुर्य हो या सागर से मिलती निर्झर सी जल-धारा। प्रकृति के हर रूप में बस यही संगीत-स्वर। इस सृष्टि के रचनाकार श्री ब्रह्मा जिनके साथ वीणावादिनी माँ सरस्वती विद्मान है जिनकी वीणा से उद्ीण्त ये स्वर जिसने जीवन में रस भर दिया। 
संगीत के प्रारम्भिक स्वर की अपनी ही परिभाषा है इन्हें यही सूक्ष्म तथा गहराई के साथ विचारा जाए तो जिस प्रकार मनुष्य जीवन में किसी भी विषय वस्तु को पाने की अभिलाषा रखता है, जिज्ञासा पनपती है जिससे उसमें सं. समझ होती है जब किसी विषय - वस्तु की समझ होगी तभी वह इंसान ''र'' से रिआज अभ्यास करें गा और गा गुण या ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो सकेगा। अधिक ज्ञान से माया रूपी दानव मानव के मस्तिष्क को अपने में जकड़ लेती है। मायावी माया से मुक्ति पाने का एकमात्र मार्ग प - परमेश्वर, परमात्मा की ओर उन्मुख करता है जो मात्र ध्यान - योग के करने मात्र से मिल सकते हैं। ध्यान का निरंतर अभ्यास करते हुए ही हमें ईश्वर के निर्गुण निराकार रूप का ज्ञान प्राप्त होगा।
अतः संगीत एवं जीवन जीने की कला में काफी समानताएं हैं।


कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक अपराध

  ''जन्म दिया समाज को जिसने, 
   कोई सम्मान नहीं इस तल पे।
बन गई वह भी अछूती,
   पैदा हुई जो लड़की बनके।।''
यह बहुधा कहा गया है कि जीवन के युद्ध में जिसको कि मनुष्य परिस्थितियों के विरुद्ध लड़ता है, नारी की भूमिका द्वितीय पंक्ति की रहती है, यह बात निश्चित ही महत्वपूर्ण है किन्तु आज हम पुरुष और नारी में कोई भेद नहीं करते हैं। जहां तक दोनों की क्षमता का प्रश्न है, यह सिद्ध हो चुका है कि नारी की क्षमताओं का कुल योग पुरुष की क्षमताओं के कुल योग से कम नहीं, किन्तु हम देखते हैं कि हमारे समाज में नारी की स्थिति वह नहीं है जो होनी चाहिए। 
वही महज पुत्र की चाहत में कन्या भू्रणों की गर्भ में हत्या होने लगी है। परिवार में बच्ची का जन्म एक निराशा का अवसर होता है जबकि लड़के का जन्म आनंद और उत्सव मनाने का 1 सामाजिक जीवन का रथ एक पहिए से नहीं चल सकता, किन्तु फिर भी न जाने क्यों दूसरे पहिए के महत्व की पहचान कम है।
सामाजिक प्रभाव -
