Friday, December 25, 2020

आधुनिकता की आड़ में अराजकता की होड़

प्राचीनतम से नवीनतम की तरफ गति करना बिल्कुल भी गलत नहीं है, क्योंकि किसी भी क्षेत्र में चाहें वह रहन-सहन हो या आचार-विचार, नवीनीकरण बहुत ही हितकारी होता है, परन्तु इस नवीनीकरण के दूरगामी परिणाम को भी गौर करना बेहद ही जरूरी होता है। बात जब आधुनिकता की हो तो कहने के लिए हम बीसवीं सदी में पदार्पण कर गये हैं, आखिर इतना बदलाव तो बनता है, मगर यह बदलाव जब आधुनिकता की आड़ लेकर मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने लगे तो क्या इसको हम आधुनिकता से संबोधित कर सकते हैं? नहीं! तब हम यही कहेंगे कि आधुनिकता की आड़ में अराजकता को हवा देने में लगे, मानव समाज के इस हिस्से ने मानवता को ही निगल लिया है। आधुनिक मानव समाज के पुरुष व नारी इस आधुनिकता की आड़ में अराजकता फैलाने में बराबर के हिस्सेदार हैं, ना कोई कम ना कोई ज्यादा! परन्तु भागीदारी में कोई किसी से कमतर नहीं है। हमारा पुरुष समाज तो आदि से आधुनिकीकरण की अराजकता हेतु बदनाम है, मगर हमारे आधुनिक समाज की स्त्री को अगर देखा जाए तो आधुनिकता की दौड़ में अव्वल हैं, जो रहन-सहन के साथ आचार-विचार व व्यवहार सबमें आधुनिकीकरण के दिखावे में पूर्ण दिग्भ्रमित होने के साथ-साथ सहभागी परिस्थितियों को भी दिग्भ्रमित किए जा रही हैं और ख्वाहिश व गुरूर बस यही कि इस आधुनिकता के दौर में वह सेल्फ डिपेंड हैं, उन्हें आखिर मानवता व मानवीय समाजवादी व्यवहारिक व्यवस्थाओं से क्या लेना-देना।

आखिर ऐसी आधुनिकता का क्या औचित्य जो स्वयं की उपस्थिति व स्वयं के विचारों को ही दिग्भ्रमित कर दे? आधुनिकता का मतलब होता है कि बढ़ती तकनीकी व विकासशील प्रक्रियाओं के द्वारा सुखमय जीवन व स्वस्थ्य विचारों, व्यवहारों को प्राप्त व प्रेषित करना, मगर यहाँ तो मामला ठीक अलग मार्ग का अनुसरण कर रहा है, यहाँ आधुनिकता की आड़ में मानव मानवीय व्यवहार को ऊँचा बनाने के बजाय अराजकता को जन्म देते हुए उच्च व निम्न के बीच की खाईं को और भी बढ़ा रहा है। चमक-दमक व दिखावे का ऐसा जुनून कि क्या कहें? ऐसी आधुनिकता आखिर किस काम की जो केवल सेल्फ डिपेंड के दिखावे से शुरू होकर दिखावे में ही समाप्त हो जाती हैं? आधुनिकता की आड़ में अराजकता के दौरान सबसे बड़ा बदलाव किसी भी चीज में शॉर्टकट का चयन अर्थात् इस आधुनिकीकरण की सोच चीजें जितनी छोटी होंगी, फायदे उतने अधिक होंगे, इसी फिराक में सबसे पहले परिवार का स्वरूप बदला, जो एकल हो गया, फिर पहनावे का रूप बदला, जो अत्यंत ही छोटा हो गया, फिर खान-पान का रूप बदला जो डाइटिंग तक आ गया बाकी व्यवहारिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत सामूहिक से घटकर स्व तक सीमित हो गया, इस स्व की भी बड़ी विचित्र बिडम्बना है जिसे शब्दों में व्यक्त कर पाना शायद संभव नहीं।
आधुनिकता की आड़ में ऐसी अराजकता मानवीय सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से बेहद ही निम्न स्तरीय स्थिति को इंगित करता है। आधुनिकता का यह दौर मानवता के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहा है, जिसे प्रत्यक्ष तो देख हर कोई रहा है, मगर प्रतिकार करे आखिर कौन? जब सभी इस अराजकतापूर्ण आधुनिकीकरण के वशीभूत हैं। इस आधुनिकता की आड़ में अराजकता के सहभागी कुछ प्रत्यक्ष हैं तो कुछ परोक्ष, मगर सहभागिता तो सभी की है। जहाँ आधुनिकता की अराजकता के रूप में सेल्फ डिपेंड का गुरूर अगर महिलाओं पर हावी है, तो वहीं पुरुष पर आधुनिकता की अराजकता के अंतर्गत पुरुष प्रधान समाज का भ्रम हावी है। आखिर इस आधुनिकता से तो बेहतर प्राचीनता ही है, जहाँ मानवीय समाजवादी व्यावहारिक व्यवस्थाओं में मानवता का अपना महत्वपूर्ण स्थान तो है। आधुनिकता किसी भी समय कालखण्ड में बेहतरी के लिए जानी-पहचानी जानी चाहिए, ना कि आधुनिकीकरण की अराजकता के लिए! अतः आधुनिकता अपनाइए मगर अराजकता से दूर रहते हुए! इसी में हमारा-आपका व इस समस्त मानव समाज का कल्याण निहित है।

मिथलेश सिंह मिलिंद
मरहट पवई आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

Sunday, December 6, 2020

अंदाज़ ए लखनऊ

आज हवा जब हुई जहरीली 

भेजो तुम फिर सबको नोटिस,

तेरा-मेरा मेरा-तेरा फिर 

जग को तुम भेजो नोटिस,

पहले दूसरे नंबर का ये 

खेलो न तुम खेल पुराना,

अंत धरा में है सबका 

जब तक प्राण हैं प्राण बचाना ,

हरियाली के जीवन को 

भेजो फिर तुम सब को नोटिस,

आज हवा है फिर जहरीली

भेजो न अपने को नोटिस ।

 

धर्मांतरण पर संवैधानिक अंकुश सफल या विफल _

देश में आजकल ‘लव जिहाद’ शब्द बहुत ज्यादा प्रचलित है। हाल की कुछ घटनाओं के मद्देनजर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक सरकारें विवाह के लिए कथित रूप से धर्मान्तरण पर अंकुश के लिए कानून बनाने की तैयारियां कर रही हैं। अभी देखना यह है कि इन राज्यों के प्रस्तावित धर्मान्तरण निरोधक कानून में विवाह के लिए धर्म परिवर्तन या छल से विवाह करके धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य करना निषेध बनाने के बारे में क्या और कैसे प्रावधान होंगे।


इस समय ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में धर्म स्वतंत्रता धर्मान्तरण निरोधक नाम से कानून हैं। इन कानूनों में जबरन अथवा बहला-फुसलाकर या धोखे से धर्म परिवर्तन कराना निषेध और दंडनीय अपराध है। इन कानूनों में नाबालिग किशोरी या अनुसूचित जाति-जनजातियों के सदस्यों से संबंधित मामलों में ज्यादा सज़ा का प्रावधान है। लेकिन कुल मिलाकर एक साल से लेकर पांच साल तक की कैद और 50 हजार रुपये तक के जुर्माने की सज़ा का प्रावधान है।


