Tuesday, October 29, 2019

नारी बिना साहित्य जगत है अधूरा 

साहित्य मानवीय संवेदनाओं के चिंतन एवं चित्रण की श्रेश्ठतम अभिव्यक्ति है। नारी सजल संवेदनाओं का मूर्तरूप है। अतः साहित्य नारी के बिना आधा अधूरा एवं एकांगी है। सृश्टि के ऊशाकाल से ही नारी पुरूश की सुकोमल भावनाओं में चेतना का संचार करती और उसकी विविध कल्पनाओं को निरभ्र गगन में उड़ान भरने के लिये प्रेरित करती रही है। इसी कारण नारी साहित्य के साम्राज्य पर सदैव ही अधिश्ठित और प्रतिश्ठित रही है। साहित्यकार मानते हैं कि कविता का उद्गम स्त्रोत नारी प्रेरित है। नारी स्वयं एक कविता हैं, नारी स्वयं एक परिपूर्ण साहित्य है। नारी की पवित्रता, षुचिता, सौंदर्य के बिना साहित्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।
 सजल संवेदना की अविरल धारा जब स्थिर होकर रूपायित हुई तो उसमें नारी का रूप निखर उठा और जब इसकी अभिव्यक्ति हुई तो साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। अतः नारी और साहित्य का सम्बंध अनन्य और अखण्ड रहा है। नारी के संवेदनषील गर्भ से साहित्य की सृजन धारा फूट पड़ी है। सृजन की इस महती प्रक्रिया में नारी का योगदान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में हुआ है। अप्रत्यक्ष रूप से पुरूश द्वारा नारी का भरपूर उपयोग किया गया है और इसका कारण है- (1) सौंदर्यानुभूति (2) नैतिक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति (3) सामाजिक परिवेष का चित्रण।
 ये तीन संवेदनायें ही मानवी मन को साहित्य सृजन के लिये प्रेरित करती है। जिसमें सौंदर्यानुभूति किसी भी साहित्यकार की साहित्य-साधना का मूल आधार रही है। भारतीय साहित्य में पुरातन से अद्यतनकाल तक सौंदर्य एवं श्रंगार को विषिश्ट स्थान प्राप्त है और हो भी क्यों न, क्योंकि संवेदना की धारा जब उमड़ती है, सौंदर्य एवं श्रंगार स्वतः स्फूर्त, आलोड़ित-उद्वेलित होते हैं। यह सौंदर्य कल्याणकारी एवं सत्य की आभा से मंडित होता था, जिसमें षील एवं षुचिता आधार बने हुये थे। जैसे ही ये आधार टूटने-बिखरने लगे, सौंदर्य एवं श्रृंगार की दिषा अधोगामी हो गई और साहित्य जीवन प्रदायक अमृत से जीवन हरने वाला विश बन गया, परंतु साहित्य की प्राचीन एवं श्रेश्ठ सौंदर्याभिव्यक्ति कालिदास, जायसी, तुलसी से लेकर पंत, प्रसाद और निराला आदि तक अविच्छिन्न रूप से निखरी है।
 नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में भी नारी ने साहित्य को अपूर्व योगदान प्रदान किया है। संस्कृति को सींचने के लिये नारियों ने स्वयं को खपा दिया है। नारी अपने दरद को लेखिनी के माध्यम से उठाती रही है। सांमती मानसिकता पर करारा प्रहार करने वाली नारी लेखिकाओं की कमी नहीं है। रामधारी सिंह दिनकर नें यहाँ तक कहा है कि सांस्कृतिक संवेदना नारी के बिना अपंग-अपाहिज के समान है। सांस्कृतिक ध्वजा को साहित्य के गगन में कम संख्या में ही सही, लेकिन दमदार ढंग से नारियों ने लहराया है। ठीक इसी प्रकार नैतिकता एवं सामाजिकता के अनेक विशयों को नारियों ने साहित्य से जोड़ा और अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बोध कराया है।
 साहित्य साधिकाओं में मीराबाई का नाम ध्रुवतारा के समान प्रदीप्त है। मीरा हिन्दी साहित्य के काव्य फलक पर महान कवियत्री के रूप में प्रतिश्ठित है। मीरा की कविता के बिना हिंदी साहित्य का लालितय अधूरा माना जायेगा। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य को छायावाद, रहस्यवाद, प्रतीकयोजन, वेदना, गीतकला, प्रकृति चित्रण रूपी अनेक अनुपम उपहार देने के रूप में जानी जाती है।
 वैदिककाल की नारियाँ जैसे अपाला, घोशा, गार्गी, विष्ववारा, अरूंधती अनसूया आदि ने भी अपने चिंतन से नारी जगत में नयी दिषा दी। ठीक इसी प्रकार आधुनिक काल में अमृता प्रीतम, चंद्रकिरण, ऊशादेवी मित्रा, षषि प्रभा षास्त्री, मृणाल पाण्डेय, सूर्यबाला, नासिरा षर्मा, षिवानी आदि तमाम रचनाकारों की सषक्त कृतियों से समृद्ध होती हुई आज नारी चेतना सम्पन्न एवं सुदृढ़ धरती तक पहुँच गई है। लेखिकाओं ने जहाँ संवेदनषील मानवीय संबधों को रचनाओं में उकेरा है, वहीं सामयिक ज्वलंत प्रष्नों को भी रेखांकित किया है। 'इक्कीसवीं सदी नारी सदी' की संभावना को साकार करने का यह श्रेश्ठ एवं पुण्यकार्य है, जिसे किसी भी कीमत पर करना ही चाहिये।
 'पुस्तक से रहित कमरा आत्मा से रहित षरीर के समान है। (सिसरो)


कोल्ड ड्रिंक एक खतरनाक पेय

 कोल्ड ड्रिंक हमारे षरीर के लिये कितना घातक हो सकता है, इस बात का अहसास लोगों को नहीं है। अमेरिका की 'दि अर्थ आइलैण्ड जनरल' ने एक षोध प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार आजकल धड़ल्ले से बिक रहे विदेषी कम्पनियों के षीतल पेय की एक बोतल में 40 से 72 मि0 ग्राम तक नषीले तत्व ग्लिसरीन अल्कोहल, ईस्टरगम व पषुओं से प्राप्त ग्लिसरोल पाये जाते हैं, अतः षाकाहारी किसी भ्रम में न रहें कि यह मांसाहार का एक रूप नहीं है, सर्वाधिक आष्चर्यचकित तो उनकी अन्य खोजे हैं, साइट्रिक एसिड होने के कारण षौचालय में किसी भी साफ्ट ड्रिंक को एक घण्टे के लिए डाल दें तो वह फिनाइल की तरह उसे साफ कर देगा। कहीं जंग लग गया हो तो इस पेय में कपड़ा गीला करके रगड़ दें, वह हट जाएगा। वस्त्रों पर ग्रीस लग गई हो तो साबुन के साथ उसे कोल्ड ड्रिंक में गीला कर दे, वह दाग को बिल्कुल हटा देगी। इंसान की हड्डियों व दांतों को गलाने में मिट्टी को कई साल लग जातें हैं, पर साफ्ट ड्रिंक पीकर अपनी अंतड़ियों, यकृत तथा षरीर को भारी नुकसान पहुँचा रहे हैं। क्या फिर भी आप कोल्ड ड्रिंक्स पीना या पिलाना चाहेंगे?विवेकषील मनुश्य होने के नाते आपसे उम्मीद कि आप जान-बूझकर जहर न स्वयं पीना चाहेंगे और न अपने ईश्ट-मित्र को पिलाना चाहेंगे। जब अन्तर्राश्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पेप्सी-कोला, कोक आदि कोल्ड ड्रिंक्स मनुश्य के षरीर में विभिन्न अंगों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं। तब निष्चित ही कोल्ड ड्रिंक्स पीना विश-पास के समान है। आप स्वयं ही उससे दूर रहे और अपने सभी संगी-साथियों को उनके पान करने से परहेज करने की सलाह दें।


