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Tuesday, May 6, 2025

बद्रीनाथ धाम

 एक बार श्री हरि (विष्णु) के मन में एक घोर तपस्या

करने की इच्छा जाग्रत हुई। वे उचित जगह की तलाश

में इधर उधर भटकने लगे।

खोजते खोजते उन्हें एक जगह तप के लिए सबसे अच्छी

लगी जो केदार भूमि के समीप नीलकंठ पर्वत के

करीब थी। यह जगह उन्हें शांत, अनुकूल और अति

प्रिय लगी।

वे जानते थे की यह जगह शिव स्थली है अत: उनकी

आज्ञा ली जाये और यह आज्ञा एक रोता हुआ

बालक ले तो भोले बाबा तनिक भी माना नहीं कर

सकते है।

उन्होंने बालक के रूप में इस धरा पर अवतरण लिए और

रोने लगे। उनकी यह दशा माँ पार्वती से देखी नही

गयी और वे शिवजी के साथ उस बालक के समक्ष

उपस्थित होकर उनके रोने का कारण पूछने लगे।

बालक विष्णु ने बताया की उन्हें तप करना है और

इसलिए उन्हें यह जगह चाहिए।

भगवान शिव और

पार्वती ने उन्हें वो जगह दे दी और बालक घोर

तपस्या में लीन हो गया।

तपस्या करते करते कई साल बीतने लगे और भारी

हिमपात होने से बालक विष्णु बर्फ से पूरी तरह ढक

चुके थे, पर उन्हें इस बात का कुछ भी पता नहीं था।

बैकुंठ धाम से माँ लक्ष्मी से अपने पति की यह हालत

देखी नही जा रही थी। उनका मन पीड़ा से दर्वित

हो गया था।

अपने पति की मुश्किलो को कम करने के लिए वे स्वयं

उनके करीब आकर एक बेर (बद्री) का पेड़ बनकर उनकी

हिमपात से सहायता करने लगी। फिर कई वर्ष गुजर

गये अब तो बद्री का वो पेड़ भी हिमपात से पूरा

सफ़ेद हो चुका था।

कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण

किया तब खुद के साथ उस पेड़ को भी बर्फ से ढका

पाया। क्षण भर में वो समझ गये की माँ लक्ष्मी ने

उनकी सहायता हेतू यह तप उनके साथ किया है।

भगवान विष्णु ने लक्ष्मी से कहा की हे देवी, मेरे

साथ तुमने भी यह घोर तप इस जगह किया है अत इस

जगह मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा की जाएगी। तुमने

बद्री का पेड़ बनकर मेरी रक्षा की है अत: यह धाम

बद्रीनाथ कहलायेगा।

भगवान विष्णु की इस मंदिर में मूर्ति

शालग्रामशिला से बनी हुई है जिसके चार भुजाये है।

कहते है की देवताओ ने इसे नारदकुंड से निकाल कर

स्थापित किया था।

यहाँ अखंड ज्योति दीपक जलता रहता है और नर

नारायण की भी पूजा होती है | साथ ही गंगा की

12 धाराओ में से एक धार अलकनन्दा के दर्शन का

भी फल मिलता है।

विश्वास की शक्ति

किसी गांव में राम नाम का एक नवयुवक रहता था। वह बहुत मेहनती था, पर हमेशा अपने मन में एक शंका लिए रहता कि वो अपने कार्यक्षेत्र में सफल होगा या नहीं!

कभी-कभी वो इसी चिंता के कारण आवेश में आ जाता और दूसरों पर क्रोधित भी हो उठता।

एक दिन उसके गांव में एक प्रसिद्ध महात्मा जी का आगमन हुआ।

खबर मिलते ही राम, महात्मा जी से मिलने पहुंचा और बोला,

“महात्मा जी मैं कड़ी मेहनत करता हूँ, सफलता पाने के लिए हर-एक प्रयत्न करता हूँ; पर फिर भी मुझे सफलता नहीं मिलती। कृपया आप ही कुछ उपाय बताएँ।”

महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा- बेटा, तुम्हारी समस्या का समाधान इस चमत्कारी ताबीज में है, मैंने इसके अन्दर कुछ मन्त्र लिखकर डालें हैं जो तुम्हारी हर बाधा दूर कर देंगे। लेकिन इसे सिद्ध करने के लिए तुम्हे एक रात शमशान में अकेले गुजारनी होगी।”

शमशान का नाम सुनते ही राम का चेहरा पीला पड़ गया,

“लल्ल..ल…लेकिन मैं रात भर अकेले कैसे रहूँगा…”, राम कांपते हुए बोला।

“घबराओ मत यह कोई मामूली ताबीज नहीं है, यह हर संकट से तुम्हे बचाएगा।”, महात्मा जी ने समझाया।

राम ने पूरी रात शमशान में बिताई और सुबह होती ही महात्मा जी के पास जा पहुंचा,

“हे महात्मन! आप महान हैं, सचमुच ये ताबीज दिव्य है, वर्ना मेरे जैसा डरपोक व्यक्ति रात बिताना तो दूर, शमशान के करीब भी नहीं जा सकता था। निश्चय ही अब मैं सफलता प्राप्त कर सकता हूँ।”

इस घटना के बाद राम बिलकुल बदल गया, अब वह जो भी करता उसे विश्वास होता कि ताबीज की शक्ति के कारण वह उसमें सफल होगा, और धीरे-धीरे यही हुआ भी…वह गाँव के सबसे सफल लोगों में गिना जाने लगा।

इस वाकये के करीब १ साल बाद फिर वही महात्मा गाँव में पधारे।

राम तुरंत उनके दर्शन को गया और उनके दिए चमत्कारी ताबीज का गुणगान करने लगा।

तब महात्मा जी बोले,- बेटे! जरा अपनी ताबीज निकालकर देना। उन्होंने ताबीज हाथ में लिया, और उसे खोला।

उसे खोलते ही राम के होश उड़ गए जब उसने देखा कि ताबीज के अंदर कोई मन्त्र-वंत्र नहीं लिखा हुआ था…वह तो धातु का एक टुकड़ा मात्र था!

राम बोला, “ये क्या महात्मा जी, ये तो एक मामूली ताबीज है, फिर इसने मुझे सफलता कैसे दिलाई?”

महात्मा जी ने समझाते हुए कहा-

"सही कहा तुमने, तुम्हें सफलता इस ताबीज ने नहीं बल्कि तुम्हारे विश्वास की शक्ति ने दिलाई है। पुत्र, हम इंसानों को भगवान ने एक विशेष शक्ति देकर यहाँ भेजा है। वो है, विश्वास की शक्ति। तुम अपने कार्यक्षेत्र में इसलिए सफल नहीं हो पा रहे थे क्योंकि तुम्हें खुद पर यकीन नहीं था…खुद पर विश्वास नहीं था। लेकिन जब इस ताबीज की वजह से तुम्हारे अन्दर वो विश्वास पैदा हो गया तो तुम सफल होते चले गए ! इसलिए जाओ किसी ताबीज पर यकीन करने की बजाय अपने कर्म पर, अपनी सोच पर और अपने लिए निर्णय पर विश्वास करना सीखो, इस बात को समझो कि जो हो रहा है वो अच्छे के लिए हो रहा है और निश्चय ही तुम सफलता के शीर्ष पर पहुँच जाओगे।


परम मित्र


   एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे।

   एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।

    दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।

    और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में कभी कभी मिलता था।

    एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था।

   अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला:-

     "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो ?

      वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।

    उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।

    अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है।

    फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

   दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।

    वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए।

    फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

     तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।

     अब आप सोच रहे होंगे कि... वो तीन मित्र कौन है...?

तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार ।जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं।

    सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

     दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

      और  तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।

     अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।

     दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

     और  तीसरा मित्र आपके कर्म हैं। कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

     अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी.!

सुंदर हाथ

_🔹बहुत समय पहले की बात है कुछ महिलाएं एक नदी के तट पर बैठी थी वे सभी धनवान होने के साथ-साथ अत्यंत सुंदर भी थी।  वे नदी के शीतल एवं स्वच्छ जल में अपने हाथ - पैर धो रही थी तथा पानी में अपनी परछाई देख- देखकर अपने सौंदर्य पर स्वयं ही मुग्ध हो रही थी...तभी उनमें से एक ने अपने हाथों की प्रशंसा करते हुए कहा, देखो, मेरे हाथ कितने सुंदर है.. लेकिन दूसरी महिला ने दावा किया कि उसके हाथ ज्यादा खूबसूरत हैं तीसरी महिला ने भी यही दावा दोहराया... उनमें इस पर बहस छिड़ गई तभी एक बुजुर्ग लाठी टेकती हुई वहाँ से निकली उसके कपड़े मैले- कुचैले थे वह देखने से ही अत्यंत निर्धन लग रही थी उन महिलाओं ने उसे देखते ही कहा, “व्यर्थ की तकरार छोड़ो, इस बुढ़िया से पूछते हैं कि हममें से किसके हाथ सबसे अधिक सुँदर है.. उन्होंने बुजुर्ग महिला को पुकारा, “ए बुढ़िया, जरा इधर आकर ये तो बता कि हममें से किसके हाथ सबसे अधिक सुँदर है..बुजुर्ग किसी तरह लाठी टेकती हुई उनके पास पहुंची और बोली -मैं बहुत भूखी-प्यासी हूँ, पहले मुझे कुछ खाने को दो ,चैन पड़ने पर ही कुछ बता पाऊँगी... वे सब महिलाँए हँस पड़ी और एक स्वर में बोलीं -जा भाग, हमारे पास कोई खाना- वाना नहीं है ये भला हमारी सुँदरता को क्या पहचानेगी...