उत्तर प्रदेश के कानपुर और मेरठ में कथित लव जिहाद की घटनाओं में वृद्धि देखी गयी है और यही वजह है कि राज्य सरकार ने अकेले कानपुर में ही कथित लव जिहाद के कम से कम 11 मामलों की जांच के लिए विशेष जांच दल गठित किया गया है।


यह कितना विरोधाभासी है कि केन्द्र सरकार ने फरवरी, 2020 में लोकसभा को बताया था कि ‘लव जिहाद’ जैसा कोई शब्द मौजूदा कानूनों के तहत परिभाषित नहीं किया गया है और इससे जुड़ा कोई भी मामला केंद्रीय एजेंसियों के संज्ञान में नहीं आया है। यही नहीं, गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी ने यह भी कहा कि संविधान किसी भी धर्म को स्वीकारने, उस पर अमल करने और उसका प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।


देश में पहले से ही विशेष विवाह कानून हैं, जिसके अंतर्गत किसी भी जाति या धर्म के दो वयस्क शादी करके अपने विवाह का पंजीकरण करा सकते हैं। ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें अलग-अलग धर्म के मानने वाले वयस्क लड़के और लड़की ने धर्मान्तरण के बगैर ही विवाह किया और वे खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे हैं।


दूसरी ओर, सिर्फ विवाह के लिए धर्म परिवर्तन किये जाने की घटनाओं पर देश की न्यायपालिका पिछले तीन दशक से चिंता व्यक्त करती रही है। न्यायपालिका ने पहली पत्नी को तलाक दिये बगैर सिर्फ विवाह के लिए धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म कबूल करने की घटनाओं के मद्देनजर महिलाओं के हितों की रक्षा और इस काम के लिए धर्म का दुरुपयोग रोकने के लिए 1995 में धर्मान्तरण कानून बनाने की संभावना तलाशने का सुझाव दिया था। लेकिन अब तक इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। केरल और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में लव जिहाद का मुद्दा उठता रहता है। हाल ही में फरीदाबाद में एक लड़की की हत्या के मामले को भी लव जिहाद से जोड़ा गया।


हाल के वर्षों में 2017 का हादिया प्रकरण सबसे ज्यादा चर्चित हुआ था, जिसे लव जिहाद का नाम दिया गया था क्योंकि अखिला अशोकन नाम की युवती ने इस्लाम धर्म अपनाकर अपना नाम हादिया रखा और फिर एक मुस्लिम युवक से शादी कर ली थी। उच्च न्यायालय ने इस शादी को अमान्य घोषित कर दिया था। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हादिया और शफीन की शादी वैध है और किसी भी अदालत या जांच एजेंसी को उनकी शादी पर सवाल उठाने का हक नहीं है।


ऐसी अनेक घटनायें सामने आयी हैं, जिसमें विवाह के बाद धर्म परिवर्तन से इनकार करने पर लड़की को यातनाएं दी गयीं, उन्हें तलाक देकर बेसहारा छोड़ दिया गया या फिर ऐसे लड़कियां लापता हो गयीं और बाद में उनके शव मिले। ऐसे कई मामलों में लड़के और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत मामले भी दर्ज हुए हैं। इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में सवाल यह उठता है कि ऐसे मामलों से कैसे निपटा जाये।


देश के कुछ हिस्सों, विशेषकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में धर्म विशेष के युवकों द्वारा अपनी पहचान छिपाकर हिन्दू युवतियों को प्रभावित करके उनसे विवाह करने और उन्हें धर्म बदलने के लिए मजबूर करने की बढ़ती घटनाओं को ‘लव जिहाद’ का नाम देकर इस पर अंकुश पाने के लिए धर्मान्तरण निरोधक कानून बनाने की तैयारी चल रही है।


हमारे देश का कानून किसी भी वयस्क लड़के या लड़की को अपनी मर्जी और अपनी पसंद से विवाह करने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि दूसरे धर्म में शादी के कुछ समय बाद अगर धर्म परिवर्तन का मुद्दा उठता है जो वैवाहिक जीवन में बाधक बन रहा हो तो उस समस्या से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता, दंड प्रकिया संहिता और घरेलू हिंसा से महिलाओं को संरक्षण या विशेष विवाह कानून (इसके तहत विवाह का पंजीकरण होने की स्थिति में) के प्रावधानों के अलावा क्या कोई अलग से विशेष प्रावधान किया जायेगा।


देखना है कि ये राज्य सरकारें इन प्रस्तावित कानूनों में पहचान छुपा कर दूसरे धर्म की महिला से मित्रता करके उससे शादी करने और फिर शादी के बाद धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करने को अपराध घोषित करते हुए किस तरह की सज़ा का प्रावधान करती हैं।


उत्तर प्रदेश नोएडा फिल्म सिटी : सफल होने की प्रतिस्पर्धा में 

 अभी विगत माह ही उत्तर प्रदेश का अयोध्या, अपने यहां भव्य राम मंदिर निर्माण को लेकर विश्व भर में सुर्खियां, लोकप्रियता बटोर रहा था. जबकि अब यकायक फिर से उत्तर प्रदेश अपने एक और भव्य निर्माण कार्य के लिए इतना चर्चित हो गया है कि उसकी गूंज देशभर में ही नहीं, दुनिया के कई हिस्सों तक पहुंच गई है। 

गौरवान्वित होने की बात यह है कि उत्तर प्रदेश के नोएडा में फिल्म सिटी बनने से रोज़गार के लाखों अवसर मिलने के साथ नई प्रतिभाओं को मौके भी मिल सकेंगे. हालांकि ये सब बातें देखने सुनने में जितनी अच्छी लगती हैं, हक़ीक़त में इतनी आसान नहीं। 

 

यूं किसी काम को करने का संकल्प लेकर उसे शिद्दत से करने के लिए ठान लिया जाये तो मुश्किल तो कुछ नहीं, फिर भी आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या योगी का यह सपना पूरा हो सकेगा और पूरा होगा तो उसमें कितने बरस लगेंगे? साथ ही यह भी कि हॉलीवुड की तर्ज पर बॉम्बे फिल्म उद्योग को जैसे बॉलीवुड कहा जाता है. ऐसे ही आने वाले कल में नोएडा की फिल्म सिटी को 'नॉलीवुड' कहा जा सकता है. फिर हमारे यहां बॉलीवुड के साथ क्षेत्रीय सिनेमा में कॉलीवुड और टॉलीवुड भी बन चुके हैं। 

 

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने उस मुम्बई को आइना दिखा दिया है जो ‘बॉलीवुड' के चलते इतराया करता है। बॉलीवुड की पहचान हिन्दी फिल्मों से जुड़ी है। बॉलीवुड में करीब 80 प्रतिशत कलाकार, लेखक, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, टेक्नीशियन और अन्य स्टाफ उत्तर भारत से आकर अपनी किस्मत अजमाता है। जहां की मात्र भाषा हिन्दी है। अक्सर कहा जाता है कि मुम्बई लोगों की किस्मत संवारती है। देश भर से हर दिन लाखों लोग अपने हसीन सपने पूरे करने मुम्बई आते हैं। बॉलीवुड का नाम अंग्रेजी सिनेमा उद्योग हॉलिवुड के तर्ज पर रखा गया है। हिन्दी फिल्म उद्योग बॉलीवुड में बनीं हिन्दी फिल्में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और दुनिया के कई देशों के लोगों के दिलों की धड़कन हैं।