कन्या भ्रूण हत्या एक ऐसी समस्या बन चुकी है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। कन्या भ्रूण हत्या पर प्रशासन अंकुश लगाने में नाकाम है। स्त्री - पुरुष का आनुपातिक संतुलन बिगड़ रहा है। आंकड़ो पर यदि निगाह डाली जाए तो एक हजार पुरुष में 898 महिलाएँ हैं। कन्या भ्रूण हत्या में अनपढ़ - गंवार नहीं बल्कि उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोग अधिक शामिल हैं। अब पढ़े - लिखे सम्पन्न परिवारों में भी बालिका अवांछित मानी जाती है। आखिर कब थमेगी कन्या भ्रूण हत्या? कैसे बदलेगा सामाजिक चिंतन?
प्रस्तुत समस्या का कारण-
यदि हम कारण की तरफ मुख करेंगे तो इसका मुख्य कारण अपनी संस्कृति में ही पाऐंगे। दहेज देने की प्रथा। माता-पिता जन्म से ही कन्या को एक ऋण की तरह देखते हैं इसलिए उसकी असमय मृत्यु में ही वह अपनी भलाई समझते हैं।
''स्वप्न सजाए थे कैसे माँ ने,
चूर हो गये एहसास उसी के। 
ठोकर मारा उसके अंग को,
जो देखा लड़की समाज ने।''
विज्ञान का दुरुपयोग- 
कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने में अल्ट्रासाउण्ड केन्द्रों का काफी योगदान है। हालांकि अल्ट्रासाउण्ड केन्द्रों पर लिंग परीक्षण नहीं किया जाता है, लेकिन पर्दे के पीछे का खेल जग जाहिर है। यह बातें महज कागजों में हैं। कन्या भू्रण हत्या को एक पैसा कमाने का जरिया माना जाता है और इसके अलावा कुछ नहीं।
समाधान-
कन्या भू्रण हत्या करने या कराने वालों का सामाजिक बहिष्कार हो।
लिंग परीक्षण करने वाले केन्द्रों संचालकों, चिकित्सकों को चिन्हित-दण्डित किया जाए।
दहेज जैसी कुप्रथा को खत्म किया जाए।
महिलाओं को जागरूक करने के लिए विशेष जन- जागरण अभियान चलाया जाए।
प्रचार माध्यम के जरिये लड़की-लड़का में भेद की भावना खत्म किया जाए।
कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक अपराध के अलावा धार्मिक - पौराणिक दृष्टि से भी घृणित कार्य है। समाज को इस तथ्य से अवगत कराया जाए।
महिला की सहमति के बगैर कन्या भ्रूण हत्या सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में महिलाओं को विशेष भूमिका निभानी होगी।
उपसंहार-
अब भी बहुत देर नहीं हुई है। आइए हम नारी को वह स्थिति प्रदान करें जिसकी वह अधिकारिणी है। अब लड़कियाँ वायुयान उड़ा रही हैं। अंतरिक्ष में पहुँच चुकी हैं। इसके बावजूद कन्या भू्रण हत्या समझ से परे है। समस्या जड़ मूल से खत्म करने के लिए लोगों को सामाजिक चिंतन में परिवर्तन करना होगा तभी कन्या जन्मदर में गिरावट थमेंगी।