🔹वही थोड़ी ही दूरी पर एक मजदूर महिला बैठी थी वह देखने में सामान्य लेकिन मेहनती और विनम्र थी उसने बुजुर्ग को अपने पास बुलाकर प्रेम से बैठाया और अपनी पोटली खोलकर अपने खाने में से आधा खाना उसे दे दिया फिर नदी से लाकर ठंडा पानी पिलाया, फिर उस मजदूर महिला ने उसके हाथ-पैर धोए और अपनी फटी धोती से पौंछकर साफ कर दिए इससे बुजुर्ग महिला को बड़ा आराम मिला  जाते समय वह बुजुर्ग उन सुँदर महिलाओं के पास जाकर बोली -सुँदर हाथ उन्हीं के होते हैं जो अच्छे कर्म करें तथा जरूरतमंदों की सेवा करें.. अच्छे कार्यों से हाथों का सौंदर्य बढ़ता है, आभूषणों से नही..।।

Wednesday, April 30, 2025

भाग्य की दौलत

एक बार एक महात्मा जी निर्जन वन में भगवद्चिंतन के लिए जा रहे थे। तो उन्हें एक व्यक्ति ने रोक लिया।

वह व्यक्ति अत्यंत गरीब था। बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटा पाता था। उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा..

महात्मा जी, आप परमात्मा को जानते है, उनसे बातें करते है। अब यदि परमात्मा से मिले तो उनसे कहियेगा कि मुझे सारी उम्र में जितनी दौलत मिलनी है, कृपया वह एक साथ ही मिल जाये ताकि कुछ दिन तो में चैन से जी सकूँ। 

महात्मा ने उसे समझाया - मैं तुम्हारी दुःख भरी कहानी परमात्मा को सुनाऊंगा लेकिन तुम जरा खुद भी सोचो, यदि भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिल जायेगी तो आगे की ज़िन्दगी कैसे गुजारोगे ? 

किन्तु वह व्यक्ति अपनी बात पर अडिग रहा। महात्मा उस व्यक्ति को आशा दिलाते हुए आगे बढ़ गए।

     इन्हीं दिनों में उसे ईश्वरीय ज्ञान मिल चूका था। महात्मा जी ने उस व्यक्ति के लिए अर्जी डाली। परमात्मा की कृपा से कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति को काफी धन - दौलत मिल गई। जब धन -दौलत मिल गई तो उसने सोचा,-मैंने अब तक गरीबी के दिन काटे है, ईश्वरीय सेवा कुछ भी नहीं कर पाया।  

अब मुझे भाग्य की सारी दौलत एक साथ मिली है। क्यों न इसे ईश्वरीय सेवा में लगाऊँ क्योंकी इसके बाद मुझे दौलत मिलने वाली नहीं। ऐसा सोचकर उसने लगभग सारी दौलत ईश्वरीय सेवा में लगा दी।

     समय गुजरता गया। लगभग दो वर्ष पश्चात् महात्मा जी उधर से गुजरे तो उन्हें उस व्यक्ति की याद आयी। महात्मा जी सोचने लगे - वह व्यक्ति जरूर आर्थिक तंगी में होगा क्योंकी उसने सारी दौलत एक साथ पायी थी। और कुछ भी उसे प्राप्त होगा नहीं।  यह सोचते -सोचते महात्मा जी उसके घर के सामने पहुँचे। 

लेकिन यह क्या ! झोपड़ी की जगह महल खड़ा था ! जैसे ही उस व्यक्ति की नज़र महात्मा जी पर पड़ी, महात्मा जी उसका वैभव देखकर आश्चर्य चकित हो गए। भाग्य की सारी दौलत कैसे बढ़ गई ? 

वह व्यक्ति नम्रता से बोला, महात्माजी, मुझे जो दौलत मिली थी, वह मैंने चन्द दिनों में ही ईश्वरीय सेवा में लगा दी थी। उसके बाद दौलत कहाँ से आई - मैं नहीं जनता। इसका जवाब तो परमात्मा ही दे सकता है।

   महात्मा जी वहाँ से चले गये। और एक विशेष स्थान पर पहुँच कर ध्यान मग्न हुए। उन्होंने परमात्मा से पूछा - यह सब कैसे हुआ ? महात्मा जी को आवाज़ सुनाई दी।

किसी की चोर ले जाये , किसी की आग जलाये 

धन उसी का सफल हो जो ईश्वर अर्थ लगाये। 

सीख - जो व्यक्ति जितना कमाता है उस में का कुछ हिस्सा अगर ईश्वरीय सेवा कार्य में लगता है तो उस का फल अवश्य मिलता है। इसलिए कहा गया है सेवा का फल तो मेवा है।

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

शत्रु और शत्रु का संरक्षक दोनों एक जैसे

अटारी बॉर्डर बंद होने और पाकिस्तानियों को प्रतिबंधित करने के बाद जिस प्रकार से पूरे देश से ऐसे वैवाहिक संबंधों की चर्चाएं आ रही हैं जिनमें पति या पत्नी में से कोई एक भारत का और दूसरा पाकिस्तान का है,यह बहुत बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहा है कि अभी तक न जाने कितने पाकिस्तानी भारत में नागरिकता भी प्राप्त कर चुके होंगे । और कानूनन यहां रहते हुए भारत विरोध के सभी कामों में लगे होंगे। कहीं आपके घर के आस पास भी कोई पाकिस्तानी किसी देशद्रोही की संरक्षण में पल तो नहीं रहा है? क्योंकि अगला आतंकवादी यही होगा । कुछ लोगों के लिए इनकी सुरक्षा इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके लिए वे देश के साथ गद्दारी पर भी उतर आए हैं, छत्तीसगढ़ के पूर्व विधायक यूडी मिंज ने तो "युद्ध हुआ तो भारत की हार निश्चित है" कि घोषणा की है, मुझे यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह किस पार्टी के नेता हैं। लोक गायिका के नाम पर आतंकवादी हमलों का दोष भारत पर ही मढ़ने वाली निम्न स्तर की कविता गाने वाली तथाकथित कलाकार जो इस युद्ध की स्थिति में शत्रु देश में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं, क्या यह पाकिस्तान का संरक्षण और भारत के साथ द्रोह नहीं है? जब पूरा देश भारतमाता की सुरक्षा को ले कर चिंतित है और शत्रु को सबक सिखाने के लिए कठोरतम दंड देने की तैयारी में है तब इस प्रकार के लोगों की सहायता से भारत के भीतर रहने वाले दुश्मन जो हमारे आपके आस पास ही रह रहे हैं, चुप नहीं बैठेंगे और इसलिए वह स्थिति नहीं आने देना है।अतः अपने आस पास के शत्रु को पहचानना बहुत आवश्यक हो गया हैं,अन्यथा युद्ध के समय हमे केवल सीमा पार से नहीं बल्कि भीतर की तरफ से भी लड़ना होगा। प्रत्येक नागरिक की दृष्टि यदि शत्रु को पहचानने की हो जाएगी तब भारत भूमि में शत्रुओं के लिए रहना संभव नहीं होगा और साथ ही ऐसे लोग बनने बंद हो जायेंगे जो अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए राष्ट्र की सुरक्षा को भी दांव पर लगा देते हैं। किसी भी देश के लिए बाहरी किसी आक्रमण के समय सभी का एक ही धर्म है कि वह अपने देश की सेना और सरकार के साथ मजबूती से विश्वास पूर्वक खड़ा रहे।