 

बॉलीवुड में करीब 20 भाषाओं में फिल्में बनती हैं, लेकिन इसमें 80 फीसदी हिस्सा हिन्दी फिल्मों का है। हिन्दी फिल्मों में उर्दू, अवधी, बम्बइया हिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों में देखने को मिल जाती हैं। बॉलीवुड की फिल्मों में प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। बॉलीवुड भारत में सबसे बड़ी फिल्मी नगरी है। यहां का देश के शुद्ध बॉक्स ऑफिस राजस्व में से 43 प्रतिशत का योगदान रहता है, जबकि तमिल और तेलुगू सिनेमा 36 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाकी के क्षेत्रीय सिनेमा का योगदान मात्रं 21 प्रतिशत है। बॉलीवुड दुनिया में फिल्म निर्माण के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। बॉलीवुड कार्यरत लोगों और निर्मित फिल्मों की संख्या के मामले में दुनिया में सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में से एक है।

 

बॉलीवुड की फिल्मों की आत्मा हिन्दी है तो इस फिल्म इंडस्ट्री को दुनिया की नंबर दो हैसियत दिलाने में हिन्दी भाषी लोगों का विशेष योगदान है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बॉलीवुड भले हिन्दी भाषियों के कंधे पर खड़ा हो, परंतु उत्तर भारत से आने वाले कलाकारों को मुम्बई कभी वह सम्मान देने को तैयार नहीं हुआ जिसके वह हकदार हैं। खैर, अच्छी बात यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के संकल्प के साथ सिर्फ यूपी के कलाकार ही नहीं, सिने जगत के दिग्गज भी जुड़े हैं। फिल्म निर्देशक संघ के अध्यक्ष अशोक पंडित का कहना है कि मुंबई के बाद यूपी सरकार इकलौती है, जो इस दिशा में आगे आई है। उन्होंने भरोसा जताया है कि 2023 तक यूपी की फिल्म इंडस्ट्री बन कर तैयार हो जाएगी।

 

लब्बोलुआब यह है कि यूपी में नई फिल्म सिटी तो बने लेकिन वह किसी भी तरह से सियासत का अड्डा नहीं बन पाए। बॉलीवुड की आलोचना करने के लिए यहां कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जैसे तेलगू, बंगाली, पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री काम कर रही हैं वैसे ही यूपी की फिल्म इंडस्ट्री को भी सबके साथ चलना होगा। बिना भेदभाव के प्रतिभाओं का पूरा सम्मान और सुविधा मिले यह नई फिल्म इंडस्ट्री का मूल मंत्र होना चाहिए।

 

जिस तरह इस उत्तर प्रदेश की फिल्म सिटी की घोषणा के साथ ही सिनेमा और राजनीति से जुड़े लोग यह कहने लगे हैं कि इससे मुंबई की जगह हिन्दी फिल्में अब नोएडा में ही बनने लगेंगी. बहुत से आम लोगों के मन में भी कुछ ऐसी ही धारणा बनती दिख रही हैं। इसलिए तब यह भी सवाल उठता है कि क्या 'नॉलीवुड' की यह फिल्म सिटी बॉलीवुड को टक्कर दे सकेगी? क्या इसके बाद बॉलीवुड ख़त्म होकर इतिहास में सिमट जाएगा?

 

बाकी है।

बाकी है अभी जीना
क्योंकि बाकी है अभी
तुमसे फिर से मिल
मोहब्बत करके मर मिटना।


बाकी है अभी
तुमसे मिलकर मुस्कुराना
क्योंकि बाकी है अभी
तुम को अपना बना कर
अपने सीने से लगाना।


बाकी है अभी
तुम से आंखों से आंखें मिलाना
क्योंकि बाकी है अभी
बहते अश्कों को छुपा कर
किसी और का बतलाना।


बाकी है अभी
कुछ हसरतें नाज़ुक से दिल की
क्योंकि बाकी है अभी
बिखरी हुई कुछ
तेरी यादें इस दिल में।


Thursday, December 3, 2020

होतीं हैं ऐसी हड़तालें?

हड़ताल का मुद्दा या मकसद कुछ भी हो लेकिन कार्य शैली एक जैसी ही होती है।

तोड- फोड़, आगजनी, परिवहन को बाधित करना,हिंसक घटनाओं को अंजाम देना। आखिर क्यों होती हैं ऐसी हड़तालें जिसमें जनता के कष्ट से किसी को सरोकार नहीं। प्रबंधन अपनी सुस्त गति से ही जानता है, अलगाववादी अपनी राजनीति की रोटियां सेकते हैं, हड़ताल कर्ताओं को अपने स्वार्थ के अलावा और कुछ नहीं दिखता। जनता की परेशानी इसमें से किसी के भी दृष्टि पथ में नहीं होती। ऐसी स्थिति देखकर देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है कि यदि लोकतंत्र है तो जनता सर्वोपरि होना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं, देश की जनता ही सर्वाधिक उपेक्षित है। कोई भी विभाग हो प्रत्येक स्थान पर जनता को उसका अधिकार देने में कृपणता बरती जाती है, कोई भी काम सरलता से नहीं होता, उटपटांग नियमों में उलझा कर और अधिक जटिल जटिल बना दिया जाता, परिणाम स्वरूप देश में हड़ताल ओं का दौर कभी खत्म होता ही नहीं। प्रशासन और प्रबंधन अपनी कलम और वाणी के जरिए जनता के हित में नारा बुलंद तो करते हैं किंतु जब क्रियान्वयन की बारी आती है तो संकल्प "मैं "और "मेरे' स्वार्थ के नीचे दब कर रह जाते हैं।

 

अब बात करें तो जनता को भी यह समझना चाहिए कि धरना, प्रदर्शन, हड़ताल आदि आपके मौलिक अधिकार हैं किंतु ध्यान रखा जाए कि आपके इस अधिकार से किसी और के अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए मसलन वाहन रोकना, दुकानें बंद कराना, हिंसक वारदात करना इसे किसी भी प्रकार से सही नहीं ठहराया जा सकता। प्रशासन प्रबंधन एवं जनता सभी का उत्तरदायित्व बनता है कि हड़ताल के इस विकृत हिंसक रूप बढ़ावा न दिया जाए।

 

रश्मि मिश्रा

भोपाल मध्यप्रदेश

 

 

Sunday, November 29, 2020

हिन्दू युवा वाहिनी के प्रदेश उपाध्यक्ष ने किया यज्ञशाला का लोकार्पण




सुनील कुमार गुप्ता

 