जीवन के शुद्ध दृष्टिकोण की निर्मिति

 आज हमारे सामाजिक जीवन में चारों ओर समस्यायें ही दिखाई पड़ती है। जीवन के षुद्वदृश्टिकोण का अभाव ही हमारी प्रमुख समस्या है, जिसके रहते षेश समस्यायें लाख प्रयत्न करने पर भी सुलझ न पायेंगी। अतः जीवन का सत्य षुद्वदृश्टिकोण क्या होना चाहिये, जिसे लेकर चलने से मानव जीवन की सम्पूर्ण समस्याओं पर विजय प्राप्त करना सुलभ हो जाता है।
 हमारी संस्कृति के सर्वोत्कृश्ट भारतीय षास्त्रों के अनुसार इस समस्त विष्व में एकमेव अखण्ड परमेष्वर ओत-प्रोत है, किन्तु उसके अव्यक्त स्वरूप को समझना कठिन है। मनुश्य होने के नाते हमें सर्वसाधारण रीति से मानव समाज तक सीमित कल्पनाओं की अनुभूति ही सरलता से हो सकती है। अतएव अव्यक्त परब्रह्म की अनुभूति सरल रीति से करा देने के लिये मनुश्य-समाज को उस अव्यक्त परब्रह्म का विषाल एवं विराट रूप मानने और प्रत्येक मनुश्य को इसी दिव्य-देव के षरीर का घटक अवयव समझने का षास्त्र ने आदेष दिया है।
 इस दृश्टि से मनुश्य समाज का प्रत्येक व्यक्ति हमारे लिये पूज्य और सुसेव्य हो जाता हैं। भगवान का केवल षिर ही पूज्य है, पैर नहीं'-ऐसा सोचना मूर्खता है। जितना पवित्र और पूज्य उसका सिर है, वैसे ही उसके पाँव तथा षरीर का प्रत्येक घटक अवयव भी पवित्र है, पूज्य है और परमेष्वर के पाँव को तो षास्त्र ने परम पवित्र बताया है, जिससे स्पर्ष हुई धूलि और जिससे निकल हुआ जल भी परम पवित्र कहा गया है।
 समाज के सारे अंग-उपांग समान हैं और हमारे लिये सदैव सुसेव्य हैं। उनमें ऊँच-नीच का भेद न करते हुये सभी की सेवा समान षक्ति एवं तत्परता से करने की आवष्यकता है। इस विचार के अनुसार समाज की सेवा में भगवत-पूजा का भाव चाहिये और सच्ची भगवत्पूजा जीवन में प्राप्त श्रेश्ठतम भोग पदार्थों को भगवान की सेवा के निमित्त प्रगाढ़ श्रद्वायुक्त अन्तःकरण से समर्पित कर देने में ही हैं।
 जीवन के सार-सर्वस्व से प´च तत्व-प्राप्ति तक भगवत पूजा करते रहना ही षास्त्रों में जीवन का चरम लक्ष्य कहा गया है। अपनी समस्त सम्पत्ति सारी सम्पदा का नैवेध रूप में इस समाज परमेष्वर को समर्पित करके अपने भौतिक जीवन को पवित्र बनायें यहीं जीवन का सच्चा दृश्टिकोण है।
 इस प्रकार जिसने समाज में परमेष्वर के विराट रूप का साक्षात्कार किया है और जो उसकी सेवा में जीवन सर्वस्व लगाकर दक्ष रहता है उसे ऐसे लाखों की संख्या में इतस्ततः फैले हुये दीन-हीन निराश्रित प्राणी-परमात्मा के सर्वप्रथम पूजनीय रूप में ही दिखाई देंगे और वह उनकी सेवा में सम्पूर्ण षक्ति लगाने के लिये विकल हो उठेगा।
 नर के रूप में प्रकट नारायण को हम पहचानें। उनकी सुख-सुविधा के लिये तन-मन से कुछ कश्ट उठाने का प्रसंग भी आये, तो उसे भगवत्कृपा-प्रसाद समझकर सहर्श धारण करें। उसके निमित्त की गयी दौड़-धूप और उठाई गई असुविधा में त्याग की नहीं, पूजा की भावना चाहिये। सब कुछ करके भी मैने किसी पर उपकार नहीं किया, केवल स्वाभाविक कर्तव्य की पूर्ति मात्र की है। यही दृढ़ धारणा होनी चाहिये। इसमें अहंकार और आत्मष्लाधा के लिये काई स्थान नहीं है।
 इस दृश्टिकोण को यदि जीवन में लाने का प्रयत्न किया जाय, तो अनुभव होगा कि वैयक्तिक अथवा पारिवारिक, जो कुछ भी मेरी प्राप्ति है, वह कितनी भी अच्छी और प्रचुर मात्रा में क्यों न हो, उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं। यह भगवान की पूजा का नैवेद्य है। मै तो केवल प्रसाद मात्र का अधिकारी हूँ। जीवन-यात्रा में निर्वाह के लिये जितना परमावष्यक है, उतना ही मैं अपने उपयोग के लिये रखकर समाज की सेवा में समर्पित कर दूँ।
 भगवान की पूजा उत्तमोत्तम रीति से करने के निमित्त अधिकतम भोग-सामग्री एकत्र करूँगा, तन-मन का सारा सामथ्र्य द्रव्य पदार्थ संचित करूँगा किन्तु उसमें से अपने उपयोग के लिये केवल उतना ही रखूँगा, जिसके अभाव में समाज-परमेष्वर की अर्चा में अड़चन का योग न बन पावे। उससे अधिक पर अधिकार करना अथवा अपने व्यक्तिगत उपयोग में लाना भगवान की सम्पत्ति का अपहरण है। जो सर्वथा निन्दनीय और षास्त्र वर्जित है।
 जिस मनुश्य जीवन में राश्ट्र निर्माण के पवित्र कार्य करने का हमें अत्यन्त सौभाग्यपूर्ण अवसर और सामथ्र्य प्राप्त हुआ हैं, उसकों मृग तृश्णा के पीछे दौड़ने में नश्ट न कर दें। अतः भारतीय जीवन-रचना के इस सांस्कृतिक दृश्टिकोण को लेकर समश्टि (समाज) में परमात्मा का साक्षात्कार करते हुये कार्य-रूप से, षब्द-मात्र से नहीं, इस समज रूप पुराण-पुरूश की निरीह और अकिंचन भाव से पूजा करें। यह दृश्टि यदि अपने अन्दर रही तो एक समश्टि पुरुष अभिन्न रीति से आसेतु हिमाचल को व्याप्त किये हुये दिखाई देगा। कोई छुद्र भावना हृदय को छू न पायेगी और उस परम-पुरुश की आराधना में अपना सर्वस्व होम करके भी परम षान्ति का ही अनुभव होगा तथा जीवन के षुद्ध दृश्टिकोण की निर्मित होगी।


परिश्रम का विकल्प नहीं

 महर्शि कणाद अपने षिश्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर वहाँ रहा करते थे आश्रम में सभी कार्य षिश्य स्वयं ही किया करते थे, आश्रम के जीवन में पवित्रता थी, अतः वहाँ किसी भी प्रकार का कश्ट नहीं था।
 वर्शा ऋतु निकट ही थी महर्शि ने अपने षिश्यों को बुलाकर कहा-''देखो, वर्शा ऋतु आने वाली है हमें हवन तथा भोजनादि के लिये लकड़ी एकत्रित कर लेनी चाहिये।''
 गुरूदेव की इच्छा को आज्ञा मानने वाले षिश्य कुल्हाड़ी आदि लेकर जंगल की ओर चल पड़े बड़ी लगन तथा परिश्रम से उन्होनें लकड़ियाँ इकट्ठी कर गट्ठर बाँधें और कन्धों पर लाद कर आश्रम में ले आये। गुरू जी बहुत प्रसन्न हुये। उन्होंने षिश्यों को षुभाषीश दिया।
 कुछ समय के पष्चात् सभी षिश्य ऋशि कणाद के साथ नदी में स्नान करने गये। मार्ग में वहीं जंगल पड़ा जहाँ से षिश्य लकड़ी काटकर आश्रम में ले गये थे सबके आष्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब वन में उन्हें चारों ओर रंग-बिरंगे, सुगन्धित सुन्दर पुश्प दिखाई दियें सारा जंगल सुगन्धित था षिश्यों ने गुरू से पूछा-''गुरूवर, ये रंग-बिरंगे फूल कहाँ से आ गये, वायुमण्डल में सुगन्ध व्याप्त है, यह चमत्कार कैसे हुआ।'' ऋशि कणाद हँसे और कहने लगे-''यह सब तुम्हारे अथक परिश्रम का फल है, तुम्हारे षरीर से निकले षुद्ध, सच्चे पसीने की बूँदो का ही यह परिणाम है कि तुमको यहाँ का वातावरण मनमोहक सुन्दर तथा चमक दमक वाला दिखाई दे रहा है जहां भी तुम्हारा पसीना गिरा था, वही पुश्प उग गया, शिष्यों को बात ध्यान में आ गयी कि परिश्रम का कोई विकल्प (बदल) नहीं है, महान् बनने के लिये कठोर परिश्रम करना होता है और करना चाहिए।''


खेलकूद और अनुशासन

 अनुषासन विद्यालय का एक महत्वपूर्ण अंग है। अनुषासन की स्थापना में खेलकूद का विषेश योगदान है इसी सेविष्व के अनेक देषों में अनुषासन की स्थापना में खेलकूद के महत्व को स्वीकार करते हुए विद्यालयों में खेलकूद की व्यवस्था अनिवार्य कर दी गई है लेकिन हमारे देष में अभी विषेश ध्यान नहीं दिया गया है। प्रायः लोगों की मानसिकता है कि बच्चों को खेलकूद से दूर रखकर पाठ्य पुस्तक द्वारा एवं आचार संहिता द्वारा विद्यालय में अनुषासन की नींव सुदृढ़ की जा सकती है। लेकिन प्लेटों ने कहा ''बालक को दण्ड की अपेक्षा खेल द्वारा नियंत्रित करना कहीं अच्छा है।'' आजकल खेलकूद की उपेक्षा के कारण आए दिन हड़ताल, तोड़फोड़, परीक्षा में सामूहिक नकल का प्रयास, षिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार आदि घटनाएँ छात्रों द्वारा हो रही हैं। भारत जैसे विषाल देष में विद्यालयों में पनपती अनुषासनहीनता घातक सिद्ध हो रही है।
 खेलकूद की उपेक्षा से अनुषासनहीनता पनपती है। अनुषासन की स्थापना में खेलकूद विभिन्न प्रकार से सहयोगी है।
 (1) सामाजिक भावना - खेलकूद बच्चों को आपस में मिलजुल कर रहना, आपसी बैरभाव समाप्त करना, विभिन्न जाति व सम्प्रदाय के साथ आपसी तालमेल द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना सिखाता है। फलस्वरूप उनमें सामाजिक सहयोग के भाव उत्पन्न होते हैं जो उन्हें अनुषासन प्रिय बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। खेलकूद के अभाव में बच्चे इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब विभिन्न देषों की टीमें खेलती हैं उनके सदस्यों में सहज ही मैत्रीभाव का विकास हो जाता है। क्रीड़ा जगत में एक साथ भाग लेने वाले खिलाड़ी परस्पर प्रतिस्पर्धा तो करते हैं परन्तु द्वेशभाव से दूर रहते हैं। खिलाड़ी हार-जीत को जब खिलाड़ी की भावना से लेने की षिक्षा पाते हैं तो वे जीवन में भी सफलता-असफलता के अवसरों पर सन्तुलन बनाये रखने में सफल होते हैं।
 (2) मस्तिश्क एवं षरीर पर प्रभाव - खेलकूद द्वारा छात्रों के स्वास्थ्य में वृद्विहोती है। खेलने के दौरान प्रत्येक मांसपेषियाँ काम करती हैं तथा रक्त तीव्रता से षरीर में दौड़ने लगता है जिससे बालक का षरीर निरोग बना रहता है और निरोग षरीर में स्वस्थ मस्तिश्क होता है उसमें अच्छे-बुरे समझने की षक्ति होती है जिससे चारित्रिक दुर्बलताएँ मस्तिश्क में प्रवेष नहीं कर पाती हैं। खेलते समय बालक के अन्दर संयम, दृढ़ता, वीरता, गम्भीरता, एकाग्रता तथा सहयोग की भावना का विकास होता है इसके विपरीत खेलकूद के अभाव में छात्रों का षारीरिक एवं मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है और उनमें आत्मविष्वास की कमी उन्हें आत्मानुषासित बनाने में बाधक होती है। और वह कुण्ठाग्रस्त होकर गलत मार्ग की ओर अग्रसर हो जाते हैं
 (3) अतिरिक्त विकास- बालकों में किषोरावस्था में अतिरिक्त षक्ति होती है। खेलकूद द्वारा उनकी अतिरिक्त षक्ति को सरलता से रचनात्मक कार्यों मेें लगाया जा सकता है। और अतिरिक्त षक्ति का सदुपयोग हो जाता है। यदि अतिरिक्त षक्ति को खेलकूद में न लगाया जाए तो वह षक्ति बुरे कार्यों में लग सकती है।
 (4) अवकाष - खेलकूद के माध्यम से अवकाष का सदुपयोग होता है। प्रायः विद्यालयों में फैलती अनुषासनहीनता का प्रमुख कारण छात्रों को अवकाष के सदुपयोग की सुविधा न देना है। जहाँ अध्ययन के पष्चात् खेलकूद की सुविधा उपलब्ध होती है वहाँ प्रायः किसी प्रकार की अनुषासनहीनता नहीं होती है क्योंकि बालक खेलकूद में इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें बुरा देखने बुरा कहने-सुनने व करने का समय नहीं मिल जाता है। इसके विपरीत बच्चे उपद्रव मचाते हैं।
 (5) आत्मनियन्त्रण की भावना - छात्र जब किसी अन्य विद्यालय के छात्रों से मैच या किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है तो वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे उसकी तथा उसके स्कूल की बदनामी हो।
  फलतः उसमें आत्म नियन्त्रण की भावना जाग्रत होती है और वह अनुषासित ढंग से व्यवहार प्रदर्षन करता है। इसके विपरीत खेलकूद के अभाव में छात्र आत्मनियन्त्रित नहीं हो पाते।
 (6) उचित मार्ग दर्षन- कुछ विद्यार्थियों की पढ़ाई की अपेक्षा खेलकूद में अधिक रूचि होती है। उनकी रूचि के अनूकूल खेलकूद के क्षेत्र में उचित मार्गदर्षन किया जाए तो वे अच्छे खिलाड़ी बनकर भारत का गौरव बढ़ा सकते हैं।
 खेल के समय खिलाड़ी को प्रत्येक अवसर पर तत्क्षण निर्णय लेना होता है। वह किधर से आगे बढ़े कब किस गेंद को किस प्रकार खेलें आदि। इस दृश्टि से खेल व्यक्ति के मस्तिश्क को अनुषासन में बाँध देते हैं।
 उपरोक्त विवेचना के अनुसार खेलकूद और अनुषासन के अन्तरंग सम्बन्ध हैंै। आज की षिक्षा का उद्देष्य बालक का बहुमुखी विकास करना है। एकांगी नहीं।
अतः मानसिक विकास के साथ षारीरिक विकास आवष्यक है तभी छात्र मानसिक रूप से एकाग्रचित, नियन्त्रित अर्थात् अनुषासित रह सकते हैं।
 इस प्रकार अनुषासन के लिए खेलकूद अति आवष्यक है। खेलकूद बालक के सर्वांगीण विकास में सहयोगी व आवष्यक है। अतः खेलकूद के महत्व को स्वीकारते हुए विद्यालय में खेलकूद की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे बालक का बहुमूखी विकास हो सके।