आदतें करती हैं आपका निर्माण

विचार दिशा देते हैं, पर सामर्थ्य  आदतों से रहती है। वे ही मनुष्य को किसी निर्धारित दिशा में चलने के लिए न केवल प्रेरणा देती हैं वरन कई बार तो उसे वे अनुरूप करा लेने के. लिए विवश तक कर देती हैं भले ही परिस्थितियाँ अनुकूल न हों। नशेबाजी जैसी आदतें इनका उदाहरण हैं। स्वास्थ्य, पैसा, यश आदि की हानियों को समझते हुए भी नशे के आदी मनुष्य नशा करते और उसके दुष्परिणाम भुगतते हैं। छोड़ने की बात सोचते हुए भी वे वैसा कर नहीं पाते। कारण कि "विचारों" की तुलना में, "आदतों" की सामर्थ्य अत्यधिक होती है। अनुपयोगी होते हुए भी वे कई बार इतनी प्रबल होती है कि पूरा करने के अतिरिक्त और कोई चारा दिखाई नहीं पड़ता। भले या बुरे जीवन क्रम में जितना योगदान आदतों का होता है उतना और किसी का नहीं।आदतें,आसमान से नहीं उतरतीं। विचारों को कार्यान्वित करते रहने का लंबा क्रम चलते रहने पर वह अभ्यास आदत बन जाता है और उसे अपनाए रहने में जितना समय बीतता है, उतना ही वह ढर्रा सुदृढ़ होता  चला जाता है। यह  परिपक्वता कालांतर में इतनी गहरी जड़ें जमा लेती है कि उखाड़ने के असामान्य उपाय ही भले सफल हों।* सामान्यतया तो वह अभ्यस्त ढर्रा ही जीवनक्रम पर सवार रहता है और उसी पटरी पर गाड़ी लुढ़कती रहती है।आदतें बनाई जाती हैं, भले ही उनका अभ्यास योजना बनाकर किया गया हो अथवा रुझान, संपर्क, वातावरण परिस्थिति आदि कारणों से अनायास ही बनता चला गया हो। ये आदतें ही मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व या चरित्र होता है। मनुष्य क्या सोचता है, क्या चाहता है, इसका अधिक मूल्य नहीं। परिणाम तो उन गतिविधियों के ही निकलते हैं जो आदतों के अनुरूप क्रियान्वित होती रहती है। प्रतिफल तो कर्म ही उत्पन्न करते हैं और वे कर्म अन्य कारणों के अतिरिक्त प्रधानतया आदतों से प्रेरित होते हैं।  जीवन जीते और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम सहते हैं।जिस क्रम से आदतें अपनाई जाती हैं, उसी रास्ते उन्हें छोडा या बदला जा सकता है। रुझान, संपर्क, वातावरण, अभ्यास आदि बदला जा सके तो कुछ दिन हैरान करने के बाद आदतें बदल भी जाती हैं। कई बार प्रबल मनोबल के सहारे उन्हें संकल्पपूर्वक एवं झटके से भी उखाड़ा जा सकता है। पर ऐसा होता बहुत ही कम है। बाहर की अवांछनीयताओं से जूझने के तो अनेक उपाय है, पर आंतरिक दुर्बलताओं से एक बार भी गुथ जाना और उन्हें पछाडकर ही पीछे हटना किन्हीं मनस्वी लोगों के लिए ही संभव होता है। दुर्बल मन वाले तो छोड़ने पकड़ने, आगे बढ़ने पीछे हटने के कुचक्र में ही फँसे रहते हैं। अभीष्ट परिवर्तन न होने पर उनका दोष जिस तिस पर मढ़ते रहते हैं। किंतु वास्तविकता इतनी ही है कि आत्म परिष्कार के लिए-सत्प्रवृत्तियों के अभ्यस्त बनने के लिए-सुदृढ़ निश्चय के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। जिन्हें पिछड़ेपन से उबरने और प्रगतिशील जीवन अपनाने की वास्तविक इच्छा हो उन्हें अपनी आदतों का पर्यवेक्षण करना चाहिए और उनमें से जो अनुपयुक्त हो उन्हें छोड़ने बदलने का सुनिश्चित निर्धारण करना चाहिए।स्वभाग्य निर्माता, प्रगतिशील महामानवों में से प्रत्येक को यही उपाय अपनाना पड़ता है।


हिन्दू शब्द की खोज


'हिन्दू' शब्द, करोड़ों वर्ष प्राचीन,

संस्कृत शब्द है!

अगर संस्कृत के इस शब्द का सन्धि विछेदन करें तो पायेंगे ....

हीन+दू = हीन भावना + से दूर

अर्थात जो हीन भावना या दुर्भावना से दूर रहे, मुक्त रहे, वो हिन्दू है !

हमें बार-बार, हमेशा झूठ ही बतलाया जाता है कि हिन्दू शब्द मुगलों ने हमें दिया, जो "सिंधु" से "हिन्दू" हुआ l

हिन्दू शब्द की वेद से ही उत्पत्ति है !

जानिए, कहाँ से आया हिन्दू शब्द, और कैसे हुई इसकी उत्पत्ति ?

भारत में बहुत से लोग हिन्दू हैं, एवं वे हिन्दू धर्म का पालन करते हैं l

अधिकतर लोग "सनातन धर्म" को हिन्दू धर्म मानते हैं।

कुछ लोग यह कहते हैं कि हिन्दू शब्द सिंधु से बना है औऱ यह फारसी शब्द है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है!

हमारे "वेदों" और "पुराणों" में हिन्दू शब्द का उल्लेख मिलता है। आज हम आपको बता रहे हैं कि हमें हिन्दू शब्द कहाँ से मिला है!

"ऋग्वेद" के "ब्रहस्पति अग्यम" में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार आया हैं :-

“हिमलयं समारभ्य 

यावत इन्दुसरोवरं ।

तं देवनिर्मितं देशं

हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।

अर्थात : हिमालय से इंदु सरोवर तक, देव निर्मित देश को हिंदुस्तान कहते हैं!

केवल "वेद" ही नहीं, बल्कि "शैव" ग्रन्थ में हिन्दू शब्द का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैं:-

"हीनं च दूष्यतेव् *हिन्दुरित्युच्च ते प्रिये।”

अर्थात :- जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं!

इससे मिलता जुलता लगभग यही श्लोक "कल्पद्रुम" में भी दोहराया गया है :

"हीनं दुष्यति इति हिन्दूः।”

अर्थात जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं।

"पारिजात हरण" में हिन्दू को कुछ इस प्रकार कहा गया है :-

”हिनस्ति तपसा पापां 

दैहिकां दुष्टं ।

हेतिभिः श्त्रुवर्गं च 

स हिन्दुर्भिधियते।”

अर्थात :- जो अपने तप से शत्रुओं का, दुष्टों का, और पाप का नाश कर देता है, वही हिन्दू है !

"माधव दिग्विजय" में भी हिन्दू शब्द को कुछ इस प्रकार उल्लेखित किया गया है :-

“ओंकारमन्त्रमूलाढ्य 

पुनर्जन्म द्रढ़ाश्य:।

गौभक्तो भारत:

गरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः ।

अर्थात : वो जो "ओमकार" को ईश्वरीय धुन माने, कर्मों पर विश्वास करे, गौपालक रहे, तथा बुराइयों को दूर रखे, वो हिन्दू है!

केवल इतना ही नहीं, हमार

"ऋगवेद" (८:२:४१) में

 विवहिन्दू नाम के बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा का वर्णन मिलता है, जिन्होंने ४६,००० गौमाता दान में दी थी! और "ऋग्वेद मंडल" में भी उनका वर्णन मिलता है l

         बुराइयों को दूर करने के लिए सतत प्रयास रत रहनेवाले, सनातन धर्म के पोषक व पालन करने वाले हिन्दू हैं।

      ,,*"हिनस्तु दुरिताम


क्षमा

एक साधक ने अपने दामाद को तीन लाख रूपये व्यापार के लिये दिये। उसका व्यापार बहुत अच्छा जम गया लेकिन उसने रूपये ससुर जी को नहीं लौटाये।

आखिर दोनों में झगड़ा हो गया। झगड़ा इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों का एक दूसरे के यहाँ आना जाना बिल्कुल बंद हो गया। घृणा व द्वेष का आंतरिक संबंध अत्यंत गहरा हो गया। साधक हर समय हर संबंधी के सामने अपने दामाद की निंदा, निरादर व आलोचना करने लगे। उनकी साधना लड़खड़ाने लगी। भजन पूजन के समय भी उन्हें दामाद का चिंतन होने लगा। मानसिक व्यथा का प्रभाव तन पर भी पड़ने लगा। बेचैनी बढ़ गयी। समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर वे एक संत के पास गये और अपनी व्यथा कह सुनायी।

संतश्री ने कहाः- 'बेटा ! तू चिंता मत कर। ईश्वरकृपा से सब ठीक हो जायेगा। तुम कुछ फल व मिठाइयाँ लेकर दामाद के यहाँ जाना और मिलते ही उससे केवल इतना कहना, बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा कर दो।'

साधक ने कहाः "महाराज ! मैंने ही उनकी मदद की है और क्षमा भी मैं ही माँगू !"