कैसरगंज। बहराइच जनपद के कैसरगंज तहसील के अन्तर्गत फखरपुर में हिन्दु युवा वाहिनी के कार्यकर्ता के द्वारा फखरपुर वि0ख0 में स्थित चौधरी सियाराम इंटर कॉलेज के बगल में पुराने शिव मंदिर का  जीर्णोद्धार कराया गया है। तथा एक विश्रामालय एवं यज्ञशाला का भी निर्माण कराया गया है। जिसके लोकार्पण के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रुप में राजदेव सिंह प्रदेश उपाध्यक्ष हिंदू युवा वाहिनी के होगें तथा विशिष्ट अतिथि क्षेत्राधिकारी कैसरगंज एवं थाना अध्यक्ष फखरपुर विद्युत अभियंता विजय तिवारी तथा जिला महामंत्री इंद्र बहादुर सिंह उपस्थित रहे इस अवसर पर जिला उपाध्यक्ष अभय राज सिंह जिला मंत्री रणधीर सिंह ब्लॉक प्रभारी सुभाष दीक्षित सहित फखरपुर की पूरी टीम उपस्थित रही।


 

 




  देश का प्रधानमंत्री अन्नदाता ही होना चाहिए 

महात्मा गांधी ने हम किसानों को भारत की आत्मा कहे थे, लेकिन आज हम देख रहे हैं कि अन्नदाताओ की समस्याओं पर केवल और केवल राजनीति करने वाले अधिकतर लोग हैं ,और हमारे समस्याओं की तरफ ध्यान देने वाले बहुत ही कम लोग  है। साथियों  स्वतंत्र भारत के पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात आज एक लंबा समय बीतने के बाद भी हम भारतीय किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ है, यह बात आज किसी से छुपी हुई नहीं है ।जिन अच्छे किसानों की बात कही जा रही है, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है, बढ़ती आबादी ,औद्योगिकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है। कृषि प्रधान हमारे राष्ट्र में लगभग सभी राजनीतिक दलों का कृषि के विकास और किसान के कल्याण के प्रति ढुलमुल रवैया ही रहा है, हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किसानों को भारत का आत्मा कहे थे, इसके बावजूद भी केवल किसानों की समस्याओं पर ओछी राजनीति होती रही है, उनकी मुख्य समस्याओं पर किसी का ध्यान नहीं गया है। आज हम सभी देख रहे हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में जब हमारे अन्नदाता अपने अधिकारों के लिए गांधीवादी तरीके से शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हुए अपने मांगों को रखने का प्रयास कर रहे हैं ,तो उन्हीं के बेटों यानी सेना के द्वारा उन पर पानी की बौछार और लाठियां बरसाई जा रही है। ध्यान से देखिए हमारे भारत में किसानों की हालात दिन प्रतिदिन बदतर होती जा रही है, जिसके कारण ही आए दिन हमारे अन्नदाता आत्महत्या तक करने पर मजबूर हो रहे हैं, हमारे यहां आज भी 60 से 70 प्रतिशत लोग कृषि पर ही निर्भर है । हमारे किसानों के हालात खराब होने का कारण भी राजनेता, समाज और हर  वह व्यक्ति  जो किसानों के रोटी को तो खाता है लेकिन वह सोचता है कि यह तो हम पैसे देकर खरीदे हैं, तो ठीक है आज से आप हम किसानों के अनाज को आप बायकॉट कर दीजिए, और आप अपना पैसा और कंकड़ खाइए !किसानों में आक्रोश को लेकर गांधी ने जो चेतावनी दी थी क्या आज हम उसी का सामना कर रहे हैं?आजाद भारत की सत्ता में किसानों की भागीदारी की वकालत करने वाले महात्मा गांधी ने अपनी मौत से एक दिन पहले तक कहे थे कि भारत का प्रधानमंत्री एक किसान होना चाहिए। आप देख लो साथियों किसी भी देश, समाज, जाति का सबसे उच्चतम और सम्मानीय वर्ग अगर कोई इस धरती पर है तो वह है हमारे किसान, यानी अन्नदाता ही इस धरती पर हम मनुष्यों के भगवान हैं । ऊंचे से ऊंचे पदों पर बैठे पदाधिकारी आज उन्नति और प्रगति की ऊंचाइयां छू रहे हैं ,तो यह तभी संभव है, जब देश के हम सभी लोग तन और मन से पुष्ट है, और यह तभी संभव हुआ है जब हमें पौष्टिक भोजन मिल रहा है। इसीलिए यहां हम कह रहे हैं कि देश का किसान सबसे उच्चतम पद पर होना चाहिए। विडंबना ही है साथियों की  कृषक यानी कि हमारा अन्नदाता वर्ग को समाज में सबसे ज्यादा समृद्ध होना चाहिए वही वर्ग यानी हम किसान ही सबसे ज्यादा अभावों में जीवन जीते हैं, जो सभी का पेट भरता है ,अक्सर वही और उसके बच्चे भूखे सोते हैं, सोच कर देखो इससे ज्यादा विडंबना क्या हो सकती है देश के लिए, किसी भी मनुष्य को  इस धरती पर जीवन जीने के लिए सबसे पहली और आखिरी आवश्यकता अनाज की ही होती है। अनाज के खातिर ही मनुष्य की सबसे पहली दौड़ शुरू होती है,कोई भी मनुष्य दो वक्त की रोटी के लिए मेहनत करना शुरू करता है, लेकिन कुछ लोग इतनी गहराई से नहीं सोचते कि वह अनाज जो वह खाते हैं कहां से और कैसे आता है। हम सभी आज देख रहे हैं कि अन्नदाता जब सड़कों पर आज संघर्ष कर रहे है, तो इसमें भी लोग गंदी राजनीति कर रही हैं, रोटी खा खा कर किसानों को गालियां दे रहे हैं। आखिर इतना नमक हरामी  कैसे कर लेते हो बेशर्म साहब जी लोग, यह सच है कि किसानों के नाम पर कुछ राजनीतिक पार्टियों और राजनेता केवल राजनीति करते हैं उनको किसानों के दर्द से कोई मतलब नहीं है, लेकिन किसानों का हालात क्या है यह आज किसी से छिपा नहीं है।

सोच कर देखो एक किसान तपती दोपहरी में खेतों में काम करता है खेतों की मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए कठोर परिश्रम दिन रात करता है, एक कृषक का जीवन मेहनत और लगन की अद्भुत मिसाल होती है, एक किसान का जीवन और वस्त्र अपने खेतों की मिट्टी का हमेशा परिचय देती रहती हैं। वहीं दूसरी तरफ बड़े-बड़े पदों पर कार्यरत वातानुकूलित कक्षों में बैठे पदाधिकारी इन्हीं किसानों को और उनके मिट्टी से सने वस्तुओं को देख इनसे दूरी बनाते हैं, सोचने वाला विषय है दोस्तों,इसी मिट्टी से सने हाथों और मिट्टी में उपजे अनाज से ही हम सब की पेट की भूख मिटती है और हम तृप्त होते हैं । साथियों जिस प्रकार से घर में गृहिणी अगर प्रसन्न और स्वस्थ रहती है ,तो घर स्वर्ग बन जाता है, उसी तरह अगर देश के किसानों को सम्मान मिलेगा तो किसान स्वस्थ और संपन्न रहेंगे तो देश भी उन्नति करेगा ,जिससे देश खुशहाल और समृद्ध होगा। 

 

कवि विक्रम क्रांतिकारी ( विक्रम चौरसिया - चिंतक /पत्रकार/ आईएएस मेंटर/ दिल्ली विश्वविद्यालय 9069821319