शारीरिक शिक्षा की उत्पति, विद्यालय में शारीरिक शिक्षा की उपयोगिता

 शिक्षा शब्द से उत्पत्ति शारीरिक शिक्षा की हुई है क्योकि चाहें वह रामायण काल हो या महाभारत काल जिस प्रकार भगवान श्रीराम या कौरव और पाड्व गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे उनके साथ शारीरिक शिक्षा का भी पाठ्यक्रम रखा जाता था। परन्तु वह किस रूप में विकसित थी धनु विद्या तलवारबाजी, गदा युद्ध, कुश्ती आदि।
 उ0 प्र0 माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा शारीरिक शिक्षा को एक अनिवार्य विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि खेल का स्वर लगातार नीचे गिरने से दो साल से शारीरिक शिक्षा को अनिवार्य विषय कर दिया गया है। शारीरिक शिक्षा का कार्यक्रम अति व्यापक है। लेकिन कुछ विद्वान शारीरिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को समझ नहीं पाते है। छोटी-मोटी खेल की प्रतियोगिता कराकर अपने पाठ्यक्रम को खत्म कर देते हैं। लेकिन विद्यालय में नियमित रूप से शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। जिससे छात्रों का समुचित रूप से विकास हो सके। शारीरिक शिक्षा का अथ्र  विद्यार्थी को स्वस्थ व निरोग रखने और मानसिक, विकास बुद्ध क्रियायें, ऐथलेटिक, योगा, जिमनास्टिक, हाॅकी, क्रिकेट, फुटबाॅल आदि का  निर्माण रूप से अभ्यास कराना चाहिए। जिससे विद्यार्थी का अपना लक्ष्य प्राप्त करने में आसानी रहे। विद्यार्थी के अन्दर शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम से निम्न गुण विकसित होते है-
1. शारीरिक गुण का विकास होना।
2. चारितिक गुण का विकास होना।
3. सामाजिक गुण का विकास होना।
4. मानसिक गुण का विकास होना।
5. अनुशासन की भावना का विकास होना।
6. नैतिकता की भावना का विकास होना।
7. खेल भावना का विकास होना।
 जिस प्रकार शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक पीरियड खेल का इसलिए रखा जाता है कि सभी छात्र/छात्राओं का ध्यान खेल की तरफ केन्द्रित हो तो वह सारा दुःख और सुख छोड़कर खेल की तरफ केन्द्रित हो जाता है। जिससे उन्हें एक नयी ऊर्जा प्राप्त होती है। और उनके आगे नेये भविष्य के लिये मार्ग बनता हैं। वह पुनः पढ़ाई के लिये तत्पर हो जाते हैं।


समय 

 कल्पन कीजिए एक ऐसे बैंक की जो हर सुबह आपके खाते को $86,400 से क्रेडिट करता है। यह कोई अतिरिक्त बैलेन्स नहीं रखता और हर शाम यह उस राशि को मिटा देता है। जिसे आप उस दिन के अन्दर उपयोग नहीं कर सके इस ंिस्थति में आप क्या करेंगे?यही कि आप अपना सारा पैसा निकाल लेंगे।
 हम सभी के पास ऐसा ही बैंक होता है। जिसका नाम है, 'समय' यह हर सुबह आपके 86,400 सैकेण्ड को क्रेडिट करता हे। और हर रात यह उन सैकेन्डस को आपसे ले लेता है। जिन्हें आप दिन भर में किसी अच्छे उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं कर सके या नहीं बचा पाये।
 हर रात यह आपके बचे हुए समय को समाप्त कर देता है। क्योंकि यह निरन्तर चलता रहता है। अगर आप अपने दिन के समय को अच्छी तरह नहीं भोग पाये तो यह आपका नुकसान होगा। यहाँ पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं है। और न ही आप समय को निकाल कर रख सकते हैं। कल के लिए आपको सिर्फ 'आज' में ही जीना पड़ता है। इसलिए आप कुछ ऐसा इन्वैस्ट कीजिए जिससे आप को सफलता, स्वास्थ्य व खुशी मि सके समय की घड़ी चलती रहती है। आज का इस्तेमाल करना सीखिए।
1.  एक 'साल' की कीमत फेल विद्यार्थी से जानिए।    
2.  एक 'महीने- की कीमत उस माँ से जानिए जिसने एक प्रीमेच्योर बच्चे को जन्म दिया हो।
3.  एक 'हफ्ते' की कीमत उससे पूछिये जो बोकली न्यूजपेपर का एडीटर हो।
4.  एक 'घंटे' की कीमत प्रेमियों से जानिए जो मिलने के लिए बेचैन रहते हैं।
5.  एक 'मिनट' की कीमत उससे जानिए जो अपनी ट्रेन मिस कर चुका है।
6.  एक 'सेकेण्ड' की कीमत उससे जानें जिसक एक्सीडेन्ट होने से बचा हो।
 याद रखिए समय किसी का इन्तजार नहीं करता।


सार्थक स्वप्न

 तीन साधू अलग-अलग जाति के होते हैं। एक हिन्दू, एक मुस्लमान, एक ईसाई होता है। एक दिन तीनों साथ में टहलते हैं। उनको टहलते-टहलते रात हो जाती है। तो तीनों साधू एक गरीब परिवार में जातें हैं और रात भर रूकेने का निवेदन करते हैं। उस घर में केवल एक ही आदमी था। जो उन तीनों साधुओं को रूकने के लिए एक कमरा दे देता है। तो वे तीनों साधु अपने भोजन के लिए आग्रह करते हैं। तो वह आदमी उनके लिए खीर बना कर लाता है। तीनों के मन में एक विचार आता है। वे कहते हैं कि रात में जो अच्छा स्वप्न देखेगा, वही इस खीर को खाएगा। रात में तीनों को नींद तो आती नहीं है और तीनों अपने मन में अच्छे-अच्छे स्वप्न के बारे में सोचते हैं। तो थोड़ी ही देर बाद मुसलमान और ईसाई को नींद आ जाती है। परन्तु हिन्दू उन दोनों के सो जाने का लाभ उठात है। वह उठकर सारी खीर खा जाता है। और सुबह तीनों हाथ-मुँह धोकर बैठते हैं। और अपने स्वप्न के बारे में बताने लगते हैं।
मुसलमान:- रात में हमारे अल्लाह जी आए थे और उन्होंने हमें बहुत सा पैसा दिया और प्यार भी किया।
ईसाई:- रात में हमारे ईसा-मसीह जी आए थे, उन्होंने हमें बहुत सा धन दिया और उन्होंने हमें गोद में बिठा कर अच्छी-अच्छी बाते बतायीं। अब हिन्दू की बारी आयी!
हिन्दू:- हमारे हनुमान जी तो हकीकत में आए थे।
दोनों साधु:- वे तुम्हारे लिए क्या कर गए?
हिन्दू:- आए और हमें अपने गदे से मार-मार कर सारी खीर-लिखा गए।
दोनों:- क्या तुम हकीकत में सारी-खीर खा गए?
हिन्दु:- जब हनुमान जी हकीकत में आए थे तो हमें मार-मार कर सारी खीर भी हकीकत में लिखा गए।