संतश्री ने उत्तर दियाः- "परिवार में ऐसा कोई भी संघर्ष नहीं हो सकता, जिसमें दोनों पक्षों की गलती न हो। चाहे एक पक्ष की भूल एक प्रतिशत हो दूसरे पक्ष की निन्यानवे प्रतिशत, पर भूल दोनों तरफ से होगी।"

साधक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसने कहाः- "महाराज ! मुझसे क्या भूल हुई ?"

"बेटा ! तुमने मन ही मन अपने दामाद को बुरा समझा – यह है तुम्हारी भूल। तुमने उसकी निंदा, आलोचना व तिरस्कार किया – यह है तुम्हारी दूसरी भूल। क्रोध पूर्ण आँखों से उसके दोषों को देखा – यह है तुम्हारी तीसरी भूल। अपने कानों से उसकी निंदा सुनी – यह है तुम्हारी चौथी भूल। तुम्हारे हृदय में दामाद के प्रति क्रोध व घृणा है – यह है तुम्हारी आखिरी भूल। अपनी इन भूलों से तुमने अपने दामाद को दुःख दिया है। तुम्हारा दिया दुःख ही कई गुना हो तुम्हारे पास लौटा है। जाओ, अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगों। नहीं तो तुम न चैन से जी सकोगे, न चैन से मर सकोगे। क्षमा माँगना बहुत बड़ी साधना है।"

साधक की आँखें खुल गयीं। संतश्री को प्रणाम करके वे दामाद के घर पहुँचे। सब लोग भोजन की तैयारी में थे। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उनके दोहते ने खोला। सामने नानाजी को देखकर वह अवाक् सा रह गया और खुशी से झूमकर जोर-जोर से चिल्लाने लगाः "मम्मी ! पापा !! देखो कौन आये ! नानाजी आये हैं, नानाजी आये हैं....।"

माता-पिता ने दरवाजे की तरफ देखा। सोचा, 'कहीं हम सपना तो नहीं देख रहे !' बेटी हर्ष से पुलकित हो उठी, 'अहा ! पन्द्रह वर्ष के बाद आज पिताजी घर पर आये हैं ।' प्रेम से गला रूँध गया, कुछ बोल न सकी। साधक ने फल व मिठाइयाँ टेबल पर रखीं और दोनों हाथ जोड़कर दामाद को कहाः- "बेटा ! सारी भूल मुझसे हुई है, मुझे क्षमा करो ।"

"क्षमा" शब्द निकलते ही उनके हृदय का प्रेम अश्रु बनकर बहने लगा । दामाद उनके चरणों में गिर गये और अपनी भूल के लिए रो-रोकर क्षमा याचना करने लगे। ससुरजी के प्रेमाश्रु दामाद की पीठ पर और दामाद के पश्चाताप व प्रेममिश्रित अश्रु ससुरजी के चरणों में गिरने लगे। पिता-पुत्री से और पुत्री अपने वृद्ध पिता से क्षमा माँगने लगी। क्षमा व प्रेम का अथाह सागर फूट पड़ा। सब शांत, चुप !सबकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। दामाद उठे और रूपये लाकर ससुरजी के सामने रख दिये। ससुरजी कहने लगेः "बेटा ! आज मैं इन कौड़ियों को लेने के लिए नहीं आया हूँ। मैं अपनी भूल मिटाने, अपनी साधना को सजीव बनाने और द्वेष का नाश करके प्रेम की गंगा बहाने आया हूँ ।

मेरा आना सफल हो गया, मेरा दुःख मिट गया। अब मुझे आनंद का एहसास हो रहा है ।"

दामाद ने कहाः- "पिताजी ! जब तक आप ये रूपये नहीं लेंगे तब तक मेरे हृदय की तपन नहीं मिटेगी। कृपा करके आप ये रूपये ले लें।

साधक ने दामाद से रूपये लिये और अपनी इच्छानुसार बेटी व नातियों में बाँट दिये । सब कार में बैठे, घर पहुँचे। पन्द्रह वर्ष बाद उस अर्धरात्रि में जब माँ-बेटी, भाई-बहन, ननद-भाभी व बालकों का मिलन हुआ तो ऐसा लग रहा था कि मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये वहाँ पहुँच गया हो।

सारा परिवार प्रेम के अथाह सागर में मस्त हो रहा था। क्षमा माँगने के बाद उस साधक के दुःख, चिंता, तनाव, भय, निराशारूपी मानसिक रोग जड़ से ही मिट गये और साधना सजीव हो उठी।

हमें भी अपने दिल में क्षमा रखनी चाहिए अपने सामने छोटा हो या बडा अपनी गलती हो या ना हो क्षमा मांग लेने से सब झगडे समाप्त हो जाते है।

अक्षय तृतीया

युग रा आदि जिन केवली हुया तीर्थंकर जगभाया, दियो जीणे रौ सुज्ञान अरु विज्ञान नाभि अंगज री जयकार ।छोड़ घरबार चाल्यां साधना स्युं करने जीवन रो कल्याण, हाल्या चरणां पाछे अगणित राजकुमार जुड़ग्यो प्रभु स्यु अंतर तार| भगवान ऋषभ प्रभु जब कर्मक्षेत्र से घर्मक्षेत्र में आये, अशन ( भिक्षा खाने की मिलने की) की आशा में जगह- जगह घूम रहे थे पर कौन उन्हें खाने का आहर बहराये । भगवान को कोई कहता है कि सोना ले लो  , चांदी ले लो , कन्या साथ मे झेलों आदि - आदि आपके कष्ट अपार थे। वो बोल रहे थे कि करल्यों भावना भगतां री थे स्वीकार पर कोई भी सही से रोटी री मनुहार व्रत निपजाने की भगवान ऋषभ प्रभु से नहीं कर रहा था । भगवान ऋषभ प्रभु बिना आहार के इस तरह घूम रहे थे तभी कुछ समय बाद उनके पोत्र राजा श्रेयांस को एक सपना आया कि अमृत से मेरु सिंचन होगा । वह उन्होंने अपने सपने के लिए चिन्तन किया कि प्रभुवर यह मेरा स्वप्न कैसे साकार होगा । वह इस तरह चिन्तन करते- करते राजा श्रेयांस गहराई में गये तब उनको जाति स्मृति ज्ञान हो गया । वह उनका मन भावों में तरुणाई ले , प्रभु भक्ति से भावित हो गया और उन्होंने अपने हाथों से गन्ने का रस भगवान ऋषभ प्रभु को अर्पित किया । वह उनको पारणा करवाया उस समय के लिए यह कहा जाता है कि अक्षय तृतीया शुभ आई तप की लेकर तरुणाई प्रभु ऋषभ देव की गुंजी घर - घर जय शहनाई तभी से यह अक्षय तृतीया पर्व की शुरुआत हुई | वह यह पर्व निरंतर चल रहा है । अक्षय तृतीया पर्व हमको भावित करता है । हम आज के दिन अपने आपको अक्षय के समान पावित कर अपने जीवन को उज्जवल बनाये यही हमारे लिए काम्य है ।


Tuesday, April 29, 2025

विरुद्ध पदार्थ

किसके साथ क्या खाने से रोग हो सकते हैं…….

 चाय के साथ कोई भी नमकीन चीज नहीं खानी

चाहिए।

दूध और नमक का संयोग सफ़ेद दाग या

किसी चर्म रोग को जन्म दे सकता है या

बाल असमय सफ़ेद होना या बाल झड़ना।

- दूध या दूध की बनी किसी भी चीज के साथ दही

,नमक, इमली, खरबूजा,बेल, नारियल, मूली, तोरई,तिल

,तेल, कुल्थी, सत्तू, खटाई, नहीं खानी चाहिए।

 दही के साथ खरबूजा, पनीर, दूध और खीर नहीं

खानी चाहिए।

 घी, तेल, खरबूज, अमरूद, ककड़ी,

खीरा, जामुन ,मूंगफली के साथ ठण्डा जल कभी नहीं।

 शहद के साथ मूली , अंगूर, गरम खाद्य या गर्म जल

कभी नहीं।

 खीर के साथ सत्तू, शराब, खटाई, खिचड़ी ,कटहल

कभी नहीं।

घी के साथ बराबर मात्र में शहद तुरंत विषैला प्रभाव करेगा।

 तरबूज के साथ पुदीना या ठंडा पानी कभी नहीं।

 चावल के साथ सिरका कभी नहीं।

 चाय के साथ ककड़ी खीरा भी कभी न खाएं।

 खरबूजे के साथ दूध, दही, लहसून और मूली कभी नहीं।

संयोगज पदार्थ

कुछ चीजों को एक साथ खाना हितकर होता है।

जैसे……….