भारतीय संस्कृति : आधुनिकता एवं प्राचीनता दोनों संग लेकर चलें






सत्य, शिव और सुंदर के विवेचन कठिन हैं तो भी इन्हीं तीनों की त्रयी विवेचन का मूल आधार बनती है। आधुनिकता का आग्रह स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक आधुनिकता भी प्राचीनता के गर्भ से ही आती है। हमें जीवन मूल्यों का आयात नहीं करना चाहिए। यों आधुनिकता कोई जीवनमूल्य नहीं है और प्राचीनता भी नहीं। दोनो समय और परिस्थिति का ही बोध कराते हैं। ]

 

गतिशील समाज वर्तमान से संतुष्ट नहीं रहते, और अतीत से विचलित रहते हैं। सभी संस्कृतियों में प्राचीन के साथ संवाद की परंपरा है। सारा पुराना कालवाह्य कूड़ा करकट नहीं होता। वह पूरा का पूरा बदली परिस्थितियों में उपयोगी भी नहीं होता। पुराने के गर्भ से ही नया निकलता है। वास्तविक आधुनिकता विचारणीय है। यहां प्रश्न उठता है कि आधुनिकता के पहले वास्तविक विशेषण की आवश्यकता क्यों है? इसका सीधा उत्तर है कि आधुनिकता स्व्यं में कोई निरपेक्ष आदर्श या व्यवहार नहीं है। इसका सीधा अर्थ ही प्राचीनता का अनुवर्ती है। आधुनिकता प्राचीनता के बाद ही आती है। हरेक आधुनिकता की एक सुनिश्चित प्राचीनता होती है। इसी तरह प्राचीनता की भी और प्राचीनता होती है।

 

आधुनिकता को और आधुनिक कहने के लिए उत्तर आधुनिकता शब्द का चलन बढ़ा है। सच बात तो यही है कि प्राचीनता और आधुनिकता के विभाजन ही कृत्रिम हैं। काल अखण्ड सत्ता है। काल में न कुछ प्राचीन है और न ही आधुनिक। हम मनुष्य ही काल संगति में प्राचीनता या नवीनता के विवेचन करते हैं। प्राचीनता ही अपने अद्यतन विस्तार में नवीनता और आधुनिकता है। हम आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों का ही विस्तार हैं। वे भी अपनी विषम परिस्थितियों में अपने पूर्वजों से प्राप्त जीवन मूल्यों को झाड़ पोछकर अपने समय की आधुनिकता गढ़ रहे थे। ऐसा कार्य सतत् प्रवाही रहता है।

 

विज्ञान और दर्शन के विकास ने देखने और सोचने की नई दृष्टि दी है। इससे प्राचीनता को नूतन परिधान मिले हैं। ऋग्वेद प्राचीनतम ज्ञान कोष है। हम ऋग्वेद के समाज को प्राचीन कहते हैं। ऐसा उचित भी है लेकिन ऋग्वेद में उसके भी पहले के समाज का वर्णन है। ऋग्वेद जैसा मनोरम दर्शन और काव्य अचानक नहीं उगा। निश्चित ही उसके पहले भी दर्शन और विज्ञान के तमाम सूत्र थे। वैदिक पूर्वजों ने अपने पूर्वजों से प्राप्त परंपरा का विकास किया। ऋग्वेद की कविता वैदिक काल की आधुनिकता का दर्शन-दिग्दर्शन है। यही बात उपनिषद् और महाकाव्य काल पर भी लागू होती है। सांस्कृतिक निरंतरता पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।

 

वैदिक काल की निरंतरता का ही विकास हड़प्पा सभ्यता है। इसे स्वतंत्र सभ्यता बताने वाले गल्ती पर हैं। कोई भी सभ्यता या संस्कृति शून्य से नहीं उगती। हड़प्पा की सभ्यता नगरीय सभ्यता है। नगरीय जीवन खाद्यान्न सहित तमाम मूलभूत आवश्यकताओं के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर होते हैं। आधुनिक भारत का समाज प्राचीन भारत के पूर्वजों के सचेत या अचेत परिश्रम का परिणाम है। आधुनिकता में प्राचीनता की चेतना होनी चाहिए लेकिन अंग्रेजी राज के दीर्घकाल में प्राचीनता को अंधविश्वास और पिछड़ापन बताया गया। 

 

भारतीय प्राचीनता और परंपरा से ही आधुनिकता का विस्तार होता तो हम अपने जीवन मूल्यों और संस्कृति के प्रति आग्रही भाव में आधुनिक होते लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमारी आधुनिकता ‘वास्तविक’ नहीं है। यह उधार की है। विदेशी है। यह विदेशी सत्ता के प्रभाव में विकसित हुई है। भारत की स्वाभाविक आधुनिकता के विकास के लिए विवेकानंद, दयानंद, गांधी, डॉ0 हेडगेवार और डॉ0 अम्बेडकर, पं0 दीनदयाल उपाध्याय आदि सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तमाम प्रयास किए। लोकमत का परिष्कार और संस्कार भी हुआ। इसके तमाम सकारात्मक लाभ भी हुए। विश्व सम्पर्क से भारत की समझ भी बढ़ी।

 

भारतीय सम्पर्क से विश्व का भी ज्ञानवर्द्धन भी हुआ लेकिन भारत में लोकमत के संस्कार का काम संतोषजनक नहीं है। हम भारत के लोग बहुधा दुनिया के अन्य देशों की जीवनशैली की प्रशंसा करते हैं। यहां विदेशी सभ्यता को अपनी सभ्यता से श्रेष्ठ बताने वाले भी हैं। संप्रति भारतीय आधुनिकता भारतीय नहीं जान पड़ती। यह प्राचीनता का स्वाभाविक विस्तार नहीं है। इस आधुनिकता में विदेशी जीवनमूल्यों का घटिया प्रवाह है। यह भारत के स्वयं को आत्महीन बना रही है। इसलिए मूल परंपरा से संवाद जरूरी है। उसके पक्ष में लोकमत बनाना और भी जरूरी है।

 

आधुनिकता भारतीय प्राचीनता की ही पुत्री है। प्राचीनता मां है और आधुनिकता पुत्री। माता पूज्य है और पुत्री आदरणीय। दोनो स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं। आधुनिकता को यथासंभव मां के सद्गुणों का अवलम्बन करना चाहिए और देश काल परिस्थिति के अनुसार स्वयं का पुनर्सृजन व विकास भी करना चाहिए। प्राचीनता पिछड़ापन नहीं है। प्राचीनता का विवेचन जरूरी है। प्राचीनता की गतिशीलता में ही हम आधुनिक होते हैं। गति के साथ अनुकूलन करना और अनुकूलन व अनुसरण में ही प्रगतिशील होते जाना काल का आह्वान है।

 

वर्तमान समाज व्यवस्था व जीवन शैली संतोषजनक नहीं है। इसका मुख्य कारण प्राचीनता से अलगाव है। आयातित आधुनिकता ने हमारी स्वाभाविक संस्थाएं भी तोड़ी हैं। परिवार, प्रीति और आत्मीयता के बंधन टूट रहे हैं। असंतोष विषाद बन रहा है और विषाद अवसाद। इसलिए लोकमत निर्माण में लगे सभी विद्वानों, पत्रकारों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ता और मूल्यनिष्ठ राजनेताओं को ध्येयनिष्ठ, स्वाभाविक आधुनिकता के सृजन में जुटना चाहिए।

 

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प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

लखनऊ, उत्तर प्रदेश




 

 