समाज में नारी की भूमिका

प्रस्तावना- ऋग्वेद में कहा गया है कि: यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता' यह कथन मनु का है इसका अर्थ है कि ''जहाँ नारी की पूजा होती है' वहीं देवता निवास करते है।'' पूजा का अर्थ है किसी स्त्री को गौरव दीजिए उसका सम्मान करो, उसकी शिक्षा की उचित व्यवस्था हो, उसके जीवन स्तर में सुधार हो जिसके फलस्वरूप प्रत्येक देश में स्त्रियों के जीवन में सुधार की विशेष आवश्यकता का अनुभव किया गया है। भारत जैसे प्रगतिशील देश के लिये तो स्त्री जीवन का विकास अत्यन्त आवश्यक है। धार्मिक रूढ़ियों में बँधे हुए अन्धविश्वसनीय भारत की स्त्री के जीवन के विकास के लिए स्वतंत्र भारत में हर सम्भव प्रयास हो रहे है।
 ''जो हाथ पालने को झुलाता है, वह संसार का शासन भी करता है'' यह अंग्रेजी भाषा की कहावत है। इससे स्पष्ट होता है कि माँ का बालकों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। एक बार नेपोलियन ने कहा था  “If you give me good mathers, I will give you a good nation.”
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: जहाँ तक मेरा विचार है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल में प्रत्येक (काल) युग में नारी का किसी न किसी रूप में शोषण होता रहा है। यदि हम प्रत्येक युग में नजर डाले तो तस्वीर उभरती है।
प्राचीन काल: वैदिक काल में नारी को वे सम्पूर्ण आर्थिक राजनैतिक धार्मिक, सांस्कृतिक अधिकार प्राप्त वैदिक काल तक समाज ने नारी के जीवन को नरक बनाना शुरू कर दिया था।
बौद्धकाल: बौद्धकाल में महात्मा बुद्ध ने स्त्रियों का संघ में प्रवेश वर्जित कर दिया था लेकिन अपने प्रिय शिष्य 'आनन्द' के विशेष आग्रह पर गौतम बुद्ध ने नारियों को संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी लेकिन उस समय तक स्त्रियों की दशा दयनीय स्थितियों की ओर प्रवेश कर चुकी थी।
मुगलकाल- मुगलकाल में नारियों की दशा बहुत ही सोचनीय हो गयी थी। अनेक प्रकार की कुप्रथायें और स्त्रियों को अनेक बन्धनों में जकड़ दिया गया था।
आधुनिक काल- आधुनिक काल में नारियों की दशा बहुत खराब हो गयी। अनेक समाज सुधारकों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ उन्होंने उनकी स्थिति को सुधारने के लिए अनेक प्रयास किये। उदाहरणार्थ- स्वामी विवेकानन्द, दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राॅय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गाँधी, महात्मा ज्योतिबा राव फुले आदि।
नारी के जीवन में आने वाली बाधाएँ- नारी के कष्टों व उसकी दुर्दशा को देखकर मुझे सुमित्रानन्दन पन्त की कविता स्मरण हो जाती है।
''अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में दूध और आँखों में पानी।''
आज समाज में नारी के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। नारी का अशिक्षित होना। वह उन प्राचीन कुप्रथाओं व रूढ़ियों को मानने के लिए विवश है। जिनका कोई औचित्य नहीं है। समाज को नारियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। इसके लिए हम सभी को आगे जाना चाहिए। समाज में आज भी पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह प्रचलित है तो और दहेज के दानव ने विकराल रूप धारण कर लिया है जिसमें अनेक कन्याओं की बलि दी जा रही है। साथ ही आजकल कन्या भ्रूण हत्या एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में समाज में प्रचलित हो गयी है उन्हीं दहेज लोभियों को कविता के माध्यम से सम्बोधित करते हुए मैं कह रहा हूँ।
''चूर किये मासूम स्वप्न सब कन्या का जीवन मुरझाया। ओ मेरे युग के प्रहरी तुम, इस कलंक का करो सफाया।।''
 नारी जीवन के विकास के लिये प्रयत्न: नारी जीवन के विकास के लिए समाज को ही नहीं सरकार को भी प्रयत्न करना चाहिए सबसे पहले प्रत्येक बालिका को शिक्षित करना होगा और जिनकी आर्थिक स्थित अच्छी न हो उन्हें छात्रवृत्ति देकर शिक्षा की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए और समाज में जो दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, आदि सामाजिक कुरीतियों के लिए कड़े नियम कानून बनाने होंगे। समाज में जागरूकता पैदा करनी चाहिए। संसद में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण बिल पास कर उनके विकास के मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए।
अन्त में: जहाँ तक मेरा मानना कि नारी के विकास को लेकर प्रत्येक व्यक्ति ऊँची-ऊँची बातें करते हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। उदाहरण के तौर पर भारतीय संसद में ही महिला का कितना प्रतिनिधित्व है जो एक गणना मात्र है। हर नेता व मंत्रीगण महिलाओं के विकास की बातें करते हैं। लेकिन जहाँ संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण का मामला आता है। इसका विरोध होता है। ये है इनके चेहरे का असली मुखौटा। अतः मेरा विचार है कि समाज को नारी विकास में एक अहम् भूमिका निभानी होगी। समाज से कुप्रथा को बाहर कर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना होगा, जिसमें महिलाओं की समान भागीदारी होगी क्योंकि नारी और पुरूष दोनों एक गाड़ी के दो पहियों के समान है। जिससे परिवार रूपी संस्था चलती है। स्वस्थ परिवार से ही स्वस्थ समाज की स्थापना होती है। समाज में नारी के विभिन्न रूप है। माँ, पत्नी, पुत्री, बहन जो अपने कर्तव्यों का सफलता पूर्वक निर्वाह करती है। विश्वविख्यात साहित्यकार डाॅ0 रवीन्द्र नाथ टैगोर ने नारियों की गरिमा को बढ़ाते हुये कहा ''पवित्र नारी दुनिया की सर्वोत्तम कृति है।'' अतः समाज को नारियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। नारी शक्ति का प्रतीक है। इसी के साथ मैं अपना लेख समाप्त करता हूँ।
''कोमल है कमजोर नहीं, शक्ति का नाम ही नारी है।
सबको जीवन देने वाली, मौत तुझी से हारी है।।


जीवन की डोर

 जीवन की डोर बहुत कमजोर होती है। कब टूट जाये इसका कोई भरोसा नहीं। इस जीवन में कई मोड़ आते हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण मोड़ सुख तथा दुःख का होता है। जिस मनुष्य ने दुःख का अनुभव किया है वही सुख की कल्पना कर सकता है। आज तक बहुत कम लोगों ने जीवन का अर्थ समझा है। आज कल के तो नवयुवक जीवन का अर्थ यह बताते हैं कि जीवन सिर्फ मनोरंजन है। चाहे कोई मरे या जिए हमें उससे कोई मतलब नहीं है। अब यह दुनिया कितनी स्वार्थी हो गई है। उन्हें किसी से मतलब नहीं है। अगर मैं कुछ अच्छी बातें नवयुवकों को बताऊँ तो इसको एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देंगे। मैं 16 वर्षीय छात्रा हूँ। मैंने जीवन के थोड़े से पहलुओं को समझा है। मैं चाहती हूँ कि दूसरे मनुष्य जीवन के पहलुओं को समझो, उस पर अमल करे और उन पहलुओं को अपने जीवन में प्रयोग करें। पर ऐसा हो नहीं सकता है क्योंकि सबकी आँखों पर स्वार्थ तथा लालच की पट्टी बंधी हुई है। सभी मनुष्य स्वार्थी है।। मैं भी स्वार्थी हूँ। पूरे संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है। जो स्वार्थी न हो। सभी स्वार्थी हैं जैसे - (1) हम भगवान की पूजा इसलिए करते हैं कि भगवान हमारी सारी इच्छा पूरी करें तथा हमें सुखी रखें। (2) एक दोस्त दूसरे दोस्त से मेलजोल इसलिए बढ़ाता है क्योंकि मुसीबत में उसकी सहायता करे और जब उसकी मुसीबत टल जाती है तो वह अपने मित्र से मेलजोल खत्म कर लेता है। इससे पता चलता है कि वह उसका स्वार्थ था। अगर स्वार्थ के बारे में और बताऊँ तो उसका लेख कभी खत्म नहीं होता।