- खरबूजे के साथ बूरा, खाण्ड, शक्कर।

- इमली के साथ गुड ।

- गाजर और मेथी का साग।

- बथुआ और दही का रायता

- मकई के साथ मट्ठा ,

- अमरुद के साथ सौंफ ,

- तरबूज के साथ गुड ,

- मूली और मूली के पत्ते ,

- अनाज या दाल के साथ दूध या दही ,

- आम के साथ गाय का दूध,

- चावल के साथ दही,

- खजूर के साथ दूध ,

- चावल के साथ नारियल की गिरी ,

- केले के साथ इलायची।

अधिक खाना हितकर नहीं होता। पर भूल या स्वाद के कारण कभी -कभी कुछ चीजें अधिक खाई जाएं तो 

- केले की अधिकता में दो छोटी इलायची ।

- आम पचाने के लिए आधा चम्म्च सोंठ का चूर्ण और

गुड ।

- जामुन ज्यादा खा लिया तो ३-४ चुटकी नमक ।

- सेब ज्यादा हो जाएं तो दालचीनी का चूर्ण एक

ग्राम ।

- खरबूज के लिए मिश्री / चीनी का शर्बत ।

- तरबूज के लिए सिर्फ एक लौंग ।

- अमरूद के लिए सौंफ ।

- नींबू के लिए नमक।

- बेर के लिए सिरका।

- गन्ना ज्यादा चूस लिया हो तो ३-४ बेर खा

लीजिये।

- चावल ज्यादा खा लिये हैं तो आधा चम्म्च

अजवाइन पानी से निगल लीजिये ।

- बैगन के लिए सरसो का तेल एक चम्म्च ।

- मूली ज्यादा खा ली हो तो एक चम्म्च काला

तिल चबा लीजिये या मूली के पत्ते खाएं।

- बेसन ज्यादा खाया हो तो मूली के पत्ते चबाएं ।

- खाना ज्यादा खा लिया है तो थोड़ी दही खाइये।

- मटर ज्यादा खाई हो तो अदरक चबाएं ।

- इमली, उड़द की दाल,  मूंगफली,  शकरकंद,

जिमीकंद अधिक खाया गया हो तो गुड खाईये ।

- मूँग या चने की दाल ज्यादा खाई हों तो एक चम्म्च

सिरका पी लीजिये ।

- मकई ज्यादा खा गये हो तो मट्ठा पीजिये ।

- घी या खीर ज्यादा खा गये हों तो काली मिर्च

चबाएं ।

- खुरमानी ज्यादा हो जाए तो ठंडा पानी पीयें ।

- पूरी कचौड़ी ज्यादा हो जाए तो गर्म पानी

पीजिये ।

नींबू का प्रयोग करने से अनेकों रोगों से बचाव होता है। पानी में मिला कर पीयें या भोजन में लें। अनुकूल न हो तो न लें। अचार बनाकर लेना भी अच्छा हैः पर बर्तन या जार काँच का हो। निम्बू बीज वाला देसी ही लें।। 

जो प्राप्त है-पर्याप्त है

जिसका मन मस्त है


प्रायश्चित

 वह बारह-तेरह वर्ष का बालक ही तो था। कच्ची बुद्धि थी और साथ अच्छा न था ।उसके एक संबंधी सिगरेट पीते थे । उसे भी शौक लगा ।सिगरेट से फायदा तो क्या धुआँ उड़ाना उसे अच्छा लगता था। समस्या आई की सिगरेट खरीदने के लिए पैसे कहां से आवें? बड़ों के सामने ना पी सकता था ना ही पैसे मांग सकता था। तब, क्या हो? नौकरों की जेबें टटोली जाने लगी और पैसा धेला जो भी पल्ले पड़ता उसे उड़ा लिया जाता। बड़े सिगरेट पी कर फेंक देते तो वे टुकड़े इकट्ठे कर लिए जाते। मजा तो सिगरेट पीने में नहीं आता था पर उससे क्या! यह सिलसिला कुछ दिनों तक चला, अचानक एक दिन विचार उठा कि ऐसा काम क्यों करना, जो बड़ों से छिपाना पड़े और जिसके लिए चोरी करनी पड़े? बात उठी ।उठी कि वहीं -की- वहीं दब गई।

फिर उठी और पराधीनता दिन पर दिन खलने लगी। यह भी क्या कि बड़ों की आज्ञा बिना कुछ न कर सकें? ऐसे जीने से लाभ क्या? इससे तो जीवन का अंत कर देना ही अच्छा !

पर मरें कैसे ?किसी ने कहा था कि धतूरे के बीज खा लेने से मृत्यु हो जाती है ।बीज इकट्ठे किए गए, पर खाने की हिम्मत न हुई ।प्राण न निकले तो ?फिर भी साहस करके दो-चार बीज खा ही डाले। परंतु उनसे क्या होता था? मौत से वह डर गया और उसने मरने का विचार छोड़ दिया ।

जान बची ,साथ ही एक लाभ यह हुआ कि सिगरेट जूठन पीने और नौकरों के पैसे चुराने की आदत छूट गई।

उसने आगे कभी चोरी न करने का निश्चय किया ।साथ ही यह भी कि अपनी चोरी को अपने पिता के सामने स्वीकार कर लेगा। यह डर तो ना था कि पिताजी उसे पीटेंगे, परंतु इतना तो था कि वे सुनकर बहुत दुखी होंगे। पिता के आगे मुंह तो खुल नहीं सकता था। सब बालक ने चिट्ठी लिखकर अपना दोष स्वीकार कर लिया। चिट्ठी अपने हाथों ही पिता को दी। उसमें सारा दोष कबूल किया गया था ,साथ ही उसके लिए दंड मांगा गया था ।आगे चोरी न करने का निश्चय भी था।

  पिताजी बीमार थे ।वे बिस्तर पर लेटे थे। चिट्ठी पढ़ने के लिए उठ बैठे। चिट्ठी पढ़ी, आंखों से मोती की बूंदें टपकने लगीं। थोड़ी देर के लिए उन्होंने आंखें बंद कर लीं। चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े कर डाले और बिस्तर पर पुनः लेट गए। मुंह से उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। बालक अवाक् रह गया। पिता की वेदना को उसने अनुभव किया और उनकी पीड़ा तथा शांतिमय क्षमा से वह रो पड़ा।

    बड़े होने पर उसने लिखा--'जो मनुष्य अधिकारी व्यक्ति के सामने स्वेच्छा पूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदय से कह देता है और फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है।'

कृपया चिंतन करें व अपने जीवन में उतारे तथा बच्चों को भी ऐसी शिक्षा दें।


यज्ञीय भाव- इदं न मम्

भारतीय परंपरा में चौरासी लाख प्रकार के जीवों के होने का कथन करते हुए यह कहा जाता है कि इन सबके बीच मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनों के लिए मेरे और दूसरों के लिए तेरे का व्यवहार करता है। यद्यपि कभी-कभी इसके इस व्यवहार से या तो श्री राम जैसे आदर्श पुत्र को सपत्नीक अपने जीवन भर विडंबना का जीवन जीना पड़ता है अथवा पांडवों और कौरवों के पूरे वंश का विनाश इस धरती को देखना पड़ता है।

 तत्कालीन परंपरा के अनुसार किसी भी राजा के जेष्ठ पुत्र को उसके बाद उसके राज्य का उत्तराधिकार मिलता था। इसीलिए अपनी वृद्धावस्था देखकर महाराज दशरथ ने श्रीराम को अयोध्या का उत्तराधिकारी बनाने का मन बनाया, किंतु उसी समय कैकेई ने सोचा कि राम तो मेरे पुत्र नहीं है ।वह तो कौशल्या के पुत्र हैं ।यदि उनको राज्य मिलता है तो मेरे पुत्र को सेवक की तरह काम करना पड़ेगा। जबकि श्री राम और भरत एक ही पिता की संतान थे। उनके बीच तेरे-मेरे जैसी कोई बात थी ही नहीं। फल यह हुआ कि श्री राम को महारानी सीता के साथ जीवन भर विडंबना का सामना करना पड़ा। इसी तरह से द्वापर में कौरव और पांडव की सेना युद्ध करने के लिए जब आमने-सामने खड़ी हुई तब धृतराष्ट्र ने दिव्य दृष्टि  प्राप्त संजय से पूछा कि संजय !! युद्धक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर मेरे पुत्र तथा पांडव के पुत्र क्या कर रहे हैं ? तब भी धृतराष्ट्र की तेरे-मेरे भाव वाली भावना ही प्रकट हुई। जबकि कौरव और पांडव भिन्न-भिन्न न होकर धृतराष्ट्र के लिए सभी अपने ही पुत्र थे।फल यह हुआ कि इतिहास को इतना बड़ा नरसंहार देखना पड़ा  जिसकी तुलना का युद्ध अभी तक दूसरा हुआ ही नहीं है।

तेरे और मेरे की भावना के मूल में न केवल लोभ रहता है,अपित इससे व्यक्ति का अहंकार भी प्रकट होता है। इसीलिए यज्ञादि की पूर्णता पर आचार्य- "इदं न मम्" अर्थात यह मेरा नहीं कह कर अपना कृतित्व ईश्वर को सौंप देते हैं।

यज्ञ के तीन चरण-१-देवपूजन २-दान ३-संगतिकरण। यज्ञ-  जीवमात्र प्राणी के कल्याण की भावना एवं पुण्य-परमार्थ परायण सत्कर्म।


स्वर्ग की मिट्टी

एक पापी इन्सान मरते वक्त बहुत दुख और पीड़ा भोग रहा था। लोग वहाँ काफी संख्या में इकट्ठे हो गये। 


वहीं पर एक महापुरूष आ गये, पास खड़े लोगों ने महापुरूष से पूछा कि "आप इसका कोई उपाय बतायें जिससे यह पीड़ा से मुक्त होकर प्राण त्याग दे और ज्यादा पीड़ा ना भोगे।"


महापुरूष ने बताया कि "अगर स्वर्ग की मिट्टी लाकर इसको तिलक किया जाये तो ये पीड़ा से मुक्त हो जायेगा।"


ये सुनकर सभी चुप हो गये। अब स्वर्ग कि मिट्टी कहाँ से और कैसे लायें?