विश्वशांति और भारत

भारत एक अध्यात्मवादी और शांतिप्रिय देश रहा है। यह अलग बात है कि आज का भारतीय अधिकाधिक मौलिक साधनों को पाने के लिए आतुर हो और दीवाना बनकर अपनी मूल अध्यात्म चेतना से भटकता जा रहा है और उससे हर दिन, हर पल दूर होता जा रहा है परन्तु जहाँ तक शांतिप्रियता का प्रश्न है, वह आज भी व्यर्थ के लड़ाई - झगड़ों में न पड़कर सहज शांति से ही जीवन जीना चाहता है। यही वह मूल कारण है कि अपने आरंभ काल से ही भारत शांतिवादी और निरंतर शांति बनाए रखने का आदी रहा है।
भारत ने कभी ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे विश्वभर की शांति भंग हो। भारत ने तो आक्रमणकारियों के प्रति भी उदारता बरती। जयशंकर प्रसाद ने स्पष्ट कहा है-
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम।
यहां के राजाओं नें अत्याचार, दमन, और संघर्ष का रास्ता छोड़कर त्याग और तपस्या का रास्ता अपनाया है। भारत सदा से 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना पर बल देता है।
विश्व शांतिः एक चुनौती-
शांति का अर्थ अन्याय - अत्याचार चुपचाप सहन करना नहीं है। इसी प्रकार शांति का अर्थ निष्क्रियता भी नहीं है। इसका अर्थ और प्रयोजन जानबूझकर ऐसे कार्य न करना रहा है जिनसे विश्व शांति भंग होने का अंदेशा हो। आज विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि विश्व शांति कैसे संभव हो? आज पूरा विश्व रास्तों की होड़ में अंधा होकर अपनी मृत्यु का सामान इकट्ठा कर चुका है।
वैज्ञानिकों के अनुसार आज विश्व के पास असीमित विस्फोटक सामग्री है। आज 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' वाली कहावत अक्षरशः सिद्ध हो रही है।
भारत द्वारा विश्व शांति के उपाय-
भारत सदा से ही विश्वशांति का पक्षधर रहा है। जब हम किसी को हानि पहुँचाने और उकसाने वाला कार्य नहीं करेंगे तो शांति भंग होने की संभावना नहीं होगी। अतः विश्व शांति बनाए रखने का सबसे उत्तम उपाय है- स्वयं शांत बने रहना। अपनी राष्ट्रीय सीमाओं पर अतिक्रमण होने पर भी दूसरों के क्षेत्रों को हथियाने का प्रयास नहीं किया। आज स्वतंत्र भारत की विदेश नीति और तटस्थ नीति उसकी समानता पर ही निर्भर है।
निःशस्त्रीकरण:-
भारत निः शस्त्रीकरण की नीति का समर्थक रहा है। उसी का परिणाम है कि भारत के पास परमाणु बम बनाने की विधि होते हुए भी वह उसका निर्माण नहीं कर रहा है। भारत का स्पष्ट मत है कि परमाणु बमों का समूल नाश होना चाहिए यह शांति की सच्ची भावना का प्रश्न है। इस प्रकार भारत ने विश्वशांति में सदा योगदान दिया है। 
गुट निरपेक्षता -
जब विश्व 'रूस और अमेरिका' को दो विरोधी गुटों में बँटा था तब भारत ने विश्व को 'गुट निरपेक्षता' की नीति बताई थी। भारत ऐसे देशों का अगुआ बना, जो किसी भी गुट की तरफ नहीं थे। 
विश्व शांति का आवश्यक आधार-
विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा आधार है - शक्ति। विश्व उसी की बात सुनता है जिसके पास शक्ति है। यह धन, साधन या शस्त्र-बल किसी भी प्रकार हो सकती है। भारत के सभी प्रयास मुँह जबानी हैं। ठोस उपाय करने के लिए उसके पास शक्ति का अभाव है क्योंकि उसकी आर्थिक दशा दीन-हीन है।
विश्व शांति के लिए अध्यात्म भावना को प्रश्रय देना, सत्य, प्रेम, अहिंसा, और पारस्परिक सहयोग के मार्ग पर चलना, समस्या को बातचीत के द्वारा सुलझाने का प्रयास करना, आदि रास्ते पर चलना चाहिए।
संधि वचन सम्पूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजेय की''