आज का मानव

 हम सब मनु जी की सन्तान हैं। इसलिए हम मनुष्य कहलाते हैं। हम मनुष्य या मानव कहलाने के अधिकारी तभी हो सकते हैं जब हमारे मानवी गुण यथादया, क्षमा, उदारता, साहस, निर्भीकता, सहनशीलता, सहिष्णुता, सत्यता, अहिंसा, अलोलुपता तथा संयम आदि समाहित हो।
 एक समय था जब मानव अपने कुटुम्ब, ग्राम, जनपद, राज्य देश तथा विश्व का शुभ चिन्तन करता था। हमें निम्न श्लोक कुछ इसी ओर संकेत करता सा प्रतीक होता है।
सर्वेच भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्वाणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत।।
 परन्तु खेद है। कि जब हम आज के मानव के संकीर्ण क्रिया-कलापों तथा उसके विचारों की ओर दृष्टिपात करते हैं। तो शर्म से हमारी नरजें नीचे हो जाती हैं। आज के मानव के क्या विचार हैं?
भगवान हमें ऐसा वर दो।
सारे जग की सारी सम्पत्ती मेरे घर भर दो!
भगवान हमें..................
कार्य हमारा जो भी होवे आप स्वयम् कर जावे!
हमतो मारे मौज मजे से, खाने को हल्लुवा ही पावे!!
जो भी हमसे टक्कर लेवे, उसको शक्कर आँखें ही गिर जावे!!
जिसकी ओर नजर भर देखूँ, उसकी आँखें ही गिर जावे!!
यदि हमको आ कर कर क्षुधा सताये तो खाने को घी शक्कर दो!!
भगवान हमें ऐसा वर दो!
 हाय! धन्य है। आज का मानव और उसके स्वार्थ भरे विचार। मैं आज के मानव की जो भी प्रशंसा करू, वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा।
 एक समय था जब हमारे पूर्वजो ने ''बसुधैव कुटुम्बकम'' का नारा ही नहीं दिया था बल्कि इसे अपने स्वभाव में ढाल कर के भी दिखाया था। कि पृथ्वी के सारे मानव मेरे कुटुम्बी हैं। और सारी धरती मेरा घर है। इसलिए हमारे पूर्वज गाया करते थे- 
विश्व है। मेरा सुन्दर धाम। करू मैं शत शत् इसे प्रणाम।।
विश्व में मंगल हो सब ओर। शंति का सागर करे हिलोर।।
विश्व हो सुन्दर स्वर्ग समान। मनुज का मनुज करे कल्यान।।
विश्व के मनुुज सभी है एक। एक में लगता हमें अनेक।। 
प्रभू का अंश जीव हर एक। भेद का करना, नहीं विवेक।।
 लेकिन जब हम आज के मानव के गीत सुनते हैं। तो हमें उसकी वैज्ञानिक बुद्धि पर तरस आता है। वह अपने कुटुम्ब के साथ तक रहना पसन्द नहीं करता है। उसका तो कहना है कि-
नोट: अरे आगे बढ़कर आओ! अरे आगे!!
  माता पिता को मारो गोली मां
 माता से नाता तोड़ो!
 अपना दरबा अलग बसाओ!!
 उनकी ड्यूटी खत्म हो गयी!
 तुम भी कुछ ब्यूटी दिखलाओ!!
अहा! आज का मानव की क्या सुन्दर धारणाएँ हैं। जिसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं है। एक समय था जब मानव अपनी जान की बाजी लगा कर दूसरों के हित के लिए अपने प्राण तक उत्सर्ग करने को उत्सुक रहता था। जिसके उदाहरण ऋषि दधिच, राजशिव, दानवीरकर्ण, राजा रन्तिदेव आदि दिये जा सकते हैं।
 परन्तु आज का मानव कैसा है। यह हम सब भली भाँति जानते है। दुराचार और विश्वासघास में तो वह अपने सगे सम्बन्धियों तक को नहीं छोड़ता। उसे अपने गुणों या दुर्गुणों की कोई परवाह ही नहीं है। उसे ईश्वर पर तो रंच-मात्र विश्वास नहीं रहा कि अगर हम गलत कार्य करेंगे तो ईश्वर हमें दंड देगा। चोरी, नशाखोरी, धूसखोरी, जमाखोरी, अनर्ग, प्रलाप तथा विश्वासघात तो आज के मानव की बाल-क्रीडाएं हैं। वह रात-दिन धन दौलत पाने के संकल्पों की माला फेरा करता है।
 आज का मानव विज्ञान में जो भी उपलब्धियाँ आज तक प्राप्त कर सका है। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन सब की प्राप्ति, हमारे पूर्वज ''प्राप्ति'' नामक सिद्धि के द्वारा प्राप्त कर लिया करते थे। तथा योग साधना के द्वारा ध्यान के द्वारा सारे संसार की जानकारी रखते थे।
 हमारे पूर्वजो ने अभी तक के मानवों की तीन श्रेणियाँ ही स्थापित की थी। परन्तु आज मानव चतुर्थ श्रेणी में आ गया सा प्रतीत होता है। चारों श्रेणियाँ इस प्रकार हैं।
1. देव कोटि - वे मानव जो अपना हित त्याग कर हित करते हैं।
2. मानव कोटि - वे मानव जो अपनों का भी हित करते हैं। और दूसरों का भी हित करते हैं।
3. दानव कोटि - वे मानव जो अपना तो हित करते हैं और दूसरों का अहित करते हैं।
4. पिशाच या प्रेत कोटि - वे मानव जो अपना भी अहित कर के दूसरों का अहित करते हैं।
आज के मानव को चाहिए कि वह अपने धर्म पंथ पर चलते हुये कबीर, गुरूनानक, महाप्रभू, चैतन्य देव, मुहम्मद साहब, ईसामसीह, मुईन उद्दीन चिश्ती, आदि के उपदेशों को ग्रहण करें। तथा आत्मनिरीक्षण करें। अपने दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का विकास करे। जाति रंग भेद, अस्पृश्यता आदि भेदभाव भूलकर ''वसुधैव कुटुम्बकम्, को साकार बनावे। अपने अन्धकार सत्य, दया, क्षमा उदारता, साहसिकता, निडरता, सहिष्णुता, सहनशीलता, अलोलुपता, संयमता, अहिंसा, आदि मानवीय गुणों का विकास करें। तथा विश्व को एक नया मार्ग प्रशस्त करें। हमारे विचार वाणी, कर्म पवित्र हो मंगल भावना से ओत प्रोत हो।
 आज के मानव को इस बात की महती आवश्यकता है कि वह विश्व कल्पमाण की कामना में रत रहने का संकल्प वृत ले, तभी विश्व कल्याण का स्वप्न साकार हो सकेगा।


होली की उपादेयता

श्री मनीष शर्मा
 विश्व मंे भारत उपमहाद्वीप ही ऐसा है जहाँ छः ऋतुओं का काल चक्र पूरा होता है। ऋतुराज वसंत के अगमन से प्रकृति में नवचेतना की बहार छा जाती है। रंग-बिरंग फूलों की चादर वाड़ियों में लहरा उठती है तो ऊसर भूमि में भी अंकुर फूट पड़ते हैं। नई उमंग उल्लास से मादकता नस नस में थिरकने लग जाती है। प्रत्येक प्राणीवान की। फूलों की सुगन्ध से गमकी शीतल मन्द समीर स्फुरित करती हुयी बहती है। खरीफ की फसल से प्राप्त भरपूर अन्न एवं रवी की पूर्ण रूपेण भरी फसल चनों के भाड़ गेहूँ जौ की इठलाती बालियों को भून कर खाने, होरी के सुखद कल्पना, नववर्ष सानन्द समृद्धिदायक होने की कामनाओं मंे उल्लासित मानव मन मादक वातवारण में झूम उठता है। कंठ स्वरों से स्वतः ही कीर्तिगान फूट पड़ता है। अपने प्रिय के प्रति अपने हाथ अधम्य शुभचिंतकों के प्रति।
 आदि से मानव को सर्वप्रथम जिस तत्व का ज्ञान हुआ वह तत्व है अग्नि वेदों में सर्व प्रथम ऋग्वेद का प्रथम यंत्र अग्रि का प्रतीक है। अग्रि के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। अग्नि देवता ही सर्वाधर हैं। निरूक्त में सविता को ही अग्नि कहा गया है। इस सृष्टि की उत्पत्ति भी अग्नि से ही निरूपित हुयी है। मानव ने रसना का स्वाद भी इसी से पाया तो भोजन को शरीर में 'जठारग्नि' के कारण पहचानने का आभास भी। रक्त जमा देने वाले भयंकर शीत के त्राण प्राप्त किया अलाव जला कर। मानव गहरे अन्धकार से घबड़ा कर उस महा शक्ति से प्रार्थना कर उठा 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
 ऐसे आत्म आनन्द दायक पर्व पर कोई स्वजन प्रियजन वंचित न रह जाये, अपने से दूर न चला जाय-इसके लिए मानव ने होली के आठ रोज पहले सभी सुभयात्रायें एवं शुभकार्य वर्जित कर दिये जाते हैं। कालान्तर में असुर राज हिरण्यकशिपु ने अपने ईश्वर भक्त पुत्र प्रहलाद के प्राण हरण हेतु अपनी राक्षसी बहिन होलिका के साथ अग्नि पीरक्षा का षडयंत्र रच कर आठ रोज पूर्व ही इस सामूहिक अग्नि पूजन अलाव को असुर राज के निर्णय से क्षुब्ध होकर सत्तप्त जनों ने इन आठ रोज के सभी शुभ कार्यों का परित्याग कर दिया। ईश्वर भक्त प्रहलाद अग्नि परीक्षा में खरा उतरा।
 मानव समुदाय ने जब यह दृश्य देखा तो आनन्द से झूम उठा मस्त हो गया। तथा उस प्रकृति की अद्भुत देन रंग विरंगे फूलों के रंगों से अपने प्रिय स्वजनों बन्धु बांधकों को रंगना शुरू कर दिया। कुमकुम केषर गुलाब मिश्रित सुगन्धित पावन जल से सरोवर कर दिया धरती के कण को। तभी से प्रारम्भ हुयी रंग लगाने की प्रथा का सुखद स्वरूप।
समानी वः आकृतिः समानाहृदयनि वः
समान यस्तु वो मनो यथा वः सुस सहासति
 आप सब के संकल्प अध्यवसाय एक प्रकार के ही आप सब के हृदय मंे एक रंग स्तर मन सत्य की कामना हो। आप सब के अन्तः करण में जो सत्य है शिव है-सुन्दर है जो समाज रूप से शुभकारी है-उसी की पूर्ण कृपा समान रूप से आप सब पर हो।
सबके लिए एक, एक के लिए सब समर्पित हो।