महापुरुष की बात सुन कर एक छोटा सा बच्चा दौड़ा दौड़ा गया और थोड़ी देर बाद एक मुठ्ठी मिट्टी लेकर आया और बोला- "ये लो स्वर्ग की मिट्टी इससे तिलक कर दो।"


बच्चे की बात सुनकर एक आदमी ने मिट्टी लेकर उस आदमी को जैसे ही तिलक किया कुछ ही क्षण में वो आदमी पीड़ा से एकदम मुक्त हो गया।


यह चमत्कार देखकर सब हैरान थे, क्योंकि स्वर्ग की मिट्टी कोई कैसे ला सकता है और वो भी एक छोटा सा बच्चा !!. हो ही नहीं सकता।


महापुरूष ने बच्चे से पूछा- "बेटा ये मिट्टी तुम कहाँ से लेकर आये हो? पृथ्वी लोक पर कौन सा स्वर्ग है जहाँ से तुम कुछ ही पल में ये मिट्टी ले आये?”


बच्चा बोला- "बाबा जी एक दिन स्कूल में हमारे गुरुजी ने बताया था कि माता पिता के चरणों में सबसे बड़ा स्वर्ग है, उसके चरणों की धूल से बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग नहीं !! इसलिये मैं ये मिट्टी अपने मातापिता के चरणों के नीचे से लेकर आया हूँ।”


बच्चे मुँह से ये बात सुनकर महापुरूष बोले- “बिल्कुल बेटे माँ बाप के चरणों से बढ़कर इस जहाँ में दूसरा कोई स्वर्ग नहीं और जिस सन्तान के कारण से माँ बाप की आँखो में आँसू आये ऐसी औलाद को नरक इस जहाँ में ही भोगना पड़ता है।"


यदि कोई दुखी है, परेशान है तो आत्मविश्लेषण करें कि उसके कारण माता पिता दुखी तो नहीं।


Sunday, April 27, 2025

हिन्दू एक मरती हुई नस्ल

 शेर दहाड़ते रह गये, भेड़िए जंगल पर कब्जा बनाकर बैठ चुके हैं!


हिन्दू एक मरती हुई नस्ल

Hindu, a dying race


साल 1914 में यूएन मुखर्जी साहब ने एक छोटी सी पुस्तक लिखी, नाम था... 

"हिन्दू - एक मरती हुई नस्ल'"


सोचिए 108 साल पहले उन्हें पता था !


1911 की जनगणना को देखकर ही, 1914 में मुखर्जी ने पाकिस्तान बनने की भविष्यवाणी कर दी थी।


उस समय संघ नहीं था,

सावरकर नहीं थे, 

हिन्दू महासभा नहीं थी।


तब भी मुखर्जी ने वो देख लिया, जो पिछले 100 सालों में एक दर्जन नरसंहार और एक तिहाई भूमि से हिन्दू विलुप्त करा देने के बाद भी, राजनैतिक विचारधारा वाले सेक्युलर हिन्दू नहीं देख पा रहे हैं ।


इस किताब के छपते ही सुप्तावस्था से कुछ हिन्दू जगे। अगले साल 1915 में पं मदन मोहन मालवीय जी के नेतृत्व में हिन्दू महासभा का गठन हुआ। आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन शुरू किया जो एक मुस्लिम द्वारा स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के साथ समाप्त हो गया।


फिर 1925 में हिन्दुओं को संगठित करने के उद्देश्य से संघ बना।


लेकिन ये सारे मिलकर भी वो नहीं रोक पाए जो यूएन मुखर्जी ने 1915 में ही देख लिया था। 


गांधीवादी अहिंसा ने इस्लामिक कट्टरवाद के साथ मिलकर मानव इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार को जन्म दिया और काबुल से लेकर ढाका तक हिन्दू शरीयत के राज में समाप्त हो गए ।      


जो बची भूमि हिन्दुओं को मिली वो हिन्दुओं के लिए मॉडर्न संविधान के आधार पर थी

और

मुसलमानों के लिए

शरीयत की छूट

धर्मांतरण की छूट

चार शादी की छूट

अलग पर्सनल लॉ की छूट

हिन्दू तीर्थों पर कब्जे की छूट


सब कुछ स्टैंड बाय में है। 


जहां हिन्दू एक बच्चे पर आ गए हैं। वहां आज भी आबादी बढ़ाना शरीयत है।


जो लोग इसे केवल राजनीति समझते हैं, उन्हें एक बार इस स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाना चाहिए 2015 में 1915 से क्या बदला है? 


आज भी साल के अंत में वो अपना नफा गिनते हैं, हम अपना नुकसान।


हमें आज भी अपने भविष्य के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं है। 


आज भी संयुक्त इस्लामिक जगत हम पर दबाव बनाए हुए हैं कि हम, अपने तीर्थों पर कब्जा सहन करें, लेकिन उपहास और अपमान की स्थिति में उसी भाषा में पलटकर जवाब भी न दें।


मराठों ने बीच में आकर 100-200 साल के लिए स्थिति को रोक दिया, जिससे हमें थोड़ा और समय मिल गया है। लेकिन ये संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है।


अपने बच्चों को देखिए, आप उन्हें कैसा भविष्य देना चाहते हैं ?  मरती हुई हिन्दू नस्ल जैसा कि 1915 में यूएन मुखर्जी लिख गए थे?


इसीलिए अपने समय का, अपनी कमाई का एक हिस्सा, बिना किसी स्वार्थ के, हिन्दू जनजागरण में लगाइये, अगर ये कोई भी दूसरा नहीं कर रहा, तो खुद करिए।


नहीं तो.... आपके बच्चे अरबी मानसिकता के गुलाम, चौथी बीवी या फिदायन हमलावर बनेंगे और इसके लिए सिर्फ आप जिम्मेदार होंगे। 


Hindu dying race नहीं है, हम सनातन हैं।


और ये आखिरी सदी है। जब हम लड़ सकते हैं। इसके बाद हमारे पास भागने के लिए कोई जगह नहीं है।


बेशर्मी और निर्लज्जता की हद देखिए........


एक हिन्दू महिला (नुपुर शर्मा ) के विरुद्ध लगातार आग उगल रहे हैं, जान से मारने के फतवे दे रहे हैं, बलात्कार की धमकी दे रहे हैं। और ये हाल तब है। जब ये मात्र 25% है।


गम्भीरता से सोचिए......


आपके सामने आपकी महिला को, कट्टरपंथी खुलेआम गर्दन काटने, बलात्कार की धमकी दे रहे हैं। पोस्टर चिपका रहे हैं। जहां आप बाहुल्य समाज हैं।


उनका दुस्साहस देखिए, आपके इलाके में जाकर आपकी महिला के विरुद्ध प्रदर्शन में, आपकी दुकानें बंद करवाने पहुंच गए.  नही माने तो पत्थरबाज़ी कर दंगा कर दिया  l 


ये हाल तब है, जब वे 20 दिनों से लगातार फव्वारा चिल्ला रहे हैं।


यहां मसला केवल एक महिला का नही, बल्कि गर्दन काटने को उतारू उस कट्टरपंथ मानसिकता का है, जिसका प्रतिकार बहुत आवश्यक है।


समय रहते इसे बढ़ने से रोकना बहुत आवश्यक है, वरना देश जंगलराज हो जाएगा।


इसे यही रोकिये, हल्के में मत लीजिए।


मानवता वाली भूमि को, रेगिस्तान बनने से रोक लीजिए....

आप घिर चुके हैं.......


ठीक उसी प्रकार जैसे...

शतरंज में राजा को प्यादे,

जंगल मे शेर को भेड़िए,

और चक्रव्यूह में अभिमन्यु.......