‘‘सरल और समृद्ध भाषा है अपनी हिंदी’’

भाषा विभिन्न सार्थक ध्वनियों के संयोग से भावों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। जैसे - जैसे किसी भाषा का प्रयोग बढ़ता जाता है नई अवधारणाओं का समावेश होता जाता है और उसका प्रसार बढ़ता है। किसी भी भाषा का कठिन या सरल होना कोई अनिवार्य गुण नहीं है बल्कि यह पाठक की मानसिकता, रुचि, जिज्ञासा, तत्परता एवं प्रयोग पर निर्भर करता है कि कोई भाषा प्रयोगकर्ता के लिए सरल है या कठिन। बहुभाषी जनता ने ही अपनी आवश्यकता के अनुरूप भारतीय भाषाओं के मिले - जुले रूप को हिन्दी भाषा का नाम दिया और उसे विकसित किया। चूँकि हिन्दी भाषा का उद्गम, विकास एवं समृद्धि बढ़ती ही गई और आज हिन्दी एक समृद्ध भाषा के रूप में सभी क्षेत्रों में प्रयोग हेतु सुलभ है। इस प्रकार हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए और यह भारतीय जनता की एक अपरिहार्य आवश्यकता है। किसी भी हालात में अंग्रेजी संपर्क भाषा हिंदी का विकल्प नहीं बन सकती।
हिन्दी का साहित्यिक रूप तो पहले से ही समृद्ध था अब इसका व्यावहारिक स्वरूप (अनुप्रयुक्त स्वरूप) भी समृद्ध हो चुका है और तकनीकी एवं गैर-तकनीकी क्षेत्रों में इसका प्रयोग बढ़ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी एवं समाचार मीडिया के क्षेत्र में हिंदी निरन्तर प्रगति कर रही है। इसके आगे की प्रगति प्रयोगकर्ताओं पर ही निर्भर है। देश के उलटबांसी प्रवृत्ति के लोग राजभाषा एवं राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी की उपयुक्तता के संबंध में विसंगतिपूर्ण टिप्पणियाँ करके इसके महत्व को घटाने को असफल प्रयास करते रहे हैं जो निम्न हैं-
हिंदी कठिन, दुरुह एवं दुर्बोध है।
अंग्रेजी की तुलना में हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता सीमित है।
हिन्दी को सरल बनाया जाए। विदेशी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित करने से हिंदी सरल हो जायेगी।
हिन्दी में वैज्ञानिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है।
मानक हिंदी आम जनता नहीं समझ पाती है आदि आदि। 
विगत 300 वर्षों के दौरान अंग्रेजी के प्रयोगकर्ताओं ने अंग्रेजी के सरलीकरण की बात कभी नहीं कहीं जबकि वास्तविकता यह है कि विशेषज्ञों के द्वारा भी अंग्रेजी के मानक शब्दों का ठीक से उच्चारण नहीं हो पाता तथा उनके सामान्य एवं विशेष अर्थ में अंतर नहीं कर पाते हैं इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी की महिमा मण्डित करना अंधानुकरण पर आधारित है। जहां तक हिंदी भाषा का प्रश्न है, हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति से जुड़ी है और संपूर्ण भारतीय सस्कृति की संवाहिका बनने की दिशा में प्रगति कर रही है। आम प्रयोगकर्ता उसके मर्म को समझता है और जिस शब्द का प्रयोग करता है, उसका अर्थ समझता है। मानक शब्दों का सरलीकरण करने के नाम पर किसी भी भाषा को विकृत करने से वह भ्रांतिपूर्ण और अर्थहीन हो जायेगी। इस प्रकार यह कहना बिल्कुल गलत मानसिकता है कि हिंदी कठिन है, दुरुह है एवं दुर्बोध है। वास्तविकता यह है कि विविध विषयों के विशेषज्ञों द्वारा हिन्दी प्रयोग नहीं की जाती इसलिए हिन्दी के छोटे व सरल शब्द भी उनके लिए कठिन हो जाते हैं। अंग्रेजी के प्रयोगकर्ता अंग्रेजी के शब्दों के अर्थ विश्लेषण के लिए सैकड़ों बार अंग्रेजी शब्द कोष का संदर्भ लेते हैं परन्तु जब उन्हें हिन्दी शब्दकोश का एक दो बार भी हिंदी शब्द के लिए उपयोग करना पड़ता है तो वे अपनी नकारात्मक मानसिकता के आधार पर हिंदी भाषा पर दुरुह एवं कठिन होने का दोष मढ़ते हैं। वास्तविकता यह है कि हिंदी उच्चारण, लेखन एवं अर्थ विश्लेषण की दृष्टि से सरल एवं सहज है। इस भाषा की ध्वनियाँ हमारे मन - मस्तिष्क में रची बसी हैं।
हिंदी भाषा के मूल को संस्कृति जैसी समृद्ध भाषा एवं भारतीय भाषाएं अभिसिंचित और समृद्ध करती हैं। अकेले संस्कृत में ही असंख्य शब्दों के निर्माण की क्षमता है। भारतीय भाषाओं के प्रचलित शब्द हिंदी को अतिरिक्त अभिव्यक्ति क्षमता प्रदान करते हैं। 