Saturday, November 28, 2020

गरीबी कभी भी शिक्षा में बाधक नहीं 

 गरीबी में जीवन जीने वाले व्यक्तियों को ना तो अच्छी शिक्षा की प्राप्ति होती है ना ही उन्हें अच्छी सेहत मिलती है. भारत में गरीबी देखना बहुत आम सा हो गया है क्योंकि ज्यादातर लोग अपने जीवन की मुलभुत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकते हैं। ]

गरीबी का मुख्य कारण अशिक्षा है और अशिक्षा से अज्ञानता पनपती है. गरीब परिवार के बच्चे उच्च शिक्षा तो छोडिये सामान्य शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पाते हैं. शिक्षा का अधिकार सभी लोगों को है लेकिन गरीबी के कारण ऐसा नहीं हो पाता है. हमारी भारत सरकार गरीब लोगों के लिए कई सारे अभीयान चलाती है लेकिन अशिक्षित होने के कारण गरीबों तक उस अभियान की जानकारी नहीं पहुँच पाती है। 

 

हम जिस युग में जी रहे हैं उसमे आधुनिक तकनीकी हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है जिसे सिखने या इस्तेमाल करने के लिए शिक्षा की अहमियत होती है. शिक्षा हम सभी के उज्जवल भविष्य के लिए एक बहुत ही आवश्यक साधन है. हम अपने जीवन में शिक्षा के इस साधन का उपयोग करके कुछ भी अच्छा प्राप्त कर सकते हैं. ये तो हम हमेसा से सुनते आये हैं की शिक्षा पर दुनिया के हर एक बच्चे का अधिकार है. देश के विकास के लिए प्रत्येक बच्चे का शिक्षित होना बेहद जरुरी है।

 

हमारे देश की हालत को सुधारने का एक मात्र रास्ता है शिक्षा. गरीबी एक ऐसी समस्या है जो हमारे पुरे जीवन को प्रभावित करने का कार्य करती है. गरीबी एक सामाजिक समस्या है जो इंसान को हर तरीके से परेशान करती है. इसके कारण एक व्यक्ति का अच्छा जीवन, शारीरिक स्वास्थ्य, शिक्षा स्तर आदि जैसी सारी चीजें ख़राब हो जाती है. आज के समय में गरीबी को दुनिया के सबसे बड़ी समस्याओं में से एक माना जाता है।

 

गरीब लोगों में जागरूकता और जानकारी का अभाव तथा उनका गैर प्रगतिशील नज़रिया एक ऐसा मुलभुत कारण है जिसे गरीबी के लिए जिम्मेदार माना जाता है. जानकारी तथा जागरूकता की कमी के कारण गरीब लोग सरकारी कार्यक्रमों का लाभ उठाने में असमर्थ रहते हैं. इसलिए प्राथमिक शिक्षा भी गरीबों के लिए बहुत ही जरुरी होता है।

 

बेहतर शिक्षा सभी के लिए जीवन में आगे बढ़ने और सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत आवश्यक है. यह हममें आत्मविश्वास विकसित करने के साथ ही हमारे व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायता करती है. आधुनिक युग में शिक्षा का महत्व क्या है ये गरीब परिवार और पिछड़ी जाती के लोगों को बताना अति आवश्यक है तभी वो अपने बच्चों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करेंगे।

 

शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए बहुत सी सरकारी योजनाएं चलायी जा रही है ताकि सभी की शिक्षा तक पहुँच संभव हो. ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को शिक्षा के महत्व और लाभों को दिखाने के लिए टीवी और अखबारों में बहुत से विज्ञापनों को दिखाया जाता है क्योंकि पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में लोग गरीबी और शिक्षा की ओर अधूरी जानकारी के कारण पढाई करना नहीं चाहते हैं।

 

सर्व शिक्षा अभियान का उद्देश्य सभी को शिक्षित करके उन्हें अपने पैर पर खड़ा करना है जिससे समाज का कल्याण हो सके. इसके अलावा बालक बालिका का अंतर समाप्त करना, देश के हर गांव शहर में प्राथमिक स्कूल खोलना और मुफ्त शिक्षा प्रदान करना, निशुल्क पाठ्य पुस्तकें, स्कूल ड्रेस देना, शिक्षकों का चयन करना, उन्हें लगातार प्रशिक्षण देते रहना, स्कूलों में अतिरिक्त कक्षा का निर्माण करना आदि सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्य में शामिल हैं। बालिका छात्रों तथा कमजोरवर्गों के बच्चों पर विशेष ध्यान दिया गया है. डिजिटल दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में कम्प्यूटर शिक्षा भी प्रदान की जाएगी।

 

स्कूली शिक्षा बिना अमीरी गरीबी का भेदभाव किये सभी बच्चों को मिलनी चाहिए क्योंको ये सभी के जीवन में एक महान भूमिका निभाती है. शिक्षा को प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा जैसे तिन प्रभागों में विभाजित किया गया है. शिक्षा के सभी भागों का अपना महत्व और लाभ है. प्राथमिक शिक्षा आधार तैयार करती है जो जीवन भर मदद करती है।

 

माध्यमिक शिक्षा आगे के अध्ययन के लिए रास्ता तैयार करती है और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा भविष्य और पुरे जीवन का अंतिम रास्ता तैयार करती है. उचित शिक्षा भविष्य में आगे बढ़ने के बहुत सारे रास्ते बनाती है. यह हमारे ज्ञान स्तर, तकनिकी कौशल और नौकरी में अच्छी स्थिति को बढाकर हमें मानसिक, सामाजिक और बौद्धिक रूप से मजबूत बनाता है। पहले भारत की शिक्षा प्रणाली बहुत सख्त थी और सभी वर्गों के लोग अपनी इच्छा के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम नहीं थे. ज्यादा पैसे लगने की वजह से विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेना बहुत कठिन था. लेकिन अब शिक्षा प्रणाली में बदलाव किये गए हैं जिससे शिक्षा में आगे बढ़ना सरल और आसान हो गया है।

 

शिक्षा के कारण ही कई तरह के आविष्कार हुए हैं. इन अविष्कारों से मनुष्य का जीवन और भी आसान हो गया है. अच्छी शिक्षा की वजह से अच्छे अच्छे इंजीनियर, डाॅक्टर, वैज्ञानिक एवं व्यवसायी आदि बनते हैं, जो समाज को काफी कुछ देते हैं जिनसे अनगिनत लोगों को कई फायदे मिलते हैं। शिक्षा के वजह से ही व्यापार का विकास होता है और देश की आय में बढ़ोतरी होती है. अच्छी शिक्षा जीवन में बहुत से उद्देश्यों को प्रदान करती है जैसे व्यक्तिगत उन्नति को बढ़ावा, सामाजिक स्तर में बढ़ावा, सामाजिक स्वस्थ में सुधार, आर्थिक प्रगति, राष्ट्र की सफलता, जीवन में लक्ष्यों को निर्धारित करना, हमें सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूक करना और पर्यावरण समस्याओं को सुलझाने के लिए हल प्रदान करना जैसे कई सारे मुद्दों के बारे में सोचने समझने की काबिलियत प्रदान करता है।

 