शरजील इमाम ने "चिकेन नेक" की बात की थी, क्या आप जानते हैं हर शहर का एक चिकन नेक होता है! हर बाजार का एक चिकेन नेक होता है और सभी चिकन नेक पर उनका कब्जा हो चुका है।


आप अपने शहर के मार्केट में निकल जाइए, अपना लैपटाप बनवाने, मोबाईल बनवाने या कपड़े सिलवाने l आप को अंदाजा नही है कि चुपचाप "बिजनेस जिहाद" कितना हावी हो चुका है ।


गुजरात का जामनगर हो,

लखनऊ का हजरतगंज,

मुम्बई का हाजी अली,

गोरखपुर का हिंदी बाजार या

दिल्ली का करोलबाग,,,

आप "चेक मेट" हो चुके हैं।

अब हर जगह इनका कब्जा हो चुका है ! क्योंकि हमारा युवा, अपना पारम्परिक काम छोड़कर, नौकरी की तलाश में भटक रहा है ।


जितनी जमीन पर आप के मंदिर नही हैं, उतनी जमीनें उनके "कब्रिस्तान" के नाम पर रसूल की हो चुकी हैं।


एक दर्जी की दुकान पर सिलाई करने वाले सभी, उनके हम-मजहब है, चेन से लगाकर बटन तक के सप्लायर नमाजी हैं ! ढाबे उनके, होटल उनके, ट्रांसपोर्ट का बड़ा कारोबार हो या ओला उबर का ड्राइवर, सब जुमा वाले हैं।


आप शहर में चंदन जनेऊ ढूढते रहिए, नहीं पाएंगे, वहीं हर चौराहे पर एक कसाई बैठा जरूर मिल जाएगा


घिर चुके हैं आप !


इसका उपाय इतना आसान नही है, गहराई से काम करना होगा, अपनी दुकानें बनानी होंगी, अपना भाई हर जगह बैठाना होगा।


वरना गजवा_ए_हिंद चुपचाप पसार चुका है। अपना पांव,...

बस घोषणा होनी बाकी है।


शेर दहाड़ते ही रह गया, भेड़िए जंगल पर कब्ज़ा बना कर बैठ चुके हैं।


आँखे बंद करिए और ध्यान दीजिए.... हर जगह आप को "नारा ए तकबीर",, "अल्लाह हू अकबर"!! सुनाई देगा..


और अगर नहीं सुनाई दे रहा है तो मुगालते मे हैं आप।


बस एक जवाब लिख दीजिए और बता दीजिए कि "कब जागेंगे आप" ??? 

कब तक सेकुलर का चोला ओढ़े रहेंगे...????


*हिंदू एक मरती नस्ल *


सुबह एक भगवान का फोटो पोस्ट करके गुड मॉर्निंग की जगह ये पोस्ट सभी हिन्दू मित्रो को अधिक से अधिक सदस्यों को  पहुँचाईए। हो सकता है सोया हुआ, दोगले एवम लालची हिंदुओं का विचार में कुछ बदलाव लाया जा सके।


Friday, April 25, 2025

आसक्ति का परिणाम

        एक संन्यासी था विरक्त भाव से शान्ति से जंगल में रहते हुए ईश्वर प्राप्ति हेतु तप करता रहता था। एक दिन वहाँ से इक राहगीर व्यापारी गुजरा और उसने विश्राम हेतु एक रात वहीं उन संन्यासी की कुटिया में बितायी।

      वह संन्यासी के स्वभाव व सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और जाने से पहले उस व्यापारी ने संन्यासी को एक सुंदर कम्बल दान में दिया। संन्यासी को वह कम्बल बहुत आकर्षक लगा।

       वह उसे बार-बार छू कर निहारता रहता। ऐसा सुन्दर व कोमल कम्बल उसने कभी नहीं देखा था, वह अब हर क्षण उस कम्बल को नज़रों के सामने रखता। अतः संन्यासी का दिनों दिन उस कम्बल से लगाव गहरा होता गया।

अब उसको हर समय कम्बल की चिंता सताती कि वह ख़राब या गन्दा न हो जाये, या फिर कहीं कोई और उसे चुरा न ले आदि।

     समय के साथ साथ ऐसा परिवर्तन हुआ कि जो श्रद्धा – प्रेम व लगाव उसके मन में परमात्मा के लिये था उसका स्थान अब उस कम्बल ने लिया था।

      अंततः कम्बल के प्रति आसक्ति के परिणामस्वरूप जब उसकी मृत्यु का क्षण आया तब भी उस समय उसके मन में अंतिम ख़्याल केवल कम्बल का ही आया।

     जिसके कारणवंश वह संन्यासी जो परमात्मा से अत्यंत प्रेम करता था परन्तु कम्बल के प्रति गहन आसक्ति की वजह से उसके जीवन व हृदय में परमात्मा का स्थान दूसरे नम्बर पर हो गया था और वह कम्बल अब उसकी पहली प्राथमिकता हो गया था, अत: प्राण त्यागते समय भी केवल कम्बल का विचार ही उसके मन में उत्पन्न हुआ।

      जैसाकि श्रीकृष्ण ने गीता के 8:5 श्लोक में कहा है कि जो कोई भी, मृत्यु के समय, अपने शरीर को छोड़ते समय केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मुझे व मेरा स्वभाव प्राप्त कर लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।

      परन्तु उस संन्यासी को परमात्मा से अधिक लगाव सांसारिक वस्तु — एक कम्बल से हो गया था अंततः उसी का ही ख़्याल उसे मरते समय आया।

      परिणामस्वरूप अब वह संन्यासी अगले जन्म मे पतंगा (कपड़े का कीड़ा – moth) बन कर पैदा हुआ। और लगभग अगले एक सौ जन्मों तक जब तक वह कम्बल कीड़ों द्वार खा कर पूर्णतः नष्ट नहीं हो गया तब तक वह संन्यासी बार-बार वही पंतगे का कीट बन कर पैदा होता रहा।


      अब इस कहानी के आधार पर अगर हम इस तथ्य का अवलोकन करें कि जीवन में हमें जो भी मिलता है क्या वह ईश्वर की कृपा है या हमारे कर्मों का फल! तो हम पाते हैं कि ईश्वर की कृपा तो सब के लिए बराबर मात्रा में बहती है परन्तु इस अस्थायी तथा नश्वर संसार के असंख्य सांसारिक आकर्षण व लगाव वह छतरियाँ हैं 

      जिन्हें हम अपने सर पर छतरी की तरह खुला रखते हैं और परमात्मा की उस कृपा को स्वयं तक पहुँचने से स्वयं ही रोक देते हैं।

       ईश्वर ने अपनी लीला द्वारा हर वस्तु का निर्माण किया है, व उनसे आनन्द पाने के लिये हमें इन्द्रियां भी प्रदान की है। व उसके साथ-साथ परमात्मा ने हमारे क्रमिक विकास व उसे (पूर्ण परमात्मा) जो जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है को प्राप्त करने के लिये – हमारे हृदय में सदा अतृप्त रहने वाली एक तड़प व बेचैनी का भाव भी भर दिया है।

        जिसके कारण हम इस संसार में जब भी परमात्मा के अलावा कुछ भी और प्राप्त करते हैं तो निश्चितता कुछ समय के पश्चात हमारे मन में उस वस्तु के प्रति असंतुष्टी का भाव या फिर उसे खोने का भय शीघ्र ही उत्पन्न हो कर हमें बेचैन करने लगता है..!!


जग में धन्य कौन है भाई

इस मायिक संसार में धन्य कौन है? श्रीराम जी को स्मरण कर अल्प बुद्धि से अवलोकन करने की कोशिश...