किसी भी भाषा की अपनी मौलिक सार्थक प्रतीक ध्वनियाँ होती हैं। उसकी अपनी शैली होती है। विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में हिंदी की यह विशेषता है कि इसका प्रत्येक अक्षर, शब्द, अर्थ एवं प्रयोजन ध्वनि के सामंजस्य पर आधारित है। कोई भी भाषा किसी विदेशी भाषा के शब्दों को उसी हद तक अपनाती है। जिस हद तक विदेशी भाषा के शब्द देशीय भाषा के शब्दों से ध्वनि साम्य या सामंजस्य रखते हैं। अतः यह तर्क देना कि अधिक से अधिक विदेशी शब्दों को हिन्दी में अपना लेने से हिन्दी भाषा सरल और सुबोध हो जायेगी। बिल्कुल गलत है। किसी भी भाषा में विदेशी शब्दों को अपनाए जाने की प्रक्रिया  सहज होती है। इस दृष्टि से हिंदी भाषा की उदारता एवं सर्व सामंजस्य सर्वविदित है। असहज रूप से विदेशी शब्दों को अपनाने से भाषा का मौलिक स्वरूप विकृति हो जायेगा और उसका विकास अवरुद्ध हो जायेगा। अतः भाषा की मौलिकता को बनाए रखने के लिए और उसके विकास की श्रंखला को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि विदेसज शब्दों को सहज तरीके से दाल में नमक के बराबर अपनाया जाए।
आम जनता अपनी आवश्यकतानुसार हिंदी, अंग्रेजी या किसी भी भाषा के मानक शब्दों का प्रयोग करती है तथा कभी-कभी मानक शब्दों के विकृत रूप का प्रयोग करके काम चला लेती हैं परन्तु उस प्रकार की भाषा का प्रयोग विशेषज्ञ नहीं करते हैं ऐसी स्थिति में हिन्दी के मानक शब्दों के सरलीकरण  की बात कहना वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं है। आम जनता जब किसी भाषा का प्रयोग करने लगती है तो वह अपनी अपेक्षा के अनुसार उसका प्रयोग करने का मार्ग खोज लेती हैं। इससे विशेषज्ञों की भाषा पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। भाषा के मौखिक, साहित्यिक, और प्रयोजन मूलक स्वरूप की अलग पहचान होती है और उनका विभेदक गुण उन्हें एक दूसरे से अलग करता है। मौखिक भाषा में व्याकरणिक बंधन शिथिल हो जाते हैं। आम जनता मनमाने तरीके से शब्दों का प्रयोग करती है परन्तु कार्यालय में अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा में स्पष्टता के लिए हम कुछ आवश्यक मानक शब्दों और कुछ सामान्य शब्दों का प्रयोग करते हैं तथा समग्र अभिव्यक्ति का लक्ष्य होता है, सही, सटीक और उद्देश्य परक अभिव्यक्ति ताकि कार्यालय का कार्य त्वरित गति से चल सके। 97 प्रतिशत जनता तो अंग्रेजी जानती ही नहीं तो हिंदी पर यह दोष मढ़ना कि आम जनता हिन्दी नहीं समझ पाती है और अंग्रेजी सरल है। अन्यायपूर्ण है।
कहाँ तक युक्ति संगत है, जबकि देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी हिंदी का प्रयोग करती है और समझती है। विशेषज्ञों की अभिव्यक्ति मानक, सही, सटीक और विषय की अपेक्षा के अनुसार होता है। विषय को जानने और समझने वाला कोई भी व्यक्ति उसी स्तर पर जाकर समझ पाता है। इसमें सरल या कठिन होने की अपेक्षा नहीं होती है बल्कि इसका लक्ष्य विषय की अपेक्षा के अनुसार होता है जो मानक भाषा में मानक अभिव्यक्ति होता है। हिंदी में ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अपने विषय और भाषा के ज्ञान के अनुसार हिंदी में कहीं हुई बात समझ लेता है। हिंदी भाषा के माध्यम में रुचि रखने वाला और हिंदी जानने वाला पाठक हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार 'जयशंकर प्रसाद' की संस्कृत निष्ठ हिन्दी में व्यक्त भावों को समझ लेता है और प्रेमचन्द्र की लोकभाषा तथा उर्दू मिश्रित हिंदी में लिखे उपन्यासों और कहानियों को समझ लेता है। अतः हिंदी पर कठिन होने का दोष मढ़ने की बात विरोधाभासी, भ्रांति मूलक और नकारात्मक मानसिकता की देन है। इसके अतिरिक्त हिंदी की लोकप्रियता इससे स्वतः सिद्ध होती है कि आज देश में अंग्रेजी पत्र - पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं अधिक लोकप्रिय और अधिक संख्या में प्रकाशित होती हैं तथा पढ़ी जाती है।
''जो व्यक्ति जितना दुर्बल होता है। वह उतना ही अधिक क्रोध का शिकार होता है।''