समाज में भ्रष्टाचार, अशिक्षा तथा भेदभाव जैसे ऐसी समस्याएं हैं जो आज के समय में विश्व भर को प्रभावित कर रही है. इसे देखते हुए हमें इन कारणों की पहचान करनी होगी और इनसे निपटने की रणनीति बनाते हुए समाज के विकास को सुनिश्चित करना होगा क्योंकि गरीबी का सफाया समग्र विकास के द्वारा ही संभव है।

 

दिल की आवाज सुनो राही

दिल की आवाज  सुनो  राही

बंद   न   करना   आवाजाही

 

आपस  में  गर टकराए कभी

बिन झगड़ा क्षमा करना तभी

 

झगड़ा कर कौन खुश हुआ है

जीत  में  गम  दबाए  हुआ  है

 

रात  बिलखती  ही  रहती  है

दिन   सहमा  हुआ  रहता  है

 

अफसोस  रहता  है  उम्र  भर

दिल ने कहा था झगड़ा न कर

 

बात मान लिया  होता  अगर

तो  ऐसे  ना  रहता  उम्र  भर

 

अब  जीना  दुश्वार  लगता है

मरने  से  भी   जी  डरता  है

 

उधेड़बुन   में   है    ये    राही

दिल की आवाज  सुनो  राही ।

                 ✍️ ज्ञानंद चौबे

                  केतात , पलामू

                       झारखंड

भारतीय संविधान की गौरव गाथा 

 डॉ. भीम राव आंबेडकर को भारतीय संविधान का निर्माता माना जाता है. निःसंदेह उन्होंने समानुभूति के साथ संविधान को रूप, आकार, स्वरूप, चरित्र प्रदान किया. लेकिन वास्तविकता यह है कि संविधान के निर्माण में केवल डॉ. भीम राव आंबेडकर की ही भूमिका नहीं थी. भारत का संविधान एक साझा पहल का नतीजा है। ]


भरतीय परिप्रेक्ष्य से अक्सर हमारे सामने यह तथ्य आता है कि भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीम राव आंबेडकर हैं, लेकिन यह एक अधूरा तथ्य है. डॉ. आंबेडकर ने भारत के संविधान में न्याय, बंधुत्व और सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र के भाव को स्थापित करने में केन्द्रीय भूमिका जरूर निभाई थी, किन्तु वे संविधान के अकेले निर्माता या लेखक नहीं थे।


जहां तक संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया का सवाल है, इसमें व्यापक रूप से संविधान सभा के कई सदस्यों ने ऐसी भूमिका निभाई थी, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. मसलन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव पेश किया था, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने मूलभूत अधिकारों और अल्पसंख्यक समुदायों के हितों की सुरक्षा के लिए बनाई गई समिति का समन्वय किया था. आदिवासी समाज के हकों पर जयपाल सिंह ने बहुत अहम भूमिका निभाई, तो वहीं इसे भारतीय दर्शन से जोड़ने में डॉ. एस. राधाकृष्णन की भूमिका बहुत अहम रही।


29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने मसौदा (प्रारूप) समिति के गठन का निर्णय लिया. इस समिति की भूमिका के दायरे को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि "परिषद् (संविधान सभा) में किए गए निर्णयों को प्रभाव देने के लिए वैधानिक परामर्शदाता (बी एन राव) द्वारा तैयार किए गए भारत के विधान (संविधान) के मूल विषय की जांच करना, उन सभी विषयों के जो उसके लिए सहायक हैं या जिनकी ऐसे विधान में व्यवस्था करनी है और कमेटी द्वारा पुनरावलोकन किए हुए विधान के मसौदे के मूल रूप को परिषद् के समक्ष विचारार्थ उपस्थित करना।


यह भी एक सच है कि डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में संविधान का अंतिम मसौदा प्रस्तुत करते हुए जो कहा, उसे भारत ने भुला दिया है. उन्होंने कहा था कि “जो श्रेय मुझे दिया जाता है, उसका वास्तव में मैं अधिकारी नहीं हूं. उसके अधिकारी बी एन राव हैं, जो इस संविधान के संवैधानिक परामर्शदाता है. और जिन्होंने मसौदा समिति के विचारार्थ संविधान का एक मोटे रूप में मसौदा बनाया. कुछ श्रेय मसौदा समिति के सदस्यों को भी मिलना चाहिए, जिन्होंने 141 दिन तक बैठकें कीं और उनके नए सूत्र खोजने के कौशल के बिना तथा विभिन्न दृष्टिकोणों के प्रति सहनशील तथा विचारपूर्ण सामर्थ्य के बिना इस संविधान को बनाने का कार्य इतनी सफलता के साथ समाप्त न हो पाता।


सबसे अधिक श्रेय इस संविधान के मुख्य मसौदा लेखक एस.एन. मुखर्जी को है, बहुत ही जटिल प्रस्थापनाओं को सरल से सरल तथा स्पष्ट से स्पष्ट वैध भाषा में रखने की उनकी योग्यता की बराबरी कठिनाई से की जा सकती है. इस सभा के लिए वे एक देन स्वरूप थे. उनकी सहायता न मिलती तो इस संविधान को अंतिम स्वरूप देने में इस सभा को कई और वर्ष लगते।


यदि यह संविधान सभा विभिन्न विचार वाले व्यक्तियों का एक समुदाय मात्र होती, एक उखड़े हुए फर्श के समान होती, जिसमें हर व्यक्ति या हर समुदाय अपने को विधिवेत्ता समझता तो मसौदा समिति का कार्य बहुत कठिन हो जाता. तब यहां सिवाए उपद्रव के कुछ नहीं होता. सभा में कांग्रेस पक्ष की उपस्थिति ने इस उपद्रव की संभावना को पूरी तरह से मिटा दिया. इसके कारण कार्यवाहियों में व्यवस्था और अनुशासन दोनों बने रहे. कांग्रेस पक्ष के अनुशासन के कारण ही मसौदा समिति यह निश्चित रूप में जानकर कि प्रत्येक अनुच्छेद और प्रत्येक संशोधन का क्या भाग्य होगा, इस संविधान का संचालन कर सकी. अतः इस सभा में संविधान के मसौदे के शांत संचालन के लिए कांग्रेस पक्ष ही श्रेय की अधिकारी है।


यदि इस पक्ष के अनुशासन को सब लोग मान लेते तो संविधान सभा की कार्यवाही बड़ी नीरस हो जाती. यदि पक्ष के अनुशासन का कठोरता से पालन किया जाता तो यह सभा "जी हुज़ूरों" की सभा बन जाती. सौभाग्यवश कुछ द्रोही थे. श्री कामत, डॉ. पी.एस. देशमुख, श्री सिधावा, प्रो. सक्सेना और पंडित ठाकुर दास भार्गव थे. इनके साथ-साथ मुझे प्रो. के.टी. शाह और पंडित हृदयनाथ कुंजरू का भी उल्लेख करना चाहिए. जो प्रश्न उन्होंने उठाए, वे बड़े सिद्धान्तपूर्ण थे. मैं उनका कृतज्ञ हूं. यदि वे न होते तो मुझे वह अवसर नहीं मिलता, जो मुझे इस संविधान में निहित सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिए मिला और जो इस संविधान के पारित करने के यंत्रवत कार्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण था।