पुत्री

मनोज कुमार शर्मा
(1) ''हा दैव! क्या मेरे भाग्य में बदा था?मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था?''
पुरूषोत्तम दादा अपने गाँव के पुरोहित थे। वे ब्रह्माणों में उपाध्याय थे। बहुत गरीब थे। वर्ष का कोई ही ऐसा सौभाग्य का दिन होता, जिस दिन उन्हें और उनके बच्चों राजेश और विमला को पेट भर रोटी मिलती। राजेश 13 वर्ष का था तथा बिमला 16 वर्ष की बालिका थी।
गाँव के लोग रोज न सही तो होली दीवाली को अवश्य प्रसन्नचित रहते। मनोविनोद करते। परन्तु पुरूषोत्तम दादा के मुख पर बसन्त में भी प्रसन्नता की रेख न झलकती। हमेशा उनके घर में गमी सी रहती। बिमला को देखते ही उनके नयनाम्बर से आँसू टपकने लगते। हृदय अधीर हो जाता। रह रह कर कराह उठते ''हा दैव! क्या मेरे भाग्य में यही बदा था। मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था।
 बैसाख का महीना था। सुबह 8 बज चुके थे। ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। पक्षी बोल रहे थे। दीप्तिमान दिनकर प्रसन्नता पूर्वक दैनिक यात्रा में चल पड़े थे। आज पुरूषोत्तम दादा के मुख पर प्रसन्नता थी। कहीं की तैयारी कर रहे थे एकाएक आवाज आयी।
''दादा! जल्दी तैयार होइये।'' पुरूषोत्तम ने दरवाजा खोला। राजा को द्वार पर खड़े देख बोले ''तैयार हो गये राजा। आओ बैठो! मैं शीघ्र ही आता हूँ।'' ऐसा कहते हुये पुरूषोत्तम ने चारपाई बिछा दी और घर के भीतर चले गये।   
(2) भगवान भुवन भाष्कर तेजी से सर पर चमक रहे हैं। हवा कुछ मन्द हो चुकी है। धूप चमचमा रही थी। पास में कोई भी वृक्ष न था। गाँव भी दूर है। तीन पुरूष ऐसे समय में चले जा रहे हैं।
''अभी कितनी मंजिल है।'' ''कोई लगी है। राजा!  यहाँ कहीं पानी न मिलेगा।''
''यहाँ तो नहीं मिल सकता दादा। थोड़ी दूर और चलो आगे उस कुयें पर पिया जायेगा'' राजा ने कहा। कुछ दूर जाने पर पुरूषोत्तम ने फिर कहा ''राजा! अब नहीं चला जाता। इससे तो मृत्यु ही भली।'' ''धैर्य रखो दादा! अब की काम बन गया मानो मुक्ति मिल गयी।'' राजा ने पुरूषोत्तम से कहा। ''बन जाय तब तो ना।'' पुरूषोत्तम ने उदास होकर कहा। ''ईश्वर पर भरोसा रखो। वह चाहे तो सब ठीक हो जायेगा।'' राजा ने ढाढस बंधाते हुये पुरूषोत्तम का मुख कमल की तरह खिल गया। मानो रंक को निधि मिल गयी। सारी थकान और प्यास गायब हो गयी। प्रसन्न मुद्रा में बोले ''अच्छा राजा! चला! वहीं पानी पियेंगे। पहले बातचीत तो कर लो।'' पुरूषोत्तम की बातचीत सुनकर राजा, राजेश और पुरूषोत्तम की बातचीत सुनकर राजा, राजेश और पुरूषोत्तम दादा के साथ शुकुल के बैठके की ओर चल दिये। सभी प्रसन्न हैं। पुरूषोत्तम ने दीन भाव से प्रार्थना की। 'भगवान! अबकी बार काम करो। शुकुल के कण्ठ में बसो। शादी तय हो जाए! घर पहुँचते ही कथा सुनेंगे।'' इस प्रकार सभी प्रार्थना करते हये आगे बढ़े। 
(3) एक युवती अपने दृग बिन्दुओं से धवलित सुगंधित पुष्पों की माल पिरो रही है। हृदय में तीर सा लगा। हृदय व्याकुल हो उठा। आँखों में आँसू निकल पड़े। हाथ रूक गये। माला पिरोना बन्द हो गया। एक चीख के साथ बोल पड़ी ''हाय मेरे कारण ही दादा और राजेश को इतना दुःख उठाना पड़ रहा है। मैं कितनी आभागिन हूँ। खुद तो दुख सह ही रही हूँ साथ ही भाई बाप को भी ले डूब रही हूँ। भगवान! अब मेरे भाई बाप को इस दुःख से मुक्त करो।'' ऐसा कहती हुयी कुछ धीरज बाँधा। करे क्या। माला बेचकर ही सही। किसी न किसी प्रकार खाना आदि खिला कर अपने भाई बाप की तकलीफ कम करना चाहती है। माला पिरोना शुरू किया। आँखों से आँसू अब भी जारी है। द्वार पर किसी की आहट सुनाई पड़ी,धीरे-धीरे दरवाजा खुला। शान्त रूप से शान्ती रूप से शान्ती अन्दर आयी विमला की आँखों में आँसू देखकर कहा ''विमला! पागल तो नहीं हो गयी। जब देखो रोती ही मिलती हो। सदैव का रोना भी ठीक नहींे होता। कुछ तो धीरज बाँधों।'' शान्ती को देखते ही विमला ने आँसू पोछे तथा मुद्रा बदलने की चेष्ठा करते हुये दवे स्वर में कहा ''क्या करूँ शान्ती?अब नहीं सहा जात। दादा तथा राजेश की हालत नहीं देखी जाती है। मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं है। चिन्ता जो है सो भाई बाप की। जो मेरे लिये इतने कष्ट सह रहे हैं। मुझे क्या न भी कुछ हुआ तो मर कर तो शान्ति पा ही सकती हूँ।'' ''घबड़ाओ नहीं बहिन! समय सदैव एक सा नहीं रहता। धैर्य रखा! अबकी भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो गया।'' इस प्रकार कहते हुये शान्ती ने आगे कहा ''लो यह आटा! खाना बनाओ। दादा भैया आते होंगे। थके भूखें होंगे खाना खिलाना। ''नहीं बहन, मैं यों नहीं लूँगी। दादा ने शिक्षा दी है कि बिना किसी प्रकार की सहायता किये किसी से कोई चीज कभी न लेना चाहिए। या तो हमें कोई काम बताओ वरन् ऐसे मैं नहीं लूँगी बहन।'' विमला ने शान्ती से कहा। विमला की बात पर शान्ती ने कहा ''बहन मैं तुम्हें अपनी तरफ से देती हूँ। जाओ खाना बनाओ। घर ही तो यह भी है।'' ''नहीं बहन! कुछ तो कहना ही पड़ेगा'' विमला ने कहा। शान्ती ने कहा 'अच्छा बहन! यदि यही इच्छा है तो मुझे यह माला दे दो।'' ऐसा कह कर विमला प्रसन्न मुख माला पिरोने लगी।
(4) बेनी माधव शुक्ल अपने बैठके में बैठे थे। बगल में चारपाई पड़ी थी। राजा राजेश तथा पुरूषोत्तम के साथ जाकर चारपाई पर बैठ गये। ''कहो भाई राजा! कैसे कष्ट किया आज यहाँ तक ।'' बेनी माधव ने राजा से पूछा। ''यह हमारे पुरोहित जी हैं। बहुत गरीब है। अपनी लड़की की शादी आपके श्याम बाबू के साथ करना चाहते हैं। इसी सम्बन्ध में आया हूँ।'' राजा ने कहा। ''ठीक है। परन्तु ----'' बेनीमाधव आगे कुछ बोल न सके। ''रूक क्यों गये शुकुल जी! जो बात हो साफ-साफ कहो।'' राजा ने बेनीमाधव से पूछा। ''और कोई बात नहीं राजा! परसों परोसिन के भागीरथ मिश्रा आये हुये थे। लड़की मिडिल पास थी। वे 800 रु0 दहेज में देना चाहते थे। और हम 1000 माँग रहे थे। रही बात आपकी। आप तो हमारे मित्र ही हैं। जैसे हमारा लड़का वैसे आपका। जैसा उचित समझें तैं कर लें। यदि आप ही बता दीजिए शुुकुल जी। पं0 जी की भी स्थिति हम बता चुके, अब आप भी हैं पं0 जी भी हैं, तैंकर लीजिए।'' राजा ने पीछा छुड़ाते हुये कहा। ''शुकुल जी हम बहुत गरीब हैं केवल लड़की ही हमारे पास समझिये। राजा जी सब हालत हमारी जानते हैं। अब हम आपकी शरन में आये हैं। जैसे बने धर्म रखिए जैसी हमारी लड़की वैसे आपकी।'' पुरूषोत्तम ने हाथ जोड़कर बेनीमाधव से दीन शब्दों में कहा। ''अरेे भाई आप गरीब हैं तो 100, 200 कम दे दीजिए।'' ''हमारे पास इस समय 800 पैसे का भी ठिकाना नहीं हैं शुकुल जी। हाँ लड़की अलवत् योग्य और सुन्दर है। उसमें कोई, सक नहीं है। राजा से पूँछ सकते है। जो कुछ हम छिपाते है।'' ''हाॅ! लड़की तो सुन्दर सुशील और योग्य है'' राजा ने बेनीमाधव से कहा। ''योग्यता और सुन्दरता को चूल्हे लगाना है पर जो चार जगह की रीति है, वही हम भी माँग रहे हैं। क्या अधिक माँग रहे हैं।'' बेनीमाधव ने कुछ जोश से कहा। ''आपके लिये नहीं परन्तु मेरे लिए तो पहाड़ है शुकुल जी'' राजेश ने कहा। ''अरे पहाड़ है तो बैठाले रहो। कहीं सेंत की शादी थोड़े ही हो जाती है।'' क्रोध से बेनीमाधव ने कहा। शुक्ल जी शादी कर लीजिए गरीब है। आपका भी भला होगा। जो होगा 100, 200 हम चन्दा लगा के दे देंग।'' बेनीमाधव ने कहा। ''शुकुल मैं कुछ नहीं दे सकता। मेरे कन्या का धर्म आप ही के हाथ है चाहे राखें चाहे बोर दें।'' रोते हुये पुरूषोत्तम ने अपना मस्तक बेनीमाधव के पैरों पर रख दिया। ''तो क्या तेरे लिए लड़के की जिन्दगी खो दूँ। चला है असगुन करने। जाइये शादी नहीं होगी।'' बेनीमाधव पैर छिटक कर अन्दर चले गये। सभी निराश हो गये। यह 8 वीं बार पुरूषोत्तम को दहेज के कारण लौटना पड़ा। अपने भाग्य पर रोते घर की ओर चल दिया।