Friday, November 15, 2019

स्वास्थ्य के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने के लिए दो नए समझौते

 


उमाशंकर मिश्र


नई दिल्ली, 14 नवंबर (इंडिया साइंस वायर): स्वास्थ्य के क्षेत्र में अत्याधुनिक शोध को बढ़ावा देने के लिए चंडीगढ़ स्थित सूक्ष्‍मजीव प्रौद्योगिकी संस्‍थान (इम्टेक) ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी)-बॉम्बे के साथ समझौता किया है। इस पहल से विचारों के आदान-प्रदान, नए ज्ञान के विकास और दोनों संस्थानों के शोधकर्ताओं और शिक्षकों के बीच उच्च गुणवत्ता के शोध कौशल को बढ़ाने में मदद मिल सकती है।


आईआईटी-बॉम्बे के शोध एवं विकास विभाग के डीन प्रोफेसर मिलिंद अत्रे और इम्टेक, चंडीगढ़ के कार्यवाहक निदेशक डॉ मनोज राजे ने नई दिल्ली के केंद्रीय वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) मुख्यालय में इस संबंध समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस मौके पर सीएसआईआर के महानिदेशक डॉ शेखर सी. मांडे भी मौजूद थे।


आईआईटी-बॉम्बे और सीएसआईआर-इम्टेक के पदाधिकारी एवं वैज्ञानिक


डॉ मांडे ने कहा कि “इन दोनों संस्थानों को अपने-अपने क्षेत्रों में महारत हासिल है। आईआईटी-बॉम्बे देश के शीर्ष संस्थानों में शुमार किया जाता है तो इम्टेक का फोकस भारत की मेडिकल जरूरतों को पूरा करने रहता है। इन दोनों संस्थानों के बीच इस नए करार से स्वास्थ्य के क्षेत्र में संयुक्त स्तर पर किए जाने वाले शोध कार्यों का दायरा बढ़ सकता है।”


यह समझौता मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा वर्ष 2018 में दिए गए दिशा निर्देशों पर आधारित है, जिसमें सभी आईआईटी संस्थानों को सीएसआईआर की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के साथ समझौता करने को कहा गया था। वर्ष 1984 में स्थापित सीएसआईआर-इम्टेक राष्ट्रीय स्तर पर सूक्ष्मजीव विज्ञान का एक उत्कृष्ट केंद्र है। इस संस्थान को स्वास्थ्य के क्षेत्र में नई दवाओं एवं थेरेपी,  मेडिकल प्रक्रिया और नैदानिक तकनीकों के विकास के लिए बुनियादी वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए जाना जाता है।


सीडीआरआई, लखनऊ के वैज्ञानिक और एफईईडीएस-ईएमआरसी, मणिपुर के प्रतिनिधि


सीएसआईआर से संबद्ध लखनऊ स्थित केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआई) ने भी मणिपुर की संस्था फाउंडेशन फॉर एन्वायरमेंट ऐंड इकोनोमिक डेवेलपमेंट सर्विसेज (एफईईडीएस)- एथ्नो-मेडिसिनल रिसर्च सेंटर (ईएमआरसी) के साथ करार किया है। इस समझौते का प्रमुख उद्देश्य पारंपरिक ज्ञान के वैज्ञानिक सत्यापन (साइंटिफिक वेलीडेशन) करना है। एफईईडीएस मणिपुर में स्थित एक वैज्ञानिक सोसाइटी है, जो भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के जंगलों में उपलब्ध औषधीय पौधों के पारंपरिक चिकित्सा अनुसंधान का कार्य करती है।


इस समझौते के तहत एफईईडीएस-ईएमआरसी चिह्नित औषधीय पौधों की खेती, पादप सामग्री की आपूर्ति एवं निष्कर्षण, रासायनिक लक्षणों की पहचान तथा प्रारंभिक जैव सक्रियता का मूल्यांकन करेगा। इसके साथ ही, पादप सामग्री की प्रस्तावित जैव-संभावना (बायो-प्रोस्पेक्टिंग) के लिए सलाह भी देगा।


एफईईडीएस-ईएमआरसी द्वारा भेजी गई पादप सामग्री और उनके सक्रिय घटकों के  फाइटोकेमिकल डेटा के संग्रह के साथ-साथ उनके लोक-पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण की प्रामाणिकता का मूल्यांकन सीएसआईआर-सीडीआरआई द्वारा किया जाएगा। पादप अर्कों के मानकीकरण की प्रक्रिया और उनके मूल्य संवर्द्धन के लिए उन्नत रासायनिक विश्लेषण भी सीडीआरआई द्वारा किया जाएगा। (इंडिया साइंस वायर)


 


 


 


समाजकी भलाई पर केंद्रित विषय चुनें पीएचडी शोधार्थी

 


उमाशंकर मिश्र


 