चूंकि भारतीय संविधान के बारे में यह कहा जाता है कि यह ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था के तहत बनाए गए भारत शासन अधिनियम (1935) की प्रतिलिपि है. इसके लिए डॉ. भीम राव आंबेडकर की सभा में खूब आलोचना भी हुई. इस विषय में पंडित बाल कृष्ण शर्मा ने कहा कि इस विषय पर जो कुछ मैं कह सकता हूं, वह यह कि मसौदा समिति, डॉ. आंबेडकर और उन सबके लिए जिन्होंने डॉ. आंबेडकर का साथ दिया, यह गौरव की बात है कि वे संकीर्णता की किसी भी भावना से प्रेरित नहीं हुए. आखिर हम एक संविधान बना रहे हैं. हमारे सामने आधुनिक प्रवृत्तियां, आधुनिक कठिनाइयां और आधुनिक समस्याएं हैं. अपने संविधान में हमें इन सबके लिए उपबंध करना हैं और इस कार्य के लिए यदि हमने भारत शासन अधिनियम का सहारा लिया, तो हमने कोई पाप नहीं किया है।


संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 26 नवम्बर 1949 को, यानी उस दिन, जब संविधान आत्मार्पित किया गया, सभा की कार्यवाही का समापन करते हुए कहा कि "संविधान के संबंध में जिस रीति को अपनाया, वह यह थी कि सबसे पहले "विचारणीय बातें" निर्धारित की, जो लक्ष्य मूलक संकल्प के रूप में थी, जिसके ओजस्वी भाषण द्वारा पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था और जो अब हमारे संविधान की प्रस्तावना है. इसके बाद संविधानिक समस्याओं के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए कई समितियां नियुक्त की गईं।


भारत का संविधान एक साझा, प्रतिबद्ध और मूल्य आधारित प्रक्रिया से निर्मित विधान है. इसमें विचारों, समुदायों और संस्कृतियों के साथ-साथ विविध राजनीतिक धाराओं की सक्रिय भागीदारी रही है. यह संविधान केवल राज्य व्यवस्था के नियम ही निर्धारित नहीं करता है, बल्कि व्यक्तियों की सामजिक, राजनीतिक, आर्थिक आज़ादी की व्याख्या भी करता है. ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि यह एक सहभागी और सहिष्णु प्रक्रिया के साथ बनाया गया संविधान था।


Wednesday, November 18, 2020

भारतीय संस्कृति में पर्व एवं त्योहार एकता के प्रतीक हैं 

जीवन को हंसी खुशी व रिश्तों को मजबूत बनाने में त्योहारों का अहम् योगदान है। भारत त्योहारों का देश है। साल के हर दिन कोई न कोई त्योहार यहां मनाया जाता है। त्योहार खुशियां बांटने और पूरे समाज को जोड़ने का काम करते हैं। ईद , तीज ,गणेश चतुर्थी ,कृष्ण जन्माष्टमी ,दशहरा ,होली, दीवाली ,क्रिसमस ,छठपूजा ,ओणम ,महाशिवरात्रि, नवरात्री ,मकर संक्रांति, पोंगल, लोहड़ी, कुम्भ मेला आदि।


अनगिनत त्योहर और मेले हमें एकता और भाईचारे का सन्देश देते है। त्योहारों पर लगने वाले मेले कौमी एकता और सांप्रदायिक सोहाद्र के अनूठे उदहारण है। इन पर्वों और मेलों में समाज के सभी वर्गों के लोग शामिल हो कर दुनियां को भारत की बहुरंगी संस्कृति झलक दिखाते है।
मेले एवं त्योहार हमारी समृद्ध संस्कृति, परम्परा एवं रीति-रिवाजों के परिचायक हैं। विविधता में एकता के प्रतीक मेले और उत्सवों के आयोजन से हमारी संस्कृति को संजोने और सहेजने को बल मिलता है, साथ ही साथ नई पीढ़ी को हमारी स्मृद्ध संस्कृति एवं परम्पराओं का भी ज्ञान होता है। मेलों के आयोजन से भाईचारा, सद्भाव कायम रहता है। मेले ग्रामीण समाज को जीवंत बनाते है । मेलों के माध्यम से अनेक प्रकार की वस्तुये एक स्थान पर बिकने आती हैं और साथ ही दर्शकों मनोरंजन होता है।


जब किसी एक स्थान पर बहुत से लोग किसी सामाजिक ,धार्मिक एवं व्यापारिक या अन्य कारणों से एकत्र होते हैं तो उसे मेला कहते हैं। मेले और त्योहार भारत का एक बड़ा आकर्षण है। यह इस देश की जीवंत संस्कृति को तो दिखाते ही हैं साथ ही यह भारत के पर्यटन उद्योग में भी बहुत खास जगह रखते हैं। भारत की समृद्ध संस्कृति के असली रंग दिखाने के अलावा ये मेले और त्योहार देश में सैलानियों के आने के लिए आकर्षण पैदा करने में बहुत महत्व रखते हैं। ये त्योहार देश के लोगों के जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। मेले भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। वास्तव में एक दूसरे के निकट आने और आपसी सहयोग और सौहार्द की भावना ने मेलों को जन्म दिया जिसकी झलक वर्तमान भारत में भी देखी जा सकती है।


भारत मेलो और तीज त्योहारों का देश है। यहाँ दुनियाँ के सबसे ज्यादा त्योहार मनाये जाते है। यही पर दुनियाँ में सबसे ज्यादा मेलो का आयोजन होता है । इनमे से कुछ मेले तो दुनिया के सबसे बड़े व विशाल मेलो में शुमार है जिन्हें देखने पूरी दुनिया से हर साल लाखों लोग भारत आते है । भारतीय सभ्यता और संस्कृति में मेलों का विशेष महत्व है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तक न जाने कितने प्रकार के मेले भारत में लगते हैं। इन सभी मेलों का अपना अपना महत्व है। मेलों को संस्कृति और रंगीन जीवन शैली का पैनोरमा कहा जा सकता है। इन मेलों में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप का अद्वितीय और दुर्लभ सामजस्य दिखाई देता है, जो कहीं और नहीं दिख पाता। मेले न केवल मनोरंजन के साधन हैं, अपितु ज्ञानवर्द्धन के साधन भी कहे जाते हैं। प्रत्येक मेले का इस देश की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं से जुड़ा होना इस बात का प्रमाण हैं कि ये मेले किस प्रकार जन मानस में एक अपूर्व उल्लास, उमंग तथा मनोरंजन करते हैं।


मेला स्थानीय लोक संस्कृति, परंपरा और लोक संस्कारों के विविध रूपों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है। भारत में मेले, लोकसंस्कृति और परंपरा के माध्यम से आस्था, उमंग और उत्सव की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। मेलों का आयोजन प्राय किसी पर्व या त्योहार के अवसर पर किया जाता है। मेला हमारे समाज को जोड़ने तथा हमारी संस्कृति और परंपरा को सुरक्षित रखने में अहम् भूमिका निभाता है। यह उत्पादकों और खरीददारों के लिए बाजार भी उपलब्ध कराता है। खाने-पीने से लेकर मौज-मस्ती की सभी चीजें मेले को आकर्षक बनाती हैं। मेलों में कहीं लोकगीतों की लहरियां हमारे दिल के तार को झंकृत करती हैं तो कहीं लोकनृत्य के माध्यम से हमारे तन-बदन में थिरकन पैदा होने लगती है।