(5) दिन भर की मंजिल के बाद दैनिक पथिक आराम की लालसा से अस्ताचल पर जा डटा। खग वृन्द मोहक स्वरों से जयघोष कर रहे थे। पवन भी मंद गति से स्वागत कर रही थी। पवन भी कमलिनी कुल अत्यन्त दुखी था। पुरूषोत्तम दादा अपनी चारपाई पर पड़े थे। एकाएक युवती विमला की मूर्ति उनके सामने आ उपस्थित हुई। ध्यान आते ही आँखां में आँसू आ गये। ''हे सूर्य देव। क्या मेरी विमला कभी सुख ऐश्वर्य की अधिकारिणी न हो सकेगी। अब आप ही मेरे धर्म की रक्षा कीजिए। मेरी विमला का सोहाग अमर कीजिए।'' पुरूषोत्तम ने रोते हुये प्रार्थना की। पुरूषोत्तम की आँखों में आँसू देख राजेश उत्तेजित हो उठा ''दादा अब मुझसे नहीं रहा जाता। खूब देख चुका समझ चुका और सहन कर चुका। मुझे आज्ञा दीजिए। जब तक इन दहेज वालों को दहेज न अदा कर दूँगा तब तक विश्राम न लूँगा।'' राजेश ने क्रोध से कहा। ''नहीं राजेश! ऐसा न सोचो मुझे कुछ दिन जीने दो। ऐसा गलत विचार हृदय से निकाल दो।'' पुरूषोत्तम ने आँसू पोंछते हुये कहा।
 ''पिता जी, मुझे चैन नहीं पड़ सकता। बहन विमला के जीवन के लुटेरों को उसका मजा चखायें बिना मुझे चैन नहीं पड़ सकता'' राजेश ने कहा। ''बेटा! पागल न बन। बोश का कार्य कितना कठोर, निन्दनीय है। क्या तुम भी बोश का कार्य करोगे।'' पुरूषोत्तम ने आश्चर्य से कहा। ''मेरी समझ में नहीं आता कि आप बोश के नाम से क्यों घृणा करते है।। इन जुल्मी अन्यायियों, स्वार्थियों के प्रति आप इतने दार क्यों हैं, आखिर इन्हीं चाण्डालों के परिवार से ही आज यह दिन देखना पड़ा वरन् बहन बिमला एश्वर्य की अधिकारिणी ही क्यों न हो जाती।'' रमेश ने कहा। पुरूषोत्तम ने कहा ''पुत्र मरते दम तक मैं अपने स्वार्थ सेे दूसरों को दुःखी नहीं देख सकता। यह स्वार्थपरता की बात तो इन दहेज वालों के लिए ही उचित होगी।'' रमेश ने कहा ''आखीर कब तक आप ऐसा सोचेंगे और सहेंगे दादा! सीधी अंगुली घी नहीं निकलता। जब तक ये मेरी अवस्था को प्राप्त होंगे। इनका जुल्म खतम हो न होगा। इन्हीं के जुर्मो से बहन बिमला का जीवन काटों से बिंध गया है। असंख्या गरीब घराने की बहन बेटियों को आत्महत्या करनी पड़ी, तमामों को भ्रष्टाचार के लिए बाध्य होना पड़ा। यह याद आते ही खून उबल पड़ता है।'' ठीक है राजेश! तुम्हें मालूम है कि मैं हमेशा लोगों को शिक्षा देता रहा हूँ कि स्वार्थ के लिए दूसरों को न तड़पाओं। यदि मैं कुमार्ग पर चलूं तो लोग क्यों कर मेरी बात मानेंगे उल्टे खिल्ली उड़ावेंगे। राजेश! शिवि ऐसे महान् व्यक्तियों ने अपना शरीर त्याग कर परोपकार किया है! बेटा! तुम्हीं बताओ यदि मैं अब विचार बदल दूँ तो निन्दा करेंगे।'' पुरूषोत्तम ने राजेश से कहा। ''इस दहेज की प्रथा विवरण करके असंख्य गरीब बहनों का सोहाग अमर करना, क्या पाप होगा। दादा। यदि मेरा बस चले तो इन अन्यायिायों को उन अबलाओं की भाँति एक बार अवश्य तड़पा दूँ।'' राजेश ने क्रोध से कहा। ''बेटा! यह सब ठीक है। परन्तु मेरी बुढ़ापे के तुम ही सहारे हो। यदि तुम्हें मेरा कहना न मानोगे तो---।'' आगे पुरूषोत्तम बोल न सके। गला रूंध गया। आँखों से आँसू टपकने लगे। पिता के आँखों में आँसू देख राजेश का जोशीला हृदय भी क्षण भर के लिए अधिर हो उठा। उसके दृग से बिन्दु लुढ़क कर कपोलों से मिले।  
(6) संध्या का समय है, पुरूषोत्तम के गाँव में आज बड़ी चहल पहल है। आज किशोर की बारात आयेगी। सभी प्रसन्न हैं। बाजे की आवाज गाँव में गूँजने लगी। पुरूषोत्तम दादा द्वार पर बैठे अपने भाग्य पर रो रहे थे। बाजे की आवाज कान में पड़ते ही हृदय व्याकुल हो उठा। बोले 'हे देव! क्या मेरे भाग्य में यही बदा था। मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था।'' भगवान अब तो दया करो। विमला से छोटी-छोटी लड़कियों की शादी हुयी जा रही है। दहेज वालों, कुछ तो रहम करो। मेरी बेटी की भी नैया पार करो।'' आँखों से आँसू निकलने लगे। खिसक कर कमरे में चले गये। मुँह ढक कर भाग्य पर रोते चारपाई पर बैठ गये धीरे-धीरे द्वार खुला विमला भीतर बोली ''दादा! उठो चलो खाना खालो।'' ''नहीं बेटी! अभी नहीं फिर खा लूँगा।'' ऐसा कर कर पुरूषोत्तम ने आँसू पोंछे रोते पिता को देख विमला की जटरग्रि भभक उठी सोचा ''आह! मेरे कारण मेरे पिता की यह दशा?हाय! मैं कितनी अभागिनी हूँ। हाय रे समाज आज तूने मुझे अच्छा अवसर दिया। आज ही मैं पुनः भारतीय नारियों की कहानी दुहरा सकूँगी। चुपचाप किवाड़ा खोला और बाहर निकल गई। चलते-चलते जंगल में पहुँच गयी सोचा! आत्म समर्पण कर दूँ। संभव है इससे पिता को दुःख कम हो जाय।'' रात के 10 बज गये हैं। विमला चुपचाप चली जा रही है। एकाएक पीछे किसी की आहट सुनाई पड़ी। विमला ने पीछे देखकर कहा। कौन! तुम कौन हो।'' ''मेरा नाम बोश है।'' युवक ने उत्तर दिया। ''बोश आखीर तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो।'' विमला ने पूछा। ''सिर्फ इसलिए कि तुम्हारी आड़ में मैं उन दहेज वालों को दहेज का मजा चखा सकूँ।'' बोश ने क्रोध से कहा। जब मुझे उन दीन दुखियों की याद आती है। जिन्हें इसी दहेज की प्रथा के कारण आत्म हत्या तथा भ्रष्टाचार के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। बहन! मेरे इस दस्यु वेश ग्रहण करने का केवल यही एक कारण है। हाँ! यह बता कि तुम इतनी रात को यहाँ कैसे?'' ''विमला ने बात छिपाते हुये कहा ''भाई राजेश की खोज में।'' ''अच्छा तो चलो! राजेश दस्यु किले में हैं। वहीं मिलेगा।''
(7) ''अरे यह क्या! इसमें आदमी कैसे दिखाई दे रहा है।'' ''वही चोर! सिघाड़े तोड़ रहा है। परन्तु यह तो बेहोश पड़ा।''
दोनों युवक सरोवर में हिले और एक वृद्ध को खींचकर बाहर लाये। ''हाय! हाय! कैसी सोचनीय दशा है। शरीर पर साबित कपड़े भी नहीं हैं। बेचारा बुड्ढा जाने कहाँ का निवासी है। क्या मुसीबत हो। प्राणान्त की लालशा से सरोवर की शरण ली है'' कुछ अन्धेरा हो गया था। अन्धेरी रात थी साफ सुझता नहीं था। दोनों युवकों को बुड्ढे की दशा पर तरश आया उन्होंने उसे कन्धे में उठाया और घर ले आये।
''कहो राजेश! यह क्या है।''
''बेचारा गरीब वृद्ध। इसकी दसा पर मुझ दस्युओं का भी हृदय पिघल गया।''
''तुमने बहुत अच्छा किया। हमने विमला को मरने से बचाया। आप लोगों ने वृद्ध को। आज का दिन धन्य है। जन्म के पाप से मुक्त हो गये।'' --बोश! तुमने विमला की जान बचाई। कहां है यह विमला! कहां की रहने वाली है।'' बोस-''वही विमला। जिसे तुम अच्छी तरह जानते हो।'' राजेश-''बोश हमारा हृदय फटा जा रहा है। सच बताओ। कौन और कहाँ है।''
बोश-'वही राजेश। तुम्हारी ही बहन विमला।' राजेश-मेरी बहन विमला। कहां है। ''वृद्धा को जमीन पर लिटा दिया और विमला की ओर बढ़ा। विमला भी भाई राजेश को पहिचान गयी। उसे गले से लगा लिया। ''भैया राजेश! तुम धन्य हो। दस्युवेश में भी तुमने वृद्ध को बचाया धन्य। चलो उसकी चिकित्सा करनी चाहिए। बाद में मेरी कहानी। सभी वृद्ध को घेर कर बैठ गये दीपक उठा कर नजदीक लाया गया। विमला ने ही वृद्ध के मुख से कम्बल हटाया। मुख देखते ही चिल्ला उठी। ''दादा! दादा! दादा! आपके प्रस्ताव हेतु मैंने आत्म हत्या उचित समझी थी। आप पहले ही चल दिये हाँ दादा।'' विमला मूर्छित होकर गिर पड़ी।
(8) ''पुत्री विमला! क्या तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करोगी, मेरे वचन का पालन करोगी।'' पुरूषोत्तम ने कहा। विमला पुरूषोत्तम की बात सुनकर बोली ''दादा! मैं आपकी प्रत्येक बात मानने को तैयार हूँ। आप शीघ्र ही आज्ञा दीजिए।'' 
 ''पुत्री! मैं तुम्हें आज से बोष के हाथ सौंपता हूँ जिसका नाम सुनने मात्र से मुझे घृणा थी, समाज के द्वारा पंगु बना दिये जाने पर आज से बोश को दामाद के रूप में स्वीकार करने का निश्यच कर लिया है। क्या तुम मेरे अपराध को क्षमा करके मुझे पुत्रि-भार से मुक्त करोगी।'' पुरूषोत्तम ने आँसू पोंछते हुये करूण स्वर में विमला से कहा। ''दादा! मुझे आपकी प्रत्येक बाद मंजूर है।'' विमला ने उत्तर दिया। विमला ने इस उत्तर को सुनते ही पुरूषोत्तम का मुख कमल के समान खिल उठा। राजेश को बुलाया। उससे भी पूछा। राजेश ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब पुरूोत्तम ने वोश को बुलाया और अपनी पुत्री विमला का उसके साथ विवाह कर दिया। बोले ''पुत्री! मेरी अभिलाषा, पूर्ण करना। अपने संतान के बल पर समाज के अन्धकाल को दूर करना।''
हृदय और मस्तिष्क