1. जिन्हें भगवान भोले नाथ प्रिय हैं वे मनुष्य धन्य हैं-याग्यवल्क्य जी- अहो धन्य तव धन्य मुनीसा। तुम्हहिं प्रान सम प्रिय गौरीसा।।याग्यवल्क्य जी कहते हैं कि हे भारद्वाज जी आप धन्य हैं,क्योंकि आपको पार्वती पति शंकर जी प्राणों के समान प्रिय हैं।

2. जो सप्रेम श्रीराम चरित  श्रवण करना चाहते हैं वे धन्य हैं-धन्य धन्य गिरिराज कुमारी।तुम समान नहिं कोउ उपकारी।।शंकर जी के दृष्टि में माता पार्वती जी अज्ञानी नहीं परोपकारी लगती हैं। क्योंकि राजा भगीरथ के प्रयास से गंगा जी पृथ्वी पर आईं और माता पार्वती जी के अनुरोध पर राम चरित मानस- पूँछेहू रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनी गंगा।।

3. जिनके गृह,आश्रम पर संत का आगमन हो,वह संत अतिथि को आदर करने वाले का गृहादि धन्य है- विश्वामित्र जी के आगमन पर दशरथ जी- चरन पखारि कीन्हि अति पूजा।मो सम आजु धन्य नहीं दूजा।।

4. जिनके कार्य से माता पिता आनंदित होते हैं वे संतान धन्य हैं-धन्य जनम जगतीतल तासू।पितहिं प्रमोदु चरित सुनि जासु।। भक्त दशरथ कौशल्या को आनंदित करने हेतु बाल रूप राम जी कई लीला किए...।

5 जो प्रभु दर्शन करा दे वह धन्य हैं-अयोध्या वासी भरत प्रति कहते हैं-धन्य भरतु जीवनु जग माहीं।...देवता- भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरसहिं फूल।...भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ...।

6.जिन्हें प्रभु श्रीराम जी अपना लें वह धन्य..भरत जी द्वारा निषाद गुह को गले लगाने पर- धन्य धन्य धुनि मंगल मूला।सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।

7.श्रीराम प्रेमी भरत जी के दर्शन करने वाले धन्य हैं- हम सब सानुज भरतहिं देखे।भइन्ह धन्य जुबति जग लेखे।।ग्राम्य नारी अपने को धन्य समझ रही हैं।

8.जो मायिक संसार से आशा त्याग कर श्रीराम रंग में रंग गए वह धन्य हैं- ते धन्य तुलसीदास आस बिहाई जे हरि रंग रँए...।

9. सीताराम जी के नाम का कानों से सतत् पान करने वाला धन्य हैं- धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ..।

10.प्रभु कार्य,परोपकार में प्राण न्योछावर करने वाले धन्य हैं- धन्य जटायु सम कोउ नाहीं।

11. जिस वंश में श्रीराम भक्त संतान हों,वह कूल धन्य है- धन्य धन्य तैं धन्य विभीषण।भयहु तात!निसिचर कूल भूषण।।बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर।भजेहु राम सोभा सुख सागर।।....


दो शब्द

बहुत समय पहले की बात है, एक प्रसिद्द गुरु अपने मठ में शिक्षा दिया करते थे। पर यहाँ शिक्षा देना का तरीका कुछ अलग था, गुरु का मानना था कि सच्चा ज्ञान मौन रह कर ही आ सकता है; और इसलिए मठ में मौन रहने का नियम था। लेकिन इस नियम का भी एक अपवाद था, दस साल पूरा होने पर कोई शिष्य गुरु से दो शब्द बोल सकता था।

पहला दस साल बिताने के बाद एक शिष्य गुरु के पास पहुंचा, गुरु जानते थे की आज उसके दस साल पूरे हो गए हैं ; उन्होंने शिष्य को दो उँगलियाँ दिखाकर अपने दो शब्द बोलने का इशारा किया। शिष्य बोला, ”खाना गन्दा“ गुरु ने ‘हाँ’ में सर हिला दिया। इसी तरह दस साल और बीत गए और एक बार फिर वो शिष्य गुरु के समक्ष अपने दो शब्द कहने पहुंचा। ”बिस्तर कठोर”, शिष्य बोला।

गुरु ने एक बार फिर ‘हाँ’ में सर हिला दिया। करते-करते दस और साल बीत गए और इस बार वो शिष्य गुरु से मठ छोड़ कर जाने की आज्ञा लेने के लिए उपस्थित हुआ और बोला, “नहीं होगा” . “जानता था”, गुरु बोले, और उसे जाने की आज्ञा दे दी और मन ही मन सोचा जो थोड़ा सा मौका मिलने पर भी शिकायत करता है वो ज्ञान कहाँ से प्राप्त कर सकता है।


हमेशा अच्छा करें

 एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोज़ाना भोजन पकाती। एक रोटी वह वहाँ से गुजरने वाले किसी भी भूखे के लिए पकाती थी। वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी,जिसे कोई भी ले जा सकता था।

 एक कुबड़ा व्यक्ति रोज़ उस रोटी को ले जाता और बजाय धन्यवाद देने के अपने रस्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बड़बड़ाता- जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।

 दिन गुजरते गए और ये सिलसिला चलता रहा। वो कुबड़ा रोज रोटी ले के जाता रहा और इन्ही शब्दों को बड़बड़ाता - "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएग।

 वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी की- कितना अजीब व्यक्ति है,एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहता है,मतलब क्या है इसका !!

 एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली- मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में ज़हर मिला दिया जो वो रोज़ उसके लिए बनाती थी और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने कि कोशिश की,कि अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह बोली- हे भगवन !! मैं ये क्या करने जा रही थी ? और उसने तुरंत उस रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दिया। एक ताज़ा रोटी बनायीं और खिड़की के सहारे रख दी।

 हर रोज़ कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी ले के: जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा। बड़बड़ाता हुआ चला गया। इस बात से बिलकुल बेख़बर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है।

 हर रोज़ जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर वापिसी के लिए प्रार्थना करती थी, जो कि अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ था। महीनों से उसकी कोई ख़बर नहीं थी।

 ठीक उसी शाम को उसके दरवाज़े पर एक दस्तक होती है। वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है। अपने बेटे को अपने सामने खड़ा देखती है। वह पतला और दुबला हो गया था उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था,भूख से वह कमज़ोर हो गया था। जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा उसने कहा- माँ !! यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ आज !! जब मैं घर से एक मील दूर था,मैं इतना भूखा था कि मैं गिर गया। मैं मर गया होता.. लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लिया। भूख के मरे मेरे प्राण निकल रहे थे।मैंने उससे खाने को कुछ माँगा। उसने नि:संकोच अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि- मैं हर रोज़ यही खाता हूँ,लेकिन आज मुझसे ज़्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है। सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो।

 जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी,माँ का चेहरा पीला पड़ गया और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाज़े का सहारा लिया। उसके मस्तिष्क में वह बात घुमने लगी कि कैसे उसने सुबह रोटी में जहर मिलाया था, अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौत..? और इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चूका था- जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा,और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा।

निष्कर्ष - हमेशा अच्छा करो !! और अच्छा करने से अपने आप को कभी मत रोको,फिर चाहे उसके लिए उस समय आपकी सराहना या प्रशंसा हो या ना हो।कर्म बीज कभी विनष्ट नहीं होते यह अकाट्य सत्य है।जैसा बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे बस फलित होने में समय लगता है।

कर भला होगा भला।

नेकी का बदला नेक है।।

Thursday, April 24, 2025

दान दिए धन न घटे

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

सद्गुरु कबीर जी ने बड़े ही सरल व स्पष्ट शब्दों में कहा है:

चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नीर।

दान दिए धन न घटे, कह गए दास कबीर।

अभिप्राय: यह है कि जब भगवान ने आपको दिया है तो आप भी दान करें। दानी कभी घाटे में नहीं रहता। दान तो कई गुणा बढ़ता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने स्वरचित पुस्तक पुष्पांजलि में एक सत्य कथा का बड़ा सुंदर वर्णन किया है कि एक बार एक सज्जन नगर के बाजार से ज्वार खरीद कर ला रहे थे। मार्ग के मध्य में उनकी भेंट एक भिखारी से हुई। भिखारी ने हाथ फैला कर कहा, ‘‘बाबू जी! कुछ देते जाओ।’’ उस भद्र पुरुष ने उस ज्वार में से एक दाना उठाया और भिखारी के हाथ पर रख दिया।

भिखारी ने शुभकामना व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘अच्छा बाबू जी, भगवान आपको खूब दें। अनगिनत होकर मिले।’’

घर पहुंचते ही उन सज्जन ने ज्वार धर्मपत्नी के हाथों सौंप दी। जब वह उसे पकाने के लिए साफ करने लगी तो ज्वार के दानों में एक सोने का दाना देखकर आश्चर्यचकित रह गई। पत्नी ने तुरंत अपने पति से कहा, ‘‘आप जिस दुकानदार से ज्वार खरीद कर लाए हैं वह तो घाटे में रहा। उसके साथ धोखा हुआ है। उसका एक सोने का दाना गलती से इस ज्वार में आ गया है। कृपया उसे लौटा आइए।’’

पति को मध्य मार्ग में मिले भिखारी की तुरंत याद आ गई। पति ने माथे पर हाथ मार कर कहा, ‘‘धोखा एवं घाटा उस दुकानदार को नहीं हुआ, धोखा तो मेरे साथ हुआ है।’’

पत्नी ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’

पति ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मैंने आते समय एक भिखारी के मांगने पर एक ज्वार का दाना दान में दिया था। उसे ही भगवान ने सोने में परिवर्तित कर दिया है। यदि मुठ्ठी भर दे देता तो आज हमारी दरिद्रता दूर हो जाती।’’

अत: जब दान देने का सुअवसर मिले तो दिल खोलकर उदारतापूर्वक दें। दान देकर सुख की जो अनुभूति होती है उसका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता। उस दिव्य आनंद की अनुभूति उसे ही होती है जो प्रेम एवं उदारतापूर्वक दान करता है।