नई दिल्ली, 14 नवबंर (इंडिया साइंस वायर) : विज्ञान के पास देश की हर अनसुलझी समस्या का समाधान है। लेकिन अर्थपूर्ण वैज्ञानिक शोध के लिए जरूरी है कि पीएचडी विषय का चयन करते समय उसमें निहित समाज की भलाई और कुछ नया करने की संभावना का ध्यान रखा जाए। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पृथ्वी विज्ञान और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्ष वर्धन ने ये बातें बुधवार को वैज्ञानिक और नवीकृत अनुसंधान अकादमी (एसीआईआर) के उत्कृष्ट पीएचडी शोध प्रबंध पुरस्कार और पदारोहण समारोह के दौरान कही हैं।


 


एसीआईआर राष्ट्रीय महत्व कीएक मेटा-यूनिवर्सिटी है, जिसके अध्ययन केंद्र भारत के 23 शहरों में फैली वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की 37 प्रयोगशालाओं और छह इकाइयों में स्थित हैं। इस संस्थान का उद्देश्य भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नवीन पाठ्यक्रम, बेहतर शिक्षण-प्रशिक्षण और मूल्यांकन के जरिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नेतृत्व क्षमता का विकासकरना है।


नई दिल्ली स्थित सीएसआईआर मुख्यालय में आयोजित समारोह में दस विज्ञान शोधार्थियों को उत्कृष्ट शोध प्रबंध के लिए पुरस्कार प्रदान किया गया है। इसके साथ ही, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में योगदान देने वाले छह अन्य लोगों को भी अकादमी प्रोफेसर की उपाधि से नवाजा गया है।


बायोलॉजिकल साइंस विषय के पीएचडी शोधार्थी भारतीय रासायनकि जीवविज्ञान संस्थान, कोलकाता के सास्वात महापात्रा, जीनोमिक्स और एकीकृत जीवविज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के मयूरेश अनंत सारंगधर और केन्द्रीय नमक व समुद्री रसायन अनुसंधान संस्थान, भावनगर के कौमील एस. चोकशी को इस मौके पर पुरस्कृत किया गया है।


केमिकल साइंसेज में पुरस्कृत पीएचडी शोधार्थियों में राष्ट्रीय रासायनिकी प्रयोगशाला, पुणे की विनीता सोनी, केंद्रीय विद्युतरसायन संस्थान, करईकुडी  के सरवाणन केआर और राष्ट्रीय अंतर्विषयी विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, तिरुवनंतपुरम के सम्राट घोष शामिल थे। राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली की विजेता सिंह और केंद्रीय विद्युतरसायन संस्थान, करईकुडी  के बालाकुमार के. को फिजिकल साइंसेज में उत्कृष्ट शोध कार्य के लिए पुरस्कार दिया गया है। इंजीनियरिंग साइंसेज में संरचनात्मक अभियांत्रिकी अनुसंधान केंद्र, चेन्नई के प्रवीण जे. और राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला की शोधार्थी इंदु एलिजाबेथ को यह पुरस्कार मिला है।


जिन लोगों को अकादमी प्रोफेसर की उपाधि प्रदान की गई है, उनमें सीएसआईआर के पूर्व महानिदेशक प्रोफेसर गिरीश साहनी, मौलिक एवं प्रयोगात्मक रक्षा अनुसंधान में योगदान देने वाले इंजीनियर विजय कुमार सारस्वत, प्रसिद्ध अंतर्विषयी शोध वैज्ञानिक प्रोफेसर सुरेश भार्गव, जमीनी नवाचारों के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले प्रोफेसर अनिल गुप्ता, शिक्षाविद एवं प्रसिद्ध इलेक्ट्रॉनिक तथा कंप्यूटर इंजीनियर प्रोफेसर कृष्ण किशोर अग्रवाल और सूचना तकनीक के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले एन.आर. नारायण मूर्ति शामिल थे।


डॉ हर्ष वर्धन ने कहा कि “सीएसआईआर ने कई ऐतिहासिक काम किए हैं और दुनिया के 1200  संस्थानों में यह दसवें स्थान पर है। प्लास्टिक से डीजल और बायोमास से एथेनॉल बनाने में भारतीय वैज्ञानिकों की सफलता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि विज्ञान से सब संभव है।लेकिन अब इस यात्रा को शीर्ष पर ले जाने की जरूरत है। इसके लिए हमें हर स्तर पर मेहनत और लगन से काम करना होगा।अगर शोध प्रबंध लिखने वाले शोधार्थी छोटे-छोटे विषयों पर काम करें तो देश की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।”(इंडिया साइंस वायर)