डाॅ0 जगदीश शर्मा 'निर्मल', एम0 ए0 पी-एच0 डी0, प्रबन्ध ''भौतिक वादी युग ने मनुष्य को यंत्रवत बना दिया है। भौतिकता की अधिकता के कारण हृदय और मस्तिष्क का जो सुखद सम्बन्ध था वह विच्छिन्नहो गया है मानवता में स्वार्थ हिंसा और घृणा का अधिक्य हो रहा है। लेखक ने हृदय और मस्तिष्क के कल्याणकारी सम्बन्ध के विषय में अपने विचार प्रगट किये हैं।''
उत्थान-पतन जीवन-मरण दुःख-सुख एवं दिन-रात का जो शाश्वत सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध हृदय और मस्तिष्क के मध्य है।
 शरीर में गर्दन के ऊपरी हिस्से को जिसमें आँख, नाक, मुंह, शिर आदि अंग शरीर के प्रहरी की भाँति खड़े हैं- इसी  भाग के अन्दर सोचने विचारने एवं अनुभव की सूक्ष्म तत्व रूपी शक्ति को मस्तिष्क कहते हैं। मानव के पास यही वह दैवी देन है कि जिसके बल पर वह श्रेश्ठतम प्राणी सिद्ध हुआ है। प्रगतिशील युग की सम्पूर्ण क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु मस्तिष्क है! इसे शरीर का नायक कहो पालक कहो अथवा कर्ता कहो।
 बुद्धि मस्तिष्क की एक मात्र परामर्श दात्री है, किन्तु मस्तिष्क के आदेश की अवहेलना करना उसके सामाथ्र्य की बात नहीं! जिस प्रकार शरीर में आत्मा का वाश है उसी प्रकार मस्तिष्क में बुद्धि का! इसका रूप रंग देखने को न मिलेगेा, किन्तु इसके अस्त्वि को स्वीकार न करना किसी अविवेकी व्यक्ति के ही साहस के सम्भव है।
 मस्तिष्क के प्रत्येक आदेश पर बुद्धि अपना निर्णय देती है, बुद्धि के निर्णय में अतीत, वर्तमान, एवं भावी की झाकियों का समावेश होता है! अर्थात् किसी भी कार्य का क्या रूप रहा अथवा अमुक कार्य से मिलते जुलते कार्योे का क्या रूप होगा! तथा इस विशिष्ट कार्य का क्या रूप है एवं आगे चलकर इसकी क्या रूप रेखा बनेगी बुद्धि इन सब पर गम्भीरता पूर्वक चिार करती है!
 विषय-मंथन के बाद तत्व रूपी निर्णय मस्तिष्क के समक्ष प्रस्तुत करती है। मस्तिष्क निर्णय को स्वीकार भी कर लेता है किन्तु कभी विशेषाधिकार से निर्णय को ठुुकरा भी देता है! परिणाम अच्छे भी होते हैं बुरे भी! यह आवश्यक नहीं कि बुद्धि का पत्येक निर्णय अपने में पूर्ण एवं सही ही हो। हाँ अधिकार सही होते हैं। किन्तु जब बुद्धि स्वार्थ के सहयोग से किसी विषय पर विचार करती है तब व्यक्तिगत निष्ठा से पूर्ण मानवी धरातल पर उपहास के कारण अवश्य बनते हैं। इसके अतिरिक्त दैवी परिस्थितियों एवं आकस्मिक घटना मंे बुद्धि के निर्णय में परावर्तन ला देती है। यथा परिणाम भी निम्न दशा में होते हैं। अस्तु कभी-कभी बुद्धि की अवहेलना भी कल्याण कारी हो जाती है।
 मनुष्य की प्रवृत्तियों के अनुसार ही बुद्धि अपना आसन ग्रहण करती है। एक विवेकशील व्यक्ति चोरी करके अपनी इस विवेकशीलता पर लज्जा और ग्लानि का अनुभव करेगा वही कार्य एक अशिक्षित एवं संकीर्ण वृत्ति का व्यक्ति करेगा तो सम्भव है वह अपनी इस धृष्टता युत्त चातुरी पर प्रसन्न ही हो! प्रथम प्रकार के व्यक्ति के मस्तिष्क ने जब चोरी करने की घोषणा की होगी तब निश्चय ही बुद्धि ने सौ बार चोरी न करने का विरोध किया होगा और वही कार्य जब अशिक्षित जीव ने किया होगा तब इस बुद्धि ने दो एक बार ही विरोध किया हो सम्भव है न भी विरोध किया हो। 
 सुसंस्कृत व्यक्तियों की बुद्धि अनुचित कार्य करने का विरोध करती है! समाज में उनका स्थान! उन्हें अपने कृत्य पर सोचने की विशेष क्षमता देता है! यह भी सही है कि शक्ति एवं साधन के अभिमान में चूर श्रेष्ठतम व्यक्ति भी अमानवीय व्यक्तित्व कर परिचय देते हैं, किन्तु जब उनके जीवन में ऐसी घटनायें घटने लगे तो उनके अस्तित्व का अवसान समझना चाहिए!!
 मस्तिष्क कार्य के प्रति करना है- हृदय से करूण दया, क्रोध, भय, घृणा आदि भाव लेकर बुद्धि अच्छे और बुरे उचित और अनुचित विचार का परिणाम की ओर इंगित करती है।
 मस्तिष्क यदि विचारों की गहराई नापने का साधन है, तो बुद्धि विचारों का सागर है, जहाँ से भाव तरेंगे उठकर विचारत्मक नौका पर फल रूपी मल्लाह का स्वागत करती है। हृदय से जैसे-जैसे भाव उठेंगे बुद्धि वैसा ही विचार करेगी, अतः यदि कहा जाय कि बुद्धि हृदय की चेरी है तो अतिशयोक्ति न होगी।
 किसी के दुख से दुखी न होना, सुख से प्रसन्न न होना हृदय हीनता का प्रतीक है! हाँ यदि व्यक्तिगत किसी शत्रु के प्रति ऐसी भगवान बन जाय तो क्षम्य है, किन्तु यदि यह भावना प्रवृत्ति बन जाय तो अवश्वमेव ऐसा व्यक्ति स्त्री हो या पुरूष, बालक हो या वृद्ध, कठोर, पत्थर, निर्दयी अथवा जो कुछ भी इसी अर्थ में कहा जाय थोड़ा ही समझना चाहिए।
 अब प्रश्न उठता है कि हृदय पत्थर कठोर समान कठोर भी होता! जिसमें दया प्रेम सहानुभूति का अभाव होता है! जिसमें स्नेह, करूणा, परोपकार की भावना मिट जाती है ऐसा जीव कठोर से कठोर, पतित से पतित दानवी कुकृत्य को सरलता से कर लेता है! मनुष्यों की हत्या उसके लिए कीड़े मकोड़ो से भी कम महत्व रखती है! दूसरे की इज्जत से वह खिलवाड़ कर सकता है! समाज का भय आन्तिरिक ग्लानि एवं राजकीय आतंक उसके कार्यों में अवरोध उत्पन्न नहीं कर पाते! समाज उन्हें हृदय से सम्मान नहीं देता-किन्तु 'बिन भय होय न प्रीत' तुलसी दास इन शब्दों का लाभ उठा कर यह लोग भी समाज से सम्मान करा लेते हैं! डाकू, चोर, व्यभिचारी कातिल आदि सब इसी पथ के पथिक हृदय कितना व निर्दयी हो सकता है इस पर हमने विचार किया अब हृदय के दूसरे पक्ष पर भी विचार करना आवश्यक है! यह हृदय का दूसरा पक्ष पहले पक्ष की विपरीत दिशा का नेतृत्व करता है! किसी को दुःखी देख कर घन्टों उस दुःख का अनुभव करना, किसी पीड़ा देख कर अपनी आँखों को सावन भादों की भाँति अश्रु वर्षा करना! हाय! यह कितना दुःखी है। भगवान ने इसे क्यों इतना कष्ट दिया! इसकी पीड़ा को मैं कैसे हरण कर पाऊँ! आदि भावों में स्वयं अपने को वैसा ही कष्टमय अनुभव करने लगा! तथा किसी को हर्षित, आनन्दित एवं सुखी देख कर स्वयं आनन्द का अनुभव करने लगा तथा तदाम्य की स्थापना कर लेना एक दयालु, सौहार्द एवं साधु हृदय की निशानी है।
 प्रश्न उठता है कि पत्थर अधिक कठोर मोम से अधिक तरल एक हृदय के यह दो भिन्न रूप हो जाते हैं?हृदयों की भिन्नता में वतावरण एवं परिस्थितियों तथा वंशानुक्रमिकता ही मूल कारण हैं! व्यक्ति विशेष का पालन पोषण जैसे वातावरण में होगा उसका हृदय वैसा ही बनेगा! किन्तु पुनः प्रश्न उठता है कि एक ही व्यक्ति कभी कठोंरता एवं कभी दयालुता का परिचय देता है। मनुष्य जाति हत्या करने वाला भी चीटियों को चीनी चुगाता देख जाता है क्यों?यह परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्ति की मनोदशा एवं प्रवृत्तियों को बदल देती है जिससे हृदय परिवर्तन के लिए बाध्य हो जाता है!
 आज के वैज्ञानिक युग के प्रगतिशील मानव बुद्धि एवं मस्तिष्क के समन्वय से जो नवीन संस्कृति पर सृष्टि का झीना आवरण देता जा रहा है! उसका रूप निरन्तर कल्याणकारी होगा यह नहीं कहा जा सकता! हाँ अप्रा कृतिक एवं अमानवीय प्रवृत्तियों के पनपने की निरन्तर सम्भावना बढ़ती जा रही है! विश्व रंग मंच पर स्वार्थी का यह अभिनय खेला जा रहा है कि मानवता निशिवासर सशंकित क्षणों में जीवन व्यतीत कर रही है। ऐसा क्यों है?यदि कुछ समय के लिए ही सही भूल से अथवा उपेक्षा भावना से ही विचार कर लिया गया होता तो निश्चय ही यह पहेली न रह जाती!! वस्तुतः मस्तिष्क की कलाकारी में मानव ने हृदय के योग से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया। हृदय निरादर के साथ मस्तिष्क का प्रत्येक कृत्य अकल्याणकारी ही होगा। आधुनिक युग इसका प्रतीक है।
 अस्तु यदि भावी जीवन को तरह लचीली चीज और कोई नहीं है। बन्द की भाप की तरह जितना दबाव इस पर पड़ता है उतनी ही शक्ति से यह दबाव के साथ बढ़ती है, जितना अधिक का इस पर आ पड़ता है उतना ही अधिक यह उसे पूरा कर देती है। अज्ञात
मनुष्य का हृदय एक अथाह सागर है, जहाँ कमल के फूलों के साथ रत्क की प्यासी जोंकें भी उत्पन्न होती रहती हैं। अज्ञात
हाथ हाथ का अनुसरण करते हैं, नेत्र पर ठहरते हैं और इस प्रकार माहरे हृदय का कार्य प्रारम्भ होता है।